नेताजीसुभाष बाबू

डॉ. हेडगेवार ने कोलकाता जाकर सुभाष बाबू से मिलने का समय मांगा। उन्हें २ मिनट का समय मिला; परंतु मिलने पर बातचीत आधा घण्टा चली। फिर मिलने के आश्वासन के साथ भेंट सम्पन्न हुई।….बाद में सुभाष बाबू फिर डॉक्टर साहब से मिलने गए; लेकिन उनकी अस्वस्थता के कारण काई बातचीत न हो सकी।

में २३ जनवरी १८९७ को जानकीनाथ बोस के पुत्र रूप में जन्मे श्री सुभाष बाबू जन्मजात स्वाभिमानी एवं देशभक्त थे। प्रखर बुद्धिमान, कक्षा में प्रथम रहनेवाले विद्यार्थी को कैसे सहन होता कि एक अंग्रेज अध्यापक भारतीयता की निंदा करे। तुरंत सुभाष ने उस अध्यापक को तमाचा जड़ दिया। सबसे कम उम्र मेंआई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, पिताजी के कहने के बावजूद सुभाष बाबू ने अंग्रेज सरकार की नौकरी करना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इंग्लैंड से आकर कोलकाता को अपना केन्द्र बनाया। सुभाष बाबू विवेकानंद और अरविंद घोष से प्रेरित देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए चल रहे आंदोलनों में शामिल हो गए। जब १९३० में वे कोलकाता म्युनिसिपल कार्पोरेशन के मेयर चुने गए। उस समय उनकी उम्र मात्र ३३ वर्ष थी। उन्होंने वहां की कार्य प्रणाली में अनेक सुधार कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। अनेक स्थानों एवं मार्गों के नाम बदल दिए। क्रांतिकारियों के परिवारजनों को नौकरी दिलाई।

सुभाष बाबू तेजस्वी और प्रखर वक्ता थे। इंडियन नेशनल कांग्रेस में सम्मिलित होकर भी उसी में स्वराज्य पार्टी का गठन किया गया। १९३० में लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू थे तथा २६ जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया। सुभाष बाबू पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे। बाबू चितरंजन दास से उनके घनिष्ठ संबंध थे।

आंदोलन और प्रखर भाषणों के कारण कुल ११ बार सुभाष बाबू को जेल भेजा गया था। बीच में मंडाले जेल में उन्हें तपेदिक ने जकड़ लिया। अंग्रेज सरकार नहीं चाहती थी कि जेल में उनकी मृत्यु हो जाय। अत: इलाज के लिए उन्हें यूरोप जाने की बात पर रिहा किया गया।

श्री सुभाष बाबू १९३३ से १९३६ तक यूरोप में रहे। इस बीच उन्होंने इटली के मुसोलिनी से दोस्ती की। वहां अनेक भारतीय नेताओं से उनका संबंध बना। विट्ठलभाई पटेल उनमें प्रमुख थे। पटेल वहां अस्वस्थ थे तब सुभाष बाबू ने उनकी सेवा की, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने अपनी वसीयत सुभाष बाबू के नाम कर दी। भारत लौटकर सुभाष बाबू ने सन १९३८ में ५१वें कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता हरिपुरा में की। उनके रथ को ५१ बैलों के साथ-साथ सैंकडों युवकों ने खींचा था। प्रखर भाषण के कारण एवं पूर्ण स्वराज्य के पक्षघर होने के कारण नेताजी सुभाष बाबू की प्रसिद्धि चरम सीमा पर थी। १९३९ में गांधीजी के प्रबल विरोध के बावजूद चुनाव में २०३ वोटों से जीताकर कार्य समिति ने नेताजी को चुना। गांधीजी की नाराजगी एवं बाद में उनके असहयोग से खिन्न होकर सुभाष बाबू ने त्यागपत्र दे दिया था। अब नेताजी पूरे देश भर के नेता हो गए थे।

