क्या यह सिर्फ सहकारी बैंकों की ही जरुरत है ?

पलाई सेन्ट्रल बैंक लि. तथा लक्ष्मी बैंक लि. के विफल होने से जमाराशियों के लिए बीमा कराने के सम्बंध में गंभीर विचार हुआ और उसके उपरांत २१ अगस्त को संसद में निक्षेप बीमा निगम (डीआईसी) विधेयक लाया गया। संसद में पारित होने के बाद वह दिसम्बर १९६३ से प्रभावी हुआ।

प्रारंभ में यह सुरक्षा कवच वाणिज्यिक बैंकों को प्रदान किया जिसमें वाणिज्यिक बैंकों के साथ में स्टेट बैंक और उसके सहायक बैंकों और देश में परिचालित विदेशी बैंकों की शाखाएं शामिल की गईं।

१९६८ में निक्षेप बीमा निगम के अधिनियमों में संशोधन करने के बाद बीमा कवच सहकारी बैंकों को भी लागू किया गया।
१४ जनवरी १९७१ को रिजर्व बैंक ने एक कम्पनी शुरु की, जिसका नाम है क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड।
१५ जुलाई १९७८ को निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम अस्तित्व में आया।

अप्रैल १९८१ से निगम ने छोटे और लघु उद्योगों के स्वीकृत ऋण के लिए भी गारंटी सपोर्ट प्रदान करना प्रारंभ किया और अप्रैल १९८९ से पूरे प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के अग्रिमों तक गारंटी कवच का विस्तार किया गया।

बीमा कवच धारा १६ (१) के मूल प्रावधानों के अंतर्गत बीमा सुरक्षा प्रति जमाकर्ता उसके द्वारा बैंक की सभी शाखाओं में रखी गई जमा राशि को मिला कर समान क्षमता और समान अधिकार में मूलत: रु १५००/- तक सीमित रखी गई लेकिन केंद्र सरकार के पूर्वानुमोदन से बीमा सीमा समय-समय पर निम्नानुसार बढ़ाया गया।

प्रभावी तिथि बीमा राशि

१ जनवरी १९६८ ५,०००/-
१ अप्रैल १९७० १०,०००/-
१ जनवरी १९७६ २०,०००/-
१ जुलाई १९८० ३०,०००/-
१ मई १९९३ १,००,०००/-

मई १९९३ से लेकर आज तक इतनी महंगई बढ़ जाने के बावजूद केन्द्र सरकार ने इस राशि में बढ़ोतरी करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। १९९३ से आज २०१६ में उस समय की एक लाख रुपये की कीमत आज दस/पंद्रह लाख रु. हुई है। उसे ध्यान में रख कर जमा राशि की बीमा सीमा आज कम से कम दस लाख होनी चाहिए।
इस पर जो प्रीमियम लगाया जाता है उसमें जो बढ़ोतरी की गई। इसका विवरण नीचे दिया है-

रु १०० की प्रत्येक जमा राशि पर
प्रीमियम की दर
तारीख से प्रीमियम रु. में

०१/०१/१९६२ ०.०५
०१/१०/१९७१ ०.०५
०१/०७/१९९३ ०.०५
०१/०४/२००४ ०.०८
०१/०४/२००५ ०.१०

यह जो प्रीमियम भरा जाता है वह बैंक की पूरी जमा राशि को ध्यान में रख कर लगाया जाता है। लेकिन बीमा सुरक्षा की सीमा केवल एक लाख रुपये तक की जमा राशि की ही जिम्मेदारी यह स्कीम लेती है। उससे अधिक जमा राशि पर यह स्कीम लागू नहीं होती है।

इन दावों का निपटान करने के लिए कुछ अधिनियम जारी किए गए हैं और उन अधिनियमों का पालन होता है कि नहीं यह देखा जाता है। उसमें से जो जमा राशि इन अधिनियमों के पालन सीमा में आती है उसका जमाधारक को निर्धारित बीमा कवर की सीमा के अधीन किया जाता है। यह देय राशि अधिनियम की धारा १६(१) के साथ पठित १६ (३) भुगतान हेतु पात्र होती है।
किसी भी बैंक का पंजीकरण रद्द होने के बाद निगम रिजर्व बैंक से अनुरोध करके बीमाकृत बैंक का निरीक्षण/जांच पड़ताल करने के बाद उस बैंक का अभिलेख और इसकी प्रतिलिपियां मांग सकता है। इसके बाद सनदी लेखाकार दावा सूची संबंधी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं और उस दावा सूची के आधार पर भुगतान सूची तैयार की जाती है। उस दावा सूची को ध्यान में रखते हुए जमाकर्ताओं को भुगतान राशि दी जाती है।

