रतजगे की रात दीवाली

व्रत-पर्व त्योहारों की बात करना भारतीय लोकमन की, लोक जीवन की बात करना है। भारतवर्ष ऊपर से भले ही गरीब दिखे पर भीतर से इसका मन बहुत सम्र्फेन है। गरीब से गरीब आदमी भी खुशी मनाना चाहता है, इसलिए कि इस खुशी की हिलोर समूची जिन्दगी को छुए। भारत में चाहे वह किसी जाति का, मजहब का हो, यर्ही की मिट्टी के प्रभाव से हर एक आदमी यह विश्वास करता है कि हर खुशाी बटती है तो बढ़ जाता है।

त्योहार और पर्व में एक मामूली सा अन्तर है। प्राय: तो हर पर्व को त्योहार भी कहा जाता है और त्योहार को पर्व। पर जब हम पर्व कहते हैं तो समय के एक विशेष बिन्दु का ध्यान अवश्य रहता है। जैसे दीपावली, कार्तिक बदी अमावस्या को संध्या समय मनायी जायेगी, पर दीवाली का त्योहार उससे पहले ही शुरू हो जाता है। कार्तिक की अमावस्या को प्रकाश का पर्व, दीपावली पड़ती है। किन्तु यह पर्व धनतेरस से ही प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय संस्कृति में अलग-अलग महीनों का महत्त्व होता है। कार्तिक माह का शरद ऋतु की द़ृष्टि से भी विशेष महत्त्व है। इस मास का स्वागत ही शरद-पूर्णिमा के उत्सव से होता है। चन्द्रमा से टपकते सुधा बिंदु मिश्रित खीर से प्रथम दिवस की प्रात: ही मुंह मीठा करके मास प्रारम्भ होता है। आयुर्वेद की द़ृष्टि से भी इस महीने का विशेष महत्व है। इसी मास में प्रकाश पर्व दीपावली अंधकार के खिलाप प्रकाश का संदेश देता है।

इस पर्व को मनाने की लोक प्रचलित विधि प्रत्येक क्षेत्र की थोड़ी भिन्न होते हुए भी पूरे देश में यह पर्व एक अनोखी एकरूपता लिये रहता है।

दीपावली के पहले घर में सपाई की भीतर-बाहर तैयारी होती है। कच्चा पर्शा गोबर से और दीवालें रामरज मिट्टी से, चूने से फोती जाती हैं। एक-एक कोने से जाले हटाये जाते हैं। बाहर का कूड़ा सब बटोरा जाता है। कुम्हार के घर मिट्टी के दीये महीनों पहले से तैयार होने लगते हैं। मिट्टी की घंटियां बनायी जाती हैं। हलवाई के यहां गुड़ के बताशे, चीनी के खिलौनें बनते हैं। कार्तिक भर तुलसी के चौरे पर शाम को दीप जलाकर हर घर में तुलसी की पूजा होती है। कार्तिक की ओस भीगी भोर में उठकर नदी नहाने की तैयारी होती है। कार्तिक का नहान बड़ा ही पवित्र नहान है।

दीपावली के एक दिन पहले चौदह जमों (यम) को दीप दिया जाता है और घूरे (गोबर की खाद एकत्र करने का स्थान) पर दीये जलाये जाते हैं। फिर घर में बड़े कोसे (दीपक) में तेल भरकर एक दीया जलाया जाता है और उसे सुरक्षित रखने के लिए एक छेद वाली हंडिया से ढंक दिया जाता है। उसमें दीये का काजल भीतर भरता जाता है। नये धान की ढेरी पर ’सेई‘ (धान मापनेवाला बर्तन) औंधाकर रख दिया जाता है। आंगन में चावल के आटे का घोल बनाकर लिपी-पुती जमीन पर चौक पूरा जाता है। पुरखिनें किशोरियों को चौक पूरना सिखाती हैं। जिन नयी बहुओं को चौक पूरना आता है, उन्हें आज के दिन बड़ा आदर मिलता है।

बच्चे सबेरे से ही मिट्टी की घंटी करधनी के रूप में बांधकर इधर-उधर घूमते हैं। उनकी मधुर टुनटुन और कार्तिक के गीतों के स्वर गांवों में गूंज उठते हैं। गांव के खेतों से अगहनी धान की गंध आती है।

