संगीत जो समां बांधता चला गया…- पं. आनंद भाटे

                 प. आनंद भाटे
                अविनाश चंद्रचूड़

स्वतंत्रता के बाद जीवन के हर क्षेत्र में आए बदलावों की अंधड़ ने संगीत को भी नहीं छोड़ा। शास्त्रीय संगीत तो था ही, पश्चिमी के साथ उसके फ्यूजन भी आए। भारतीय वाद्यों के साथ पश्चिम वाद्य भी घुलमिलकर काम करने लगे, टेक्नालॉजी ने बहुत कुछ आसान कर दिया, नई-नई दिशाएं खुलीं।  संगीत के क्षेत्र में आए परिवर्तनों पर प्रसिद्ध   गायक पं. आनंद भाटे से प्रसिद्ध संगीतकार अविनाश चंद्रचूड़ की हुई बातचीत के महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत हैं-

बालगंधर्व के काल में गायक जिस प्रकार रियाज हेतु समय देते थे उस प्रकार अभी दिया जा सकता है? क्या उस समय रियाज की जो पद्धति थी वह वर्तमान पद्धति से अलग थी?

रियाज के संबध में कहें तो रियाज के बुनियादी सिद्धांत जो पहले थे वे आज भी कायम हैं। उदाहरणस्वरुप यदि हम आवाज के  लिए ‘खरज’ की मेहनत या ओंकार साधना कहें या आवाज के लचीलेपन के लिए, घुमाव के लिए जिस प्रकार का रियाज हो उस प्रकार के रियाज को आज भी पहले के समान ही दोहराया जाता है। इसलिए इन मूलभूत चीजों में आज भी कोई अंतर आया हो ऐसा मुझे नहीं लगता।

केवल एक फर्क इतना प्रतीत होता है कि पुराने समय में माइक्रोफोन नहीं थे। इसके कारण गायकों को अपनी आवाज बिना माइक्रोफोन के लोंगों तक कैसे पहुंचे इस दृष्टि से थोड़ा रियाज करना पड़ता था। इस संबध में जो एक बात मैंने सुनी वह है- संगीतमय नाटक में जो कलाकार गाते थे उन्हें खुले मैदान या नदी तट पर ले जाकर ऊंचे स्वर में गवाया जाता था, एवं इसका रियाज कराया जाता था। वैसे ही शास्त्रीय संगीत के गायकों को भी रियाज के संबंध में सोचना पड़ता होगा। माइक के अभाव में पहले ऊंचे स्वर में गाया जाता था। वर्तमान काल में माइक के कारण यह पहलू थोड़ा बदल गया है। क्योंकि माइक्रोफोन के कारण उस प्रकार ऊंचे स्वर में गाने की अब  आवश्यकता नहीं पड़ती।

अब रियाज के लिए समय देने का जो मुद्दा है वह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। इसका कारण वर्तमान में जीवन भागदौड़ का है फिर भी जिसे अच्छी तरह से शास्त्रीय संगीत सीखना है वह अभी भी समय दे सकता है। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गायक पहले ज्यादा समय रियाज के लिए देते थे, अब नहीं देते। दूसरे, कितने समय रियाज करना है यह प्रत्येक की आवाज पर निर्भर करता है। अर्थात यदि किसी ने चार-पांच घंटे रियाज किया एवं उसका उसे फायदा हुआ तो वैसा ही फायदा अन्यों को भी होगा यह जरूरी नहीं है। कितने समय रियाज करना है यह उस व्यक्ति की आवाज के गुणावगुणों पर निर्भर करता है।

पुराने समय में जब गायक गाने के लिए बैठते थे तब उसके पीछे दो लोग तानपूरे लेकर बैठते थे। अब 2018 में हम देखते हैं कि शास्त्रीय गायक भी आईपैड का फार्मूला उपयोग में लाते हैं। इसके कारण गाने पर क्या कुछ परिणाम होता है?

