भारत भाग्यविधाता

अटल जी की सांसों में सामान्य व्यक्ति को अपने हृदय के स्पंदन का आभास होता है। शायद यही उनकी लोकप्रियता का रहस्य था एवं विश्व उनकी ओर ’भारत भाग्यविधाता’ के रूप में निहारता था।

स्वतंत्र भारत की राजनीतिक स्थिति का इतिहास देखते हुए आपातकाल के बाद सन 1977 में सभी राजनीतिक दल एक हो गए एवं उन्होंने जनता पार्टी स्थापित की। परंतु जयप्रकाश जी की प्रेरणा से स्थापित इस दल की सरकार ढाई वर्ष में ही गिर गई। इसके बाद आए चौधरी चरण सिंह अपनी सरकार छह महीने भी नहीं चला पाए। विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल सरकार 15 महीने ही चली तो चंद्रशेखर की सरकार चार माह भी पूरे नहीं कर सकी। सन 1996 में कांग्रेस के सहयोग से वाम दलों ने सरकार बनाई। देवेगौड़ा एंव इंद्रकुमार गुजराल जैसे दो प्रधानमंत्री बने परंतु ये सरकारें भी अल्पजीवी साबित हुईं।

ऐसी अस्थिर स्थिति के बावजूद अटल जी के नेतृत्व में 24 दलों की संयुक्त सरकार कुल छह वर्षों तक सत्ता में रहीं। उस कालखंड में देश की सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संबध एवं आर्थिक समृद्धि के विषय में देश प्रगति की राह पर चला। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? पहले दिन से ही सरकार गिरने की, संघ परिवार एवं सरकार में शामिल दलों के बीच दरार पैदा करने की, अटल जी-आडवाणी जी के बीच मतभेदों की अफवाहें उड़ाने के कुछ कम प्रयास नहीं हुए। मोर्चे में शामिल विभिन्न दलों के बीच व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, दलीय स्वार्थ के कारण मतभेद उभरे नहीं ऐसा नहीं था। सरकार में शामिल दल मोर्चें के अंदर आते-जाते रहे एवं सरकार गिराने की कोशिश नहीं हुई ऐसा भी नहीं था। परंतु सरकार फिर भी स्थिर एंव मजबूत रही। यह जादू कैसे हुआ? तो इस जादू का नाम था अटल बिहारी वाजपेयी। अटल जी के दूरदर्शी, सहिष्णु, उदार, सर्वसमावेशक तथा धीरोदात्त स्वभाव के कारण मोर्चे में शामिल प्रत्येक दल एंव नेताओं का विश्वास उन्होंने जीता था। यह बात अब सभी दल मानते हैैं। द्रमुक जैसे दलों को अपनी-अपनी राजनीतिक लाभों के कारण मोर्चे से हटना पड़ा था। फिर भी उन्होंने अटल जी के नेतृत्व की मुक्त कंठ से प्रंशासा की थी। श्री करुणानिधि ने अटल जी के नेतृत्व को कमजोर करने के प्रयत्नों की खुलेआम निंदा की थी। (एशियन एज, 16 जनवरी 2004)

व्यक्तित्व का यह चमत्कार केवल सत्ता में बने रहकर राजनीतिक स्थिरता देने तक ही सीमित नहीं था। वरन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं सुरक्षा विशेषज्ञ करकरे के अनुसार अटल जी ने इन छ: वर्षों में देश को शक्ति, शांति एवं समृद्धि के तीन सूत्रीय मार्गों की ओर अग्रसर किया। 1 मार्च 1998 में सत्ता ग्रहण करने के बाद तत्काल पोखरण परमाणु परीक्षण का निर्णय लेना कम साहस की बात नहीं थी। पूर्व की सरकारों को, पूरी तैयारी होने के बाद भी जो निर्णय विदेशी दबाव एवं प्रतिक्रिया के कारण लेने में विफलता हाथ लगी, वह निर्णय अटल जी ने लेकर देश के मन में आत्मविश्वास संचारित किया। कऩाडा, जापान, अमेरिका द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के विरुद्ध स्वावलंबन का मंत्र देश को दिया।