दीपावली की सांझ बच्चों के लिए बड़े उमंग की सांझ होती है। सुबह से धोकर मिट्टी के दीये औंधाये रखे रहते हैं। उन्हें टोकरी में भर-भरकर फंक्ति में सजाते हैं। थाली में आंगन के चौक में दीये सजाकर उस पर सूप से हल्के से हवा देकर फिर घर के कोने-कोने में हर एक दरवाजे और हर एक खिड़की के पास दीये रखते हैं और शाम होते ही उसमें तेल डालते जाते हैं। फिर एक-एक दीया जलाते जाते हैं। फिर दूसरों के घर की तैयारी देखने निकल पड़ते हैं। घर के भीतर अनाज की ढेरी के पास पूरे गये चौक पर लक्ष्मी की पूजा होती है। जल रहे दीये का जो काजल हंडिया में संचित होता रहता है उसी को कजरौटा में रखा जाता है। उसे सबकी आंखों में सोने जाने से पहले लगाया जाता है, जिससे दीपावली की ज्योति हमारी आंखों में समा जाय।

धीरे-धीरे दीये गुल होने शुरू होते हैं। जब तक तेल रहता है जलते-बुझते दीये टिमटिमाते रहते हैं। कहीं-कहीं ब्रह्म मुहूर्त में घर की पुरखिन उठकर घर भर में एक मंत्र सा पढ़ती घूमती हैं। वह मंत्र है, ’ईश्वर आवैं, दरिद्दर जायें।’ कहीं-कहीं यह दरिद्र भगाने का रिवाज देवोत्थान एकादशाी को ही होता है।

दीपावली के दिन बच्चे शोर करते गाते हैं। ’’दिउली दाली कोने कौं बारह रोज डिठउने (देवात्थान एकादशी) को।’’

दीपावली की रात, रतजगे की रात है। सभी दरवाजे खुले रखे जाते हैं,क्योंकि लक्ष्मी जी आ रही हैं, उनके लिए हर द्वार खुला होना चाहिए। उनकी अगवानी में जगना चाहिए। लोक विश्वास है कि दीवाली की रात लक्ष्मी जी भी विष्णु की शेषशय्या त्यागकर अर्फेाी बहन दरिद्रा के साथ भूलोक पर विचरण करती हैं। जो घर साफ-सुथरा और प्रकाशित होता है उसमें लक्ष्मी प्रवेश कर जाती हैं और जो गंदा, अंधेरा होता है उसमें दरिद्रा चली जाती हैं।

लक्ष्मी-गणेश का पूजन दीपावली में होता है। भोग में लइया, खील, बताशो, चीनी के खिलौने, मेवा, फल, मिठाई आदि चढ़ाये जाते हैं। कहीं-कहीं कुबेर और यमराज का पूजन भी किया जाता है।

दीपावली को राजा बलि ने दान का व्रत लिया था। वह कोई भी याचक खाली नहीं लौटाता था। राज्य में कहीं भी जीव-हिंसा, मदिरापान, चोरी, विशवासघात, वेश्यागमन आदि फांच महापातकों का नामोनिशाान नहीं था। दया, दान, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य का सभी पालन करते थे। इस राज्य की अच्छाइयों से आकर्षित होकर भगवान विष्णु ने राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार कर लिया था और राजा की धर्म में निष्ठा बनी रहे, इसलिए तीन दिन और तीन रात तक महोत्सव का निश्चय किया था एवं दीपमालिका सजायी थी। तभी से दीपावली मनायी जाने लगी।

एक कथा यह भी प्रचलित है कि धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ उसी दिन पूरा हुआ था। तभी उत्सव मनाया गया था।

श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास काटकर इसी दिन अयोध्या वापस लौटे थे और उनके स्वागत के उल्लास में दीपावली मनायी गयी थी।

इस दिन विष्णु भगवान ने नरकासुर नाम के दैत्य को मारा था, उसी के उपलक्ष्य में यह त्योहार मनाया जाता है। कुछ लोग इसे लक्ष्मी-पूजन का दिन मानते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि इसी दिन महाराज विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। अन्य कथा है कि लंका से वापस आने के बाद महाराज श्री रामचन्द्र जी इसी दिन सिंहासन पर बैठे थे।

