परिश्रमी ठमा

नदी का मुख आरम्भ में छोटा होता है पर सागर से मिलते समय वह विशाल हो जाती है। ठीक उसी प्रकार ठमा का कार्यक्षेत्र बढ़ता गया। …ठमा का व्यक्तित्व ‘बिंदु से लेकर सिंधु’तक ङ्गैला। एक छोटे से कस्बे की शांत, सौम्य ठमा भारत के भ्रमण पर निकली। यह कोई कल्पित कहानी नहीं है, यथार्थ है, जिसे वनवासी कल्याण आश्रम ने गढ़ा।

ठमा आदिवासी जनजाति ‘कातकारी’ समाज से है। महाराष्ट्र के रायगड़ जिले में इस समाज के लोग बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। श्रीमती ठमा का जीवन बचपन से ही बड़ा परिश्रमी था। ठमा छोटी सी थी तभी उसकी मां का देहांत हुआ। आठ साल की उम्र में पिता ने उसकी शादी कर दी।

विवाह के पश्चात, ठमा ‘पवार खानदान’ में आई। उसका पति घर पर रहता ही नहीं था। वह अपने मालिक के घर रात दिन काम करता था। पन्द्रह-पन्द्रह दिनों तक घर नहीं आता था। उसका परिवार बहुत गरीब था। ठमा कहती थी कि वे कई बार भूखे रह चुके थे।

ठमा की पहली जचकी में ही तीसरे या चौथे दिन उसे पेटभर चावल खाना भी नसीब नहीं हुआ था। आर्थिक हालत अत्यंत खराब थी। सारी कातकरी जनजाति ऐसे ही हालात में थी।

सदैव चुपचाप रहने वाली, अत्यंत मेहनत करने वाली, ‘ठमी’ बहुत ईमानदार थी। इसी गुण के कारण उसे ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ में भाकरी (ज्वार या बाजरे की रोटी) बनाने का काम मिला। अपने सद्गुणों के कारण वह ङ्गलीङ्गूली। सबके सामने ‘ठमी’ के रूप में आई ‘ठमा’ बन गई। उसका रहन-सहन सा़ङ्गसुथरा था, घर भी वैसा ही रखती थी। उसे सुन्दर काम करने की आदत लगी। अच्छा रहन- सहन, अच्छा काम करने के कारण, उसके व्यक्तित्व में निखार आया। वह सबकी प्रिय बन गई।
१९८३ में ठमा ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के जाम्भिवली केंद्र में काम करने आई। १९८४ से ठमा के काम की सब ओर तारी़ङ्ग होने लगी। उसे भजन गाने में रूचि थी। भजन सीखकर वह अपनी सुरीली आवाज में नियमित रूप से गाने लगी।
ठमा अपने घर का खाना बना कर बराबर नौ बजे दूसरों के खेतों पर मजदूरी करने जाती थी। खेतों का काम निपटा कर दौड़ते भागते वह डेढ़ बजे भाकरी बनाने आश्रम पहुंच जाती थी। दोपहर को आश्रम में रहने वाले बच्चों के लिए भाकरी बनानी पड़ती थी। वह बड़ी तेजी से तीस पैंतीस भाकरियां बनाती। भाकरी बनाने के बाद भजन सीखने जाती। शाम को घर वापस लौटने के बाद एक ऊंचे टीले से पानी भरना और घर का काम करना यह उसकी दिनचर्या थी। वह शाम को घर की दहलीज पर दो अगरबत्तियां लगाती थी। ठमा सदैव किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी। वह कभी गुस्सा न करनेवाली, शांत और हंसमुख महिला थी।

दो-तीन महीनों में ही उसने भजनों की लय ताल सीख ली और ङ्गिर वह अपने मधुर कंठ से भक्ति गीत गाने लगी। आश्रम के जेष्ठ कार्यकर्ता बालासाहब दीक्षित उसे आश्रम की लता मंगेशकर कहते थे।

लोगों से मेलजोल बढ़ाने के लिए, ‘भजन’ जैसा साधन ठमा के हाथ आया। आश्रम के आसपास की चार-पांच बस्तियों में ठमा भजन गाने जाने लगी। उसे कई भजन कंठस्थ हो गए थे। कातकारी महिलाएं नृत्य की शौकीन होती हैं। भजन में ‘जोगवा’ (देवी का गीत) तथा गोलाकार घुमकर गीत गाए जाते थे। नृत्य किया जाता था। इस तरह ठमा के सम्पर्क में कातकारी महिलाओं की संख्या बढ़ने लगी। भजन में रंग आने लगा।

