फैशन और सौंदर्य

फैशन और सौंदर्य को जुदा नहीं किया जा सकता। जब दुनिया बर्बर अवस्था में थी तब प्राचीन भारत में एक समृद्ध संस्कृति थी। परिधानों, अलंकारों, सौंदर्य प्रसाधनों में हमारा कोई मुकाबला नहीं था। प्रस्तुत है फैशन शो के वैश्विक संदर्भ के साथ भारत में वस्त्रालंकारों, सौंदर्य के पैमाने एवं सौंदर्य-प्रसाधनों की एक झलक।

फैशन याने सलीका। अपने को करीने से सजाने का तरीका। अपने में निखार लाने का कुछ नयापन। पश्चिमी चिंतन इसे तन तक सीमित रखता है; लेकिन भारतीय दर्शन तन और मन दोनों की सुंदरता को फैशन से जोड़ता है। इसलिए हम फैशन और सौंदर्य दोनों को अलग नहीं कर सकते। दोनों का चोली दामन का रिश्ता है। एक के बिना दूसरा अधूरा है। फैशन के अधूरेपन को सौंदर्य पूरा करता है, जबकि सौंदर्य के अधूरेपन को फैशन पूरा करती है। इन दोनों बातों और उनके अंर्तसम्बंधों को ठीक से समझना होगा।

फैशन नाम की चिड़िया पहली बार पैदा नहीं हुई, प्राचीन समय से है। जंगली अवस्था में भी लोग सजते थे। उन्हें केवल लताएं-फूल-पत्ते उपलब्ध थे। आज की पीढ़ी को वस्त्रादि और अलंकार उपलब्ध हैं। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से आगे निकल चुकी होती है। सार यह कि, सौंदर्य उतर भी जाए तब भी फैशन अमर है- तब भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी। फैशन यूनान के पौराणिक पक्षी फीनिक्स की तरह है; जो आग में बार-बार जलने पर भी राख से फिर उभर उठता है।

पहले फैशन की ओर चलते हैं, सौंदर्य की चर्चा बाद में करेंगे। प्राचीन फैशन का सिलसिलेवार इतिहास उपलब्ध नहीं है। प्राच्य साहित्य, उत्खनन में मिलीं वस्तुओं, प्रतिमाओं, पेंटिंग्ज से उसका अनुमान लगाना पड़ता है। भारतीय समाज इस मामले में बहुत समृद्ध था, यह अविवादित है। आधुनिक काल में फैशन बाजार का अंग बन गया है। फैशन शो इसकी मिसाल है।

वैश्विक फैशन शो

आधुनिक फैशन का इतिहास फैशन शो के आने से छिटपुट लिखा जाने लगा। फैशन शो या वस्त्रादि की नुमाइश का सबसे पुराना उल्लेख 18हवीं सदी का मिलता है। पेरिस के फैशनेबल कपड़े बनानेवालों ने इसे आयोजित किया था। उसे Paris couture salons कहा जाता था। फ्रेंच शब्द couture (हिंदी उच्चारण कूटुर) का अर्थ है वस्त्र और salons शब्द दुकान के अर्थ में आता है। याने फ्रांस ने इस तरह के शो करने की पहले-पहल कल्पना की लेकिन उसे फैशन शो नहीं, फैशन परेड़ कहा जाता था।

1858 में फ्रांस के चार्ल्स फ्रेड्रिक वर्थ ने पहली बार महिलाओं के लिए haute couture याने परिधान शो आयोजित किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया था, अतः फैशन शो को न्यूयार्क ले जाया गया। अमेरिकी इससे पहले से वाकिफ थे; क्योंकि इसके पूर्व 1903 में एनरिच ब्रदर्स के न्यूयार्क सिटी स्टोर्स ने इस तरह का पहला शो आयोजित किया था। इसके बाद फैशन शो का सिलसिला चल निकला। न्यूयार्क फैशन वीक, पेरिस फैशन वीक बड़े आयोजन माने जाते हैं। वैश्विक स्तर पर मिलान (इटली), लंदन (ब्रिटेन), बर्लिन (जर्मनी) फैशन वीक का नाम है।