बहिष्कार करने वाले सारे देश अब भारत के मित्र बनकर भारत की ओर आदर के साथ देख रहे हैं। विदेश नीति  के विषय में भारत के मित्रों की संख्या बढ़ी है। अमेरिका-रूस-चीन इन महाशक्तियों के साथ ही ब्रिटेन-फ्रांस-जर्मनी इन यूरोपीय देशों से भी मित्रता हुई। इजराइल एवं उसके विरोधी मुस्लिम देशों से भी एक समान मित्रता स्थापित हुई थी। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से भी पुराने सांस्कृतिक संबंध पुनर्जीवित हुए थे। इस सबके पीछे अटल जी का व्यक्तित्व था ऐसा दीख पड़ता था। उन्होंने बीस से अधिक देशों की यात्राएं कीं। प्रत्येक यात्रा में नए मित्र बनाकर एवं पुराने मित्रों के साथ मित्रता को दृढ़ करके वे लौटे थे।  भारत के हितों को संभालते हुए विश्व शांति की दिशा में आगे पग बढ़ाना यह उनकी विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य रहा है। यह भारतीय नीति दुर्बलता पर नहीं अपितु स्वाभिमान पर आधारित थी। इसलिए अमेरिकी दबाव के आगे न झुकते हुए इराक में भारत की सेना नहीं भेजी। कश्मीर समस्या पर अमेरिका की मध्यस्थता को नामंजूर करते हुए आर्थिक-वैज्ञानिक बहिष्कार को वापस लेने हेतु याचना भी नहीं की। राष्ट्र यदि अंदर से दुर्बल हो तो उसे विश्व में सम्मान नहीं मिलता। राष्ट्रीय एकता एवं आर्थिक समृद्धि प्राप्त करना मूलभूत आवश्यकता है।

विविधताओं को भौगोलिक एकता ही एकता के सूत्र में बांध सकती है। इसी दृष्टि से “भारत जोड़ो अभियान” के अंतर्गत राष्ट्रीय राजमार्ग योजना, नदियों को जोड़ने की योजना एवं अन्य योजनाएं बनाई गईं। गुजरात भूकंप, उड़ीसा का चक्रवात, राजस्थान में अकाल, आर्थिक एवं वैज्ञानिक प्रतिबंध, करगिल युद्ध, संसद पर आतंकवादी हमला सरीखे संकटों के बावजूद देश के आर्थिक मोर्चे पर अभूतपूर्व प्रगति की। विदेश से कर्ज लेना बंद करना, पहले लिए गए कर्जों को समय से पूर्व वापस करना प्रारंभ कर दिया था। इससे पहले देश का सोना गिरवी रखने की नौबत आ गई थी। अब हम दूसरे देशों का सोना गिरवी रखने की स्थिति में हैं। उस समय सेंसेक्स ने भी छ: हजार का आंकड़ा पार कर लिया था। वैश्विक स्पर्धा से न घबराते हुए भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों को खरीद रही थीं। भारतीयों की उद्यमशीलता, कुशलता, विशेष निपुणता और प्रतिभा की विश्व में प्रशंसा होने लगी थी। भारत आर्थिक महासत्ता बनने की ओर अग्रसर हो रहा था।

