भगोड़े अमृतपाल सिंह की वजह से खालिस्तान का मुद्दा एक बार फिर सतह पर है। यह मुद्दा किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है। आखिर खालिस्तान का रक्तबीज जड़ से खत्म क्यों नहीं होता? यह प्रश्न अमृतपाल और उसके समर्थकों पर हुई हालिया कार्रवाई के कारण प्रासंगिक है। यूं तो सभी राष्ट्रीय दलों ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कार्रवाई का समर्थन किया, किंतु अकाली दल दबे स्वर में इसका विरोध कर रहा है।
वहीं सिखों के पांच तख्तों में सबसे पुराने और अमृतसर स्थित श्री अकाल तख्त साहिब के साथ ही शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि यदि गिरफ्तार युवा रिहा नहीं हुए, तो वे आगे की योजना पर काम करेंगे। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर दो बातें स्पष्ट हैं। पहली-खालिस्तान विरोधी अभियान से पंजाब लगभग अप्रभावित और शांत है। अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया आदि देशों में बसे चरमपंथियों द्वारा भारतीय प्रतिष्ठानों पर हमले के रूप में ही हिंसा के मामले सामने आए। दूसरा-खालिस्तान विचार की जड़ें भारत में हैं तो, किंतु इसे जन्म देने और उसका पोषण करने में विदेशी शक्तियों का हाथ है।
यह सर्वविदित है कि पिछली सदी के आठवें दशक में क्या हुआ था? पंजाब में अकाली दल को हाशिये पर पहुंचाने के लिए इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी ने जरनैल सिंह भिंडरांवाले को प्रोत्साहन दिया, किंतु वे उसे नियंत्रित नहीं कर पाए। चूंकि खालिस्तान की कल्पना विदेशी है और इसे शत-प्रतिशत भारतीय सिखों का समर्थन नहीं मिलता, इसलिए तब भिंडरांवाले के निर्देश पर निर्दोष हिंदुओं के साथ ही देशभक्त सिखों को भी चिह्नित करके मौत के घाट उतारा जाने लगा। इससे पंजाब के हिंदुओं और सिखों में भिंडरांवाले के प्रति आक्रोश बढ़ा।
राजनीतिक लाभ से प्रेरित कांग्रेस की ‘बांटो और राज करो’ की परिणति दो सैन्य अभियानों के रूप में हुई। इसमें स्वर्ण मंदिर की मर्यादा भंग हुई। उससे श्रद्धालुओं के मन को गहरा आघात पहुंचा। इसी कारण इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों ने गोली मारकर हत्या कर दी। उसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस प्रायोजित नरसंहार में हजारों निरपराध सिखों को अकेले दिल्ली-एनसीआर में ही मौत के घाट उतार दिया गया।
इस कलंकित इतिहास को याद करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जिस ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख अमृतपाल और उसके समर्थकों के प्रति अकाल तख्त और अकाली दल सहानुभूति रख रहे हैं, तो क्या वे पंजाब को पुन: उसी रक्तरंजित दौर में वापस ले जाना चाहते है? अमृतपाल 19 वर्ष की आयु में दुबई चला गया। तब तक न तो उसने सिख पंथ की विधिवत दीक्षा (अमृत छकना) ली और न ही गुरु परंपरा के अनुसार केश रखे। वह दाढ़ी भी छंटवाता रहता।
माना जाता है कि अलगाववादी विचारों से प्रभावित अमृतपाल पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और अन्य भारत विरोधी शक्तियों के संपर्क में आने के बाद 25 सितंबर 2022 को भारत लौटा और आनंदपुर साहिब में पहली बार ‘अमृत छकने’ के बाद से भिंडरांवाले वाला गणवेश भी अपना लिया। पंथिक-अवज्ञा के गंभीर आरोपों के अलावा अमृतपाल पर जो आपराधिक मामले दर्ज हैं, उसमें 23 फरवरी का वह अजनाला प्रकरण भी शामिल है, जिसमें गुरु ग्रंथ साहिब को ढाल बनाकर सिख मर्यादा पर आघात किया गया। क्या कोई सच्चा सिख ऐसा आचरण स्वीकार करेगा?