हमारे शास्त्रीय संगीत में तानपूरे का अत्याधिक महत्व है। तानपूरा एक प्रकार से सुरों का कैनवास तैयार करता है एवं उसके रेफरेन्स से गायक आपना गायन प्रस्तुत करता है। अब मैं साक्षात तानपूरा एवं आईपैड के तानपूरा के बारे में दो पहलू बताता हूं। जब हम रियाज करते हैं तो वास्तविक तानपूरा से रियाज करना अधिक अच्छा होता है अर्थात हारमोनियम की अपेक्षा तानपूरे के साथ रियाज करना चाहिए। परंतु इसमें भी आईपैड की अपेक्षा प्रत्यक्ष तानपूरे पर रियाज करना अधिक अच्छा है। साथ ही साथ जब हम तानपूरा तबले के साथ मिलाते हैं अर्थात वाद्यों को एक से सूर में रखते हैं तब सुरों की अलग-अलग छटाएं मालूम पड़ती हैं।

संगीत के विद्यार्थी को यह समझ में आना अत्यंत आवश्यक है। जो सुर एक बार मन में पक्का बैठने लगता है उसके साथ तानपूरे के स्वर का मिलन होना चाहिए। इसके लिए यह अभ्यास आवश्यक है। आईपैड का जो तानपूरा है वह सुविधा के हिसाब से अच्छा है। वह अच्छे से डिजाइन किया हुआ होता है। उसमें से जो सुर निकलते हैं उन्हें वास्तविक तानपुरे के समकक्ष लाने का प्रयास किया जाता है। निश्चित ही मूल तानपूरे का जो गोल कद्दू के आकार का भाग है एवं बाकी भाग लकड़ी का है उसके कारण जो स्वाभाविक गूंज निर्माण होती है वह अलग ही है अर्थात आईपैड का तानपूरा वास्तविक तानपूरे का विकल्प नहीं हो सकता।

परंतु आजकल महफिल का वातावरण देखते हुए कौनसा तानपूरा उपयुक्त होगा, यह निर्धारित करना होता है। आजकल ऑडिटोरियम में महफिलें होती हैं। वहां के वातावरण या तापमान के कारण कौनसा तानपूरा उपयोग में लाना है इसका विचार करना पड़ता है। आडियोरियम में लाइट्स होते हैं, ए.सी. होते हैं, ए.सी. का भी तापमान कम-ज्यादा किया जाता है, इस सारे वातावरण का वास्तविक  तानपूरे पर बहुत जल्दी प्रभाव पड़ता है एंव तानपूरा जल्द बिगड़ने की संभावना होती है। वहां स्टेज पर आईपैड का तानपूरा उपयोग करना ज्यादा श्रेयस्कर होता है।

आपने स्वयं पंडित भीमसेन जोशी से शिक्षा ग्रहण की है,  शायद उनके साथ गाने का सौभाग्य भी आपको प्राप्त हुआ है। आप अपने इस अनुभव के आधार पर पुराने समय के श्रोताओं एवं वर्तमान श्रोताओं में क्या अंतर पाते हैं ?

पुराने समय एंव वर्तमान काल में समाज जीवन में हम  बदलाव महसूस करते हैं। मेरा मानना है कि ’कला’ पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। इसका मतलब आजकल की भागदौड़ की जिंदगी के कारण सभी बातों में हमारा धैर्य कम हो गया है। गाना भी इससे अछूता नहीं है। यह बात श्रोता एंव गायक दोनों के लिए लागू होती है। जैसा कि पुराने समय में पूरी रात महफिल चलती थी। तब गायक भी उसी तैयारी से आते थे। गायक धैर्य के साथ रात भर गाते थे, श्रोता भी उसी धैर्य के साथ रातभर गायकों को सुनते थे। सामान्य रूप से यह स्वरूप अब कम हो गया है। पहले संगीत नाटक रातभर चलता था। उसे अब रंगमंच के हिसाब से संकलित कर तीन घंटे में समाप्त करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार महफिली संगीत के साथ भी हुआ है। पहले शास्त्रीय संगीत में एक राग दो-दो घंटे गाया जाता था एवं लोग भी चाव से सुनते थे; परंतु अब इतना विस्तृत प्रस्तुतिकरण बहुत कम देखने को मिलता है।

मुझे ऐसे लगता है कि लोगों को महफिल में विविधता अपेक्षित होती है, हालांकि इसे हम सर्वसामान्य नियम नहीं कह सकते। आज भी श्रोताओं के कुछ समूह हैं जिन्हें एक ही गायक के दम पर तीन चार घंटे चलने वाली पूर्ण क्लासिकल महफिल पसंद है। जहां केवल अपनी कला का प्रदर्शन करना है वहां इस प्रकार की महफिलें संभव हैं। वहां सुनने वाला श्रोता वगर्र् आपको मिलेगा। कुछ ग्रुप्स में यह प्रथा अभी भी शेष है।

इस विषय मेें एक बात और कहनी है। किसी भी कला के प्रदर्शन में सामान्यता प्रतियोगी एवं प्रस्तुति ऐसे दो पहलू होते हैं। मुझे लगता है कि जैसे-जैसे संगीत ज्यादा लोगों तक पहुंच रहा है वैसे-वैसे प्रस्तुतिकरण को ज्यादा महत्व मिल रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रस्तुतकर्ता और श्रोता दोनों की यह संयुक्त जिम्मेदारी है कि वे प्रतियोगी एवं प्रस्तुति को समान महत्व दें।

वर्तमान में रेडियो, टेलीविजन, इंटरनेट आदि माध्यमों से क्या शास्त्रीय संगीत को लाभ हुआ है? या कि क्या आपको ऐसा लगता है कि इसके विपारीत परिणाम शास्त्रीय संगीत पर हुए हैं?

