“वैसे तो अटल जी बहुत विनोदी स्वभाव के थे, लेकिन किसी नए व्यक्ति से मिलते समय जल्दी नहीं खुलते थे। कार्यकर्ता नया हो या पुराना, उनके सामने जाकर उनके बिना बोले भी उनके हाव-भाव से भी कुछ न कुछ सीख कर आता। थोड़े दिनों में ही बहुत खुल जाते थे। अपनी दिल की बात कह आते।”
एक बड़े साहित्यकार के जीवन का एक प्रसंग सुनकर मैं हतप्रभ रह गई थी। प्रसंग ऐसा था कि उनकी तहे दिल से सेवा करने वाला एक नौजवान ने एक दिन कविता की पंक्तियां लिख दीं। उसने बहुत संभलते हुए अपने आराध्य कवि की ओर उस कागज के टुकड़े को बढ़ाया। अपने समय के प्रसिद्ध साहित्यकार ने उस पर लिखे शब्दों को पढ़े बिना ही फाड़ कर यह कहते हुए कूड़ेदान में डाल दिया कि तुम्हारे जैसे लोग भी कविता लिखने लगेंगे तो क्या हाल होगा कविता का। इस प्रसंग के सुनने के पूर्व उस बरगद के वृक्षरूपि कवि के प्रति मेरी बहुत श्रद्धा थी। इस प्रसंग को सुन कर मेरा वह भाव चूर-चूर हो गया था। कुछ दिनों के लिए तो मन में यह धारणा बैठ गई थी कि बड़े कवि बड़े अहंकारी भी होते हैं।
उसके विपरीत अटल जी के साथ मेरा अपना अनुभव ऐसा था कि मात्र उनके प्रति नहीं; बल्कि सभी बड़े साहित्यकारों के बारे में मेरी धारणा बदल गई। 1980 में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ था। पार्टी के अखिल भारतीय महिला मोर्चा की संयोजिका स्व. राजमाता विजया राजे सिंधिया जी को बनाया गया था। मुझे उनकी सहसंयोजिका के रूप में नामित किया गया। प्रस्ताव, सूचना एवं प्रदेशों को पत्र लिखने का काम मेरा ही था। मैं अक्सर कुछ पंक्तियां लिखने के बाद अटल जी को दिखाने ले जाती थी। अपनी व्यस्तता के समय में भी वे पंक्तियों को अवश्य पढ़ते। पढ़ने से पूर्व कलम उठा लेते थे। मैं और वे भी जानते थे कि उन पंक्तियों में संशोधन की संभावनाएं बहुत होंगी। धीरे-धीरे उन संशोधनों के कारण बहुत कुछ सीख गई। अक्सर शब्दों के अर्थ और व्यवहार भी बताते थे। पर्यायवाची शब्दों के लिए शीघ्रता से अपने टेबल पर दाहिने ओर रखी पुस्तक पलटते थे। पर्यायवाची शब्द होते हुए भी एक-दूसरे में कैसा आंतरिक संबंध और कैसा दुहराव था, समझाते थे। प्रारंभ में अपनी टूटी-फूटी भाषा को उन्हें दिखाने में बहुत झिझक होती थी। लेकिन जिस सहृदयता के साथ वे सुधार करते थे, मेरी हिम्मत बढ़ती गई। कुछ पंक्तियां अच्छी लगने पर उसे चिह्नित करना भी उनकी आदत में शुमार था। पूर्व में दो-दो पत्रिकाओं के सम्पादक जो रह चुके थे।
एक बार मैंने देश भर की हर राज्य की संयोजिकाओं के लिए पत्र का प्रारूप बनाया। सदा की तरह उनके पास ले गई। मैंने लिखा- “पगडंडी से लेकर राजपथ तक महिलाएं किसी न किसी तरह दु:खी होती हैं।” पहले तो उन्होंने अपनी विशेष भाव-भंगिमाओं में अपनी प्रतिक्रिया प्रगट कीं। फिर उन पंक्तियों को चिह्नित किया और प्रश्न उठाया- “क्या यह सही है?”
