नियति के हाथ

पार्वती के सीने पर जवान बेटी का बोझ असह्य हो रहा था। वह बार-बार पति को उलाहना देती। क्या करते अखिलेश! न चाहते हुए भी शिवपुर में बरीक्षा देकर आये तो पत्नी पार्वती शिकायत के लहजे में बोली, “तुम तो कहते थे कि लड़का ज्यादा उम्र का है। कौशल्या के लायक नहीं है। फिर वहां बरीक्षा क्यों दे आये?”

पत्नी की शिकायत पर अखिलेश ने एक उच्छवास भरकर कहा-क्या करता…? मुख से इतना ही निकला था कि उनकी दृष्टि सामने खड़ी कौशल्या पर पड़ी। वह कब से खड़ी थी। उसका उन्हें आभास न हुआ था। उसे देखकर मुंह से तो शब्द निकल नहीं रहे थे। परन्तु नेत्रों से नेत्र जा मिले।

पिता-पुत्री दोनों एक दूसरे की पीड़ा समझ रहे थे। पर दोनों अपनी-अपनी स्थिति में लाचार लग रहे थे- आंखों ही आंखों से जैसे एक दूसरे को सांत्वना दे रहे हों। आर्थिक विपन्नता और दहेज के कोढ़ के कारण वह नियति के हाथों खेलने को विवश थे।

कहते हैं, मुंह झूठ बोल सकते हैं लेकिन आंखें सच्चाई को प्रकट कर ही देती हैं। पिता-पुत्री के अव्यक्त मौन में व्यवधान डालते हुए कौशल्या की मां बोली- ‘तू यहां क्या करने आयी है?’

‘भौजी पूछ रही हैं, कि चावल कितना बनेगा?’

‘जितना हो बना दें, सुबह फिर देखा जायेगा।’

मां के फैसले को सुनकर कौशल्या को लगा था कि जो निर्णय पिता चाहकर भी नहीं कर पा रहे थे, वही मां ने अनजाने में कर दिया। मैं भी तो नियति के हाथों का खिलौना मात्र हूं। मेरी नियति भी चावल की नियति से जुड़ी है। शादी कर दी जाय फिर देखा जायेगा। कौशल्या के नेत्रों से आंसू उमड़ पड़े।

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