इस दिन जुआ खेलने के प्रचलन के संबंध में एक फौराणिक कथा यह कही जाती है कि इसी दिन शिव जी के पास जो कुछ था, सब पार्वती के साथ फांसा खेलने में हार गये। इसलिए दुखी होकर कैलास छोड़कर गंगा तट पर निवास करने लगे। कार्तिकेय ने जब देखा कि जुए में सब हार जाने के कारण महादेव जी (उनके पिता) बड़े दुखी रहते हैं तो उन्होंने भी फांसा फेंकना सीखा और जब अच्छी तरह सीख गये तो अर्फेाी माता के पास गये। पार्वती जी कार्तिकेय से जुए में सब कुछ हार गयीं। कार्तिकेय ने इस तरह से महादेव जी के लिए उनकी हारी हुई संपदा फिर दिला दी। पार्वती जी को यह बात बुरी लगी। उन्हें दु:ख हुआ। जब गणेश जी ने यह देखा कि जुए में हार जाने के कारण उनकी माता दुखी रहती हैं तो इन्होंने भी फांसा फेंकना सीखा और अपनेभाई कार्तिकेय को हरा दिया। शिव जी ने गणेश जी से कहा कि जाकर पार्वती जी को बुला लाओ, जिससे आपस में सुलह हो जाये।

गणेश जी चूहे पर सवार हो गंगा जी के किनारे-किनारे जा रहे थे कि नारद जी को पता चल गया। उन्होंने विष्णु से बता दिया कि गणेश जी पार्वती को शिव जी से मेल कराने के लिए बुलाने जा रहे हैं। विष्णु ने फौरन ही फांसे का रूप धारण कर लिया। शिव और पार्वती ने उसी फांसे से जुआ खेलना शुरू किया, किन्तु फांसा तो विष्णु स्वयं ही थे, बार-बार पार्वती जी के खिलाप ढलक जाते थे। पार्वती जी सब कुछ हार गयीं किन्तु जब बाद में उनको पता चला कि यह विष्णु भगवान का मजाक था तो क्रोधित होकर उन्होंने शाप देना चाहा। किन्तु अन्त में शिव के समझाने पर प्रसन्न होकर यह आशीर्वाद दिया कि जो उस दिन अर्थात् दीपावली के दिन जुआ खेलेगा वह साल भर बराबर समृद्ध और प्रसन्न रहेगा। पर धीरे-धीरे यह प्रथा समाज के लिए विष बन गयी।

दीपावली की रात में जो भी हुनर या विद्या जिसे आती है, उसे जगाया जाता है। दीपावली के दीपक के प्रकाश में तंत्र-मंत्र भी, जानकार लोग जगाते हैं। विश्वास है कि इन दिन जो भी कार्य किया जाता है, उसकी पुनरावृत्ति होती रहती है। इसलिए इस दिन अच्छे कार्य, प्रसन्नतादायक कार्य किये जाते हैं और बुरे तथा दुखदायी कामों से बचा जाता है।

आज की दीपावली में और पहले की दीपावली में कितना अंतर आ गया है। गांव की दीपावली में धान्य के रूप में लक्ष्मी उतरती थीं (अश्विन माह से धान की फसल घर में आ जाती है)। आज काले धन की लक्ष्मी उतरती हैं। वहां भीतर का तरल मधुर प्रकाश था, अब भीतर अंधेरा है, बाहर प्रकाश है। उस तरल मधुर स्मृति से ही मन आलोकित हो जाता है और कुछ देर के लिए काली लक्ष्मी का आसुरी अंधेरा मन से दूर चला जाता है। अपनेमूल से जुड़ने का यह अनुभव मन में साहस और अभय देता है कि हम इतने असंख्य लोगों से, संर्फेन लोगों से, संस्कृति से जुड़े हैं और हमें उनकी शक्ति तथा ज्योति प्रापत है। हम अकेले नहीं हैं। इसके सहारे हम द्वेष, घृणा और अनाचार के अंधकार में निर्भय चल सकते हैं, अपनेआंचल में एक नन्हा-सा दीप छिपाये।

इतिहास कहता है कि जैन धर्म के प्रवर्तक वर्द्धमान महावीर तथा आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद का परिनिर्वाण दीपावली को ही हुआ था।

