संकल्पित मातृत्व की प्रतिक जीजा माता

वीर प्रसुता भारत माता की कोख सदा ही दिव्य मातृत्व से सुशोभित रही है। अपने राष्ट्र की सुरक्षा एवं उसे वैभव शिखर पर ले जाने में जितना पुरुषों का योगदान है उनसे कहीं अधिक माताओं की संकल्प शक्ति का है। आदि काल से अब तक माताओं की संकल्पित संतती की कामनाओं ने ही राष्ट्र की सुरक्षा एवं सरकारों की धरोहर को अबाधित रूप से बचाए रखा। चाहे वह युद्ध का मैदान हो अथवा अध्यात्म का क्षेत्र हो।

पौराणिक कथाओं में हमने पढ़ा है कि देवमाता अदिती ने जब राजा बली को परास्त करने का संकल्प किया तब कश्यप ऋषि वानप्रस्थ हो तपस्या करने चले गए थे। व्यक्तिगत तपस्या से राष्ट्ररक्षा यह सर्वपरी है यह मानकर ऋषि को तपस्या स्थल से परावृत्त कर ऐसे पुत्र की कामना की जो राजा बली को परात करें। इसी संकल्प शक्ति से वामन का जन्म हुआ। और बहुरूप में यश भूमि में जाकर मात्र तीन पग भूमि मांग कर राजा बली को पाताल लोग जाने को विवश किया।

यही आदर्श सामने रख कर सोलहवी सदी में भी एक माता ने संकल्प लिया। वह थी वीर शिवाजी की माता जीजाबाई। जीजाबाई का मन बचपन से ही राष्ट्रप्रेम से ओतपोत था। लखुजी राजे जाधव की यह ओजस्वी कन्या शहाजी राजे भोसले से विवाह कर भोसले कुल में आई। तबसे उसके मन में एक शल्य चुभता था। उसके पति शहाजी वीर पराक्रमी होते हुए भी निजामशाही के आश्रय में थे, तो लखुजी राजे उसके पिता निजामशाह के शत्रु आदिलशाह की सेवा में थे। इस शत्रुता के कारण सदैव मराठों के बीच शत्रुता निर्माण कर उन्हें कमजोर करने का षड्यंत्र वे रचते थे। जीजाऊ के देवर भी इसी षड्यंत्र के शिकार हुए एवं भरे दरबार में उनकी हत्या की गई। उनके पिता लखुजी राजे भी इसी तरह धोखे से मारे गए। जीजाऊ को लगा वह किसके लिए रोए। यवनों की इस विश्वासघाती वृत्ति से जीजामाता का मन क्लेश से भर उठा। यवनों के विरुद्ध हिन्दू शक्ति खड़ी करने का संकल्प जीजाऊ के मन में उठने लगा।

मां तुलजाभवानी के आगे उसकी आर्त पुकार गूंज उठी, ‘‘व्दार खोलों मां व्दार खोलो, मुझे आपके प्रसाद रूप में ऐसा पुत्र दो जो इस यवनी सत्ता को अपने पराक्रम से परास्त कर हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना करें। मुझे स्वराज्य चाहिए स्वराज्य।’’ मां भवानी ने जीजाऊ की प्रार्थना स्वीकार की और शिवनेरी पर १९ फरवरी सन १६३० को अर्थात फाल्गुन वद्य तृतीया को शिवबा का जन्म हुआ।

अपने इस संकल्प को पूर्ण करने जीजाऊ इन यवनी सत्ताओं से दूर पति का विरह सहते हुए शिवबा को लेकर पुणे आ गई। यही स्वराज्य का स्वप्न साकार करने शिवबा के साथ मावलों को भी संस्कारित कर उनके मन में स्वराज्य की भावना भर उन्हें प्रेरित किया। शिवबा ने इन्हीं मावलों के साथ शिवलिंग पर अपना रक्त देकर स्वराज्य की शपथ ली और अपने उम्र के पन्द्रह वे वर्ष में तोरणा किला जीत कर स्वराज्य के प्रथम सोपान पर कदम रखा और स्वराज्य का ध्वज फहराया।

अनेक संघर्षों तथा अनेक शत्रुओं को मात करने हुए अपने पुत्र शिवबा को स्वराज्य प्राप्ति हेतु कई बार मृत्यु के जबड़े में भेजा तथा मां भवानी के कृपा प्रसाद से विजश्री प्राप्त की। आदिलशाह, निजामशाह तथा क्रूर मुगल बादशाह औरंगजेब को टक्कर देकर हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना करना इतना सरल नहीं था। परंतु इस पर मात कर अंत में जीजामाता ने अपने स्वराज्य के स्वप्न को साकार होते देखा। शिवबा सिंहासनाधिष्ठ हुए। मां का संकल्प पूर्ण हुआ और राज्यारोहण के १२हवें दिन जीजाऊ ने इस लोक की यात्रा समाप्त की।

जीजाऊ के बाद भी यह परम्परा चलती रही। १५० वर्ष पूर्व एक ऐसी ही मां ने शिव की आराधना कर ऐसे ही तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसने विश्वमंच पर जाकर भारत का गौरव बढ़ाया। वह थी स्वामी विवेकानंद की माता भुवनेश्वरी देवी। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के १०० साल के इतिहास में अनेक माताओं ने राष्ट्र को सर्वोपरि मान कर अपने हृदय के टुकड़ों को फांसी के फंदे पर चढ़ते देखा फिर भी नहीं रोई है। भारत की मातृ शक्ति देवी से यही आशीर्वाद मांगती हैं कि

 वयं भावि तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्या:
                         जनन्यो भवे मेति देह्या शिषम

हम भावी तेजस्वी राष्ट्र की धन्य ऐसी जननी बने, यही भारतीय माताओं का लक्ष्य रहा है।

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