ठमा ने ठान लिया था कि हमेशा एक कदम गे ही बढ़ाना है। भजनों के कारण वह अनेक गांवों तथा अनेक लोगों से संपर्क कर सकी। एक बार भजन मंडल देहू, आलंदी, पुणे जैसे स्थलों की यात्रा पर गया। सत्रह महिलाएं अपने खर्चे से यात्रा के लिए आईं। कातकरी पुरुष अमूमन पत्नी को कहीं जाने की इजाजत नहीं देता; पर भजन मंडल उन आदमियों को अच्छा लगा। पांच-सात दिन महिलाएं घर के बाहर बेझिझक रहने लगीं।

ठमा को सीखने की ललक थी। वह हर हाल में कुछ ना कुछ सीखना जानती थी। देर सवेर कभी भी गाना सीखने चली आती थी। उसके पति की उसे साथ थी। ‘चन्दन है इस देश की माटी’ यह हिंदी पद्य गाना उसे नहीं आता था। ‘मनुष्य तू बड़ा महान है’ यह पद्य गाने के लिए उसे तीन हफ्ते लगे। रोज रात को दस से बारह के बीच पद्य गाने पड़ते थे। सन १९८५ से ठमा आश्रम में रहने लगी। उसके पति अनंता को पहरेदार नियुक्त किया। अनंता को भी कोई बुरी लत नहीं थी। वह भी गुणवान था। ठमा ने कारसेवा के समय ‘हम मंदिर भव्य बनाएंगे’ यह पद्य कर्जत के कपालेश्वर मंदिर में इतना सुंदर गाया की सारे श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए।

सन १९८५ के बरसात के मौसम में ठमा के अतिरिक्त तीन महिलाओं ने पहली बार लिखना सीखा। बरसात के मौसम में खेतीबाड़ी का काम अधिक नहीं होता था, अत: वह तीन चार घंटे लगातार पढ़ाई करती। आठ दिन के अंदर ठमा को सारे अक्षर, वर्ण माला आने लगी। उसकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। इस से वह किसी बात को भूलती नहीं थी।

देखते-देखते ठमा प्रथम और द्वितीय वर्ग की पुस्तकें पढ़ने लगी। अंक भी सीखे, हिसाब जोड़ना घटना सीख गई। उसे सुयश प्राप्त हुआ। कातकारी इलाके में छोटे बच्चों के लिए शिशु वर्ग शुरू करने थे। उसे पढ़ना-लिखना आ जाने पर शिक्षिका बनाने का विचार किया गया। जल्दही एक अनपढ़ कातकारी महिला, अपनी मेहनत के बल बूते पर शिशु वर्ग की शिक्षिका बन गई। दिनभर काम करना पड़ता था, कभी

फुरसत का समय नहीं, इस से बच्चों के गीत कहानियां, कविताएं ठमा ने आते जाते याद कर लीं।
ठमा और अनन्ता की प्रवृत्ति कुछ अलग किस्म की थी। वे दोनों निस्वार्थ हो कर काम करते रहते थे। ठमा को शिशु वर्ग का मानधन बहुत कम दिया जाता था। ‘प्रौढ़ साक्षरता वर्ग’ का तो कभी कुछ नहीं दिया। यह वर्ग सतत नहीं चलता था, ङ्गिर भी ठमा ‘प्रौढ़ शिक्षा वर्ग’ के लिए प्रयत्नशील थी। उसने आठ दस महिलाओं को साक्षर बनाया।

ठमा का घर भी सब को अपना लगता था। बाहर से अनजाने लोग आते, तो वे भी पहले ठमा की झोपड़ी में आते थे। उस वाडी की सामूहिक सत्यनारायण की कथा भी ठमा के घर ही होती थी। ठमा की झोपड़ी छोटी सी थी, पर कर्तृत्व में बड़ी थी। एक पंगु लड़की ‘जना’ ठमा की पड़ोसन थी। उस की शादी ठमा की झोपड़ी में ही हुई। झोपड़ी के सामने पंडाल लगाया गया। बंदनवार लगाए गए, वाद्य बजाए गए, पंडित जी आए, १७५ रुपये में ठाट- बाट में चाय नाश्ता देकर विवाह संपन्न हुआ। खाना सिर्ङ्ग दस आदमियों के लिए ही रखा गया। इस विवाह के लिए आश्रम ने भी थोड़ी मदद दी थी। महूरत पर रचाया गया यह पहला विवाह समारोह था। ठमा नींव का पत्थर बनी।

