*****रमेश पतंगे******
इरफान हबीब अपने लेख में कहते हैं कि ‘राष्ट्र ’ नामक संकल्पना हाल ही की है। पहले यह संकल्पना विकसित हो रही थी कि भारत एक देश है। परंतु अंग्रेजों के शासन के कारण ‘राष्ट्र ’रूपी संकल्पना विकसित हुई। द .अफ्रीका में रहते हुए म . गांधी ने यह संकल्पना स्वीकार की थी कि भारत सभी धर्मों को माननेवालों का देश है।
चुनावों की घोषणा से लेकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने तक रा .स्व . संघ आवश्यकता से अधिक चर्चा का विषय रहा। संघ के आलोचक यह लिखने और कहने लगे कि अब नरेंद्र मोदी का शासन नागपुर के रिमोट कंट्रोल से चलेगा। नागपुर में संघ का मुख्यालय है तथा मा . सरसंघचालक जी के पत्र व्यवहार का पता भी वही है। केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद कुछ लोग संघ के लिए सौम्य भाषा का प्रयोग करने लगे हैं। ऐसे लोगों ने भी संघ को समझने की उत्सुकता प्रदर्शित की है जिनका दलीय राजनीति से कोई संबंध नहीं हैै। येे लोग संघ के कार्यकर्ताओं से संपर्क करते हैं और संघ की शाखाओं या अन्य कार्यक्रमों में भाग लेना शुरू करते हैं। जब संघ की चर्चा हो रही है तो यह जानना महत्वपूर्ण है कि संघ क्या है। इस लेख के माध्यम से हम वह प्रयास करेंगे।
आलोचक
संघ के बारे में एक हास्यास्पद बात यह है कि संघ के आलोचक ही संघ की व्याख्या करते हैं, उसी व्याख्या के अनुसार वे निष्कर्ष निकालते हैं और अपने मत रखते हैं। वे मत कुछ इस प्रकार होते हैं कि संघ देश के लिए बहुत ही खतरनाक संगठन है, मोदी के माध्यम से भारत की राजनीति की डोर एक प्रकार से संघ के हाथ में आ गई है और अब उसका दुरुपयोग किया जाएगा, आदि। अभी तक यही मत सामने आए हैं और आगे भी आते रहेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ही तत्व को मानने वाला संगठन है। संघ के पास ढेर सारे वैचारिक सिद्धांत नहीं हैं। संघ का एक ही तत्व है और वह है ‘यह हिंदू राष्ट्र ’ है। इसका एक उप सिद्धांत यह है कि हिंदू समाज इस देश का राष्ट्रीय समाज है। यह समाज जाति, भाषा, पंथ, प्रांत में विभक्त है। संकुचित स्वार्थ के कारण वह अपनी राष्ट्रीय पहचान भूल गया है। संघ का कार्य राष्ट्रीय हिंदू समाज को उसकी पहचान कराना है। संघ का कार्य हिंदू व्यक्ति के मन में इस भाव का निर्माण करना है कि ‘मैं पहले हिंदू हूं, इस राष्ट्र का एक अंग हूं, इस समाज का एक अंग हूं। यह काम केवल भाषण देकर, लेखन कार्य करके या ग्रंथ लिखकर नहीं होगा। इसके लिए प्रत्येक हिंदू के मन पर रोज संस्कार होना जरूरी है। इसी उद्देश्य से संघ की शाखा लगती है। संघ का कार्य इन्हीं शाखाओं के माध्यम से चलता है।
हास्यास्पद सोच