एक लोककथा है-

एक साहूकार की लड़की थी। वह रोज पीपल में जल डालने जाती थी। पीपल में से लक्ष्मी जी निकलतीं, कभी आग के रंग की, कभी गुलाबी रंग की। वे रोज उस लड़की से कहतीं कि तुम मेरी बहन बन जाओ। लड़की ने कहा कि अच्छा अपनेपिता जी से पूछकर कल बन जाऊंगी।

घर आकर उसने अपनेपिता से पूरी बात कही। पिता ने कहा कि अच्छा है, बहन बन जाओ।

वह गयी, लक्ष्मी जी से बहनापा हो गया। लक्ष्मी जी बोलीं, ’’मेरे घर भोजन करने चलो।’’ लड़की पिता से आज्ञा लेकर दूसरे दिन चली गयी। वहां सोने की चौकी पर बैठाकर छपर्फेा भोग परसा लक्ष्मी ने। साहूकार की बेटी खा-पीकर चलने लगी तो लक्ष्मी ने उसका आंचल पकड़कर कहा कि हमें कब न्योता दोगी। वह बोली, ’’पिता से पूछकर बताऊंगी।‘‘ पिता ने कहा, बुला लाना। उसने लक्ष्मी को न्यौता दे दिया। पर बड़ी चिंता में थी। वहां तो सोने की चौकी पर बैठकर छपर्फेा भोग लगाया। यहां टूटी काठ की चौकी भी नहीं। घर में भी गरीबी है, छपर्फेा भोग बने तो कैसे। पिता ने कहा कि चिंता न करो, जो भी है, उसी से स्वागत करो। दरवाजे पर दीपक जलाकर रख दो।

लक्ष्मी जी आयीं, प्रेम से रूखा-सूखा खाया। जिस पीढ़े पर वह बैठीं, वह सोने का हो गया। जिस थाली में खा रही थीं, वह सोने की हो गयी। अनाज के भंडार भर गये। घर में चारों ओर सम्फत्ति हो गयी।

’’जैसे उनके दिन बहुरे, वैसे सबके बहुरैं।‘‘

इसी प्रकार दीपावली के संबंध में जो अन्य कथाएं प्रचलित हैं, उनमें भी विविधता है। कुछ लोगों का ख्याल है कि इस दिन राजा बलि फृथ्वी के साम्राज्य से वंचित कर पाताल भेजे गये थे। महाराष्ट्र में इस दिन स्त्रियां राजा बलि की मूर्तियां बनाकर पूजती हैं।

दीपावली के बाद शरद ऋतु में स्त्रियों के कुछ विशोष व्रत जैसे हथिया या पिड़िया प्राचीन खेतिहर समाज की मानसिकता के प्रति स्मरण है। जैसे हथिया (हस्त नक्षत्र) में तेरह दिन तक स्त्रियां हथिया की कहानी कहती हैं और तब पानी पीती हैं। इस कहानी में महाभारत की कथा और शिव पार्वती की कथा का एक विचित्र सम्मिश्रण है। उस सम्मिश्रण के कारण कथा एक विचित्र मानवीय आकांक्षा और उसकी पूर्ति की कथा बन गयी है।

पिड़िया (रूद्रवत) में अगहन की अमावस्या के बाद जो प्रतिपदा पड़ती है उस दिन से पिड़िया बनती हैं। सोलह कलाएं चन्द्रमा की होती हैं। सोलहवीं कला (अमावस्या की अद़ृश्य कला) को अमृता कहते हैं। अमृता का अर्थ है समापत न होना, अमर होना। इसीलिए सोलह-कथाएं कही जाती हैं। यह खेती से सम्बद्ध है। अत: चित्रों में उसका प्रभाव देखा जा सकता है।

अमावस्या को जो यज्ञ होता था, यह उसका अंश है। पुराणों में शिव की कथा है- चन्द्रमा को शिव मस्तक पर धारण करते हैं और इसी के नीचे शिव का तीसरा नेत्र (ज्ञान नेत्र) होता है। यह रुद्रवत उसी की ओर संकेत करता है। इस आशय के अभिप्राय लोक चित्रों में स्फष्ट देखे जा सकते हैं।