उन छह वर्षों में विश्व में भारत की प्रतिमा पर छाई कालिमा दूर होकर चमक आ गई थी। इसके कारण विदेश में  स्थित भारतीय आत्मगौरव का अनुभव कर रहे थे। ‘प्रवासी दिन’ सरीखे अभियान के कारण वे अब देश से प्रगाढ़ रूप से जुड़ गए थे एवं विश्व में भारतीय संस्कृति के वाहक के रूप में घूम रहे थे। अमेरिकी सीनेट के सदस्य श्री सतवीर चौधरी ने कहा था कि एक वैश्विक भारतीय सभ्यता का उदय हो रहा है।  राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम का ‘सन 1920 तक एक महान भारत का स्वप्न तब स्वप्न न रहकर प्रत्यक्ष साकार होने के चिह्न दिखाई देने लगे थे। राष्ट्रीय प्रश्नों पर मतैक्य, अयोध्या प्रश्न पर हिंदू -मुसलमानों में सौहार्द्रपूर्ण संवाद, पाकिस्तान -नेपाल-भूटान- बांग्लादेश-श्रीलंका इन पड़ोसी राष्ट्रों से मित्रता, पूर्वोत्तर भारत के विघटनवादी तत्वों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करना इ. सब बातों में राष्ट्रीय दृष्टि से नेतृत्व का श्रेय अटल जी के व्यक्तित्व को था।

सन 1996 में जब अटल जी ने प्रधानमंत्री का पद सम्हाला उस समय भारत विदेशी कर्ज में डूबा था। जाति-पंथ, क्षेत्र इन भेदों पर समाज का विघटन हो रहा था। इस विघटन के कारण राजनीतिक अस्थिरता निर्माण हो गई थी। देश निर्माण के स्वप्न पूरी तरह टूट चुके थे। ऐसी स्थिति में राजनीतिक स्थिरता स्थापित कर देश को शक्ति, समृद्धि एवं शांति के मार्ग पर लाना यह बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती से प्राप्त लोकप्रियता का अलग ही अर्थ ध्यान में रखने योग्य था।

अटल जी के इस निर्विवाद यश का जब विश्लेषण किया जाता था तब मुग्धता का अनुभव होता था। 1946 से 1965 के काल की घटनाएं आंखों के सामने तैरने लगती थीं। उस समय का अल्हड़ भावुक कवि, संगठनात्मक अनुशासन एवं मर्यादाओं के प्रति में उदासीन, प्रतिक्रियाओं को मुक्त रुप से और निर्मलता के साथ व्यक्त करने वाला व्यक्ति भारत का भाग्यविधाता बन गया था इस बात पर जल्द विश्वास ही नहीं होता था। विश्व के श्रेष्ठ व्यक्तियों की मालिका में उनकी गणना होने लायक लोकप्रियता उन्हें उनके अनेक गुणों में से किस गुण या गुणों द्वारा मिली होगी? इसमें उनके व्यक्तिगत गुणों का हिस्सा कितना एवं जिस संगठन प्रवाह के साथ वे जुड़े थे उसका हिस्सा कितना? गत कई वर्षों में अटल जी के विषय में जितना लिखा गया है उसमें उन्हें उनके संगठन प्रवाह से दूर करने का प्रयत्न किया गया था। “गलत दल में योग्य व्यक्ति” इन शब्दों में उनका वर्णन किया गया था। संगठन की अपेक्षा अटल जी कितने बड़े थे उनके व्यक्तित्व विकास में, राजनीतिक विकास में या राष्ट्रनिर्माण के दृष्टिकोण में संगठन कोई हिस्सा नहीं है, वरन यदि संगठन है तो वह उनकी देश को खड़ा करने की स्वप्नपूर्ति के काम में बाधक है, ऐसी धारणा निर्माण करने का प्रयत्न किया गया था।