संघ का कार्य समझना बहुत आसान है। संघ में केवल बौद्धिक डींगें नहीं मारी जाती। उसके विचारों में क्लिष्टता नहीं होती। इसलिए कई लोगों को संघ का कार्य हास्यास्पद और बचकाना लगता है। अत : संघ को ‘आधी चड्ढी वाला ’ कहकर च़िढाया भी जाता है। जो खुद को बहुत बद्धिमान समझते हैं, विद्वान समझते हैं, विभिन्न तत्व ज्ञान का अध्ययन करने वाला समझते हैं वे संघ की बौद्धिक चीरफा़ड करना शुरू कर देते हैं। उनकी बुद्धि का प्रताप कुछ ऐसा होता है कि उनकी सोच हास्यास्पद लगती है। उनके तर्कवाद के और बुद्धिवाद के कुछ उदाहरण देखने लायक होते हैं। हिंदू राष्ट्र संकल्पना का मुख्य विरोध कम्युनिस्ट विचारधारा के विचारक करते हैं। अमर्त्य सेन, रोमिला थापर, इरफान हबीब इत्यादि नाम अकादमिक क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने कई ग्रंथ और लेख लिखे हैं। इसी विचारधारा के तपन बसु, सुमित सरकार, प्रदीप दिज्जता, तनिका सरकार, संबुद्ध सेन ने ‘खाकी शॉर्ट एंड सेफरॉन फ्लैग ’ नामक पुस्तक लिखी है। अमर्त्य सेन ने ‘हिंदुत्व मूवमेंट एंड रिइन्वेंटिंग ऑफ हिस्ट्री ’ नामक किताब लिखी है। लिटिल मैगजीन में ‘द नेशन दैट इज इंडिया ’ शीर्षक से इरफान हबीब का एक लेख है। इन सभी का आधार लेकर उनका जवाब देना छोटे लेख में संभव नहीं है। उनके कहने का सारांश समझना होगा।
अमर्त्य सेन कहते हैं ‘ ढर्हीेीसह ींहशळी रींींशािींी ींे शपर्लेीीरसश रपव शुश्रिेळीं ीशरिीरींळीा, ींहश कळपर्र्वीींींर र्ोींशाशपीं हरी शपींशीशव ळपींे र लेपषेीपींरींळेप ुळींह ींहश ळवशर ेष खपवळर ळीं ीशश्रष . ढहळी ळी पेींहळपस ीहेीीं ेष र र्ीीीींरळपशव शषषेीीं ींे ाळपळर्रींीीळूश ींहश लेरीव ळवशर ेष र श्ररीसश खपवळरर् – िीेीव ेष ळींी हशींशीेवेु रिीीं रपव ळींी र्श्रिीीरश्रळीीं िीशीशपीं – रपव ींे ीशश्रिरलश ळीं लू ींहश ीींराि ेष र ीारश्रश्र खपवळर, र्लीपवश्रशव र्रीेीपव र वीरीींळलरश्रश्रू वेुपीळूशव र्ींशीीळेप ेष कळपर्वीळीा .
इसका भावार्थ यह है कि, हिंदुत्व आंदोलन का संघर्ष ही भारत की संकल्पना से है। ये सारे प्रयत्न व्यापक भारत का लघु रूप करने के लिए ही हैं। यह भारत की विविधता को मिटाकर उसे संकुचित करने का प्रयास है। यह संघर्ष एक विशाल और लघु भारत का है।
खाकी शॉर्ट और सेफरन फ्लैैग वाले कहते हैं ‘ढहश िीळारीू रपव ोीीं रिीरवेुळलरश्र लशळपस ींहश षरलीं ींहरीं ींहश ठडड रपव ळींी रषषळश्रळरींशी र्ींीीाशिीं कळपर्वीळीा र्ेींशी ेींहशी ीशश्रळसळेपी षेी ळींी शीीशपींळरश्र ींेश्रशीरपलश – िीेषशीीळपस ळींी ळपींशीपरश्र लरींहेश्रळलळींू – र्लीीं लेालळपश ळीं ुळींह लेाश्रिशीं ळपींेश्रशीरपलश षेी ेींहशी ीशश्रळसळेपी . ढहश ींेश्रशीरपलश षर्श्रेीपवशीी र्शींशप ुळींहळप ींहश ठडड ुहशीश ीळसळव वळीलळश्रिळपश, र्ीर्पिींशीींळेपळपस ेलशवळशपलश रपव ींहश रलीशपलश ेष रपू ेीसरपळीरींळेपरश्र वशोलीरलू रीश ींहश पेीा .
