चीन विस्तारवादी है

“चीन की दृष्टि से भारत के साथ मैत्री राजनीतिक सुविधा का एक हिस्सा है। 1954 में चीन ने पंचशील का उद्घोष किया, मैत्री की घोषणाएं दीं उसका उद्देश्य यही था कि हम चीन के तिब्बत पर आक्रमण पर ध्यान न दें, उसे अनदेखा करें।”

अध्यक्ष महोदय,

उत्तर सीमा पर चीन के आक्रमण से देश में राष्ट्रीय संकट आया है। उसके निवारण के लिए राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। लेकिन मुझे यह कहना पड़ रहा है कि इस समस्या पर देश में जो राष्ट्रीय एकता की भावना प्रस्फुटित हो रही थी, उसे प्रधानमंत्री के कल के भाषण से अनजाने में आघात पहुंचा है। चीनी आक्रमण के राष्ट्रीय संकट का राजनीतिक लाभ उठाने का विचार कोई भी दल नहीं करेगा।

इस बारे में सरकार के साथ हमारे प्रामाणिक मतभेद हैं, जिन्हें हम जनता के समक्ष रखेंगे। लेकिन इस संकट का हम राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास कर रहे हैं यह प्रधानमंत्री न समझें, यह मेरा उनसे आग्रहपूर्वक निवेदन है।

कल प्रधानमंत्री ने जिन दलों का बहुरंगी भीड़ (Motley Crowd) के रूप मेें व्यंग्यात्मक उल्लेख किया है उस भीड़ ने ही केरल में कम्युनिस्ट सरकार हटाने के लिए समर्थन दिया था इसे उन्हें ध्यान में रखना चाहिए। उस समय उन्होंने हमें ‘बहुरंगी भीड़’ नहीं कहा था। उस समय यदि उन्हें हमारा समर्थन उचित लगा तो आज हमारा विरोध भी उन्हें स्वीकार करना होगा और उस पर शांति से विचार करना होगा। केरल में केंद्र सरकार की कार्रवाई का हमने समर्थन किया था, तब कम्युनिस्टों ने हम पर संकीर्ण दलीय भूमिका अपनाने का आरोप लगाया था। लेकिन तब भी हमारी भूमिका दलीय राजनीति की नहीं थी। केरल में लोकतंत्र ही संकट में पड़ गया था। इसलिए दलीय विचार त्याग कर हम एकत्रित हुए थे, आज भी चीनी आक्रमण के कारण देश पर संकट आया है और इसलिए हम आपस के मतभेद भूलकर एकत्रित हुए हैं।

ऐसे संकट के समय हम सभी को एक स्वर में बोलना चाहिए यह अपेक्षा प्रधानमंत्री ने व्यक्त की है, लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तब वे नाराज होते हैं यह खेदपूर्वक कहना पड़ता है।

प्रधानमंत्री नेहरू  मैं बिलकुल नाराज नहीं हुआ हूं।

वाजपेयीः यह सुनकर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है। लेकिन आपको हमारा दृष्टिकोण भी उचित भाव से समझना चाहिए।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे संसद की राय जानने को इच्छुक हैं। संसद से मार्गदर्शन की उन्होंने अपेक्षा व्यक्त की है। मेरी इस बारे में एक शिकायत है। चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाय की ओर से हमारे प्रधानमंत्री को 7 नवम्बर को एक पत्र मिला है। अपनी ओर से 16 नवम्बर को उसका जवाब भेजा गया    और 16 नवम्बर से ही लोकसभा का अधिवेशन आरंभ हुआ। प्रधानमंत्री को यदि संसद की राय जाननी होती तो वे चाऊ एन लाय को दो दिन देरी से जवाब भेज सकते थे। उनके देहरादून दौरे के बारे में पत्रोत्तर को दो दिन देरी की जा सकती है तो लोकसभा की बैठक के कारण दो दिन का विलम्ब करना संभव था। 16 नवम्बर को हमने इस प्रश्न पर स्थगन प्रस्ताव पेश किया उस समय प्रधानमंत्री चाऊ एन लाय के पत्र को उत्तर भेजने के पूर्व यदि संसद की राय जान लेते तो उन्होंने पत्र में जो मुद्दे रखे हैं उसका स्वरूप अलग हो सकता था।