यह भुगतान की गई राशि की वसूली धारा २१(२) के अनुसार निगम विफल बैंकों की आस्तियों से वसूल की गई राशि और बैंक की अन्य स्थायी सम्पत्ति बेच कर उसके माध्यम से जमा हूई रकम की वसूली करने का प्रयास करता है।
इस पूरी योजना को अगर हम गौर से देखेंगे तो उसमें जो त्रुटियां सामने आती हैं वे ध्यान में लेकर इस पूरी योजना में कुछ सुधार लाने की बहुत जरूरत है।

१. सन १९९३ में बीमा राशि रु. एक लाख तक बढ़ाई गई। उसके बाद से आज तक उसमें कुछ भी बढोतरी नहीं की गई, लेकिन निगम ने प्रीमियम ०.०५ से २००४ में ०.०८ कर दिया और अगले ही साल २००५ में प्रीमियम ०.१० किया लेकिन यह बढोतरी करते समय जमा राशि में एक भी रुपये की बढोतरी नहीं की।

२. जो प्रीमियम लिया जाना है वह हरेक बैंक की सम्पूर्ण जमा राशि पर लिया जाता है लेकिन जमा राशि वापस करने पर जो नियंत्रण रखा गया है उसमें १९९३ से आज तक कुछ भी बदलाव नहीं किया है। १९९३ में एक लाख रुपये का अंतरराष्ट्रीय बाजार में जो मूल्य था वह आज डॉलर या अन्य विदेशी मुद्रा के साथ तुलना करें तो उसमें हुई बढ़त कम से कम दस गुना हो गई है। इस वास्तविकता को ध्यान में लेकर आज निगम द्वारा कम से कम रु. पाच लाख की जमा राशि को बीमा कवर देने की जरूरत है।

३. जब यह मामला रिजर्व बैंक के सामने उठाया जाता है तो रिजर्व बैंक का एक ही जवाब तैयार रहता है कि इसकी जरूरत सिर्फ विफल सहकारी बैंकों को होती है, बाकी बैंकिंग क्षेत्र को नहीं और इसलिए क्या सहकारी बैंक अधिक प्रीमियम देने को तैयार हैं? इस सम्बंध में मेरा सवाल है कि सार्वजजनिक क्षेत्र के बैंकों की आर्थिक स्थिति सक्षम रखने के लिए केन्द्र सरकार हर साल करोड़ों रुपये इन बैंकों को देती है अगर केन्द्र सरकार यह पैसा नहीं देती तो बहुत से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आर्थिक स्थिति दुर्बल हो जाती और सरकार को ऐसे बैंकों को ताला लगाना पड़ता। सरकार यह जो सहायता हर साल इन बैंकों को करती है वह पैसा भी आम आदमी की जेब से ही जाता है। इस प्रकार की कोई भी मदद सरकार सहकारी बैंकों को नहीं करती है और इसलिए सहकारिता क्षेत्र के बैंकों को ऐसे निक्षेप बीमा की जरूरत पड़ती है; क्योंकि उन्हें ऐसी कोई भी मदद मिलने की कोई भी संभावना नहीं है।
४. यह स्कीम शुरू हुई उस समय भी दो बड़े निजी क्षेत्र के बैंक डूब गए थे। आज भी बैंकिंग क्षेत्र में अनेक निजी क्षेत्र के बैंकों की आर्थिक स्थिति नाजुक हुई तो रिजर्व बैंक ने इन बैंकों का एक ही दिन में दूसरे बैंकों में विलीनीकरण किया। उदाहरण के तौर पर ग्लोबल ट्रस्ट बैंक का कॉर्पोरेशन बैंक में और यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक का आई.डी.बी.आई. र्बैंक में। इसके बाबजूद रिजर्व बैंक आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र को नए बैंक खोलने के लिए लाइसेंस देने जा रहा है। इसके पीछे रिजर्व बैंक का वास्तविक रवैया क्या है यह समझ में नहीं आ रहा। ऐसी कोई भी सुविधा सहकारी बैंकों को नहीं है और राज्य तथा केन्द्र सरकार की ओर से सहकारिता क्षेत्र सक्षम करने के लिए भी योजना नहीं है।

५. इससे यह बात साफ हो रही है कि सहकारी बैंकों को अपने ही प्रयत्नों से सक्षम होना पड़ेगा और इस बात का अहसास अपने सदस्यों को देना पड़ेगा।

इन सारी बातों पर सकारात्मक विचार करने की आज आवश्यकता है और इसलिए सहकारिता क्षेत्र में काम करने वाले प्रत्येक कार्यकर्ता द्वारा रिजर्व बैंक को ‘निक्षेप बीमा योजना’ सहकारी बैंकों को कठोर नियम न बनाकर उसकी उपलब्धियों का अच्छी तरह फायदा हो ऐसा सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए जिससे सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को सक्षम होने में मदद ही होगी।