इसका भावार्थ यह है कि संघ यह बताता है कि अन्य धर्मों की अपेक्षा हिंदू धर्म किस तरह श्रेष्ठ है। संघ हिंदू धर्म की सहिष्णुता बताता है परंतु उसी समय वह अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु होता है।
इरफान हबीब
संघ में कठोर अनुशासन होता है। आज्ञा पालन महत्वपूर्ण होता है। किसी भी प्रकार का लोकतंत्र नहीं होता। इरफान हबीब अपने लेख में कहते हैं कि ‘राष्ट्र ’ नामक संकल्पना हाल ही की है। पहले यह संकल्पना विकसित हो रही थी कि भारत एक देश है। परंतु अंग्रेजों के शासन के कारण ‘राष्ट्र ’ रूपी संकल्पना विकसित हुई। द .अफ्रीका में रहते हुए म .गांधी ने यह संकल्पना स्वीकार की थी कि भारत सभी धर्मों को मानने वालों का देश है। द्विराष्ट्रवाद के कारण यह संकल्पना मुश्किल में पड़ गई। संघ के हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिमों के मुस्लिम राष्ट्रवाद के कारण भारत के पहले दो और बाद में तीन टुक़डे हुए। हिंदुत्व का विचार देश को विभाजित करने वाला विचार है। इस तरह की व्याख्या के साथ वे अपना निष्कर्ष निम्न शब्दों में व्यक्त करते हैं।
छेु ींहरीं र्ेींशी षळषींू ूशरीी हर्रींश रिीीशव ीळपलश रिीींळींळेप ळीं र्ुेीश्रव लश षेेश्रळीह पेीं ींे ीशलेसपळीश ींहरीं ींहश श्रळाळींी ेष ींहश खपवळरप परींळेप, षेी सेेव ेी ळश्रश्र झरज्ञळीींरप रपव इरपसश्ररवशीह, रीश ीशरश्रळींळशी ; रपव ींहशीश लरप लश पे ोीश ळीीशीिेपीळलश्रश र लीू ींहरप ’अज्ञहरपव इहरीरीं ’ र् (ीपवर्ळींळवशव खपवळर ), ीरळीशव र पशु लू ींहश र्ींशीू शश्रशाशपींी ुहेीश लश्रेरज्ञशव ींुे -परींळेप ींहशेीू लेपींीळर्लीींशव ीे र्ाीलह ींे ींहश रिीींळींळेप .
इसका भावार्थ यह है कि पचास साल की स्वतंत्रता के बाद ‘इंडियन नेशन ’ की पूर्ण व्याख्या होनी चाहिए। बांगलादेश और पाकिस्तान इन राष्ट्रों की वस्तु स्थिति को मान्य करना होगा। ऐसे समय में अखंड भारत का नारा लगाना गैरजिम्मेदार काम है। जिन लोगों ने द्विराष्ट्र को जन्म दिया वही अखंड राष्ट्र के नारे लगा रहे हैं।
संघ हिंदू राष्ट्र का सिद्धांत प्रतिपादित करता है। इसमें हिंदू शब्द का अर्थ सभी आलोचकों ने अपनी मर्जी से निकाला है। अधिकांश लोगों ने उसका अर्थ धर्मवाचक निकाला है। वे सोचते हैं हिंदू धर्म का पालन करने वाले हिंदू, हिंदू राष्ट्र अर्थात हिंदुओं का राष्ट्र। ऐसा राष्ट्र धर्म पर आधारित राष्ट्र होगा। धर्म आधारित राष्ट्र में अन्य धर्मियों को दोयम स्थान होगा। उनसे हीन व्यवहार किया जाएगा। परंतु ये आलोचक यह नहीं सोचते कि हिंदू शब्द का अर्थ धर्म वाचक है ही नहीं। अमर्त्य सेन, इरफान हबीब और अन्य वामपंथी विचारक ईसाई और मुस्लिम धर्म की तरह ही ‘हिंदू ’ का भी धर्म के रूप में विचार करते हैं। ईसाई और मुस्लिम रिलिजन हैं, धर्म नहीं। रिलिजन का अर्थ धर्म नहीं है। हिंदू रिलिजन नहीं है। रिलिजन के लिए एक पैगंबर या दूत, एक धर्म ग्रंथ, एक ईश् वर, एक धार्मिक आचार आवश्यक होता है। जिस विविधता के बारे में अमर्त्य सेन बात करते हैं वह प्लुरैलिटी किसी भी रिलिजन में होना नामुमकिन है। अत : किसी भी ईसाई देश में उस देश के अधिकृत चर्च के अलावा अन्य चर्च के लोगों के बुरा व्यवहार किया जाता है। इस्लाम में जो पंथ (शिया, सुन्नी, वाहबी, खोजा, मोमीन इत्यादि ) सत्तासीन होगा, उसके अलावा अन्य सभी काफिर होते हैं। नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वान को इतना सामान्य इतिहास तो मालूम ही होना चाहिए।