भारतीय फैशन शो 

भारत में फैशन डिजाइन काउंसिल ऑफ इंडिया ने सन 2000 में पहला फैशन शो आयोजित किया, जिसे लक्मे फैशन वीक कहा जाता है। इसके अलावा विल्स लाइफ स्टाइल इंडिया फैशन वीक, वान हुसैन इंडिया मेन्स वीक, इंडिया ब्राइडल फैशन वीक, बेंगलुरू फैशन वीक, नार्थ इंडिया फैशन वीक, इंडिया कूटुर वीक, सिनर्जी कूटुर-1 फैशन वीक, इंदौर फैशन वीक, राजस्थान फैशन वीक जैसे अन्य आयोजन भी होते हैं। इनमें ॠतु कुमार, नीता लुल्ला, विक्रम फडणीस, लीना टिपनीस, कीर्ति राठोड़, शाहीद अमीर जैसे चोटी के डिजाइनर हिस्सा लेते हैं। आज सौ से अधिक नामी डिजाइनर इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।

भारत में मनोहारी परिधानों का बहुत प्राचीन इतिहास है। कशीदाकारी के साथ साड़ी, चोली-घागरा, धोती, कुर्ता, बारहबंदी (जिसमें सामने के दोनों पल्ले खुले होतें हैं और उन्हें बांधने के लिए 12 नाड़े होते हैं), टोपी या पगड़ी (प्रदेशों के अनुसार अनेक रूप), शाल  या उत्तरीय (अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग डिजाइनें) आदि राष्ट्रीय परिधान हैं, जो प्रदेशों के साथ थोड़े-बहुत बदलते थे; लेकिन मूल स्वरूप कायम रहता था। यही भारतीयत्व की पहचान थी। स्वाधीनता के बाद उसमें धीरे-धीरे बदलाव आता गया और नब्बे के दशक के बाद तो पश्चिम की फैशन ने धावा बोल दिया। परम्परागत वस्त्र पिछड़ते गए, परंतु उनके फ्यूजन आने लगे।

आधुनिक काल में भारतीय वस्त्रों को नया रूप देने की पहली कोशिश कोलकाता की फैशन डिजाइनर ॠतु कुमार नामक महिला ने की। उसने परम्परागत कपड़ों पर बंगाल ब्लॉक प्रिटिंग का प्रयोग किया और भारतीय फैशन उद्योग अपना केंचुल छोड़ने लगा। सबसे पहले वह शादी के जोड़े बनाने लगीं। उसने 1966 में इस तरह की पहली दुकान दिल्ली में शुरू की। फिर उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश-विदेश में उसके परिधान लोकप्रिय हो गए।

बॉलिवुड का असर

साठवें दशक में बॉलिवुड फैशन पर छा गया। भानु अठैया नामक डिजाइनर ने साहिब बीबी और गुलाम (1962) से लेकर चांदनी (1989) तक तरह-तरह के परिधान फिल्मी सितारों के लिए बनाए और जनता में वे लोकप्रिय हो गए। मधुबाला का अनारकली पेहराव और मुगल-ए-आजम का कुर्ती-चूड़ीदार पाजामा से लेकर बंटी-बबली की रानी मुखर्जी की शार्ट कुर्ती-सूट लोकप्रियता पा गए। सत्य पाल समेत कई परिधान डिजाइनरों ने बॉलिवुड में अपना हाथ आजमाया, लेकिन रोहित खोसला (1958-1994) ने इसकी बुनियाद रची। 1986 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ फैशन टेक्नालॉजी और 1998 में फैशन डिजाइन काउंसिल ऑफ इंडिया की स्थापना की गई। फैशन उद्योग तब से संगठित रूप लेने लगा। 2009 में मनीष अरोरा नामक भारतीय डिजाइनर ने पेरिस फैशन वीक में पहली बार हिस्सा लिया।