रिजर्व बैंक ‘बीमा योजना’ को बीमा क्षेत्र के नियम लगाकर ही उसका फायदा सहकारी बैंकों में ‘जमा राशि’ रखने वाले जमाकर्ताओं को ही मिलें, ऐसी सकारात्मक भूमिका लेगा तो ही रिजर्व बैंक जो ‘जमा राशि’ रखने वाले ग्राहकों का नुकसान नहीं होना चाहिए ऐसी जो भूमिका लेती है वह सच्ची है ऐसा ग्राहकों को लगेगा।

लेकिन आज पहिया उल्टा ही घूम रहा है। रिजर्व बैंक ने ‘सेबी’ के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री एम. दामोदरन की अध्यक्षता में जो समिति नियुक्ति की थी उस समिति ने २०११ में जो रिपोर्ट पेश की थी। रिपोर्ट में जो तीन सूचनाएं की गई थीं। उनमें सहकार क्षेत्र के बैंकों को सक्षम बनाने में ‘संजीवनी’ मिलकर सहकारी बैंकों में अपनी पूंजी रखने वाले सामान्य लोगों को ध्यान में रख कर तीन महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। इनसे उनका सहकारी बैंकों पर विश्वास और दृढ़ हो जाता था। ये सुझाव थे-

१. जमा राशि बीमा मूल्य रु. १ लाख से बढ़ाकर रु ५ लाख करना।

२. यही नहीं, बल्कि क्या बैंक में रखी गई सम्पूर्ण जमाराशि के लिए लागू हो इसके लिए कोई मार्ग खोजना।

३. और अगर कोई बैंक कठिनाई में आता है तो बैंक की जो रकम सुरक्षा कोष में रखी जाती है उसका उपयोग करके ग्राहकों को वह रकम बांट कर उनका विश्वास बनाए रखना।

अगर समिति की इस रिपोर्ट को लागू किया जाता तो बहुत से सहकारी बैंक जो डूब गए वे बच सकते थे। समाज के बहुत से निम्न स्तर के लोगों ने ऊपर दी गई सूचनाओं का स्वागत भी किया था। लेकिन सहकारी क्षेत्र के बैंकों की एसोसिएशन ने इस रिपोर्ट का डट कर विरोध किया और रिजर्व बैंक के तात्कालिक डेप्यूटी गवर्नर डॉ. के. सी. चक्रवर्ती ने भी एक कार्यक्रम में रिपोर्ट का विरोध करके, इस रिपोर्ट का फिर से अध्ययन करने के लिए और यह रिपोर्ट आर्थिक दृष्टि से क्यों लागू नहीं कर सकते हैं ऐसी रिपोर्ट बनाने के लिए डॉ. जसबीर सिंह की अध्यक्षता में एक नई समिति बनाई गई जिसने ‘दामोदरन समिति’ की रिपोर्ट आर्थिक दृष्टि से कैसे गलत है, ऐसी रिपोर्ट तैयार करके दामोदरन समिति की रिपोर्ट को कचरे में फेंक दिया और उन्होंने ऐसी अनेक सूचनाएं अपनी रिपोर्ट में प्रस्तुत कीं जिनसे सहकारी क्षेत्र के बैंकों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और सहकारी क्षेत्र बंद होकर फिर से ७५ प्रतिशत जनता जो आज भी आर्थिक स्तर से नीचे हैं वह फिर लूटने वाले साहूकारों से कर्जा लेने में बाध्य होकर अपने आर्थिक स्तर सक्षम नहीं बना सकेंगी और सरकार का वैश्वीकरण का नारा और सफल होकर अनेक क्षेत्रों का कारोबार निजी क्षेत्र के हाथ में जाएगा यही विचार और आगे जाने के लिए, रिजर्व बैंक के और एक डेप्यूटी गवर्नर श्री आर. गांधी की अध्यक्षता में समिति की स्थापना की। उन्होंने उनकी रिपोर्ट में जो सिफारिशें की हैं वे अगर केन्द्र सरकार मंजूर करेगी और उनकी रिपोर्ट अगर व्यवहार में लाई जाएगी तो दो साल पहले इस देश के हर नागरिक को संविधान में ९७वां संशोधन करके ‘सहकार’ का जो मूलभूत अधिकार दिया था उसे ही ठेस पहुंचेगी और यह रिपोर्ट देश के संविधान के विरोध में जाकर यह सवाल खड़ा करेगी कि क्या डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी द्वारा बनाया संविधान बड़ा है या संविधान द्वारा सामान्य नागरिकों को दिया हुआ अधिकार छीनने वाला रिजर्व बैंक बड़ा है?

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