हिंदू जीवन पद्धति
संघ हिंदू शब्द का प्रयोग रिलिजन के अर्थ में नहीं करता। हिंदू एक जीवन पद्धति है। वह सनातन है। वह आठ -दस हजार वर्ष पुरानी है। यह पद्धति चराचर सृष्टि में चैतन्य का आभास करती है। प्रत्येक के अस्तित्व को स्वीकारती है। प्रत्येक को अपनी -अपनी रुचि के अनुसार उपासना करने की स्वतंत्रता देती है। उपासना न करने की भी स्वतंत्रता देती है। यह जीवन पद्धति अपनी -अपनी जीवन पद्धति और विशेषताओं को संजोने का संदेश देती है। हम सभी को उन्नत होना है। हमें सामान्य से असामान्य मानव बनना है। उसका मार्ग है सत्कर्म। सभी लोगों ने अपने अंदर उत्तम गुणों का विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। शील, विनय, चरित्र, अक्रोध, अहिंसा, सत्यवादिता इत्यादि गुणों का समावेश करना चाहिए। जिस प्रकार हमें जीवन जीने का अधिकार है उसी प्रकार सृष्टि के सभी प्राणियों को है। अत : प्राणियों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। इसे हिंदू जीवन पद्धति कहते हैं। अमर्त्य सेन, इरफान हबीब, रोमिला थापर इत्यादि उन्नत विचार कर सकते हैं क्योंकि वे जन्म से हिंदू हैं। हबीब की धमनियों में भी हिंदू रक्त ही बह रहा है। ईसाई व्यक्ति क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन की बात करता है। हिंदू व्यक्ति यह विचार नहीं कर सकता।
यह हिंदू राष्ट्र है इसका अर्थ यह है कि हमारी एक विशिष्ट संस्कृति है। इस जीवन पद्धति और संस्कृति के कारण हम एक -दूसरे से अभिन्न रूप से जु़डे हैं। अमर्त्य सेन और इरफान हबीब को शायद मालूम नहीं कि पाकिस्तान के कई लोग कहते हैंकि बलोचिस्तान से बंगलादेश एक देश है। यही भारत की संकल्पना है। रजा हबीब राजा पाकिस्तानी विद्वान हैं। वे कहते हैं मैं राजनैतिक दृष्टि से पाकिस्तानी जरूर हूं, परंतु मैं पाकिस्तानी भारतीय हूं। भारतीयत्व की संकल्पना किसी भी रिलिजन से बहुत ब़डी है। किसी व्यक्ति का मुसलमान या ईसाई होना और हिंदू राष्ट्र का घटक होना, इन दोनों में कोई संबंध नहीं है। संघर्ष तो तब शुरू होता है जब भारतीयत्व की कल्पना को रिलिजन का आधार देकर विरोध किया जाता है। भारतीयत्व की संकल्पना को यह फैनाटिझ्म बहुत ब़डा धोखा है और उससे भी ब़डा धोखा यह है कि भारत के विद्वानों को यह समझ में नहीं आता।
संघ साधना
संघ का काम अपनी हिंदू जीवन पद्धति को कायम रखते हुए उसमें कालानुरूप परिवर्तन करके उसे अधिक सामर्थ्यवान बनाना है। यह काम व्यक्ति -व्यक्ति पर संस्कार करके ही करना होगा। संस्कार नियमित करने प़डते हैं। तभी वे गहराई तक जाते हैं और आचरण में आते हैं। इसे ही संघ साधना कहा जाता है। साधना सतत करनी प़डती है, रोज करनी प़डती है। इसके लिए कुछ व्रतों का पालन करना प़डता है। हमारी भाषा में साधना ऐसा शब्द है जिसके लिए अंग्रेजी में कोई प्रतिशब्द नहीं है। साधना का अर्थ न ही प्रैक्टिस है और न ही परपेचुअल वर्क है। साधना अर्थात साधना।
पतंजलि योग सूत्र का द्वितीय अध्याय साधनपाद का है। इसमें पतंजलि ऋषि ने योग साधना के लिए क्या -क्या करना चाहिए, इसका वर्णन किया है। अगर योग का सर्वोच्च फल अर्थात समाधि प्राप्त करना है तो उसके लिए यम -नियमों का कठोर पालन आवश्यक है। पतंजलि ऋषि यम और नियम का अर्थ स्पष्ट करते हैं और कहते हैं –
श् लोक – २९