ये शो मुख्य रूप से परिधानों पर केंद्रित होते हैं। युवक- युवतियां दोनों के लिए होते हैं; लेकिन युवतियों का स्वाभाविक रूप से अधिक बोलबाला होता है। युवतियों के परिधान के अनुकूल जूतें, बैग, हैट, कमरपट्टे, बे्रेसलेट, चूड़ियां और उनमें टांके गए रुमाल, अंगूठियां, गलाहार, कर्णाभूषण, नाक और कान की बालियां, फेस फाउंडेशन, लिपस्टिक, आईशेड, नेल पॉलिश, केश-विन्यास और उसके आभूषण, भौहों की शैली, जुराबें, पाजेब, बिछुए, पुलओवर जैसी लम्बी सूची है। युवकों के परिधान सीमित ही होते हैं; फिर भी कोट की कॉलर, जेबें, उनके बटन, त्रि-स्तरीय सूट, टाई, टाईपिन, उस पर बटन-चेन, कमीज की कॉलर, कपलिंक, जेब में बदलावों के साथ पतलून और कमीज में तरह-तरह के परिवर्तन, विभिन्न डिजाइनों की अंगूठियां, हाथ में ढीलीढाली ब्रेसलेट, एकाध कान में बाली, जूतों-चप्पलों की नई डिजाइनें, रुमाल, बटुआ आदि को विशेष तवज्जो दी जाती है। इसका स्वरूप अमुमन पश्चिमी जीवनशैली पर आधारित होता है।

एथनिक शो

भारतीय फैशन उद्योग ने वैश्विक फैशन को अपनाया, किंतु अपने परम्परागत वस्त्रालंकार नहीं छोड़े। इसे एथनिक कहा जाता है और उसके शो भी हुआ करते हैं। एथनिक का मतलब है जिस देश-प्रदेश विदेश में जो शैली परम्परागत रूप से चल रही है, उसे नए अंदाज में पेश करना। इसमें उस क्षेत्र-विशेष की संस्कृति झलकती है। यदि जापान में एथनिक शो हो तो वहां युवतियों के परम्परागत कीमोनो या ऐसे ही परम्परागत परिधानों के अनेक रूप पेश किए जाएंगे। उसके साथ छोटा-सा हथपंखा, छाता भी अवश्य होगा और केश-विन्यास से जूतों तक जापानी जीवन उसमें उभरेगा। इसी तरह का शो भारत में हो तो आम भारतीयों के पेहरावों के विभिन्न रूप हल्के बदलावों के साथ पेश किए जाएंगे। धोती जब लोकप्रिय थी, तब बांधने में आसानी हो इसलिए पाजामा-धोती आ गई और उसने उस समय खूब धूम मचाई। आम धोती के दो गज कपड़े को बांधने में बहुत समय और कुशलता लगती थी; जबकि पाजामा-धोती दिखती धोती ही थी लेकिन कमर के हिस्से में वह सिली हुई होती थी और उसमें नाड़ा डाल दिया जाता था। इससे उसे पाजामा की तरह पहनकर धोती का आनंद लिया जा सकता था। मूलतः धोती-कमीज, सिर पर टोपी या पगड़ी भारतीय पुरुषों का परम्परागत याने एथनिक पेहराव है। इसी तरह महिलाओं के एथनिक पेहराव हैं- चोली-साड़ी या नौगजी, घागरा (घागरे को महाराष्ट्र में लहंगा कहा जाता था। लेकिन अब सादे घागरे को लहंगा या पेटिकोट (अंग्रेजी नाम) मिला है और इसके सजेधजे अन्य रूपों को घागरा कहा जाने लगा है। भारत के किसी भी मेले में इस एथनिक रूप को आसानी से देखा जा सकता है जैसे कि पंढरपुर (महाराष्ट्र) की वारी (पैदल तीर्थयात्रा) अथवा इलाहाबाद (उप्र) का माघ मेला।

इस्लामी आक्रमण के बाद उसमें उनकी लुंगी, कमीज ने हमला कर दिया। बंगाली कमीज घुटनों तक लम्बी और अधिक ढीलीढाली हो गई। दक्षिण में परम्परागत लुंगी अवश्य थी, लेकिन वह धोती के कई स्तर लपेटकर बांधी जाती थी। इस्लामिक लुंगी एक ही स्तर की रंगबिरंगी होती थी, जिसके लिए फारसी शब्द ‘तहमद’ है। भारतीय लुंगी और तहमद में अंतर है, लेकिन बोलचाल में दोनों के लिए लुंगी ही चल रहा है। अंग्रेजों के आने के बाद उनके शर्ट, टाई, पतलून, हैट लोकप्रिय हो गए। बुश-कोट बहुत लोकप्रिय था, बाद में बेल-बाटम पतलून आ गई, नेहरू शर्ट आ गया और अब तो मोदी जैकेट चलन में है।