भारत-चीन के बीच सीमा परम्परा से, विभिन्न करारों-समझौतों के जरिए निर्धारित हुई है, उसे नए सिरे से निर्धारित करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता यह अब तक भारत सरकार की भूमिका रही है और पूरे देश ने सरकार की इस भूमिका का समर्थन किया है। प्रधानमंत्री ने बल देकर यह भी कहा है कि जब तक भारतीय भूमि पर चीन का कब्जा कायम है तब तक चीन के साथ कोई बातचीत नहीं की जाएगी। उनकी इस भूमिका का भी देश ने समर्थन किया है। चीन के साथ छोटे-मोटे विवादों पर समझौता हो सकता है; परंतु सीमा के बारे में कोई समझौता नहीं किया जाएगा यह भी प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया है। उसका भी सब ने समर्थन किया है। लेकिन प्रधानमंत्री ने चीन के प्रधानमंत्री को जो ताजा पत्र भेजा है उसमें वे इस भूमिका से कुछ हट गए हैं, यह मेरी शिकायत है। उन्होंने कहा है कि चीन यदि भारतीय भूमि से फौज हटाता है तो हम भी अपनी फौज उस इलाके में नहीं भेजेंगे। इसे स्वीकार करने की क्या जरूरत है? चीन का आक्रमण हटाने के लिए क्या हम यह कीमत चुका रहे हैं? मुझे लगता है कि सरकार की यह भूमिका देश की संप्रभुता के विरुद्ध है, गलत है। चीनी हमले के बारे में यदि दृढ़ भूमिका हम नहीं लेंगे तो चीन हमसे सीधा बर्ताव नहीं करेगा। चीन के आक्रमण के पीछे एक बड़ी साजिश है। ‘छोटे-मोटे हमले’ कहकर हम उसकी अवहेलना नहीं कर सकते।

यह वह चीन नहीं

चीन विस्तारवादी बन चुका है। हमारे रक्षा मंत्री ने कांग्रेस पार्टी की बैठक में चीन के भारत के साथ दो हजार वर्षों से मैत्रीपूर्ण सम्बंध होने का जिक्र किया है। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री आरंभ से ही चीन विस्तारवादी, आक्रामक होने की बात कह रहे हैं। जनता किस पर भरोसा रखें? मैं कहना चाहता हूं कि जिस चीन के साथ दो हजार वर्षों से हमारे सांस्कृतिक सम्बंध थे, वह चीन अब नहीं बचा है। जिस चीन में हमारे धर्माचार्य भगवान गौतम बुद्ध का संदेश लेकर पहुंचे थे, उस चीन को कम्युनिस्टों ने तबाह कर दिया है। ह्यू एन त्संग और फाहयान के जरिए मैत्री का संदेश देनेवाला चीन अब नष्ट हो चुका है और  चीन की उस चिता पर एक नया साम्राज्यवादी चीन खड़ा हुआ है।

पिछले कुछ वर्षों में चीन ने अपनी सीमाएं कितनी विस्तारित की हैं, यह देखने लायक है। जो मंचूरिया 1911 तक कभी चीन पर राज करता था, उसका अब नामोनिशां भी बचा नहीं है। वह अब चीन के पूर्वोत्तर इलाके का एक छोटा सा हिस्सा बनकर रह गया है। जो कभी तुर्किस्तान था वह प्रदेश अब सिंकियांग बन चुका है। शेष मंगोलिया का अस्तित्व खत्म हो चुका है। धर्मभूमि तिब्बत की बलि चीन ने ली है। चीन का मूल भूभाग केवल 14 लाख वर्ग मील था। लेकिन मंचूरिया, शेष मंगोलिया, कांसू, शंघाई, सिंकियांग और तिब्बत के 22 लाख वर्ग मील पर चीन ने कब्जा कर लिया है। अब उसकी गिद्ध नज़र भारत के 48 हजार वर्ग मील प्रदेश की ओर मुड़ी है।

एक शरणार्थी लामा ने कहा है कि चीन अब यह प्रचार कर रहा है कि तिब्बत चीन की हथेली है और लद्दाख, भूटान, सिक्किम, नेपाल एवं असम उसकी पांच उंगलियां हैं। लद्दाख और लोंगजू में यदि हम चीनी आक्रमण का शीघ्र प्रतिकार नहीं कर सके तो चीन का साहस बढ़ेगा और हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा संकट में पड़ेगी यह स्पष्ट है।