१९८६ में पापड उद्योग शुरू किया गया। प्रथम वर्ष में दो-चार महिलाओं से चालीस पचास आलू के पापड ही बने। कुछ महिलाओं ने कहा कि उनसे नहीं होगा। वे एक जगह पर बैठकर काम नहीं कर सकती। सिर्ङ्गठमा ने कहा कि थोड़े-थोड़े पापड हम रोज बनाएंगे। चौदह-पंद्रह महिलाएं रोज पापड़ बनाने लगीं। परंतु आखरी वक्त तक ठमा ही डटी रही। पापड़ का आटा गूंथना, कूटना, उसकी छोटी-छोटी लोई बनाना सारा काम ठमा अकेले करती थी। काम करने का तरीका सुव्यवस्थित था। पापड़ बनाने का काम शुरू करने पर ठमा ने मजदूरी का, खेतीबाड़ी का काम छोड़ दिया। वह रोजाना २००-२५० पापड़ बनाने लगी। उसके हाथ के बने पापड़ ऐसे गोल होते थे, मानो जैसे यंत्र से बनाए गए हों। बारिश के महीने छोड़कर छह सात महीने पापड़ उद्योग चलता था।

उद्योग दिन-ब-दिन बढ़ने लगा। उस समय मुंबई की ‘शबरी’ प्रकल्प की प्रमुख, शैलाताई ओक जाम्भिवली केन्द्र पर महिलाओं को विविध प्रकार की राखी बनाना सिखाने आई। ठमा सुन्दर राखी बनाने के काम में भी माहिर हो गई। वह कामों से न जी चुराती थी न ऊबती थी।

ङ्गिर आश्रम में पौधों की नर्सरी बनाई गई। सारी महिलाओं को न्योता देने का काम ठमा का ही होता था। न्योता मिलने पर महिलाएं समय पर आती थीं, ढेर सारे पौधे भी लगाती थीं, परंतु बाद में पौधों को पानी देने कोई महिला नहीं आती थी, वह काम भी आश्रम के जिम्मे आ जाता था। अनन्ता भी इस में शामिल हो जाता था।

अब ठमा की विचार शक्ति जागृत हो गई थी। मन को लगाम देकर खुशी से जीना भी वह सीख गई थी। उसका मन विशाल बन गया था, त्याग की प्रवृत्ति भी निर्माण हो गई थी, उसके साथ दूसरी महिलाएं भी इसी प्रवृत्ति की बनने लगीं। उसमें विभिन्न क्षेत्रों में काम करने की उम्मीद जाग उठी थी।

हर काम में ठमा निपुण होने लगी। आश्रम के द्वारा ‘हिंदू जागरण’ का कार्यक्रम तय हुआ था। ठमा पूरी तहसील में सर्वत्र घूमी। आदिवासियों से उनकी भाषा में, राम कृष्ण सबके ईश्वर हैं उनकी ङ्गोटो घर पर लगाइये, अगरबत्ती लगाकर, रोज नमस्कार कीजिये, ऐसी चर्चा की। उन को समझाया। वहीं पर चाय पीकर उन लोगों के हस्ताक्षर प्राप्त किए। ठमा आश्रम के काम में पूरी तरह से मग्न हो गई। वह अपनी बस्ती छोड़कर आश्रम में ही रहने लगी।

ठमा साक्षात अन्नपूर्णा थी। उसका बनाया खाना स्वादिष्ट होता था। ठमा की रसोई में हमेशा चावल ज्यादा ही बनता था। मेहमानों को वह चावल की गरमागरम भाकरी परोसती थी। अपने गुणों के कारण वह सब की प्रिय बनी। किसी की बेटी बनी तो किसी की बहन। बच्चों के अभिभावक मिलने आते तो ठमा के यहां चाय पीकर ही जाते। ठमा के लिए कुछ न कुछ उपहार भी लाते।

