दलित गुस्सा आखिर किस बात के लिए?

दलितों के गुस्से को लेकर देशभर में प्रचार माध्यमों में खूब चर्चा चल रही है। सांसद तरूण विजय ने अपने ब्लाग पर

this Dalit anger is going to change Indian politics forever

 शीर्षक से लेख लिखा है। एस.एन.साहू का

the Tribune ‘Deeper reasons behind Dalit Anger

शीर्षक से लेख छपा है। द एशियन एज में भी व्यंकटेश राव का एक लेख प्रकाशित हुआ है। इस तरह अनेक लेखों में दलित गुस्से का विश्लेषण किया गया है। उसकी कारण मीमांसा विशद की गई है। आम तौर पर निम्न कुछ सामान्य बिंदु लगभग सभी लेखों में दिखाई देते हैं-

  1. यह संचित क्रोध है। कोई बहाना बनता है और गुस्सा उफन पड़ता है।
  2. यह गुस्सा अमुमन सवर्ण हिंदुओं की ओर से होनेवाले अन्याय/अत्याचार के विरुद्ध होता है।
  3. इसका राजनीतिक नुकसान भाजपा को होनेवाला है।
  4. सुशिक्षित दलित युवा वर्ग आंदोलन में अग्रणी होता है।
  5. अन्याय अत्याचार करनेवाली मध्यम जातियां हैं। ब्राह्मण गांव-देहातों में नगण्य रह गया है।
  6. सोशल मीडिया भड़काऊ बयान जारी कर क्रोध की इस अग्नि में घी डालने का काम करता है।
  7. हिंदू होने से हम पर अन्याय होता है इसलिए हम अन्य धर्मों में जाएंगे इस तरह की भाषा शुरू हो जाती है। तरूण विजय ने अपने लेख में इस मुद्दे की चर्चा की है।

एक प्रश्न लगभग सभी ने उठाया है कि हिंदू अपनी मानसिकता बदलेंगे या नहीं? यदि सवर्ण हिंदू अपनी मानसिकता न बदले तो उसके देश पर अच्छे परिणाम नहीं होंगे। मंदिर प्रवेश, एक स्मशान, एक पनघट जैसे विषय आज भी ज्वलंत हो उठते हैं। इस आग में घी डालने का काम सर्वोच्च न्यायालय के एट्रासिटी कानून में संशोधन के निर्णय ने किया। फलस्वरूप, 2 अप्रैल को देशभर में दलित तरूण सड़कों पर उतर आए और उन्होंने भारत बंद करने का प्रयास किया। 3 अप्रैल को छपी खबरों के अनुसार ‘भारत बंद’ में 9 लोगों की जानें गईं अर्थात समस्या को और उलझाया गया और स्थिति गंभीर बन गई। आज पूरे देश पर गौर करें तो ऐसा चित्र उभरता है कि हिंदू समाज अब दलित और सवर्ण इन दो हिस्सों में बंट गया है। यह विभाजन कम होने के बजाय दिन-ब-दिन बढ़ता दिखाई दे रहा है। डॉ. बाबासाहब कहते थे, “जिस घर में फूट है, वह घर नहीं टिकता।” डॉ. बाबासाहब दिल से चाहते थे कि यह फूट न बढ़ें। वे हमेशा कहा करते थे कि हम एक ही देश के नागरिक हैं और भारतीयता ही हमारी पहचान होनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि जातियां राष्ट्रविघातक हैं इसलिए उनका त्याग करना चाहिए। लेकिन ऐसा होने की अपेक्षा ‘वे और हम’ इस तरह की भाषा आज शुरू हो गई है। देश की एकता के लिए यह भाषा घातक है।

वर्तमान स्थिति को समझने के लिए दलित आंदोलन के कुछ चरणों को समझना जरूरी है। दलित आंदोलन हिंदू समाज की परम्परागत जातीय मानसिकता के खिलाफ शुरू हुआ था। इस मानसिकता के पीछे धार्मिक अधिष्ठान स्थापित करनेवाली धर्मसत्ता के खिलाफ यह खड़ा हुआ। स्वाभाविक रूप से उसका रोष ब्राह्मण जाति के खिलाफ था। समाज का धार्मिक नेतृत्व ब्राह्मण वर्ग ही कर रहा था। स्वतंत्रता के पूर्व हुए दलित आंदोलन का यही केंद्रबिंदु है। स्वतंत्रता के बाद का आंदोलन मुख्य रूप से सत्ता में बराबरी का हिस्सा पाने के लिए आरंभ हुआ। वह आरक्षण और प्रातिनिधिक सरकार में प्रतिनिधित्व के बारे में था। हमारे संविधान ने इन दोनों बातों को स्वीकार किया है। आंदोलन का लक्ष्य संविधान के प्रावधानों पर अमल कराना था।