अक्साई चीन में चीनी सड़क

प्रधानमंत्री ने संवाददाताओं से बातचीत करते हुए एक स्थान पर कहा है कि, अक्साई चीन में चीन ने जो रास्ता बनाया है, उसका वे फौजी कामों के लिए उपयोग नहीं करेंगे तो भारत उसे मान्यता दे देगा। मैं यह पूछना चाहता हूं कि उस रास्ते पर जो भारतीय भूभाग है उसका क्या होगा? और उसका उपयोग फौजी कारणों के लिए हो रहा है या अन्य किसी कारण के लिए इसे कौन तय करेगा? कैसे तय होगा? वर्तमान में युद्ध का स्वरूप एकीकृत, सर्वस्पर्शी होता है। इसलिए फौजी- गैरफौजी इस तरह का विभाजन किया ही नहीं जा सकता।

सरकार द्वारा जारी श्वेतपत्र मैंने ध्यानपूर्वक पढ़ा है। चीन क्या वाकई भारत के साथ मैत्री चाहता है, इस प्रश्न का उत्तर उसमें खोजने की मैंने कोशिश की। यह उत्तर ‘नहीं’ है यह मेरे ध्यान में आया। चीन को भारत से मैत्री करने की इच्छा ही नहीं है। इस संदर्भ में 16 मई 1959 को चीनी दूतावास द्वारा अपने विदेश सचिव को भेजा निवेदन गौर करने लायक है। उसमें कहा गया है- ‘चीन इतना मूर्ख नहीं है कि पूर्व में अमेरिका और पश्चिम में भारत के साथ एक ही समय मेें दुश्मनी मोल लें। हम एक ही समय पर दो मोर्चों पर ध्यान नहीं दे पाएंगे और हम दुश्मन को दोस्त भी नहीं समझ सकते।’

उसमें आगे कहा गया है- ‘आप एक ही समय में दो मोर्चों पर लड़ नहीं सकेंगे यह हमारी राय सच है न? यदि ऐसा है तो हम दोनों के विचार इस मामले में समान हैं।’

विश्व शांति आवश्यक है। ध्यान रखना चाहिए कि चीन ने यह नहीं कहा है कि भारत-चीन की जनता के विकास के लिए शांति वांछनीय है। चीन के लिए भारत के साथ शांति उसकी व्यूहरचना का एक अंग है। एक ही समय में दो मोर्चों पर लड़ा नहीं जा सकेगा इसलिए चीन को भारत के साथ शांति चाहिए और भारत को भी उसकी यही सलाह है! यह भूमिका भारत और चीन के बीच मैत्री, शांति का स्थायी और रचनात्मक आधार कैसे हो सकता है? मैं प्रधानमंत्री से अनुरोध करता हूं कि वे इसे स्पष्ट करें। चीन की दृष्टि से भारत के साथ मैत्री राजनीतिक सुविधा का एक हिस्सा है। 1954 में चीन ने पंचशील का उद्घोष किया, मैत्री की घोषणाएं दीं उसका उद्देश्य यह था कि हम चीन के तिब्बत पर आक्रमण पर ध्यान न दें, उसे अनदेखा करें। तिब्बत की बलि देने पर चीनी राक्षस की भूख शांत होगी और भारत पर संकट नहीं आएगा- हमारे प्रधानमंत्री शायद यह सोचते होंगे। लेकिन वे इतिहास की सीख भूल गए लगता है।

