विश्वनायक अटलजी!

 

                                                                            राम नाईक जी से चर्चा करते अटलजी

भारत ने अटल जी के नेतृत्व में 21वीं सदी में कदम रखा। अटल जी की सरकार ने प्रगति को नया आयाम दिया। अटल जी सच कहें तो ‘विश्वनायक’ बने।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी ऐसे महामानव थे, जिनके विचारों से विरोधी भी उनकी वाकपटुता और तर्कों के कायल रहे हैं। मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे ‘भारत रत्न’ अटल जी को करीब से जानने और उनके साथ कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ। आज से 65 वर्ष पहले मैंने जब पहली बार अटल जी को देखा तभी उनके व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित हुआ। 1953 में मैं मात्र 19 वर्ष का था और पुणे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का शिविरार्थी था। हमारे शिविर में एक रात काव्यगान का कार्यक्रम था और एक 27 साल के जोशिले युवक कवि ने अपनी ओजस्वी वाणी में कविता गायन शुरू किया…….. हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू, मेरा परिचय….। जननायक अटल बिहारी वाजपेयी का यह पहला दर्शन था। हम सभी स्वयंसेवक प्रेरित हुए। मैंने तो उसी समय देशसेवा का व्रत ठान लिया।

अटल जी की वाणी का ऐसा जादू था कि उस जमाने में जेब में रूपैया हो या न हो मैं और मेरा दोस्त शरद भिडे अटल जी को सुनने दूर-दूर तक जाते थे। पूरे महाराष्ट्र में अटल जी कहीं भी जाए हम उन्हें सुनने पहुंच जाते थे। तब मुंबई से कल्याण, डोंबिवली जाना भी लंबी यात्रा होती थी, मगर हम पहुंच जाते थे। 1955 में कल्याण में महाराष्ट्र जनसंघ का अधिवेशन था जिसमें अटल जी आए थे। निजी परिचय की शुरूआत यहीं से हुई थी।

1957 में अटल जी ने सांसद का चुनाव लड़ा। आज भी वह यादें मुझ में जोश भर देती हैं। आप यकीन नहीं मानेंगे जनसंघ संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अकाल मृत्यु के बाद जनसंघ पार्टी चुनाव लड़ रही थी। उन दिनों जनसंघ को लोकसभा के लिए उम्मीदवार मिलना मुश्किल था, फिर भी पार्टी का नाम देश भर में पहुंचे इसलिए अटल जी तीन क्षेत्रों से खड़े हुए थे। मथुरा, लखनऊ और बलरामपुर से वे चुनाव लड़ रहे थे। मथुरा में तो उनकी जमानत जब्त हो गई सिर्फ 10 प्रतिशत वोट मिले और चौथे स्थान पर आए। लखनऊ से वे दूसरे स्थान पर रहे, उन्हें 33 प्रतिशत वोट मिले। यहां से जमानत बच गई। मगर बलरामपुर से वे 52 प्रतिशत वोट पाकर जीत गए। हार-जीत के लिए नहीं पार्टी के लिए लड़ना है, यह उन्होंने सिखाया। वहीं लखनऊ से बाद में अटल जी पांच बार सांसद बने, देश के तीन बार प्रधानमंत्री भी बने।

अटल जी को नजदीक से सतत देखने का मौका आया 1969 में। 48 वर्ष पूर्व हमने अटल जी का पहली बार भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में मुंबई में स्वागत किया था। 1968 में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय के निधन के बाद जब अटल जी ने जनसंघ के अध्यक्ष के रूप में बागडोर संभाली थी तब मैं मुंबई जनसंघ का सचिव था। इस अधिवेशन में अटल जी को लेकर भव्य जुलूस निकालने का जिम्मा मुझे और मेरे दिवंगत सहयोगी वामनराव परब को दिया गया था। हम लोगों ने दिन-रात मेहनत कर बहुत बड़ा जुलूस निकाला। इस जुलूस में हजारों लोग शामिल हुए थे। अटल जी ने इस जुलूस को ‘शोभायात्रा’ कहा था। तब से यह ‘शोभायात्रा’ शब्द मुंबई की राजनीति में प्रयोग किया जाने लगा। पंडित दीनदयाल जी और अटल जी अभिन्न मित्र थे। उनकी मृत्यु के बाद अटल जी ने खुद को संभाला, जनसंघ पार्टी को भी संभाला और जनसंघ को नई दिशा भी दी। अटल जी कितने सहिष्णु थे, इसकी पहली झलक मैंने इसी अधिवेशन में देखी थी।

