केशव का जन्म 1889 में नागपुर के हेडगेवार परिवार में हुआ। 1940 में उनकी जीवन यात्रा समाप्त हुई। उनकी आयु 50 वर्ष की थी। 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। 1947 में देश स्वतंत्र हुआ। 1889 से 1947 का कालखंड स्वतंत्रता आंदोलन से भरा हुआ था।
केशव जन्म से स्वतंत्रता सेनानी था। केवल 8 वर्ष की आयु में विदेशी रानी एलिजाबेथ के राज्यारोहण की वर्षगांठ के दिन के स्मृति प्रीत्यर्थ शाला में बांटी गई मिठाई उसने कचरे के डिब्बे में फेंक दी थी। बाल्यावस्था में ऐसा स्वाभिमान पूर्ण उदाहरण शायद भारत में यह अकेला होगा।
नागपुर शहर के सीताबर्डी किले पर फहराने वाला विदेशी यूनियन जैक निकालकर नागपुरकर भोसले का भगवा ध्वज लगाने की आकांक्षा नवमी में पढ़ने वाले केशव के मन में पैदा हुई। आगे मैट्रिक में पढ़ते समय सरकार का रिस्ले सर्कुलर आया जिसके माध्यम से वंदे मातरम गीत पर पाबंदी लगाई गई।
केशव ने बंदी तोड़ने का निश्चय किया। सभी विद्यार्थियों से सहमति ली गई। जिस दिन शिक्षा अधिकारी शाला का निरीक्षण करने आने वाले थे, वह दिन निश्चित किया गया। जैसे ही शिक्षा अधिकारी अपनी कक्षा में आएंगे तो वंदे मातरम घोषणा से उनका स्वागत करना, यह तय किया और हुआ भी वैसे ही। 2 महीने के लिए शाला बंद हो गई। पालक व शिक्षकों के बीच चर्चा होकर समझौता हुआ। सभी विद्यार्थी शाला में गए। केशव को यह मान्य नहीं था। उसने शाला छोड़ दी।
केशव दूसरों को देखकर कुछ करने वाला लड़का नहीं था। स्वतंत्र विचार करने वाला, निर्भय, परिणाम की चिंता न करने वाला और विचारों को कृति में उतारने वाला विद्यार्थी था।
कोलकाता में डॉक्टर की पढ़ाई करते समय क्रांतिकारियों की अनुशीलन समिति का सदस्य होना, क्रांतिकारी के रूप में सक्रिय होना, डॉक्टर बनकर नागपुर वापस आकर व्यवसाय तथा शादी न करने का विचार निश्चित करना, असहयोग आंदोलन में भाग लेना, इन सब निर्णयों से डॉक्टर हेडगेवार के स्वतंत्र व्यक्तित्व का महत्व दिखाई देता है। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनका अलग ही चित्र दिखाई देता है। प्रारंभ से ही संपूर्ण स्वतंत्रता का विचार वे समाज के सामने रखते रहे। स्वतंत्रता प्राप्त करना जितना महत्वपूर्ण है उसे टिकाये रखना, स्वतंत्रता चली ना जाए? इसका विचार कर उसके लिए अभी से कुछ प्रयत्न करना चाहिए, ऐसा उन्हें लगता था।
हिंदू-मुसलमान एकता की चर्चा सर्वत्र हो रही थी। ईसाई, ज्यू, फारसी इनका उल्लेख भी कभी नहीं होता था। डॉक्टर जी को लगता था केवल हिंदू-मुस्लिम एकता कहने से मुसलमान समाज में अलगाववाद की भावना निर्माण होगी और वह देश के लिए घातक होगी। उन्होंने उनके मन की यह शंका महात्मा गांधी को बताई। “मुझे ऐसा नहीं लगता” ऐसा कहकर महात्मा गांधी ने उस चर्चा को विराम दिया। हिंदू-मुस्लिम एकता का विषय स्वतंत्रता आंदोलन की अपेक्षा चर्चा में ज्यादा रहने लगा।
हिंदू स्वतः को हिंदू ना कहे तब मुसलमान “मुसलमान” शब्द छोड़ देंगे। देश को “हिंदुस्तान” न कहते हुए “हिंदस्तान” कहना चाहिए। शिवाजी को छत्रपति ना कहते हुए गलत राह पर चलने वाला देशभक्त समझे। मुसलमान कौम ईश्वर से डरने वाली पापभीरू जमात है। उनके धर्म की श्रद्धा के अनुसार वे व्यवहार करते हैं। एकता के लिए कोई भी शर्त ना लगायें। हिंदू-मुसलमान एकता की चल रही चर्चा के समय कोई भी शर्त ना लगे। हिंदू-मुसलमान एकता की चर्चा देख सुनकर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बेहद कड़ी प्रतिक्रिया उस समय व्यक्त की थी। “जिसकी बुद्धि स्थिर होगी ऐसा कोई भी मनुष्य हिंदू-मुसलमान एकता के लिए इतने निचले स्तर तक जाएगा क्या?”