एथनिक पेहराव छोटे-छोटे प्रदेशों तक पहुंचते-पहुंचते मामूली रूप से बदलता जाता है। महाराष्ट्र में पहले बच्चियां अक्सर चोली-लहंगे में दिखती थीं। अन्य राज्यों में भी कमोबेश यही स्थिति थी। बाद में अंग्रेजों के कारण फ्राक आया और समय के साथ वह भी चला गया। हां, फ्राक की बाहों ने चोली की बांहें (आस्तीनें) बदल दीं। वे फ्रांक जैसी झब्बेदार और छोटी हुईं, फिर कुहनी तक बढ़ती चली गईं और बाद में सिकुड़ते-सिकुड़ते बांहें ही गायब हो गईं, जिसे स्लीवलेस कहा जाता था। अब फिर बदल गया है और पहले की तरह सीधी छोटी आस्तीनें लग रही हैं। स्वाधीनता के दो-तीन दशक बाद सलवार-कुर्ते ने तो गज़ब ढा दिया। राजस्थान का घागरा अन्य प्रदेशों में आते-आते अपना रूप बदलता गया। अब चनिया-चोली, अनारकली और न जाने कितने नामों से चोली-घागरा ही रूप बदल-बदलकर खूब मजे कर रहा है।

परम्परागत मराठी नौ गजी साड़ी गांवों में और वह भी अधेड़ या बूढ़ी औरतों तक सिमट गई है। नई लड़कियों को उसे बांधना तक नहीं आता। या तो वे गोल साड़ी पहनती हैं या फिर सलवार-कुर्ती। पुरूषों के पेहराव बहुत नहीं बदले, उनकी डिजाइनें अवश्य बदलीं, उसका स्थान पतलून-कमीज ने ले लिया। पतलून बेलबाटम से लेकर बॉडीफिट तक आ गई और जीन्स की पतलून में बीच-बीच में आड़े-तिरछे छेद कर खिड़कियां भी बन गईं। फैशन का गज़ब देखिए- पतलून अमीरी पैंट से होते-होते छिद्रोंवाली भिखारी पैंट तक पहुंच गई! आपको राजकपूर की फिल्म श्री 420 (1955) का वह गाना याद होगा- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी; सिर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी। फैशन इस तरह एक दूसरे में डगमग होकर नया रूप लेती रही है, आगे भी लेती रहेगी।

प्राचीन भारत

भारत में परिधानों का इतिहास बहुत पुराना है। आज से कोई 10 हजार वर्ष पूर्व के भारतीय परिधानों और सौंदर्य प्रसाधनों के बारे में लिखित जानकारी मिलती है। (इसका अर्थ यह नहीं कि इसके पूर्व भारतीयों को परिधानों या सौंदर्य-प्रसाधनों की जानकारी नहीं थी। यह गहन अध्ययन का विषय है; इसलिए प्रस्तुत आलेख उपलब्ध लिखित जानकारी तक ही सीमित रखते हैं।) रामायण काल आज से कोई साढ़े नौ हजार वर्ष पूर्व (राम का जन्म ईसा पूर्व 7323) का माना जाता है। उस समय अयोध्या का राजपरिवार, आम जन तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप परिधानों और सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल करते थे। यही क्यों, लंका में रावण के परिधानों और अलंकारों का जिक्र मिलता है। सीता हरण के समय सीता ने पहचान के लिए गलाहार के मणियों को तोड़-तोड़कर नीचे डाला था, ताकि रास्ते का रामजी अनुमान लगा सके। अशोक वन में हनुमान ने पहचान के रूप में सीता को राम की अंगूठी दी तथा बदले में सीता ने भी अपना चूड़ामणि दिया। महाभारत काल आज से कोई 7 हजार वर्ष पूर्व (ईसा पूर्व 5,116 वर्ष) का माना जाता है और उसमें भी तरह-तरह के समृद्ध परिधानों और विविधांगी अलंकारों का जिक्र आता है। इस तरह भारत में रामायण के त्रेता युग से लेकर कृष्ण के द्वापर युग तक समृद्ध परिधानों और उससे जुड़े सौंदर्य प्रसाधनों की एक सम्पन्न परम्परा है। शेष दुनिया को तो तब इसका अतापता भी नहीं था।