समाज में बराबरी का स्थान पाने के लिए आंदोलन शुरू होने से परम्परागत रूप से सत्तास्थानों पर काबिज जातियों ने उसका विरोध शुरू किया। इसकी प्रतिक्रिया में यह भी आंदोलन शुरू हो गया कि कुछ जातियों को ही आरक्षण क्यों?, हम भी पिछड़े हैं इसलिए हमें भी आरक्षण मिलना चाहिए। उत्तर में जाट, यादव, महाराष्ट्र में मराठा, कर्नाटक में लिंगायत, गुजरात में पटेल आदि समाजों ने आंदोलन आरंभ कर दिया। कुछ जातियां एट्रासिटी कानून में संशोधन की मांग कर रही हैं। आंदोलनकारी एक भाषा नहीं कहते जो इस तरह की होती है, ‘आरक्षण देना ही हो तो सब को दीजिए, अन्यथा किसी को न दें।’ यह सवाल उठाया जाने लगा कि ‘एक ओर जाति हटाने की बात करना और दूसरी ओर जातिनिहाय आरक्षण देना इस तरह दोहरी बात क्यों?’ इस मांग ने भी खूब जोर पकड़ा है कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं, आर्थिक स्थिति के आधार पर दिया जाए।

तरूण विजय और अन्य लेखक इसे सम्मान का संघर्ष मानते हैं। सीमित अर्थ में वह सच भी है, लेकिन वह पूर्ण सत्य नहीं है। यह संघर्ष है सरकार से उपलब्ध लाभों को अधिकाधिक रूप से अपनी झोली में बटोरने का। हर जाति को इसमें से अपना हिस्सा चाहिए। लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में संख्याबल को महत्त्व प्राप्त होता है। संख्याबल के आधार पर आंदोलन करने की क्षमता प्राप्त होती है और उससे सड़क पर उतर आने का जुझारूपन आता है। यह सब शक्ति प्रदर्शन होता है। यह शक्ति प्रदर्शन महाराष्ट्र में मराठा जाति ने जिस प्रकार किया, उसी तरह गुजरात में पटेल जाति ने किया। दलितों ने विभिन्न मुद्दों पर इस तरह का शक्ति प्रदर्शन किया है। सभी राजनीतिक दलों का वोट बैंक मध्यम जातियां हैं। इसलिए लगभग सभी राजनीतिक दल मध्यम जातियों को नाराज नहीं करना चाहते। कोई प्रतिभासम्पन्न नेता ही इस गुत्थी से मार्ग निकाल सकता है। बाकी सभी का जो चल रहा है, वह राजनीति है। शासन व्यवस्था से लाभ ऐंठने के लिए संख्याबल के आधार पर शक्ति प्रदर्शन की यह लड़ाई है।

सतही तौर पर यह लड़ाई सत्तारूढ़ दल के खिलाफ लगती है। आज भाजपा सत्ता में है। इसलिए भाजपा के खिलाफ वातावरण निर्माण करने के लिए इस लड़ाई का उपयोग किया जा रहा है। कल भाजपा सत्ता से बाहर हो जाए और दूसरा दल सत्ता में आ जाए तब भी यह लड़ाई खत्म हो जाएगी, ऐसा नहीं है। सत्ता पाए दल का इस संघर्ष से कोई विशेष लेनादेना नहीं होता। जैसा कि तरूण विजय ने कहा है कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने दलित सशक्तिकरण के लिए अनेक सकारात्मक कदम उठाए हैं और डॉ. बाबासाहब का भी भरसक सम्मान किया है; परंतु उससे दलित गुस्सा शांत हुआ हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। राज्य की व्यवस्थाओं में हम कहां हैं?, संख्या में कितने हैं? कितने राज्यों में अपने समाज के मुख्यमंत्री हैं?, सर्वोच्च न्यायालय में कितने न्यायाधीश अपने समाज के हैं?; इन प्रश्नों का सरकारी योजनाओं में कोई जवाब नहीं होता।