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽराव –
ङगानि॥
सूत्रार्थ – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, योग के आठ अंग हैं।
अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहा यमा :॥
सूत्रार्थ – हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और दूसरों से कुछ न लेना (अपरिग्रह ) इन सभी को ‘यम ’ कहते हैं। स्पष्टीकरण – जो व्यक्ति पूर्ण होना चाहता है उसे काम वासना (स्त्री -पुरुष भेद का भाव ) टालनी चाहिए। आत्मा लिंगभेद का अतीत है। इस भेदज्ञान के कारण स्वत : का पतन क्यों होने दें ? आगे हमें समझ में आता है कि हमें इस भेदज्ञान का त्याग करना है। जो व्यक्ति दान लेता है उसके मन पर दाता के मन का प्रभाव प़डता है। अत : दान लेने वाला पतित हो सकता है। दान लेने से मन की स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है और हीन भावना पनपने की आशंका होती है। अत : दान मत लो।
श् लोक ३१ – एते जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना : सार्वभौमा
महाव्रतम्॥
सूत्रार्थ : इन्हीं बातों को (उपरोक्त ‘यम ’) स्थल, काल, हेतु व जाति के नियमों के प्रभाव के बिना अखंड रूप से नियमित करने रहना ही ‘सार्वभौम महाव्रत ’ कहलाता है। स्पष्टीकरण : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सभी व्रतों का प्रत्येक पुरुष, महिला व बच्चों अर्थात सभी को पालन करना चाहिए। फिर चाहे वह किसी भी जाति, राष्ट्र का हो, किसी भी स्थिति में हो।
शौचसन्तोषतप :स्वाध्यायेश् वरप्रणिधानानि नियमा :॥
सूत्रार्थ : आंतरिक व बाह्य शुद्धता, समाधान, तपस्या, स्वाध्याय और ईश् वर की उपासना ये सभी नियम हैं। स्पष्टीकरण : बाह्यशुद्धता अर्थात शरीर साफ रखना। गंदा व्यक्ति कभी योगी नहीं हो सकता। आंतरिक शुद्धता भी महत्वपूर्ण है। यह पहले पद के ३३वें सूत्र में वर्णित व्रतों के माध्यम से प्राप्त होती है। देखा जाए तो आंतरिक शुद्धता बाह्य शुद्धता से अधिक महत्वपूर्ण है। परंतु आवश्यक दोनों ही हैं। आंतरिक शुद्धता के बिना बाह्य शुद्धता किसी काम की नहीं।
पतंजलि ऋषि कहते हैं कि उपरोक्त सभी व्रत सार्वभौम हैं। सार्वभौम का अर्थ है इनका कोई विकल्प नहीं है और ये स्वयं सिद्ध हैं। इन व्रतों को देश, काल और परिस्थिति के बंधन नहीं होते।
सामर्थ्य का अर्थ
संघ ने हिंदू राष्ट्र की संकल्पना समझाई और हिंदू संगठन का मंत्र दिया। संगठन का तंत्र दिया और उसे व्यवहार में लाने के लिए साधना का मार्ग दिखाया। पतंजलि ऋषि के शब्दों में कहा जाए तो ये साधना भी सार्वभौम है। उसके भी यम -नियम हैं। इन यम -नियमों को समझने के पूर्व संघ साधना के माध्यम से संघ को क्या चाहिए या दूसरी भाषा में साधना के कौन से फल संघ चाहता है यह समझना भी आवश्यक है।
हिंदू राष्ट्र को सामर्थ्य संपन्न बनाने के लिए संघ साधना चल रही है। किसी राष्ट्र का सामर्थ्य क्या होता है ? किसी राष्ट्र की सेना, शस्त्र, क्षेपणास्त्र इत्यादि समर्थ होने से क्या कोई राष्ट्र सामर्थ्यवान होगा ? केवल शस्त्र सामर्थ्यवान होने और सेना के सामर्थ्यवान होने से कोई राष्ट्र सामर्थ्यवान नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो सन १९९० में रूस का विघटन नहीं होता। रूस महासत्ता है। अनेक बार संसार का विनाश कर सकने योग्य अणु बम उसके पास है। फिर भी उसका विघटन हुआ। ऐसी शक्ति अमेरिका के पास भी है परंतु