फैशन के आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि आज से 5 हजार वर्ष पूर्व से भारतीयों को कपास की जानकारी थी। (शायद पश्चिमी इतिहासकार सिंधु सभ्यता-ईसा पूर्व 3300 से 1300- याने आज से कोई 5 हजार वर्ष पूर्व- को हिसाब में लेकर यह काल निर्धारण करते हैं। इसके पूर्व हुए रामायण और महाभारत काल पर गौर नहीं करते। अन्यथा वे परिधानों का इतिहास 10 हजार साल से और पीछे ले जाते।) विश्व में सबसे पहले कपास की बुआई भारत में ही हुई। उससे धागे बनाकर वस्त्र बुनने की कला भी भारतीयों को ज्ञात थी। कपास से बिनौला निकालकर उसकी रुई बनाई जाती थी, उससे धागे बनते थे, धागे या उससे बने कपड़ों को रंगा भी जाता था। उस पर कशीदाकारी भी होती थी। लकड़ी के तकुए, करघे और हड्डियों से बनी सुइयां काम में लाई जाती थीं।

सिंधु सभ्यता के बाद वैदिक काल (ईसा पूर्व 1500 से 500) आता है। इस अवधि में इसमें और तेजी से प्रगति हुई। उन दिनों कमर में बांधे जानेवाले वस्त्र को परिधान कहा जाता था (शायद इसी से यह शब्द आगे लोकप्रिय हो गया हो और पूरे वस्त्र-विन्यास को परिधान कहा जाने लगा। मौर्य काल में इसे अंतरिय कहा जाता था, यह शब्द आगे चलता रहा)। उस पर पट्टा बांधा जाता था, जिसे मेखला कहते थे। उसके ऊपर के वस्त्र को उत्तरीय कहा जाता था, जो शालनुमा ओढ़ा जाता था। शीत के दिनों में उत्तरीय की जगह प्रवरा पहना जाता था। गर्मियों में उत्तरीय की आवश्यकता महसूस नहीं की जाती थी। महिलाएं साड़ी-चोली पहनती थीं। बाद में चोली में बांहें और कॉलर भी लगाई जाने लगीं।

गुप्त साम्राज्य (सन 320 से 550) परिधानों और फैशन की दुनिया में स्वर्णयुग साबित हुआ। इस अवधि में सिलेसिलाए रेशम के वस्त्र अमीरों में लोकप्रिय हो गए। राजाओं और सामंतों के वस्त्रों में मोती, रत्न आदि टांके जाते थे। कशीदाकारी बेहतरीन हुआ करती थी। पुरुषों में लम्बे और घुंघराले बालों की फैशन थी। वे अपने बालों को सजाते भी थे। रेशमी धागों आदि से उसे बांधा करते थे। महिलाओं में भी लम्बे रेशमी बालों की फैशन थी। उसमें वे जड़ित पिन, मणि, फूल, गजरा, रेशमी धागे आदि लगाया करती थीं। बालों के तरह-तरह के विन्यास मौजूद थे। सिर के बीचोबीच घने बालों का घोंसलानुमा सीधा जूड़ा बांधना तब फैशन में शुमार था, जो पेशवा काल तक बना रहा।

16वीं से 17 वीं सदी के मुगल काल में रेशम, वेलवेट आदि मुलायम कपड़ों से बने शाही परिधान लोकप्रिय हुए। उन पर महीन कशीदाकारी होती थी, मोतियों, रत्नों से वे जड़ित हुआ करते थे। मुगल सम्राट या राजपरिवार के पुरुष जामा पहनते थे, जो पैरों तक होता था। जामे पर कमर में रत्नजड़ित पटका (तलवार) लटकी होती थी। जामा-पटके पर कशीदाकारी हुआ करती थी। जामा के ऊपर चोगा पहना जाता था, जो सामने से खुला होता था। महिलाएं एड़ी से चोटी तक रेशमी वस्त्रों व आभूषणों से लदी होती थीं। बालों में मेंहदी लगाने का खूब प्रचलन था। पैरों में जड़ित मोजड़ी हुआ करती थी। फिर अंग्रेजों का जमाना आया और पतलून, शर्ट ने प्रसिद्धि पा ली, परतु उनका फ्राक बच्चियों तक ही सीमित रहा, महिलाएं परम्परागत वस्त्र ही पहनती थीं। आज परम्परागत वस्त्रों, आभूषणों और पश्चिमी शैली के परिधानों के फ्यूजन का जमाना आ गया है।