दूसरे शब्दों में कहना हो तो हमें हमारे निर्णय करने दें। हमें हमारे मार्ग तय करने दें। हमारे निर्णय आप न करें। हम पर उपकार करनेवालों की भूमिका आप न लें। हमारा भला-बुरा तय करने में हम समर्थ हैं। यह मानसिक भावना है। मुझे लगता है कि दलित आंदोलन की यही वर्तमान स्थिति है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर खंडित घर जोड़ना हो तो संविधान को केंद्र में रखकर ही विचार करना होगा और रास्ता खोजना होगा। चाहें केंद्र हो या राज्य हो वहां आनेवाली हर सरकार संविधान की रक्षा की शपथ लेकर ही सत्ता में आती है। हमारे संविधान का वर्णन ‘संवैधानिक मार्ग से याने अहिंसक मार्ग से सामाजिक क्रांति करानेवाले दस्तावेज’ के रूप में किया जाता है। सत्ता में आई हर सरकार अपनी ओर से यह प्रयास करती है। कुछ ईमानदार होती हैं, कुछ दिखावटी। संविधान के इस सामाजिक आशय को राज्यकर्ताओं को ठीक से समझ लेना चाहिए और अपनी नीतियों में उस पर अमल करना चाहिए। जैसे कि आज के वैश्वीकरण के युग में, विज्ञान और टेक्नालॉजी के युग में शिक्षा के सभी संदर्भ बदल चुके हैं। ज्ञान केवल शक्ति न रहकर वह सम्पदा बन गया है। उसकी शिक्षा खर्चीली है। सरकार की जिम्मेदारी अब केवल ‘सर्व शिक्षा अभियान’ तक सीमित नहीं रह गई है। उच्च ज्ञान आधारित शिक्षा सहज सुलभ हो और वह आम आदमी की पहुंच में हो इस तरह की व्यवस्था खड़ी करनी होगी। आज की शिक्षा बहुत महंगी हो चुकी है। जिसके पास धनसत्ता है, वह शिक्षा पाता है। इससे विषमता की खाई कम होने के बजाय अधिक बढ़ती दिखाई देती है।

सतही तौर पर यह संघर्ष हिंदू समाज की मध्यम जातियों  और अनुसूचित जाति/जनजातियों के बीच भले दिखाई दे; परंतु  यह उसका अंतिम सत्यरूप नहीं है। हमारा समाज संस्कृति से आपस में गहराई से जुड़ा है। यह संस्कृति का संघर्ष नहीं है। यह संघर्ष राज्य नामक संस्था से अपनी पत्तल पर अधिकाधिक ऐंठने का है। कुछ मात्रा में वह स्वार्थ से जुड़ा है। मुस्लिम और कम्युनिस्ट इस संघर्ष में निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर सकते। मतदान के प्रतिशत में थोड़ा-बहुत अंतर आ सकता है। लेकिन मतदान और इसे लेकर हुए गठबंधन कभी शाश्वत नहीं होते, वे बदलते रहते हैं।

सामाजिक एकता का विचार करते समय सामाजिक और धार्मिक स्तर पर अधिक गतिशील होकर अनेक बातें करनी होंगी। धर्माचार्य जिस तरह भागवत कथा करते हैं उसी तरह उन्हें भगवान गौतम बुद्ध की कथा करनी चाहिए, रविदास की कथा करनी चाहिए। इन महापुरुषों की स्मृति से जुड़े पवित्र दिनों को मेलों का आयोजन करना चाहिए। सामाजिक स्तर पर ‘समरस ग्राम’ की संकल्पना जी-जान से जुटकर प्रत्यक्ष में साकार करनी चाहिए। एक पनघट, एक मंदिर, एक स्मशान, सब को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी व्यवस्थाएं सामाजिक स्तर पर निर्माण करना संभव होना चाहिए। इसके साथ संविधान साक्षरता के वर्ग भी चलने चाहिए। हमारा संविधान क्या है, देश की अखंडता और एकात्मता का इसमें कितनी गंभीरता से विचार किया गया है, संवैधानिक नैतिकता का क्या माने है? उसका पालन क्यों करना चाहिए? ऐसे अनेक मुद्दों के बारे में नागरिकों को जागरूक करना बेहद जरूरी है। हम सभी को संवैधानिक राष्ट्रवाद की बुनियाद पर खड़ा होना है इसका प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। जाति-जातियों में मनमुटाव और विभाजन दूर करने का एक अच्छा मार्ग हमें उपलब्ध है।

 

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