क्रांतिकारियों के गुरु वीर सावरकर ने अनेक प्रकार से उनसे सम्पर्क किया। सुभाष बाबू के मन में चिंतन मनन चल रहा था कि विदेश जाकर स्वराज्य के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के अवसर का लाभ कैसे लिया जा सकता है, मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध लड़ रहे इटली, जर्मनी, जापान, रूस आदि का भारत के पक्ष में क्या उपयोग हो सकता है, भारतीय युवकों को सैन्य युद्ध कला का आधुनिक ज्ञान कैसे हो सकता है इत्यादि। सुभाष बाबू से इसी बीच डॉ. हेडगेवार ने कोलकाता जाकर मिलने का समय मांगा। उन्हें २ मिनट का समय मिला; परंतु मिलने पर बातचीत आधा घण्टा चली। फिर मिलने के आश्वासन के साथ भेंट सम्पन्न हुई। एक बार कोलकाता से मुंबई प्रवास के दौरान रेल के डिब्बे से सुभाष बाबू ने पुल के नीचे संघ स्वयंसेवकों का पथ संचलन देखा तबउन्हें डॉ. हेडगेवार की बातचीत स्मरण हुई तथा कभी नागपुर आकर मिलने का विचार बना।

मई-जून १९४० के दौरान नेताजी डॉक्टर साहब से मिलने पधारे; परंतु डॉक्टर साहब की अंतिम बीमारी के कारण भेंटवार्ता संभव नहीं हो सकी और अंतिम नमस्कार कर सुभाष बाबू आगे चल दिए।

आगे चल कर नेताजी को अंग्रेज सरकार ने जेल में डालने के बजाय घर में नजरबंद कर रखा था। शिवाजी के समान नेताजी ने वेश बदल कर सबको चकमा देकर जियाउद्दीन के नाम से अफगानिस्तान होकर उत्तमचंद्र मलहोत्रा के सहयोग से रूस में प्रवेश किया और मास्को होकर बर्लिन पहुंचे। क्रांतिकारी रासबिहारी बोस आदि के सम्पर्कों का उन्हें लाभ मिला। जर्मन तानाशाह हिटलर से उनकी भेंट हुई तथा विश्व युद्ध के चलते अंग्रेजों और मित्र राष्ट्रों को हराकर पराधीन राष्ट्रों, विशेष रूप से भारत को स्वतंत्र कराना मुख्य विचार रहा। एक बार सुभाष बाबू का जर्मन रेडियो पर भाषण हुआ था जिसमें देश की स्वतंत्रता की ललकार थी। आगे चलकर जर्मन पनडुब्बी से वे इंडोनेशिया होकर जापानी पनडुब्बी से जापान पहुंचे। वहां से नेताजी को पूरा तन-मन-धन से सहयोग का आश्वासन मिला। २१ अक्टूबर १९४३ को नेताजी सिंगापुर पहुंचे।

क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने पूर्व में अपने साथियों तथा जापान द्वारा बंदी अंग्रेज सेना के सैनिकों को मिलाकर आजाद हिंद फौज का निर्माण किया। सुभाष बाबू को आजाद भारत की सरकार का राष्ट्रपति चुना गया।

अब आजाद हिंद फौज की वाहिनियां राष्ट्रपति के आदेश से ‘चलो दिल्ली’ के नारों से आगे बढ़ीं। नेताजी की प्रसिद्ध ललकार हुई, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’

अब जापानी वायुसेना के सहयोग से टुकडियां रंगून तक पहुंचीं। जलसेना के सहयोग से अंडमान निकोबार को आज़ाद किया गया तथा बर्मा के मार्ग से सर्वप्रथम मोहूरांग में आजाद हिंद फौज का झण्डा फहराया गया। कोहिमा का युद्ध अंग्रेज इतिहास का सर्वाधिक जनहानि का युद्ध कहलाता है। आज भी वहां अंग्रेजों की १५०० कब्रों को देखा जा सकता है।

आजाद हिंद फौज की विजय गाथा अब भारत के हर शहर में गूंजी। तांगावाला भी बोलने लगा, ‘चल बे घोडे सरपट चाल, दो दिन में पहुंचे बंगाल।’ सारे भारत में एक तूफान उठ खड़ा हुआ। स्वतंत्रता की लहर सर्वत्र उठ रही थी। भारतीय जल सेना भी विद्रोह के लिए तैयार हो गई।

कहते हैं कि इस बीच मित्र राष्ट्रों की सेनाएं जीतने लगीं तथा नेताजी अचानक गायब हो गए। हवाई दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की खबर आई। अनेकों का ऐसा भी मानना है कि नेताजी की उस दुर्घटना में मृत्यु नहीं हुई। वरन उन्हें रूस में बंदी बना लिया गया था।

भारत १५ अगस्त १९४७ को आज़ाद हुआ जिसमें अनेकों प्रयासों में नेताजी का प्रयास भी कामयाब हुआ। नेताजी को उनके बलिदान पर शत शत नमन।

मो.: ०८७६४३५७३३७

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