फैशन और सौंदर्य

अब कुछ चर्चा सौंदर्य की सौंदर्य और फैशन एक-दूसरे से जुड़े हैं, यह पहले कहा ही है। जो सुंदर हैं, वे उसे और चमकाने की कोशिश करते हैं और जो सुंदर नहीं हैं वे आकर्षक बनने की कोशिश करते हैं। इसलिए त्वचा, बाल, नाखून, अधर, वक्ष, मोटापा घटाने या बढ़ाने, कमर को पतली बनाने या कूल्हों को गदराया बनाने की न जाने क्या-क्या कोशिशें प्राचीन काल से चल रही हैं। आज छरहरी दिखने का जमाना है, जबकि ब्रिटेन में विक्टोरिया काल में मोटी महिला को सुंदर कहा जाता था। कभी धूप से खुरदरी बनी त्वचा सौंदर्य का हिस्सा थी। किस समय क्या फैशन चल निकलेगा, कोई कह नहीं सकता।

ईसा पूर्व पहली सदी में हुई मिस्र की बेहद खूबसूरत और रहस्यमयी महारानी क्लिओपात्रा के बारे में बहुत किस्से मशहूर हैं। वह फराहों साम्राज्य की अंतिम शासक थीं। चतुर सेनानी, कुटिल राजनीतिज्ञ, बेहतर कूटनीतिज्ञ तो थीं ही; अपनी खूबसूरती को बनाए रखने के लिए उसने तत्कालीन चिकित्साशास्त्र की भी अच्छी जानकारी हासिल की थी। उसकी नपीतुली सुंदर नाक की चर्चा आज भी होती है। वह अपनी त्वचा को मुलायम और सुंदर बनाए रखने के लिए दूध से लबालब भरे कुंड में बैठा करती थीं। (अपने यहां भी ‘दूधो नहाओ, पूतों फलो’ कहावत है ही) यह दूध गधी का हुआ करता था। इसके लिए 700 गधियों का दूध लगता था। (उस समय मान्यता थी कि गाय की दूध की अपेक्षा गधी का दूध खूबसूरती को अधिक बढ़ाता है) उसमें शहद, गुलाब, केशर, लोबान, सरू की पत्तियां, सुगंधित फूल डाले जाते थे। समुद्री नमक के ढेले से वह त्वचा साफ करती थीं। उस पर बादाम तेल और सेव के अर्क से युक्त विनेगर लगाती थीं। शासन में बेहद उलझी होने के बावजूद वे कैसे समय निकालती थीं यह वे ही जानें। स्त्री-सुलभ स्वभाव ही उसका उत्तर हो सकता है।

ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के जमाने में महिलाएं सुरमा और संखिया, जिन्हें अंग्रेजी में लेड (सीसा) और आर्सेनिक कहा जाता है, से बने फेशियल लगाती थीं। तब यूरोप को यह पता नहीं था कि ये चीजें जहरीली हैं, फिर भी इस आधार पर प्रतिबंधित कर दी गईं कि इनसे अच्छी ऊर्जा आने में रुकावट होती है। बाद के काल में अंडे का सफेद हिस्सा भी फेशियल का अंग बन गया। एलिजाबेथ द्वितीय अपनी लिपस्टिक के कारण बेहद लोकप्रिय हैं। वे वैसे भी गोरी हैं, फिर भी चेहरे पर सफेद सौंदर्य प्रसाधन लगाती हैं, जिससे उनका लाल लिपस्टिक और उभरता है। प्रिंसेस डायना काजल लगाए बिना बाहर नहीं निकलती थीं।