अमेरिका वियतनाम जैसे छोटे से देश को पराजित नहीं कर सका। राष्ट्र की शक्ति उस राष्ट्र की जनता में निहित होती है। यह शक्ति राष्ट्रीय जनता के मनोबल में होती है। मनोबल भावनात्मक होता है। हम एक राष्ट्र हैं। हमारी एक जीवन पद्धति है, हमारा इतिहास है। हमारे कुछ जीवन मूल्य हैं। उनके तत्व ज्ञान का, जीवन पद्धति का नियमित स्मरण करवाना आवश्यक है। इस भाव से जीने वाले कार्यकर्ताओं का निर्माण करना आवश्यक होता है। केवल उपदेशों से काम नहीं चलता, प्रवचनों से काम नहीं चलता। लोगों के सामने राष्ट्रीय जीवन जीने वाले आदर्श रखने प़डते हैं। ऐसे जीवन आदर्श तैयार करना ही संघ साधना है।
यम नियम
इस साधना के यम -नियमों का विचार करने पर सर्वप्रथम यह बात ध्यान मेंे आती है कि यह राष्ट्र साधना है। यह ईश् वरीय कार्य है। अत : सर्वशक्तिमान ईश् वर पर पूर्ण विश् वास रखकर साधना करनी होती है। संघ कार्य ईश् वरीय कार्य होने के कारण शुद्ध और पवित्र है। अपवित्र कार्य कभी भी ईश् वरीय कार्य नहीं हो सकता। यहां ईश् वर का अर्थ है पूरे विश् व का संचालन करने वाली आदिशक्ति। यह कार्य इस आदिशक्ति का ही है। यह श्रद्धा और विश् वास इस संघ साधना का पहला यम -नियम है।
यह ईश् वरीय कार्य होने के कारण समस्त मानव जाति के कल्याण का कार्य है। किसी विशिष्ट जन समुदाय या जाति समुदाय के कल्याण का नहीं। अपनी जीवन पद्धति संपूर्ण मानव जाति का कल्याण करने वाली जीवन पद्धति है। यह जीवन पद्धति हमें बताती है कि हम अकेले नहीं हैं, बल्कि एक -दूसरे से अभिन्न रूप से जु़डे हुए हैं। हम परस्पर संलग्न हैं। परस्पर संलग्न होने के कारण हमें एक -दूसरे के लिए पूरक जीवन जीना चाहिए। मनुष्य होने के कारण हम परावलंबी हैं। एक -दूसरे पर आश्रित होने के कारण हम संघर्ष नहीं कर सकते। हमें परस्पर समन्वय साधकर जीवन जीना सीखना होगा। संघ का काम करते समय यह व्यापकता मन में रखना आवश्यक है। यही संघ कार्य का यम -नियम है।
राष्ट्र साधना का कार्य पूर्णत : निस्वार्थ भावना के साथ करना प़डता है। मन में किसी तरह के स्वार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता। हर व्यक्ति को धन, प्रसिद्धि और पद का लालच होता है। यह भावना होती है कि सार्वजनिक काम करने के दौरान उससे धन प्राप्त होे, प्रसिद्धि प्राप्त हो या कोई पद प्राप्त हो। संघ का राष्ट्र साधना का कार्य ऐसी भावना मन में रखकर नहीं किया जा सकता। संघ का कार्य करते समय धन मिलने की गुंजाइश शून्य होती है। प्रसिद्धि तो मिलती ही नहीं और पद भी अधिकार के न होकर दायित्व निभाने के होते हैं। ये पद सत्ता भोगने के नहीं होते। संघ साधना करते समय यह निस्वार्थ भावना सहज निर्माण होती जाती है। जो स्वयं में यह भावना ढ़ाल नहीं पाते वे अपने आप संघ कार्य के बाहर चले जाते हैं। संपूर्ण निस्वार्थता संघ कार्य का अति महत्वपूर्ण यम -नियम है।
संघ साधना सेवा साधना है। सेवा किसकी ? देश की। देश अर्थात जन, जमीन, जानवर, जल। दूसरी भाषा में कहा जाए तो देश के लोग व नैसर्गिक संपत्ति की हमें रक्षा करनी है। लोगों की समस्याएं सुलझाना और उनकी मदद करना ही सेवा है। समाज में जो दुर्बल हैं उन्हें सबल बनाना चाहिए। यह जमीन मेरी माता है। इस भू माता के बिना मेरे अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं है। मुझे उसके ऋण से मुक्त होना है। यहां के सभी प्राणी राष्ट्रीय संपत्ति हैं। जल राष्ट्रीय संपत्ति है। इस संपत्ति का संरक्षण और संवर्धन करना चाहिए। संरक्षण और संवर्धन सेवा करके ही हो सकता है शोषण करके नहीं। सेवा करने के लिए स्वयं ही आगे आने की आवश्यकता है, किसी के आदेश की राह नहीं देखनी चाहिए। सेवाभाव भी संघ साधना का यम -नियम है।