आज भी आमतौर पर राजनीतिक पार्टियां अपने कार्यक्रमों में सिर्फ अपनी विचारधारा के कार्यकर्ताओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचाने में लगी रहती हैं। विरोधियों को कोसों दूर रखा जाता है। मगर एक राष्ट्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं में विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए। इस भूमिका में 1969 के अधिवेशन में भूमिपूजन के लिए कांग्रेस के नेता व संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के प्रणेता मराठी के मशहूर साहित्यकार एवं पत्रकार आचार्य अत्रे को अटल जी ने विशेष रूप से आमंत्रित किया था। आचार्य अत्रे ने अपने विचार हमारे सामने रखे थे। उस अधिवेशन में अटल जी के नेतृत्व से मैं इतना अधिक प्रभावित हुआ कि अधिवेशन के बाद उन्हीं के रास्तों पर चलकर मैंने जनसंघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का निर्णय लिया। उस समय की मशहूर खीरा स्टील वर्क्स में मैं कंपनी सेक्रेटरी पद की नौकरी से त्यागपत्र देकर जनसंघ के कार्यों में पूर्ण रूप से जुट गया, मुंबई का संगठन मंत्री बना।

कैंसर के उपचार के पुन: राम नाईक जी का राजनीति में        स्वागत करते हुए अटलजी

अटल जी का आत्मविश्वास, नेतृत्व और ममत्व का अत्यंत नजदीक से अनुभव पहली बार हुआ 1980 में।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुद्दे पर अटल जी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। स्थापना के बाद पहला महाअधिवेशन करना चाहिए, कहां करेंगे ऐसा विषय हुआ। मुंबई में महाअधिवेशन करने के मेरे सुझाव को अटल जी, अडवाणी जी ने मान्यता दी। पार्टी नई थी, पूरे देश से ज्यादा-से- ज्यादा 15000 प्रतिनिधियों के आने की उम्मीद थी। मुंबई के बांद्रा रेक्लेमेशन पर कैम्प लगाकर अधिवेशन की व्यवस्था की। पहले ही दिन पूरी व्यवस्था चरमारा जाने की स्थिति पैदा हुई। अधिवेशन को अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला। देश के कोने – कोने के 58 हजार प्रतिनिधि अधिवेशन के लिए  आए। हजारों को बाहर खुले में सोने की नौबत आई। हमारे सभी शीर्ष नेता भी कैम्प में ही रह रहे थे।  वैसे मुंबई में बहुत ठंड नहीं होती मगर दिसम्बर 1980 में कुछ ज्यादा ही ठंड थी। ऐसे में अटल जी रात 2 बजे के करीब अपने कैम्प से बाहर आए। कार्यकर्ता चैन से सो रहें हैं यां नहीं, किसी को ठंड तो नहीं लग रही यह देखने के लिए अटल जी निकल पड़े। अपने कार्यकर्ता के प्रति उनका इतना ममत्व देखकर हम दंग रह गए।

इसी महाअधिवेशन में सब को प्रेरणा देते हुए अटल जी ने कहा, “अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा..“ सत्ता में रहने के बजाए अपने विचारों से समझौता न करने का साहस किया था। आगे क्या होगा ऐसी आशंका हरेक के मन में थी। ऐसे में अटल जी के इस आत्मविश्वासपूर्ण वक्तव्य ने सभी को प्रोत्साहित किया। इसी अधिवेशन में अतिथि के रूप में पधारे न्या. एम. सी. छागला ने भी भविष्यवाणी की कि ‘मेरे सामने लघु भारत बैठा है, तो बगल में भारत के भावी प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी बैठे हैं…“ इसी भविष्यवाणी के बाद उत्स्फूर्त घोषणा हुई “अगली बारी, अटल बिहारी….“ यह भविष्यवाणी सत्य हो इसके लिए हमारा यह जननायक सतत परिश्रम करता रहा। अटलजी पूरे देश में लगातार भ्रमण करते रहें। संगठन व जन समर्थन बढ़ाते रहे।

इसके बाद वर्ष 2005 तक अटल जी जब भी मुंबई आते तो उनसे मिलना होता था। सन् 1994-95 तक तो उनके मुंबई के दौरे की व्यवस्था मेरा ही दायित्व होता था, जिसके कारण अधिक से अधिक समय तक अटल जी के सानिध्य में रहने का सुअवसर मिलता था। वैसे तो राजनीति और सामाजिक कार्य के लिए वे हमेशा ही मेरे आदर्श रहे। इस काल में उनसे प्रत्यक्ष सीख लेकर मुझे अपने राजनीतिक जीवन में आगे बढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