मैंने कहा-“दु:ख की तो सीमा नहीं है। विभिन्न प्रकार के दु:ख हैं। दूसरे द्वारा प्रताड़ना हो या दु:खी व्यक्ति के मन का फितूर। अपनी अपेक्षाएं उपेक्षित होने का दु:ख हो या दूसरे की अपेक्षाओं का क्षोभ। दु:ख तो दु:ख है।”
उन्होंने पुन: पंक्ति को पढ़ कर उसकी गहराई समझने की कोशिश की। समय बीतता गया। एक दिन दिल्ली से काफी दूर के एक राज्य की महिला ने मुझे कहा-“आप लोग दिल्ली में बड़े नेताओं के नजदीक रहती हैं इसलिए अधिक मिलने का अवसर मिलता है। उनकी पंक्तियों को भी आप लोग अपना लेते हो।” मैंने पूछा-“जैसे।”
उसने वही पंक्तियां दुहराईं। मेरे द्वारा लिखने के बाद अटल जी ने चिह्नित की थीं। मैंने उसके सामने कुछ नहीं कहा। अटल जी से मिलने पर मैंने शिकायत की-“आपने मेरी पंक्तियां चुरा लीं। अपने भाषण में उपयोग किया।” सर्वप्रथम तो उनकी भौंहें प्रश्नवाचक बन गईं। फिर पूछा- “कौन सी पंक्तियाँ?” मेरे बताने से पूर्व बोल उठे- “अरे तो क्या हुआ। मेरे तो लोग भाव चुरा लेते हैं।” इसके आगे मैं क्या बोल सकती थी।
वे देश-विदेश यात्रा पर ही रहते थे। विविध प्रकार के कार्यकर्ताओं से मिलते थे। जनता के बीच से भी राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने वाले विचार उठा लाते थे। और एक स्थान के अपने अनुभव दूसरे स्थानों पर फैला देते थे।
मुझे राजनीति में अपने प्रारंभिक जीवन में बहुत कुछ एक बड़े नेता से सीखने को मिला। दूसरे दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं से कैसे मिलना चाहिए, उनसे भी कुछ अच्छी बातें सीखने में कोई हर्ज नहीं। उनसे बातचीत में कोई कटुता नहीं आनी चाहिए। पत्रकार वार्ता में किसी प्रश्न का जवाब नहीं देना है तो नहीं देना है। पत्रकारों के तरफ से जितने भी सवाल हो जवाब की जरूरत नहीं है तो सिर झुकाकर चुपचाप रहना चाहिए। ऐसी बहुत सी बातें उनको देख-देखकर ही हमने सीखीं। देश भर में बहुत सारे कार्यकर्ता उनकी तरह भाषण करने का अभ्यास करते थे। कोई-कोई तो दूसरे अटल जी कहलाते थे। अटल जी के कानों तक यह बातें पहुचंती थीं, लेकिन वे कभी गुस्सा नहीं होते थे। उलटा कहते थे -“कभी उस अटल जी से मुझ से भी मिलाओ।”
वैसे तो अटल जी बहुत विनोदी स्वभाव के थे, लेकिन किसी नए व्यक्ति से मिलते समय जल्दी नहीं खुलते थे। कार्यकर्ता नया हो या पुराना, उनके सामने जाकर उनके बिना बोले भी उनके हाव-भाव से भी कुछ न कुछ सीख कर आता। थोड़े दिनों में ही बहुत खुल जाते थे। अपनी दिल की बात कह आते।
एक प्रसंग कभी नहीं भूल पाऊंगी। राज्यसभा का चुनाव होने वाला था। सुषमा जी ने मेरी उम्मीदवारी की बात बहुत गहराई से सोची थी। वे स्वयं जाकर आडवाणी जी से बोल कर आईं। मुझे भी कहा कि मैं आडवाणी जी से मिलूं। आडवाणी जी से मैं यह कह कर मिली कि मुझे सुषमा जी ने भेजा है। और वे अपना सिर हिलाते रहे। मैंने उन्हें नहीं कहा कि मुझे राज्यसभा का टिकट चाहिए। दूसरे दिन सुषमा जी ने जब प्रश्न किया कि आडवाणी जी से आप मिल लिए। कुछ कहा उन्होंने। मैंने कहा -“नहीं।“
सुषमा जी ने कहा-“अब आप एक बार अटल जी से बोल दीजिए, बाकी मैं चुनाव समिति में संभाल लूंगी।”
राज्यसभा के लिए उम्मीदवार चयन की मिटिंग का समय आ गया था। संभवत: अटल जी अपने घर से निकल ही रहे थे। मैंने फोन किया। उन्होंने अपने स्टाइल में पूछा- “हां जी महिला मंडल, क्या बात है?” मैंने कहा -“लोग कहते हैं कि मुझे भी राज्यसभा में जाना चाहिए।” वे हंसते हुए बोले- “यह तो अच्छी बात है।”
चुनाव समिति ने मेरे नाम की घोषणा नहीं की। दूसरे दिन मेरे घर पर उनका फोन आया। मैं महिला मोर्चा की मिटिंग के लिए जयपुर चल दी थी। मोबाइल का तो जमाना नहीं था। लौट कर आने पर मुझे सूचना मिली। मैंने उन्हें फोन किया। उनका जवाब था- “कहिए महिला मंडल।” मैंने कहा- “मुझे इन दिनों रहिमन कवि का एक दोहा बहुत स्मरण आ रहा है।” उनका उत्तर था- “सुनाइए, रहिमन कवि तो बहुत बड़े कवि हैं।” मैंने सुनाया – “रहिमन वे नर मर चुके, जो कहिं मांगन जाय।”
अटल जी बोले- “अरे, अरे, ये तो बहुत खतरनाक दोहा है। दूसरी पंक्ति भी खतरनाक है।” मैंने कहा- “पहली पंक्ति मेरे लिए थी। दूसरी पंक्ति जिसके लिए है वे समझे। दूसरी पंक्ति है- “उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहि।”
उन्होंने कहा- “छोड़िये रहिमन को, अपनी बात कहें।” मैंने कुछ नहीं कहा। और प्रणाम करके फोन रख दिया। इतने बड़े नेता। उनके सामने ऐसी बातें कहने की भी हम द़ृष्टता कर लेते थे। विनोदी स्वभाव, कवि हृदय अटल जी कभी इन बातों का बुरा नहीं मानते थे। कार्यकर्ताओं के मनोभाव को वे समझते थे। उस विशाल व्यक्ति को अपने जीवन भर हर पल श्रद्धांजलि देती रहूंगी, तब भी कम ही होगा। इतना उनका हम पर उपकार है।
अटल जी ने आप के अतिरिक्त भी कई अन्य लोगो के जीवन में परिवर्तन लाया है , आप का कथन शत प्रतिशत सत्य है ।
नमन ,,
बहुत ही भावपूर्ण एवं अनुसरणीय।
“गगन में लहरता है भगवा हमारा” के जनक, कवि सम्राट अटलजी का पुण्य स्मरण।