तिब्बत के विनाश का परिणाम

इतिहास साबित करता है कि आक्रमण के आगे घुटने टेक देने से उसकी भूख शांत नहीं होती, उल्टे वह अधिक बढ़ती है। तिब्बत चले जाने से हमारी सीमा चीन के लिए खुली हो गई है। भारत का स्वाभिमान मिट्टी में मिलाकर यहां के कम्युनिस्ट लोग चीनी गणतंत्र के उत्सव में भाग लेने के लिए पेकिंग गए थे। उनसे मैं पूछना चाहता हूं कि, सांगत्सी में हमारे व्यापार प्रतिनिधि – मंडल से चीन ने जिस तरह अमानवीय, अपमानास्पद बर्ताव किया क्या वह चीन की सदिच्छा का लक्षण है? एक ओर रूस और अमेरिका अपने पुराने शत्रुओं के साथ व्यापारिक रिश्तें सुधारने का प्रयास कर रहे हैं और दूसरी ओर चीन तिब्बत के साथ अपने प्राचीन व्यापारिक रिश्तों को हंसिया से काटकर उस पर हथौड़े से वार कर रहा है। इससे साबित होता है कि चीन को भारत के साथ मैत्री रखने की इच्छा नहीं है। चीन के संकट का प्रतिकार करने के लिए हमें इसे संकट के स्वरूप को ठीक से समझना होगा। हमारे प्रधानमंत्री ने 25 अगस्त 1959 को केरल के बारे में हुई चर्चा के दौरान कहा था कि भारत के सभी लोग कम्युनिस्ट हो गए तो भारत, भारत नहीं रहेगा। चीन को भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। आज का चीन और पुराना चीन दोनों में कोई साम्य नहीं है, कोई सम्बंध नहीं है। आज हमारे समक्ष साम्राज्यवादी चीन खड़ा है। हमारे प्रधानमंत्री इतिहास के जानकार हैं। उन्होंने इतिहास लिखा है। अभी वे इतिहास रच रहे हैं और भविष्य में इतिहास में उनका गौरवपूर्ण उल्लेख किया जाएगा। लेकिन चीन विस्तारवादी, आक्रामक होने की बात अभी उनके ध्यान में कैसे आई? दस साल पहले ही यह बात उनके ध्यान में क्यों नहीं आई? हमने सीमाओं की रक्षा पर ठीक से क्यों ध्यान नहीं दिया? हम गफलत में रहे यह कटु है, लेकिन सत्य है। हमने अपनी ताकत पर निर्भर रहने के बजाय चीन की सदिच्छा पर अधिक भरोसा रखा। इसी कारण आज हमें अपेक्षा भंग का दुख झेलना पड़ रहा है।

अध्यक्ष महोदय, आज हमारे रक्षा मंत्री का भाषण हुआ। हमारे इस रक्षा मंत्री का इतिहास संदेहास्पद है और वर्तमान का आचरण आक्षेपार्ह है। उन्हें न जनता में मान्यता प्राप्त है, न कांग्रेस पार्टी में। उनका झुकाव कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर है। इसी कारण वे प्रधानमंत्री की निर्गुट नीति पर ठीक से अमल करते हुए दिखाई नहीं देते। प्रादेशिक सेना दिवस पर दिए संदेश में उन्होंने एक विचित्र मुद्दा उपस्थित किया है। उनका कहना है कि भारत को बड़ी सेना नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि वह भारत की नैतिकता के अनुकूल नहीं होगा। यदि वे यह मानते हैं कि भारत को बड़ी सेना नहीं रखनी चाहिए तो ऐसी सेना का नेतृत्व करना उनकी दृष्टि से अधिक अनैतिक होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति देश का रक्षा मंत्री होना देश की दृष्टि से अत्यंत घातक बात है। उन्हें वास्तव में अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए और भारत साधु समाज में शामिल होकर नैतिक जागरण का कार्य करना चाहिए।

भारत द्वारा बड़ी सेना रखने में कुछ भी अनैतिक नहीं है। उल्टे, शत्रु हमारे सीमा पर आ डटने से बड़ी सेना न रखना अनैतिक होगा। इसके लिए हमें अपने रक्षा मंत्री को ही जिम्मेदार ठहराना होगा।

मैं एक और बात कहना चाहता हूं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि सभी अपनी बातें स्पष्टता से रखें। मुझे रक्षा मंत्री से एक प्रश्न पूछना था, किंतु अध्यक्ष महोदय आपने मुझे अनुमति नहीं दी। मेरा प्रश्न यह है कि, जिस दिन लोकसभा में जनरल थिमैया के इस्तीफे पर बड़ा हंगामा हुआ था (जो दूसरे दिन प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के कारण रुका) उसी दिन शाम को अपनी सेना के एक कर्नल ने रक्षा मंत्री के घर जाकर उनका अभिनंदन किया था- क्या यह बात सच है?