प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पहचान होती है एवं उसी से उसका व्यक्तित्व अंकुरित होकर फूलता, फलता है इसमें कोई दो राय नहीं है। इस दृष्टि से देखें तो अटल जी की मूल पहचान क्या थी? उनके जन्मजात गुण कौन से थे? अटल जी बचपन से ही कवि एवं वक्ता के रूप में पहचाने जाने लगे थे। स्वभाव की यह विशेषता उन्हें पिता से विरासत में प्राप्त हुई थी। उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी एक विख्यात कवि एवं शिक्षक थे। पंद्रह वर्ष की किशोरावस्था में ही अटल जी संघ के संपर्क में आए एवं उनके व्यक्तित्व को राष्ट्रभक्ति एवं समाजनिष्ठा का अधिष्ठान मिला। देशभर के स्वयंसेवकों पर अटल जी का प्रभाव पड़ा। अपनी कविताओं में संघप्रेरणा को उन्होंने कभी नहीं नकारा। 2003 में अपने घर बुलाकर नारायणराव तर्टे का सम्मान करते हुए अटल जी ने यह माना कि यदि श्री नारायणराव जी ने कविता रचने का हठ न पकड़ा होता तो उनका कवित्व संगठन साधना में विलीन हो जाता। वयोवृद्ध तर्टे जी को बैठकर  बोलने में सुविधा हो इसलिए उस पूरे कार्यक्रम में अटल जी ने माइक अपने हाथ में थामे रखा था। तर्टे जी के विषय में उनकी श्रद्धा एवं आदरभाव देखकर सभी लोग चकित रह गए थे।

कवि रूप के साथ ही अटल जी का दूसरा रूप पत्रकार का था। “लखनऊ से जल्द ही प्रकाशित होने वाले ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादन का दीनदयाल उपाध्याय एवं भाऊराव देवरस का प्रस्ताव मैंने तुरंत आनंदपूर्वक स्वीकार किया एवं कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ दी” यह अटल जी स्वत: बताते थे। यह निर्णय उन्होंने क्यों लिया था, इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा था कि “स्वतंत्रता प्राप्ति एवं बंटवारे ने एक नई परिस्थिति निर्माण की थी। अनेक युवा अपना घरबार छोड़कर देशकार्य हेतु बाहर निकले थे। उन्हीं की तरह मैं भी बाहर निकला।” उनकी प्रतिभा के अनुरूप ऐसे पत्रकारिता के कार्य के माध्यम से मन की राष्ट्रनिष्ठा की आग को व्यक्त करने का मौका उन्हें संघ में प्राप्त हुआ। 1952 राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक (1950 से 1952) कर्मयोगी साप्ताहिक (1954) चेतना साप्ताहिक, स्वदेश एवं वीर अर्जुन इन दैनिकों के माध्यम से उन्हें कवि के भावविश्व से बाहर निकाल कर राष्ट्रजीवन की समस्याएं समझने का मौका मिला। इससे उनके अंदर का कवि लेखक, विश्लेषक के रूप में विकसित हुआ।

1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना और 1952 में संपन्न आम चुनावों ने उनकी वक्तृत्व कला को सार्वजनिक मंच उपलब्ध कराया। जनसंघ के माध्यम से प्रभावी वक्ता के रूप में उनकी छवि देशभर में फैली। संक्षेप में जनसंघ के मंच के माध्यम से 1970 तक उनकी ख्याति एक राष्ट्रीय नेता के रूप में हो गई थी। इसके पूर्व वे बलरामपुर से जनसंघ की टिकट पर लोकसभा का चुनाव 1957 में जीत चुके थे।   संघ परिवार के संगठन सामर्थ्य के आधार पर वे लोकसभा के लिए चुने गए एवं वहां अपनी ओजस्वी वाणी के बल पर हिंदी में अर्थपूर्ण, तेजस्वी एवं प्रभावी भाषणों के माध्यम से अपनी विशिष्ट प्रतिमा तैयार की। 1962 में वे केवल 2000 वोटों से चुनाव हार गए तब पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। 1967 में वे पुन: बलरामपुर से प्रचंड मतों से विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे।