राम नाईक जी के साथ चुनाव प्रचार के दौरान अटलजी

लोकप्रियता व चुनावी सफलता हमेशा साथ-साथ नहीं चलती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने 1984 के लोकसभा चुनाव में देखा। स्व. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी जनलहर में लोकप्रिय होने के बावजूद अटल जी स्वयं चुनाव हारे थे और पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी के सिर्फ दो सांसद चुनकर आए थे, एक आंध्र प्रदेश से और एक गुजरात से। मगर अटल जी पराजय से हार मानने वाले शख्स नहीं थे। इसके कुछ ही दिन बाद हमने मुंबई के शिवाजी पार्क पर अटल जी की सभा रखी। बड़ी संख्या में जनता इकट्ठा हुई और मेरा जननायक खड़ा हुआ… हंस कर बोला…‘हारा हुआ अटल कैसा दिखता है, यह देखने जनसागर उमड़ पड़ा है…।’ हमें सिर्फ दो जगह जीतने से लोग ‘दो या तीन बस!’ करके चिढ़ाते थे इसलिए हम मायूस थे और जो खुद पराजित हुआ था वह असामान्य नेता अपनी ही पराजय पर व्यंग्य कर रहा था। पराजय को कैसे स्वीकार करना चाहिए इसकी हमें सीख दे रहा था।

अपने आप पर भरोसा, साथियों पर भरोसा और जनतंत्र पर भरपूर विश्वास रखने वाले अटल जी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। 1996 को तो 13 दिन सत्ता में थे, 1998 में डेढ़ वर्ष सत्ता में रहने के बाद अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ। सत्ता की सौदेबाजी तब भी चलती थी। किंतु कुछ भी करके सत्ता प्राप्ति करने के मार्ग के वे प्रखर विरोधी थे। इसलिए मात्र एक वोट कम होते हुए भी उसे बटोरने के बजाय उन्होंने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने अपने मान-सम्मान के लिए सत्ता का लालच नहीं किया। जनता को उन पर विश्वास था। एक मत से विश्वासदर्शक प्रस्ताव हारे अटल जी, बहुमत लेकर फिर से प्रधानमंत्री बने। भारत ने अटल जी के नेतृत्व में 21वीं सदी में कदम रखा। अटल जी की सरकार ने प्रगति को नया आयाम दिया। अटल जी सच कहें तो ‘विश्वनायक’ बने।

अटल जी की सरकार में मैं मंत्री था। बड़ी नजदीक से उन दिनों में काम करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। इस सरकार की उपलब्धियां बताने की यहां आवश्यकता नहीं है। मगर चंद अलग प्रकार की घटनाओं का जिक्र होना ही चाहिए। अटल जी कैसे हर एक की भावनाएं समझते थे और किस तरह व्यवहार करते थे, वह आप देखेंगे तो उनकी तुलना मात्र ‘रामराज्य’ से करेंगे।

महाराष्ट्र के महान संत ज्ञानेश्वर की महिमा पूरा देश जानता है। अटल जी के कार्यकाल में संत ज्ञानेश्वर की सातवीं जन्मशताब्दी आई। ऐसे में मेरे पास सुझाव आया कि संत ज्ञानेश्वर के स्मरण में सिक्का जारी किया जाए। मैंने यह सुझाव अटल जी के सम्मुख रखा तो वह तुरंत मान्य भी हुआ। संत ज्ञानेश्वर का उचित सम्मान हो इसलिए स्वयं अटल जी ने महाराष्ट्र में आकर यह सिक्का जारी किया। तब तक देश के किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया था। दूसरी ओर अटल जी की सहिष्णुता पर जनता का जो विश्वास था, उसी के परिणाम स्वरूप मेरे क्षेत्र के प्रसिद्ध साहित्यकार फादर दिब्रिटो ने ईसा येशु की 2000वीं जन्मतिथि के अवसर पर डाक टिकट जारी करने का सुझाव दिया।  अटल जी की सरकार ने तुरंत निर्णय लिया। इतना ही नहीं तो जिस वसई क्षेत्र से सुझाव आया वहांं के बिशप हाउस में ही टिकट को मेरे हाथों से जारी भी करवाया।