संघ का विचार अत्यंत सरल है और तंत्र भी सरल है। इसकी सबसे ब़डी विशेषता यह है कि यह तंत्र विचारों को प्रत्यक्ष आचार में लाने का तंत्र है। संघ की हिंदू राष्ट्र की संकल्पना को समझने के लिए केवल प . पू . श्री गुरुजी के विचार पढ़ना ही काफी नहीं है। उसके लिए संघ का तंत्र, शाखा, शाखा के विविध कार्यक्रम, संघ के विविध कार्यक्रमों में सहभागी होना प़डता है। कोई भी आलोचक यह नहीं करता, अत : उनकी आलोचनाएं अज्ञान पर आधारित, अधूरी और हास्यास्पद लगती है।
तंत्र की विशेषता
संघ का तंत्र स्वयं अनुशासित, स्वयंप्रेरित, स्वयं संचालित और सार्वभौम है। संघ कोई एक व्यक्ति नहीं चलाता। संघ स्वयं शासित होने के कारण वह स्वशासन पर चलता है। संघ कार्यकर्ताओं को बाहर से प्रेरणा नहीं दी जाती। वे स्वयं प्रेरित होते हैं। उनके कार्य की प्रेरणा धन, प्रसिद्धि, या मद प्राप्ति की नहीं होती। संघ का कार्य करना ही मेरा कर्तव्य है, यह कर्तव्यबोध ही उनकी प्रेरणा है। संघ का कार्य स्वयं संचालित है। उसे नागपुर से नहीं चलाया जाता। संघ के कार्य का अर्थ है कर्तव्य भावना से देश का काम करना। जीवन के विविध क्षेत्रों में स्वयंसेवक इस तरह के कार्य करते हैं। इन सभी कार्यों का संचालन स्वयंसेवक अपनी प्रेरणा से करते हैं। उन्हें कोई भी किसी भी प्रकार का आदेश नहीं देता। विचार -विनिमय करके, एक -दूसरे की सहमति लेकर सभी एकमत से कार्य करते हैं। इस पद्धति को फैसिस्ट कहने जितनी मूर्खता दुनिया में और कोई नहीं होगी। संघ का तंत्र अर्थात कार्य पद्धति सार्वभौम है। सार्वभौम होने के कारण उसे खत्म करने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। न ही वह किसी के अधीन है और न ही किसी बाह्य शक्ति पर आश्रित है। वह राजसत्ता पर भी आश्रित नहीं है। दो -चार अंग्रेजी ग्रंथकारों के उद्धरण के आधार पर विद्वान लोग राष्ट्र, राष्ट्रीयता, बहुविधता इत्यादि विषयों पर लिखते हैं। पाश् चात्य विद्वानों का भारतीय आत्मा के बारे में ज्ञान शून्य है। उनकी बौद्धिक उधारी के आधार पर लेख को सजाया तो जा सकता है, परंतु ऐसे लोगों का भारत समझने की दृष्टि से लेखन शून्य होता है।
संघ साधना की व्यापकता अपने देश के बुद्धिवादी लोगों की समझ में नहीं आती या वे समझना नहीं चाहते। अत : वे सत्ता के रिमोट कंट्रोल के रूप में संघ का विचार करते हैं। सत्ता केंद्रित समाज रचना के आधार पर संघ कार्य का विचार ही नहीं किया जा सकता। राजसत्ता के आधार पर कोई भी राष्ट्र चिरंजीव नहीं हो सकता। राष्ट्र की शक्ति उसके चरित्र बल और जीवन मूल्यों में होती है। समय की गति के अनुसार सत्ता परिवर्तन होता ही रहता है। हमारे देश ने हजार वर्षों तक विदेशी सत्ता का अनुभव किया है। परंतु उससे अपना राष्ट्र गर्त में नहीं समाया। राष्ट्र को जीवित रखने का कार्य राष्ट्र की नैतिक शक्ति ने और जीवन मूल्यों ने किया। उस बल को बढ़ाना ही संघ का कार्य है।
समता ही आधार
