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दिखावा तन ढंकने से ज्यादा जरूरी है…

दिखावा तन ढंकने से ज्यादा जरूरी है…

by धर्मेन्द्र पाण्डेय
in अक्टूबर-२०२२, फ़ैशन, विशेष, सामाजिक
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भौतिक जीवन हम सब पर इतना अधिक हावी हो चुका है कि हमने शरीर ढंकने वाले वस्त्रों को भी शानोशौकत की वस्तु बना लिया है। महंगे कपड़े और उनके दुहराव से बचने की प्रवृत्ति बेमतलब का बोझ लाद रही है। आवश्यकता है कि पश्चिम के अनुकरण के नाम पर बहने की बजाय भारतीय परिवेश और मौसम के अनुकूल कपड़ों का चयन करें।

जम्बू द्वीपे भारत खंडे एक पुरातन कहावत है – कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। यह कहावत अत्यंत व्यापकता लिए हुए है, पानी और बानी से लेकर अन्य सभी क्रिया कलापों तक। इसकी एक पगडंडी कपड़ों की विशेषता तक भी जाती है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेश हो, जिसकी अपनी अलग वेशभूषा न हो। यह पहनावा उस राज्य का सूचक मात्र ही नहीं होता, बल्कि वहां की जलवायु और संस्कृति का द्योतक भी है। कच्छ के रण और राजस्थान की मोटी पगड़ियां बिना कहे बता देती हैं कि वहां रहने वाले को रेत और गर्मी से बचाने के लिए बनी हैं। महाराष्ट्र का पहनावा वहां के पठारी क्षेत्र के अनुकूल है। हर क्षेत्र में मौसम के अनुसार भी कपड़े का चयन और खानपान बदलता रहता है। इन सभी बहुरंगी संस्कृतियों को आपस में समेटे भारत दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक विविधता वाला देश बनता है। राजस्थान की किसी महिला को जीन्स पहना देंगे तो वहां की गरमी में क्या यह बर्दाश्त योग्य होगा? कभी नहीं। उनकी चोली पीठ पर पूरी खुली होती है ताकि शरीर को पूरी तरह हवा प्राप्त हो सके। झारखंड, छत्तीसगढ़ में धान के खेतों में घुटने भर पानी में कार्य करने वाली महिलाएं हों या समुद्र से मछली मारने के काम में अपने परिवार के पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करने वाली कोली महिलाएं। अगर एड़ी तक पहनने वाले कपड़े पहनेंगी तो कितना समय पानी में काम कर पाएंगी? जाहिर सी बात है कि उनका पहिरावा उनकी कार्यप्रणाली को सूट करता है।

पर अब समय तथाकथित तौर पर आधुनिक हो गया है। धोती-कुर्ता पहनने वाला गंवार और जीन्स पहनने वाला ‘कूल’ समझा जाता है। विशुद्ध भारतीय तरीके से साड़ी और सलवार-कुर्ता पहनने वाली महिला पिछड़ी हुई मानी जाती है, उसके द्वारा अर्जित की गई तमाम शैक्षणिक डिग्रियों के बावजूद। अगर वही महिला उन्हीं कपड़ों को थोड़ा अश्लील तरीके से शरीर पर लपेट ले तो आधुनिक ‘फेमिनिस्ट’ बन जाएगी। जो फटी जीन्स किसी समय यूरोप में मजदूरों को नैराश्य और हीनभाव से बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल की गई थी, आज यहां की सड़कों पर अश्लीलता परोसने के लिए इस्तेमाल की जाती है। चिलचिलाती गर्मियों में भी इस बोरे को ढोना आधुनिकता है। हमें पता है कि यह नुकसानदेह है, परंतु बाजारवाद की आंधी में हम जबरदस्ती तथाकथित सभ्य बनाए जा रहे हैं।

क्या आपने कभी यह महसूस किया है कि आपको हर साल नए कपड़े खरीदने पड़ते हैं, जो एक साल में कुछ ही दिन इस्तेमाल करने के बाद पुराने हो जाते हैं। कपड़ा खरीदना भी स्टेटस सिम्बल बन चुका है और हम सभी इस अंधी दौड़ का हिस्सा हैं। फैशन हर फिल्म के साथ बदल जाता है, धुलने के बाद कपड़ों की चमक गायब हो जाती है, नए कपड़े एक मजबूरी बन जाते हैं। अपने घर में ही पता करें तो पिताजी और दादाजी के पास ऐसे कपड़े होंगे, जिसका उन्होंने 2-4 साल नहीं बल्कि दस साल तक प्रयोग किया होगा। लेकिन क्या हम आज यह कल्पना कर सकते हैं कि हम एक ही कपड़े का प्रयोग 2 साल से अधिक करेंगे। सम्भवतः नहीं! लेकिन हमारे फैशनसेंस में हुए इन बदलावों का कारण क्या है? अगर हम अपने आसपास नजर डालें तो बाकी क्षेत्रों से ज्यादा तेजी से परिधान बाजारवाद का शिकार हुआ है। फास्ट फैशन और स्लो फैशन, फैशन की दुनिया के दो ट्रेंड हैं। फास्ट फैशन मॉडल जहां बड़े पैमाने पर उत्पादन और लाभ की मंशा से कार्य करता है, वही स्लो फैशन मॉडल इसके विपरीत परम्परागत हस्तशिल्प को संरक्षित रखने के उद्देश्य से कार्य करता है। फास्ट फैशन मॉडल पूरी तरह से बाजारवाद से प्रभावित होता है, जिसके अंतर्गत प्रचार से लेकर उत्पादन तक सब कुछ बाजार को देखकर होता है, जबकि स्लो फैशन मॉडल सांस्कृतिक संरक्षण को बढ़ावा देता है और बाजारवाद को संरक्षण देने के खिलाफ है।