खालिस्तान विमर्श अलग-अलग रूपों और सघनता के साथ देश के समक्ष प्रस्तुत होता रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि एक राष्ट्र के रूप में हम खालिस्तान समर्थकों के विरुद्ध तो लड़ते हैं, किंतु इसके विषाक्त विचार को ध्वस्त करने का प्रयास नहीं करते। भारत को खालिस्तान समर्थकों के साथ-साथ ‘खालिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान’ के विरुद्ध भी लड़ाई लड़नी होगी। खालिस्तान दर्शन भी करीब 150 वर्ष पुराना है। अंग्रेज 1857 के विद्रोह की पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने ‘बांटो और राज करो’ की विभाजनकारी नीति अपनाई। उन्होंने भारतीय समाज की कमजोर कड़ियां चिह्नित कर बौद्धिक-शैक्षणिक स्तर पर काम किया।
तब अंग्रेजों के लिए सबसे कठिन हिंदू-सिख संबंधों में कड़वाहट घोलना था, क्योंकि सिख पंथ के जन्म से ही देश का प्रत्येक हिंदू, सिख गुरुओं के प्रति श्रद्धा का भाव रख रहा है, तो गुरु परंपरा से उपजा प्रत्येक सिख स्वयं को धर्म और देश का रक्षक मानता है। अंग्रेजों ने आयरलैंड में जन्मे अपने अधिकारी मैक्स आर्थर मैकालीफ को 1860 के आसपास एक षड्यंत्र के अंतर्गत सिख बनाकर प्रस्तुत किया, जिसने विकृत विमर्श के आधार पर हिंदू-सिखों में विभाजन का कुप्रयास किया। यूं तो अधिकांश हिंदू और सिखों पर इसका असर नहीं पड़ा, परंतु सिख पंथ का एक वर्ग इसके प्रभाव में आ गया। इसका बहुत विस्तृत और काला इतिहास है। इसी विमर्श को सिख पंथ का बहुत छोटा, मगर मुखर वर्ग पाकिस्तान के समर्थन से आगे बढ़ा रहा है।
दूसरे देशों से संचालित खालिस्तान का एजेंडा कितना झूठा है, यह उसके प्रस्तावित कपटी नक्शों से स्पष्ट होता है। खालिस्तान समर्थक भारत के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल के साथ राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों को तो उसमें शामिल करते है, किंतु पाकिस्तान में पवित्र श्रीननकाना साहिब, जहां सिख पंथ के संस्थापक श्री गुरुनानक देवजी का जन्म हुआ था और महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर का उल्लेख तक नहीं करते, जहां सिखों के कई पवित्र तीर्थस्थल हैं।
सिख गुरुओं की पुनीत परंपरा न केवल भारत, अपितु समस्त मानव कल्याण के लिए प्रासंगिक है। उसे किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र या पंथ तक सीमित नहीं किया जा सकता। दसवें सिख गुरु श्रीगोबिंद सिंहजी का जन्म बिहार के पटना में हुआ था और धर्म की रक्षा करते हुए वह महाराष्ट्र के नांदेड़ में बलिदान हुए। दो सिख गुरुओं-गुरु हरकिशन देवजी और गुरु तेग बहादुरजी ने दिल्ली में अंतिम सांस ली। पंजाब से कहीं अधिक गुरुद्वारे पंजाब से बाहर स्थित हैं, जिनके प्रति हिंदू समाज की भी श्रद्धा है। वर्ष 1699 में वैशाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की स्थापना की थी, जिसमें पहले पांच खालसा (पंज-प्यारे) देश के चारों कोनों से थे। इनमें उत्तर भारत से दया सिंह (पंजाब) और धरम सिंह (उत्तरप्रदेश), पूर्वी भारत से हिम्मत सिंह (ओडिशा), पश्चिमी भारत से मोहकम सिंह (गुजरात) और दक्षिण भारत से साहिब सिंह (कर्नाटक) से थे। कोई भी पंथ से जुड़े हुए देशभर में फैले इन तीर्थस्थानों से पंथ कैसे अलग कर सकता है?
– बलबीर पुंज