मुसलमान एक कौम (जमात)। हिंदू एक कौम, ऐसा इसका अर्थ हुआ। सनातन सत्य पर दृढ़ विश्वास रखने वाली व्यक्ति यानी हिंदू यह अर्थ प्रकट नहीं हुआ।
1. सर्वंखलु इदं ब्रह्म
2. अखंड मंडलाकारम व्याप्त सर्वम चराचरम
3. ईशावास्यम इदं सर्वम यत्किंच जगत्याम जगत
4. तत्वमसि
5. एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति
नेताजी सुभाष चंद्र बोस, योगी अरविंद इनके विचारों को कांग्रेस में कुछ भी महत्व नहीं बचा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस कहते हैं कि “भारतीय संस्कृति में ऐसा कुछ है जो विश्व मानव के लिए बहुत आवश्यक है और उसे ग्रहण किए बिना विश्व सभ्यता वास्तविक उन्नति नहीं पा सकती। इसलिए भारत को स्वतंत्र होना है। योगी अरविंद कहते हैं कि India alone can lead the world to peace and new world order.
“एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति” यह सनातन सत्य विश्व को शांति की ओर और नई विश्व रचना की ओर ले जाएगा।
हिंसा मुक्त तथा अहिंसा मुक्त विश्व यदि चाहिए तो यह सत्य मानव समाज में स्थापित होना आवश्यक है। यह हिंदू कर सकता है या मुसलमान? परंतु भारत में हिंदू केवल एक कौम के रूप में ही जीता रहा। हमेशा मुसलमान का संदर्भ देकर ही हिंदुओं का विचार होने लगा।
अखिल भारतीय कांग्रेस ने 1931 में ध्वज निश्चित करने के लिए एक समिति स्थापित की। इसमें सरदार पटेल, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, मास्टर तारा सिंह, डॉक्टर पट्टाभी सितारामय्या, आचार्य काका कालेलकर, डॉक्टर ना.सु. हर्डीकर ये 7 लोग थे। उस समिति ने हिंदुस्तान की परंपरा एवं संस्कृति को ध्यान में रखकर एक रंगी केसरी (भगवा) ध्वज होना चाहिए, ऐसा निर्णय दिया। इस निर्णय की पुष्टि हेतु उन्होंने नीचे लिखा स्पष्टीकरण दिया। सभी हिंदी लोगों का एक साथ उल्लेख यदि करना हो तो उन्हें सर्वाधिक मान्य हो ऐसा केसरी रंग है। अन्य रंगों की अपेक्षा यह अधिक स्वतंत्र रूप का रंग होकर यह देश को पूर्व परंपरा से अपनासा लगता है। हिंदू जाति एवं मुसलमान जाति ऐसा विचार शुरू होने के कारण भगवा केवल हिंदुओं का ऐसा माना गया।
ध्वज समिति द्वारा प्रस्तावित केसरी ध्वज देश के ध्वज के रूप में यदि महात्मा गांधी ने मान्य किया होता तो देश का हिंदू-मुसलमान विभाजन नहीं हुआ होता। “एकम सत विप्रा: बहुधा वदंति” यह त्रिकाल बाधित सत्य मुसलमानों ने भी व्यवहार में स्वीकार किया होता। भारत विश्व का मार्गदर्शक हुआ होता। विभाजन के बाद बहुत से मुसलमानों ने पाकिस्तान में न जाते हुए भारत में रहना तय किया होता। फिर भी (मुस्लिम मानसिकता) विभाजन के समय ही तैयार हुई। भारत एक दृष्टि से पंगु हो गया। एकता का संदेश सीना तानकर विश्व को नहीं दे सकता।
