जब भारतीय बन्दी अन्दमान पहुंचे

अन्दमान-निकोबार या काले पानी का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह वह स्थान है, जहाँ भारत के उन वीर स्वतन्त्रता सेनानियों को रखा जाता था, जिन्हें अंग्रेज शासन अपने लिए बहुत खतरनाक समझता था। इसी प्रकार अति गम्भीर अपराध करने वाले खूँखार अपराधियों को भी आजीवन कारावास की सजा भोगने के लिए यहीं भेजा जाता था।

घने जंगलों से आच्छादित इस क्षेत्र में वनपशु खुलेआम घूमते थे। चारों ओर समुद्र था। नदियों और बड़े-बड़े तालाबों में घडि़याल निद्र्वन्द्व विचरण करते थे। वनों में ऐसी जनजातियाँ रहती थीं, जो अपने विषैले तीरों से मानव को देखते ही मार देती थीं। चारों ओर भीषण डंक वाले साँप और बिच्छू घूमते रहते थे। मच्छरों का तो वहाँ मानो अखण्ड साम्राज्य था। ऐसे में कोई बन्दी जेल से भागता भी, तो उसका मरना निश्चित था। इसीलिए 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस स्थान को जेल के लिए चुना।

अब समस्या थी कि इन जंगलों की सफाई कौन करेगा ? शासन ने बन्दियों से ही यह काम कराने का निर्णय किया और 10 मार्च, 1858 को स्थायी अधीक्षक डा0 जे.पी. वाकर के साथ बन्दियों का पहला दल पानी के जहाज से पोर्ट ब्लेयर आ गया। इन बन्दियों में सभी प्रकार के लोग थे। हत्या, लूट, डकैती जैसे घोर दुष्कर्म करने वाले खूँखार अपराधी तो थे ही; पर देशभक्त क्रान्तिकारी भी थे। ये स्वतन्त्रता सेनानी सुशिक्षित और अच्छे घरों के नवयुवक थे; पर वहाँ तो सबको एक ही लाठी से हाँका जाता था।

सुबह होते ही सबको कुल्हाड़ी, आरे और फावड़े देकर सफाई में लगा दिया जाता था। दोपहर में रूखा-सूखा भोजन और फिर काम। जून के मध्य तक अनेक बन्दी बीमारी से मर गये। कुछ मौका पाकर भाग भी गये, जो कभी अपने घर नहीं पहुँच सके। 87 बन्दियों को भागने के आरोप में फाँसी दे दी गयी।

प्रारम्भ में राॅस द्वीप के जंगल को साफ किया गया। फिर चाथम और फीनिक्स में बन्दियों के निवास के लिए कच्ची बैरकें बनायी गयीं। पोर्ट मोर्ट में इन बन्दियों के रहने और उनसे खेती कराने की योजना बनायी गयी। 1867 में पहाड़ गाँव में चैकी, अबार्डीन में थाना और वाइपर में जेल बनायी गयी। अपने घर-परिवार और जन्मभूमि से दूर रहने वाले इन बन्दियों की शारीरिक और मानसिक दशा की कल्पना की जा सकती है। फिर भी आजादी के मतवाले बन्दी झुकने को तैयार नहीं थे।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय युवक इस आश्वासन पर सेना में भर्ती हुए कि युद्ध के बाद भारत को स्वतन्त्र कर दिया जाएगा। दूसरी ओर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारत से बाहर रहकर आजादी का प्रयास कर रहे थे। आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में जब 29 दिसम्बर, 1943 को वे अन्दमान आये, तो उनका भव्य स्वागत किया गया। पोर्ट ब्लेयर के ऐतिहासिक जिमखाना मैदान में उनका भाषण हुआ।

15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतन्त्रता के बाद अन्दमान, निकोबार आदि द्वीपों में भी तिरंगा फहराया गया। सब बन्दियों को छोड़ दिया गया। काले पानी के नाम से कुख्यात वह जेल अब स्वतन्त्रता के लिए यातनाएँ सहने और तिल-तिल कर मरने वाले दीवानों का स्मारक है; पर इसके निर्माण में उन अनाम बन्दियों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जो 10 मार्च, 1858 को सबसे पहले वहाँ पहुँचे थे।

संकलन – विजय कुमार 

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