टेक्नालॉजी कभी भी खराब नहीं है। आप उसका उपयोग कैसा करते हैं इस पर उसके लाभ-हानि निर्भर हैं। यही बात टेक्नालॉजी के संगीत क्षेत्र में उपयोग के बारे में लागू होती है। संगीत क्षेत्र का विस्तार होने की दृष्टि से टेक्नालॉजी निश्चित ही उपयोगी है। यदि गायकों की दृष्टि से विचार किया जाए तो पुराने समय की रिकॉर्डिंग अब सहज उपलब्ध नहीं होती। वर्तमान की रिकॉर्डिंग सहज उपलब्ध है। परंतु जो वस्तु सहज उपलब्ध है, उसके विषय में कई बार ऐसा होता है कि उपलब्ध है तो कभी भी सुन लेंगे या थोड़ा अभी सुना थोड़ा बाद में सुन लेंगे। यह मौकापरस्त दृष्टिकोण हो जाता है एवं इससे सुनने में गंभीरता का अभाव रहता है। यदि हम प्रत्यक्ष महफिल सुनने जाते हैं, और मालूम होता है कि इसकी रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं होगी तो उसे हम ध्यान से सुनते हैं। टेक्नालॉजी के कारण उपलब्धता का बहुत बड़ा फायदा हो गया है। परंतु यदि उससे आप गाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं तब टेक्नालॉजी खराब है और यह टेक्नालॉजी का विपरीत प्रभावम है।

दूसरा प्रश्न स्काइप या  इंटरनेट के माध्यम से सीखने का है, लेकिन गुरु के सामने बैठकर सीखने का वह विकल्प नहीं हो सकता। गुरु के सामने बैठकर सीखने का जो महत्व पहले था वह आज भी है। हां, वह एक अतिरिक्त विकल्प हो सकता है। विश्व के कई लोग भारतीय गुरु से नेट के माध्यम से सीख रहे हैं; परंतु फिर भी आप उसका उपयोग कैसा करते हैं इस पर सब निर्भर करता है। आप गुरु से कभी प्रत्यक्ष मिले ही नहीं एवं केवल स्काइप या नेट के माध्यम से सीख रहे हैं ऐसा यदि है तो फिर विद्या प्राप्त करना कठिन है। इसलिए मेरा मत है कि टेक्नालॉजी की जरूरत है परंतु उसका उपयोग किस तरह करना है यह निश्चित करना हरेक से अपेक्षित है।

फिल्म उद्योग का जब प्रारंभ हुआ तब टेक्नालॉजी इतनी उन्नत नहीं हुई थी। फिल्म फिल्माते समय संवादों के साथ संगीत और पार्श्वसंगीत भी रिकॉर्ड करना होता था। यह करना उतना आसान नहीं था। पार्श्वसंगीत की आवाज कितनी होना चाहिए इसके लिए एक विशिष्ट अंतर रखना पड़ता था जिससे पार्श्वसंगीत एवं निश्चित वॉल्यूम से सुनाई दे। वास्तव में यह बहुत कठिन कार्य था। बाद में जैसे-जैसे टेक्नालॉजी उन्नत हुई वैसे-वैसे पार्श्वसंगीत, संगीत एंव संवाद अलग- अलग रिकार्ड करके फिल्म में उन्हें शामिल करना संभव हो गया।

40-50 के दशक के संगीत में और आज के संगीत में क्या बदलाव आया है? क्या हम उस संगीत को संगीत का स्वर्णयुग कह सकते हैं?