करगिल युद्ध के समय भी अटल जी के व्यक्तित्व के कई पहलू देखें। अटल जी के नेतृत्व में हमने करगिल में विजय पाया जिस पर सब को नाज है। उन्हीं दिनों भाजपा के वसई नामक क्षेत्र के एक ग्रामीण कार्यकर्ता डॉ. उमेश पै के पिता का निधन हो गया। मैं सांत्वना देने के लिए गया तो उनकी मां श्रीमती पै ने अपने पति के निधन के बाद उतारे सुहाग के आभूषण मुझे सौंप दिए और कहा कि करगिल के लिए यह अटल जी को दे दूं। जब मैं ये आभूषण अटल जी को देने पहुंचा तो अटल जी की नम आंखें मुझे आज भी याद हैं, केवल भावुकता प्रकट करके वह रूके नहीं। उनके अन्दर के प्रधानमंत्री ने सहजता से अधिकारियों से पूछा कि जब-जब देश पर संकट आया है तब-तब कई माताओं ने ऐसी मदद की है, उसका हम आगे कैसा उपयोग करते हैं। तब सामने आया कि दशकों से आए ऐसे आभूषण रिजर्व बैंक में पड़े थे। फिर अटल जी ने तत्परता से उनके सही उपयोग की प्रणाली बनाई। इसी युध्द के बाद मंत्री परिषद की बैठक में हम शहीदों के परिजनों के लिए क्या कर सकते हैं ऐसी चर्चा हुई।  उसमें अलग-अलग सुझाव आए। मैंने पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा शहीद के परिवार को उनकी इच्छानुसार पेट्रोल पंप या गैस एजेन्सी देने का प्रस्ताव रखा, जो अटल जी को बेहद पसंद आया। सभी करगिल शहीदों के परिवारजनों को पंप या गैस एजेन्सी मिल रही है या नहीं इस पर वह हरदम पूछताछ करते थे।

राष्ट्र्भक्ति उनके रगों में दौड़ती थी। इसलिए एक और अलग सा काम उन्होंने किया। आजादी के बाद भारत स्वतंत्र हुआ मगर पुर्तुगाली सत्ता के कारण गोवा, दीव, दमण, तथा दादरा, नगर-हवेली को स्वतंत्रता नहीं मिली थी। दादरा, नगर-हवेली के स्वतंत्रता संग्राम के लिए महाराष्ट्र के शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे एवं महान गायक सुधीर फड़के जैसे सपूतों ने सफल संग्राम किया था। किन्तु यह दुर्भाग्य था कि इन वीरों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा उस समय की भारत सरकार ने नहीं दिया था। इनमें से कइयों ने अपनी काबिलियत पर अलग-अलग क्षेत्रों में बड़ा नाम कमाया था। मैंने यह विषय मंत्री परिषद में उठाया तो इन सभी को अटल जी ने स्वतंत्रता सेनानी का उचित सम्मान दिलाया। इतना ही नहीं तो चूंकि तब तक वे सभी सेनानी वृद्ध हो चुके थे, उनमें से अधिकतर पुणे में थे इसलिए उन्हें वह सम्मान दिलाने का कार्यक्रम पुणे में रखवाया और इस कार्यक्रम के लिए विशेष तौर पर अटल जी ने उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी को भेजा।

देशवासियों के प्रति बंधुभाव रखने वाले अटल जी हम सहयोगियों के प्रति जो स्नेह रखते थे उसका वर्णन करना मेरे लिए सम्भव नहीं है। मेरी झोली तो उन्होंने अपने स्नेह से पूरी भर दी। 1994 में मैं कैंसर से बीमार था। इलाज चल रहा था, मजबूत दिल से मैंने बीमारी का मुकाबला किया। मेरी हौसला अफजाही का कार्य मेरे आदरणीय अटल जी ने किया। मैं इलाज से पूर्व लोकसभा की विभिन्न समितियों से त्यागपत्र देने चला तो उन्होंने मुझ से साफ कह दिया, ‘त्यागपत्र नहीं चाहिए आपको वापस तो आना ही पड़ेगा।’ फिर बीमारी में मेरे मुंबई के छोटे से घर में अचानक देखने आए। मेरी हिम्मत बढ़ाते हुए कहा, ‘जब ठीक हो जाओगे तब कार्यक्रम करना, मैं आ जाऊंगा’। 25 सितम्बर, 1994 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के अवसर पर अटल जी आए थे। अटल जी के शब्द थे, ‘कभी-कभी ईर्ष्या होती है, जब किसी सहयोगी को लोगों का इतना अपनत्व मिलता है, इतना सहयोग मिलता है, इतना आशीर्वाद मिलता है।’ अटल जी कहते थे- ‘हम मौत से लड़ते हैं, मौत से जूझते हैं, जीवन भर जूझते हैं, मौत से जूझेंगेे और अपने सपनों का भारत नहीं बना सके इस जीवन में, तो परमात्मा से प्रार्थना करेंगे कि पुनर्जन्म देकर फिर से इस देश में भेज दें।’

आज भी अटल जी के वह शब्द मेरे कानों में हरदम गूंजते हैं। उस वक्त अटल जी ने समाज जीवन में काम करने वाले हर कार्यकर्ता को एक संदेश दिया। वे स्वयं तो उसका जीवंत उदाहरण थे, वही संदेश दोहरा कर मैं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं-

तेरा वैभव अमर रहे मां

  हम दिन चार रहें न रहें

ये केवल गाने के लिए गीत नहीं है। ये जीवन में साकार करने का संकल्प है।

 

 

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