वायु और प्रकाश मानव जीवन के लिये आवश्यक पदार्थ हैं। एक तो आज यों ही मनुष्य घरों में बंद होकर इन दोनों प्राकृतिक तत्वों से दूर हो गया है। दूसरे उसे बाहर आने-जाने पर थोड़ा बहुत संसर्ग प्राप्त हो सकता है उसकी सम्भावना शरीर पर धारण किये जाने वाले वस्त्रों ने क्षीण कर दी है। आज की सभ्यता तथा सामाजिक व्यवस्था में वस्त्र आवश्यक है। किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं है कि शरीर को वस्त्रों से इस बुरी तरह जकड़े रहा जाये कि वह वायु तथा प्रकाश के स्पर्श तक के लिये तरस जाये। यों तो निःसर्ग ने मनुष्य को वस्त्रहीन पैदा किया है और उस दृष्टिकोण से वस्त्रावरण उसके लिये कृत्रिम तथा अस्वाभाविक आवश्यकता है। यह अवश्य है कि आज के समय में किसी को दिगम्बर अथवा एक लंगोटी लगा कर घूमने की राय जरूर नहीं दी जा सकती, तथापि वस्त्रों की इस अनावश्यक बहुतायत का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। गर्म देशों अथवा गर्मी की ऋतु में सूती वस्त्र और ठंड में ऊनी वस्त्र पहनना बुरा नहीं और न अधिक ठंड पड़ने पर शारीरिक स्थिति के अनुसार एक से अधिक वस्त्रों पर आपत्ति की जा सकती, किन्तु शरीर रक्षा के दृष्टिकोण से न पहनकर शान-शौकत के लिये वस्त्र पर वस्त्र पहनना अवश्य आपत्तिजनक है।

वस्त्रों का देश-काल के अनुसार ही पहनना ठीक है। हम भारतीयों के लिए भारतीय पहनावा उचित तथा लाभकारी है। आज शिक्षित तथा कर्मचारी वर्ग ही नहीं साधारण मजदूर पेशा और अनपढ़ लोग भी पतलून से कम बात नहीं करते। इसे मानसिक गुलामी के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? जबकि घोर दासता के समय देशी पोशाक का महत्व रखने वालों के प्रेरक उदाहरण मौजूद हैं। यदि प्रकृति, स्वास्थ्य तथा आवश्यकता के अनुसार देखा जाये तो पहनावे के विषय में भारतीय मनीषियों की मान्यता बहुत प्रशंसनीय तथा हितकर है। वे प्रकृति के इस नियम को जानते थे कि शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से वायु तथा सूर्य के प्रकाश का हमारी देह से जितना सम्पर्क रहेगा उतना ही लाभदायक होगा। इसलिये उनका उद्देश्य, लज्जा निवारण के लिये वस्त्र-धारण करना रहता था। प्राचीन काल में वे एक अधोवस्त्र टखनों तक और ऊपर एक उतना बड़ा ही उत्तरीय डाले रहते थे। बस इससे अधिक वे कुछ न पहनते थे और न ओढ़ते थे। जन-साधारण भी अधिक से अधिक अंगरखा, धोती और  पगड़ी पहनते थे जो काफी ढीले-ढाले और आरामदेह रहते थे। यह वस्त्र न केवल स्वास्थ्यदायक ही होते थे वरन् सस्ते, सुलभ और जल्दी-जल्दी धोये जा सकने के योग्य भी होते थे। जाड़ों में वे अपेक्षाकृत कुछ मोटे अथवा ऊनी वस्त्र पहन लेते थे। यही पहनावा भारतीय जलवायु तथा देश की आर्थिक स्थिति के अनुकूल है, और यही सर्व साधारण को पहनना भी चाहिए। क्योंकि बाजारवाद की तंग गलियों की घुटन से बचने का यह सही तरीका है।

यह व्यक्ति ही नहीं पूरे राष्ट्र के लिए दुर्भाग्य की बात है कि वस्त्रों को एक अनिवार्य आवश्यकता मान लिया गया है और उसे इतना महत्व दे दिया गया है कि भोजन के समकक्ष हो गई है। बहुत से लोग तो उसे भोजन से भी अधिक महत्व देते हैं और वस्त्रों की शान-शौकत के लिये भोजन का स्तर गिरा देते हैं। उनका सिद्धांत होता है कि खाया-पिया कौन देखता है? इज्जत कपड़ों से बनती है। भोजन के नाम पर रूखी-सूखी भले खा लें किन्तु समाज में अच्छे कपड़े ही शोभा देते हैं। रौब खाने-पीने का नहीं कपड़ों का ही पड़ता है। कहना न होगा कि इज्जत की यह कितनी गलत मान्यता है। जो वस्त्र अस्वाभाविक हैं, अस्वास्थ्यकर हैं, उन्हें तो इतना महत्व दिया जाये और भोजन जो कि शरीर से लेकर आध्यात्मिक उन्नति का मूल आधार है वह गौण माना जाये। इसे विपरीत बुद्धि के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? अगर अपनी संस्कृति को बचाना है तो उसके महत्त्वपूर्ण कारकों मे से एक वस्त्र के विषय में भी सोचना होगा कि वह बाजार की भौतिक अनुशंसाओं से बची रहे। हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को बताना ही होगा कि, तुम जिनकी वेशभूषा का अनुग्रह कर रहे हो उनका झुकाव तुम्हारी प्राचीन परम्पराओं की ओर है। वे अब पूरब के उगते सूरज की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं ताकि उसकी पुरातन लालिमा में डूब सकें। क्योंकि अब वे भौतिक बाजारवाद से ऊब चुके हैं।

 

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