रक्षा मंत्री के बारे में जनक्षोभ

अध्यक्ष महोदय, आज देश में सर्वत्र रक्षा मंत्री के विरोध में क्षोभ है। इसका मुख्य कारण यह है कि, लोगों को संदेह है कि रक्षा मंत्री फौज में, उनसे व्यक्तिगत निष्ठा रखनेवाले अधिकारियों का एक पृथक गुट तैयार कर रहे हैं। यह भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नेहरू की अनुपस्थिति में इन निष्ठावान अधिकारियों के बल पर देश की सत्ता हथियाने की रक्षा मंत्री की साजिश है। यह संदेह निराधार भी होगा और वैसा ही हो ऐसी मेरी इच्छा है। लेकिन यह कानाफूंसी, यह संदेह व्यक्त होते हुए अवश्य दिखाई देता है। मैं अब केवल 70 वर्ष का युवा हूं यह कहकर पंडित नेहरू को मजाक में यह बात नहीं लेनी चाहिए। उन्हें भरपूर आयु मिले यही हमारी सद्भावना है। परंतु लोगों के मन का यह संदेह दूर करना आवश्यक है। हमारे वर्तमान रक्षा मंत्री विश्वसनीय नहीं हैं। देश पर विदेशी आक्रमण होने के बाद रक्षा मंत्री के पद पर पूरी तरह अविवादास्पद, सीजर की पत्नी की तरह संदेहातीत व्यक्ति होना चाहिए। देश को महान त्याग की प्रेरणा देने वाला व्यक्ति इस पद पर होना चाहिए। वर्तमान रक्षा मंत्री उस दृष्टि से अयोग्य है। मुझे उम्मीद है कि प्रधानमंत्री अपनी व्यक्तिगत मैत्री के लिए राष्ट्रहित को संकट में नहीं डालेंगे।

इस चर्चा में विदेश नीति का मुद्दा भी उपस्थित किया गया। हम विश्व के दो गुटों में से किस गुट में शामिल हो यह मेरी राय में विवाद का मुद्दा नहीं है। हमारी सीमाओं पर आक्रमण का जो संकट आया है उसका विदेश नीति से कोई सम्बंध नहीं है। हम किसी भी गुट में शामिल न हो यह प्रधानमंत्री की नीति है और कम्युनिस्ट छोड़कर सभी देश उनसे सहमत हैं। हम सोवियत संघ के गुट में शामिल हो यह प्रयास कम्युनिस्ट लगातार करते रहते हैं। कम्युनिस्ट हमारी विदेश नीति का पहले से ही बड़ा विरोध कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री को लगता है कि वे उनके समर्थक हैं और आरंभ में विदेश नीति का समर्थन करने वाले लोग उन्हें विरोधी लगते हैं। हम किसी भी गुट में शामिल हो यह कोई भी सुविज्ञ व्यक्ति नहीं कहेगा। वह अपने हित में नहीं होगा। हम किसी गुट में शामिल हो, विदेशी सेना हमारी धरती पर आए यह हमारे स्वाभिमान के लिए भी शोभनीय बात नहीं होगी। इससे अपने बीच राष्ट्रवाद की भावना दुर्बल होगी, अंत में हमें इसी राष्ट्रवाद की भावना पर ही, राष्ट्रीयता के बल पर ही विकास करना होगा और आत्मरक्षा करनी होगी। इसलिए हमें किसी गुट में शामिल होने या किसी से मोर्चा बनाने की आवश्यकता नहीं है।

लेकिन वर्तमान में देश पर आए संकट को खत्म करना होगा यह जनता की तीव्र भावना है। इसके लिए सरकार आवश्यक सारी सेना और सामग्री जुटाए, अधिक साधनों की जरूरत हो तो देश की जनता का आवाहन करें। प्रधानमंत्री ऐसी अपील करें तो पूरा देश उनके साथ खड़ा होगा। लेकिन यह आवाहन चीन का आक्रमण हटाने के लिए करना होगा, चीन के आगे घुटने टेकने के लिए नहीं।

(भारत-चीन सम्बंधों पर लोकसभा में 26 नवम्बर 1959 को ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के समय किए गए वाजपेयीजी द्वारा किए गए भाषण के सम्पादित अंश)

 

 

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