मुझे ऐसा लगता है कि संगीत किसी भी प्रकार का हो उस समय की सामाजिक परिस्थिति का प्रभाव उस पर होता है। सन 50 का जो काल था वह स्वतंत्रता मिलने के तुरंद बाद का काल था। इसलिए स्वतंत्रता याने मानवी जीवन का मूल्य या यह मेरा देश है इसका गर्व इन बातों को बहुत महत्व था। यह जो मूल्य हैं वे फिल्म में परिलक्षित होते थे। उदाहरणार्थ किसी फिल्म का नायक व्यवहार में कितना बलिदानी है या अन्य लोगों का ख्याल रखने वाली हिरोईन कैसी है इस प्रकार की फिल्में बनाई जाती थीं। इससे संगीत भी उस प्रकार के नायक-नायिका के चरित्र को ध्यान में रखकर दिया जाता था। इसलिए वह संगीत आज भी हमें याद आता है एवं उसका मूल्य भी हम अनुभव करते हैं।

यह संगीत प्रमुखत: भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित था। केवल शास्त्रीय संगीत पर नहीं वरन् भारतीय सभ्यता से जुड़ा था। उदा. ’तू गंगा की मौज मैं जमुना की धारा’ यह राग भैरवी पर आधारित था। ’मधुबन में राधिका नाचे रे’ यह राग हमीर पर आधारित था। शंकर जयकिशन ने ऐसे अनेक गाने राग भैरवी में संगीतबद्ध किए थे। इसके अलावा शिवरंजनी भी उनकी पसंद का राग था। इस प्रकार अनेक संगीत निर्देशकों ने अनेक रागों में गानों को संगीतबद्ध किया। उस समय अलग-अलग प्रांतों के लोक संगीत का उपयोग भी प्रमुखता से किया गया। लोक संगीत का उपयोग करने में एस.डी.बर्मन का नाम प्रमुखता से आता है। उन्होने ’होठों पे ऐसी बात’ सरीख गाना तैयार किया था। या ’ओरे मांझी’ सरीखे गीत में बंगाली लोक संगीत का उपयोग किया। वैसे ही सलिल चौधरी ने, जो बंगाल से थे, बंगाली लोक संगीत का उपयोग अपनी संगीत रचनाओं में किया। विशेषत: सिम्फनी या संगीत का उपयोग भारतीय शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत और वेस्टर्न फ्यूजन को सच्चे अर्थों में यदि किसी ने शुरू किया तो वे सलिल चौधरी ही थे।

 

शंकर महादेवन

फिल्म जगत के प्रारंभ में जब गाने बनते थे उस समय उनमें कॉर्ड का उपयोग नहीं होता था। उदा. जब गायक गाना गाता था तो उसके बाद अनेक वाद्य उस गाने को फॉलो करते थे। उसी प्रकार के म्यूजिक पीसेस बनते थे। हुसनलाल भगतराम, अनिल विश्वास, मल्लिकार्जुन मंसूर सरीखे अनेक संगीतकारों ने गानों को सुरीला बनाने, या गाने के पीछे कॉर्ड की बैकग्राउंड जैसे सफल प्रयोग किए। इसके बाद हिंदी सिनेमा में गानों का चेहरा बदल गया।

आगे चलकर सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, एस.डी. बर्मन, मदन मोहन, रोशन सरीखे दिग्गज संगीतकारों ने इससे प्रेरणा लेकर इसे आगे बढ़ाया। पियानो सरीखे पश्चिमी वाद्य का प्रयोग भी संगीत में किया जाने लगा। प्रारंभ में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित गानों की रचना होती थी फिर भी अनिल विश्वास सरीखे दिग्गज संगीतकारों ने यह दिखा दिया कि संगीत में पश्चिमी वाद्यों का प्रयोग कैसे किया जा सकता है। ’सीने में  सुलगते हैं अरमा’ सरीखे गाने में हवाईन गिटार का उपयोग खूब अच्छे तरीके से उन्होंने किया। सज्जाद हुसैन ने भी इसमें योगदान दिया। इस संगीतकार की फिल्मेें कम होते हुए भी इस क्षेत्र में उनका योगदान बहुत बड़ा है ऐसा मुझे लगता है।

ऊपर वर्णित संगीतकारों के पश्चात नौशाद गुलाम हैदर, एस.डी. बर्मन, शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों ने रागदारी पर आधारित एंव पश्चिमी इन दोनों का मिलाप कर संगीत को एक नई ऊंचाई दी। 1960 का दशक ऐसा था कि भारतीय फिल्म उद्योग के सर्वोकृष्ट गीत इस दशक में बने। लता मंगेशकर, आशा भोसले, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मन्ना डे सरीखे दिग्गज गायकों का भी इस संंगीत को ऊंचाई पर ले जाने में बड़ा योगदान था।