आश्रम के बच्चों पर ठमा और अनंता दोनों निगरानी रखते थे। ठमा का घर गोकुल था। बच्चे सदैव उसके घर बैठते। प्रथम वर्ग के बच्चों को ठमा सिखाती। बीमार बच्चों की पूछताछ करती। आश्रम में मछली कभी खरीदकर नहीं लायी जाती थी। बाढ़ का पानी कम हो जाने पर अनंता बच्चों को ले जाकर बहुत सारी मछली पकड़ कर ले आता था। ठमा-अनंता की जितनी भी तारी़ङ्ग की जाय कम ही है। वे आश्रम के साथ बहुत हिलमिल गए थे। अक्सर कहते थे कि बच्चों को छोड़कर खाया नहीं जाता।
‘जाको राखे साईंयां मार सके ना कोय’ इस उक्ति का अनुभव ठमा को मिला। उसे भगवान पर आस्था थी, भजन का शौक था। वह छोटे छोटे व्रत, जाप करने लगी। जाप के शब्द कंठस्थ करने के लिए दो चार दिन लगते, उसने जाप करना अभी भी जारी रखा है। मेहमान बड़ी संख्या में उसके घर आते थे। पैसा, अनाज कम ही पड़ता था। उसने माघ महीने का वैभवलक्ष्मी का व्रत करना शुरू किया। तीन चार साल के अंदर ही उसे देवी का आशीर्वाद मिला।

ठमा जो सीखती, जानती उसे सबको बताती। एक बार सात आठ महिलाओं ने शुक्रवार का व्रत प्रारंभ किया। घर में भगवान की प्रतिमाएं लगाईं, अगरबत्ती जलाई, संतोष आनंद की प्राप्ति हुई। हिंदू संस्कृति का जतन होने लगा। अब वह सिर्ङ्गधार्मिक ही नहीं, समाज प्रेमी भी बन गई।

१९९६ में वनवासी भाइयों के जत्थे आलंदी आए। ठमा चालीस लोगों को जमा कर आलंदी लाई। वह सब से कहती कि आश्रम की ओर से की जानेवाली सारी व्यवस्था ठीक होती है।

जैसे कोई मूर्ति गढ़ी जाती है, वैसे ही ठमा वनवासी कल्याण आश्रम में गढी गई। हर एक मनुष्य गुणी होता है, सिर्ङ्ग उसे मार्गदर्शन की जरुरत होती है।
महिलाओं को सजने-धजने का शौक होता ही है। परंतु ठमा का रहन-सहन अत्यंत सादा था। घर भी सा़ङ्गसुथरा होता था। ठमा रंगोली बनाना भी सीख गई थी। घर के आंगन ही उसके पूरे घर का आईना था।

नदी का मुख आरम्भ में छोटा होता है पर सागर से मिलते समय वह विशाल हो जाती है। ठीक उसी प्रकार ठमा का कार्यक्षेत्र बढता गया। एक छोटे से कस्बे की शांत, सौम्य ठमा भारत के भ्रमण पर निकली। वनवासी कल्याण आश्रम की अखिल भारतीय बैठक ‘विशाखापत्तनमम में थी। उसमें महाराष्ट्र की वनवासी समाज की प्रमुख के तौर पर ठमा को निमंत्रित किया गया। उसका कई स्थानों पर ऐसा दौरा होने लगा। वह सारी बैठकों में हिस्सा लेने लगी। इसके कारण वह बिना डरे, बेझिझक बोलना सीख गई। वह अपने विषय का महत्त्व समझाने लगी। वह महाराष्ट्र प्रान्त की महिलाओं की सह प्रमुख बनी। प्रान्त की कार्यकारिणी सभा पर वह नियुक्त हुई। ८ मई १९९८ को ठमा को मराठी ग्रंथालय की ओर से पुरस्कार प्रदान किया गया। उस समय ठमा द्वारा दिया गया भाषण पुणे के रहिवासियों को बहुत अच्छा लगा। इस पुरस्कार प्राप्ति के बाद कई जगह पर ठमा को सम्मानित किया गया। ठमा का व्यक्तित्व ‘बिंदु से लेकर सिंधु’ तक ङ्गैला। ठमा की पहचान अनेक लोगों से हो रही है। कर्जा दिलवाकर ठमा अनेक लोगों का ङ्गायदा कराती है। उसका मान-सम्मान, कीर्ति, शिक्षा, बढ़ा है, हालात सुधर गए हैं। ठमा बहुत बातें करती हैं।
फिर भी ठमा सीधी-साधी, सात्विक और प्रसन्न है।

 

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