संघ हिंदू समाज को संगठिन करता है। इसका अर्थ यह है कि संघ यह भाव निर्माण करता है कि हम सभी एक हैं, एक समान हैं। किसी भी संगठन का आधार समता और समानता होनी चाहिए। विषमता के आधार पर समाज का संगठन नहीं हो सकता। विषमता समाज में भेद निर्माण करती है। समाज में अलग -अलग गुट बनाती है। उनके हित संबंध अलग -अलग होते हैं। इनकी वजह से झग़डे होते है। संघ यह सब मिटाना चाहता है। विषमता निर्माण करने वाली कोई भी रचना, कोई भी विचार संघ कार्य का आधार नहीं हो सकता। शोषण मुक्त, समयायुक्त और निर्दोष समाज का निर्माण करना ही संघ कार्य का अंतिम लक्ष्य है। हिंदू समाज संगठन का, संघ कार्य का क्रियाशील अर्थ समझना बहुत आवश्यक है। जैसा कि लेख की शुरुआत में ही कहा गया है कि अपनी मर्जी से संघ की व्याख्या करके और उसके आसपास कठिन शब्दों की रचना करके यह साबित करने की कोशिश करना कि संघ कार्य से किस प्रकार विषमता निर्माण हो रही है, एक प्रकार से हास्यास्पद बुद्धिवाद है। गलत तथ्यों के आधार पर किया गया युक्तिवाद भ्रम निर्माण करने वाला होता है।
इस देश में लोकतंत्र है और लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें अंग्रेंजों ने दी है। भारतीय संविधान ने इस व्यवस्था को हमारे यहां भी लागू किया है। ये सारे कथन भी गलत है। लोकतंत्र हिंदू समाज के खून में है। आज की वैज्ञानिक भाषा में कहा जाए तो लोकतंत्र हिंदू समाज के डीएनए में है। आध्यात्मिक लोकतंत्र तो बहुत समय पहले से है। विवेकानंद कहते थे ‘हिदूधर्म इस पार्लमेंट ऑफ रिलिजन ’ अर्थात हिंदू धर्म अनेक उपासना पद्धतियों का संग्रह है। लोकतंत्र के दो आधारभूत तत्व हैं। पहला तत्व इस भावना का होना है कि जिस प्रकार मेरा कथन सही है उसी प्रकार दूसरों का कथन भी सही है। दूसरा तत्व है नियमित रूप से चर्चा करते रहना। एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति, वादे वादे जायते तत्वबोध। इन दो महावाक्यों से लोकतंत्र के आधारभूत तत्वों का बोध होता है। यही आधारभूत तत्व हिंदू जीवन पद्धति के अविभाज्य अंग हैं।
हिंदू के कारण लोकतंत्र
हमारे देश में लोकतंत्र है इसका कारण है कि भारत हिंदुओं का देश है। अंग्रेजों ने हमें संसदीय कार्य प्रणाली की व्यवस्था दी। संविधान ने उसे कायम रखा इतना हम कह सकते हैं। परंतु लोकतंत्र हमें किसी ने नहीं दिया। यह हमें हमारे पूर्वजों के द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है। हमारी हिंदू जीवन पद्धति का यह एक अविभाज्य घटक है। इस जीवन पद्धति की रक्षा करना ही संघ का कार्य है। अत : संघ कार्य बढ़ने के कारण, संघ का प्रभाव बढ़ने के कारण लोकतंत्र को खतरा है, ऐसे मिथ्या युक्तिवाद संसार में हो ही नहीं सकते। लोकतंत्र को खतरा असहिष्णु विचारधारा से है, परिवारवाद से है, इस्लामी जिहाद से है, सेक्युलर बौद्धिक दहशतवाद से है, कम्युनिज्म से है, नक्सलवाद से है। आज ये सभी लोग एक -दूसरे से हाथ मिलाकर उस हिंदू समाज को मारने चले हैं जिसका प्राण लोकतंत्र है। विभिन्न लेख लिखकर, किताबें लिखकर, बेकार की बौद्धिक कसरत करके, अलग -अलग शब्दों का प्रयोग करके भ्रमित करने वाली अवधारणाएं फैलाने का कार्य इन लोगों के द्वारा किया जा रहा है।
‘सत्यमेव जयते ’ भारत का ब्रीद वाक्य है। असत्य कथन करने वाले अमर्त्य नहीं हो सकते। इरफान का अर्थ होता है ज्ञान या ज्ञानी। अत : गलत लिखने वाले इरफान नहीं हो सकते। संघ का ज्ञान होने के लिए संघ का होना आवश्यक है। पानी की गहराई पानी में उतरे बिना कैसे समझ में आएगी ?