1960 के दशक तक गाने ’स्पूल’ पर रिकॉर्ड होते थे। ’स्पूल’ यह  एक मैग्नेटिक टेप है। हम अनेक फिल्मों में एक गोल घूमने वाली मशीन देखते हैं। एक टेप गोल घूमती रहती है और उस पर रिकॉर्ड किए गए गानों को ’स्पूल रिकॉर्डिंग’ कहते हैं। पहले कुछ ही ट्रैक में आर्केस्ट्रा अलग ट्रेक में एवं गाना दूसरे ट्रैक में रिकॉर्ड होता था। ऐसे टू ट्रैक रिकॉर्डिंग पर ये गाने तैयार हुए हैं। इसके अनेक गाने ’आल टुगेदर’ भी तैयार हुए हैं। ऐसा कहते हैं कि ’आयेगा आनेवाला’ में जो आयेगा आयेगा रिवर्स है उसे जनरेट करने के लिए एक विशेष कमरे का, जिसमें आवाज गूंजती है, उपयोग किया गया था।

      शंकर जयकिशन

टेक्नालॉजी बहुत उन्नत न होते हुए भी ये गाने इतने अच्छे हुए इसका कारण उस समय के संगीतकारों का विजन, वैसे ही म्यूजिशियन्स का योगदान, गीतकारों का योगदान, गायकों का योगदान और उनकी एक साथ रिहर्सल्स का योगदान शामिल है। इस प्रकार का गाना जब आपके अतंर्मन में प्रवेश करता है एवं उसमें जब आपकी भावनाएं भी शामिल होती हैं तो यह सब एकत्रित रूप से सुनते हुए उस गाने का एक अलग ही प्रभाव पड़ता है। दूसरी बात, गाना एकत्रित रूप से रिकॉर्ड होते समय यदि बांसुरी बहुत सुंदर बज रही हो और उसके बाद दूसरा पीस यदि सितार पर हो तो वह सितारिस्ट कहीं न कहीं बांसुरी से प्रभावित होता है और अच्छी सितार बजाता है। इसीसे  प्रभावित होकर अन्य वादक, गायक, कोरस गायक इससे सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करके संयुक्त रूप से उस गाने को बहुत ऊंचाई पर ले जाते हैं एवं उसकी रिकॉर्डिंग बहुत अच्छी होती है।

इसके बाद के समय में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आर.डी.बर्मन ये दो महत्वपूर्ण संगीतकार थे जिनके समय में ट्रैक रिकॉर्डिंग सिस्टम शुरू हुई। उस समय स्पूल पर ही गाना रिकॉर्ड होता था। परंतु नंबर ऑफ ट्रैक बढ़ गए। कहीं कहीं रिदम, मेलोडी, हार्मोनी, बेस और भूपल का ट्रैक होता था। उस समय गाने का स्वरूप भारतीय शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत पर आधारित होता था। बाद में उसमें पश्चिमी संगीत एंव वाद्य और पॉप संगीत भी शामिल होने लगा। आर.डी. बर्मन ने इसका बहुत अभ्यास किया। उन्होंने पश्चिमी संगीत का अभ्यास कर उसका वैसा ही प्रयोग नहीं किया तो उसमें भारतीय संगीत का पुट देकर तथा भारतीयों को पसंद आए ऐसा बनाकर प्रस्तुत किया। लोगों की पसंद को पहचान कर उसमें गिटार सरीखे वाद्य या ऐसे अनेक वाद्य, जो पश्चिमी थे, उन्हें भारतीय संगीत के अनुरूप मोल्ड कर वह संगीत हम तक पहुंचाया। ’चुरा लिया है तुमने जो दिल को’ इस हमारे पसंदीता गीत में गिटार सरीखा वाद्य, जो भूपेन्द्र सिंग ने बजाया है, भारतीय वाद्यों के साथ इतना मिल गया है कि हम उसकी अलग से पहचान कर नहीं सकते। ये सब वाद्य भले ही पश्चिमी हो परंतु उनकी मेलोडी हमेशा भारतीय होने के कारण ये गाने हमें कभी पराये नहीं लगे। बाद के समय में पश्चिमी संगीत की आत्मा जब हमारे गानों में समाने लगी तब वे गाने हमें उतने अपने नहीं लगे जितने भारतीय गाने। उस समय के गीतों एवं वर्तमान गीतों में यह मुख्य अंतर है ऐसा मुझे लगता है।

आर.डी. बर्मन एवं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत अधिकतर लोक संगीत या ढोलक सरीखे के वाद्यों पर निर्भर था, जो सर्वसामान्य पर अपनी अमिट छाप छोड़ता था। आर.डी. बर्मन अपने संगीत में बिलकुल नए विचार एंव नई आवाज लेकर आए। ऐसी अनेक फिल्में उन्होंने समाज को दीं।

 

 

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