चीनी रानियां मूंग को पीसकर उसकी लुगदी बनाती थीं और उसे बदन पर लगाती थीं। मूंग में मौजूद तत्व त्वचा में निखार लाते थे। वे ग्रीन टी याने अलग-अलग सौंदर्य काढ़े बनातीं और इस्तेमाल करती थीं। तिब्बती महिलाएं बेरनुमा गोजी नामक फल की लुगदी लगाती थीं। शरीर से विषैले तत्वों को बाहर निकालने के लिए जड़ी-बूटियों के तरह-तरह के काढ़े का इस्तेमाल करती थीं।

थाईलैण्ड में ‘चपत फेशियल’ और ‘बर्ड पू फेशियल’ प्राचीन समय से चल रहा है। पहले फेशियल में चेहरे पर धीरे-धीरे चपत लगाई जाती है और वहां की मांसपेशियों को उत्तेजित किया जाता है। दूसरे में कुछ विशिष्ट पक्षियों की विष्टा की पेस्ट बनाकर उसे चेहरे पर लगाया जाता है। दक्षिण पूर्व के देशों में घोंगे के बलगम, मधुमक्ख्यिों के विष, तायवान में त्वचा को गोरी बनाने के लिए जेब्रा मछली आदि का इस्तेमाल होता है। सारे देशों के ऐसे अचरज भरे नुस्खों की कभी खत्म न होनेवाली सूची है।

अब भारत की ओर मुड़ते हैं। जब अन्य लोग जंगली अवस्था में थे, तब हमारे यहां एक समृद्ध संस्कृति थी। आयुर्वेद में वनौषधियों और रोजमर्रे के उपयोग में आनेवाली चीजों से सौंदर्य-प्रसाधन बनाए और इस्तेमाल किए जाते थे। आंवला, शिकाकाई, रीठा, हल्दी, चंदन, दूध, क्रीम, छाछ, शहद, नागरमोथा, गुलाब, चमेली, बेला आदि सुगंधित फूलों, नारियल, तिल, सरसों तेल, मुलतानी और तालाब की महीन काली मिट्टी, सुरमा, समुद्र फेस, मेंहदी, नीबू, संतरा और उसकी छाल, नीम आदि अंतहीन सूची है। इसके अलग-अलग फार्मूले प्राचीन सौंदर्यशास्त्र में मौजूद हैं। इसके साथ ही योग, प्राणायाम, ध्यान पर बल दिया जाता था। कुल मिलाकर मन और तन दोनों की सुंदरता कायम रखना भारतीय सौंदर्यशास्त्र का मूल चिंतन था। आज हम जिसे फैशन कहते हैं, वह सौंदर्यशास्त्र का अभिन्न अंग था।

पांचवीं सदी के संस्कृत महाकवि कालिदास ने अपनी विभिन्न कृतियों में नारी की काया के विविध सौंदर्य बिंदुओं को उजागर किया है। बौद्धकालीन जातक कथाओं के भित्तिचित्रों में (जैसे कि अजंता गुफा) तत्कालीन सौंदर्य और पेहरावों के दर्शन होते हैं। भर्तृहरि (पांचवीं-छठी सदी) संस्कृत के विद्वान थे। उनके रचित ग्रंथों में ‘शृंगार-शतक’ नामक ग्रंथ सौंदर्यशास्त्र को विदित करता है।

प्राचीन काल से आधुनिक काल तक सौंदर्य और फैशन पर इतना लिखा गया है और लिखा जा रहा है कि उसे ताजिंदगी पूरा पढ़ना और समझना तक असंभव है। उसके हर छोटे-बड़े पहलू पर भी असंख्य ग्रंथ लिखे जा सकेंगे। इसलिए नारी के सौंदर्य का निरूपण करनेवाली भर्तृहरि की चंद पंक्तियों के हिंदी भावानुवाद के साथ विदा लेता हूं-

चांद सा मुखड़ा

कमलनयनी आंखें

कनक सी चमकीली काया

मधुमक्ख्यिों के छत्ते जैसे घने बाल

हाथी के माथे पर उभरे दो गोलों की तरह वक्ष

गदराये कूल्हे, सुरीली मुलायम आवाज

और अस्पर्शी प्राकृतिक कौमार्य का अलंकार।

 

 

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