केवल हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देने के कारण मुसलमान में हम कोई विशेष है, यह भावना उत्पन्न होगी तथा अलगाववादी मानसिकता तैयार होगी, ऐसी शंका डॉक्टर हेडगेवार ने महात्मा गांधी से कही। स्वतंत्रता की अपेक्षा हिंदू मुसलमान एकता का विषय महत्वपूर्ण हुआ। कथा-कीर्तन, साहित्य-कविता इत्यादि में हिंदू शब्द का प्रयोग यानी हम कोई पाप कर रहे हैं, ऐसा लगने लगा। मुझे या तो गधा कह लीजिए परंतु हिंदू मत कहिए, ऐसा कहने में गौरव महसूस होने लगा। मैं हिंदू नहीं, मानव हूं, ऐसा कहने की फैशन बढ़ने लगी। हिंदू शब्द जनमानस के स्मृति पटल से नष्ट हो गया तो स्वतंत्र भारत की भयग्रस्त स्थिति उत्पन्न होगी, ऐसा हेडगेवार को लगा। “स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात प्रणश्यति” गीता के इस वचन के अनुसार हिंदू समाज की स्थिति ना हो, इसका गहन चिंतन उन्होंने किया होगा। हिंदुत्व का एहसास कराने वाले और उसे बढ़ाने वाले, एक मौन पद्धति से चलने वाले काम का उन्होंने प्रारंभ किया। इसमें उनका स्वतंत्रता सेनानी के रूप में असामान्यत्व दिखाई देता है। यह काम वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में पहचाना जाता है।
संघ याने 1 घंटे की शाखा। भगवा ध्वज लगाना, ध्वज को सभी ने प्रणाम करना, बाद में शाखा के कार्यक्रम करना, ऐसी पद्धति का पहले दिन से प्रारंभ किया गया। केवल भगवा ध्वज के दर्शन से हिंदुत्व का एहसास होता है, ऐसा अनुभव आने लगा। भगवा ध्वज लगाकर चलने वाली शाखाओं की संख्या दिनों दिन बढ़ने लगी। समाज के गणमान्य लोगों को संघ शाखा में निमंत्रित कर संघ शाखा दिखाने का कार्यक्रम डॉक्टर जी ने शुरू किया। वर्तमान में देश में 80 हजार से अधिक स्थानों पर भगवा ध्वज लगाकर शाखाएं चलती है। संघ शाखा की पहचान ही भगवा ध्वज से होती है। विश्व में कहीं भी संघ शाखा हो, वहां भगवा ध्वज दिखेगा ही।
अपने आपको हिंदू कहने की लज्जा ना होकर हिंदू होने का गौरव आज होने लगा है। हिंदू गौरव की भूमिका लेकर काम करने वाली सैकड़ो संस्थाएं आज कार्यरत हैं। ऐसी संस्थाओं में महिला वर्ग बड़े पैमाने पर सक्रिय हैं। हिंदू होने का बोध सभी वर्गों में हो, ऐसा प्रयत्न संघ का है। जंगल, पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी बंधु हो, समुद्र के किनारे रहने वाले मत्स्य पालके हों, जिनके घर बार नहीं ऐसी घुमंतू जातियां हो, ऐसे सभी जगह संघ शाखा पहुंचाने के प्रयत्न शुरू हैं। हिंदू होने का एहसास जैसे-जैसे होगा वैसे-वैसे विचारों के बादल दूर होते जाएंगे। संघ की शाखा याने हिंदुत्व का बोध करना करने वाला स्थान। धन्य वह भारत माता जिसने केशव बलिराम हेडगेवार जैसे नररत्न को जन्म दिया।
मधुभाई कुलकर्णी