इस प्रकार जनसंघ ने उन्हें सार्वजनिक मंच एवं संसद के माध्यम से उनकी वक्तृत्व कला के आधार पर उन्हें जननेता के रूप में प्रस्थापित किया था। परंतु जननेता बनने की उनकी यह यात्रा सीधी सरल नहीं थी। उनके अंदर के कवि एवं राजनेता में हमेशा द्वंद्व शुरू रहता था। 1970 के मेरे लेख में उनकी यह व्यथा समाविष्ट है। उसमें लिखा है, “कभी-कभी मैं उनसे पूछता था कि आप लिखते क्यों नहीं? तब वे अपने पुराने अल्हड़ स्वभावानुसार जवाब देते थे, “अरे यार कविता भाषण में बह गई। जो लिखना था वह भाषण में निकल जाता है। भाषणबाजी से फुर्सत मिले तो सरस्वती की साधना करूंगा ना। कभी कभी लगता है कि राजनीति से बाहर होकर कहीं एकांत मे मग्न हो जायें।” (शक्तिपुत्र, अगस्त 1970)

1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध को जीतने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को उन्होंने दुर्गा की उपमा दी वह उनके व्यापक दृष्टिकोण के कारण ही। दलीय भूमिका के अनुसार ही कार्य करने वाले लोगों को उनकी यह कृति पसंद नहीं आई थी। 1977 में विदेश मंत्री बनने के बाद पाकिस्तान और चीन का दौरा कर उनकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाने के कार्य को भी बंटवारे की वेदना झेले हुए और 1962 की युद्ध स्मृतियां न भूले हुए लोगों ने सम्यक दृष्टिकोण से नहीं देखा। अयोध्या आंदोलन केवल मंदिर निर्माण के लिए है या मुसलमानों को इस्लामपूर्व पूर्वजों से जोड़कर राष्ट्रीय प्रवाह में समाहित करने के लिए है इस पर भी अन्य कार्यकर्ताओं से उनके मतभेद थे। छद्म धर्मनिरपेक्ष वादियों को लगता था कि अटल जी उनकी ओर हैं पर जब अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम मंदिर का निर्माण राष्ट्रीय भावनाओं के साथ सुसंगति है ऐसा जब अटल जी ने घोषित किया तब वे विश्व हिंदू परिषद के सदस्य हैं ऐसा छद्म सेकुलरिस्टों ने घोषित कर दिया था।

‘हिंदू’ इस शब्द के कारण भी उनके विषय में संभ्रम निर्माण हुआ था। अटल जी के अनुसार हिंदू एक पंथ या उपासना पद्धति का नाम न होकर एक जीवनरचना का द्योतक है। ऐसी जीवन रचना जिसमें अनेक पंथ समुदाय, मतमतांतर एवं उपासना पद्धतियों का समावेश है। इसलिए उन्होंने कहा था, “हमारी दृष्टि में राष्ट्रीयता के संदर्भ में हिंदू एवं भारतीय पर्यायवाची शब्द हैं। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है इसलिए हमें नया राष्ट्र निर्माण नहीं करना है। अपितु इस प्राचीन राष्ट्र को ही आधुनिक सुदृढ़ एवं समृद्ध रूप देना है।”

अटल जी की लोकप्रियता का अर्थ ऐसा था कि वे आम जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं के निकट थे। किसी भी समाज की सामूहिक जनभावना का प्रतिबिंब जिन नेताओं के व्यक्तित्व में दिखता है उन्हें ही समाज नायक के रूप में स्वीकार करता है। वरिष्ठ पत्रकार दीनदयाल मिश्र ने सन 1977 में लिखा था, “अटलजी की सांसों मे सामान्य व्यक्ति को अपने हृदय के स्पंदन का आभास होता है। वे कवि हृदय हैं और वर्तमान परिस्थिति में एक कवि का राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान यह अत्यंत आनंद की बात है।“

शायद इसीमें अटल जी की लोकप्रियता का रहस्य छिपा था एवं विश्व उनकी ओर ”भारत के भाग्यविधाता” के रूप में निहार रहा था।

 

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