दीपावली से पहले नवरात्र के बाद झिंझिया का पर्व लड़कियां मनाती हैं। झिंझिया में शरीर के भीतर और बाहर का सौन्दर्य प्रकाश बनकर पूटता है। लोकजीवन में शरद ऋतु का यह बिम्ब एक सूक्ष्म और गहरी सौन्दर्यवृत्ति का प्रमाण है। इसी शरद ऋतु में जगमगाती दीवाली  के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा होती है और तीसरे दिन भैय्या दूज होती है, भैय्या दूज के दिन लड़कियां भाई को टीका लगाकर एक क्रीड़ा करती हैं। जिसमें प्रमुख पात्र होते हैं खिरणिच (पक्षी विशेष) बहन और चकवा भाई पक्षी बनते हैं।

व्रती लड़कियां मिट्टी की सात बहने बनाती हैं और एक चकवा भाई। साथ ही दुर्गा, चन्द्रमा, सूर्य आदि के चित्र भी भाई-बहन के स्नेह के साक्षी और रक्षक के रूप में बनते हैं। मिट्टी में लकड़ी खोंसकर वृन्दावन बनता है, इसी मिट्टी में जरई (जौं की फौध) बोई जाती है।

दीपावली के छठे दिन सूर्य षष्ठी ’’डाला छठ’’ का व्रत पर्व होता है। जिसमें तीन दिन तक सूर्य की पूजा की जाती है।

व्रत पर्व की कथाओं गीतों और लोक चित्रों में प्रकृति ही उपादान भी होती है और माध्यम भी। उस परिवेश में तुलसी का फौधा आता है और कार्तिक के महीने में उसके आगे दिया जलाया जाता है, उसकी जड़ों में प्रतिदिन प्रात: काल जल डालकर जल ग्रहण करने का विधान होता है। कार्तिक पूर्णिमा को या देवत्थान एकदशी को तुलसी का शालिग्राम से विवाह कराया जाता है और तुलसी की विदाई की जाती है।

इन व्रतों और त्योहारों का रूप कुछ दिखावटी और भावहीन होता जा रहा है। विशेष करके लोक व्रतों का अनुष्ठान एक अनियोजित नगरीकरण के कारण धीरे-धीरे लुपत हो रहा है जहां इनका अनुष्ठान हो भी रहा है वहां उनके प्रयोजन की पहचान और वह प्रयोजन जिस विश्व द़ृष्टि से जुड़ा हुआ है, उस विश्व द़ृष्टि की पहचान खोती जा रही है। इसलिए आवशयक है कि उनके बारे में प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की जाय और उस जानकारी के साथ-साथ उससे सम्बद्ध कहानियों चित्रांकनों की भी जानकारी यथा सम्भव दी जाय।

ये सांस्कृतिक प्रतीक काल की चेतना के साथ बदल जाते हैं। होली, दीपावली आदि पर्व उसी तरह से चले आ रहे हैं पर उनका रूप बदलता जा रहा है। पहले पकवानों का आदान-प्रदान भर-भर थाल होता था। आज यह प्रथा बहुत महंगी पड़ती है। आज त्योहार खुशाी के उतने नहीं, जितने खर्च की चिन्ता के प्रतीक बनते जा रहे हैं। खाने-पीने की चीजों का रूप बदल रहा है। समयाभाव तथा रुचि और उत्साह की कमी के कारण स्त्रियां अब स्वयं वे चीजें नहीं बनातीं, बाजार से खरीद लेती हैं। परस्फर अवलम्बिता और परस्फर सौमनस्य की भावना एक झूठे अभिमान के नीचे दबती जा रही है। यह झूठा अभिमान कृत्रिम सम्र्फेनता से आ रहा है। सम्र्फेनता तो ठीक ही है पर मूल्यों को छोड़कर सम्र्फेनता अच्छी नहीं लगती। यह सम्र्फेनता अन्त में भयावह हो जाती है। इसका एक द़ृष्टान्त आज का समाज है। जहां सम्र्फेनता आयी है पर मजहबी और जातीय सीमाओं को लांघकर जो भाईचारा र्फेापता था वह मुरझा रहा है और परस्फर अविश्वास व विद्वेष र्फेाप रहे हैं।

भारतीय पर्व-त्यौहार लोक में, समाज में रीति-रिवाजों के प्रति लगाव की कामना से आते हैं। घर का निर्माण करके उसको सुविधा-सुरुचिपूर्ण बनाकर प्रसन्नता का आलोक भरने वालों की प्रशांसा में गाये जाने वाले लोकगीत,कथाएं जीवन में उत्साह का संचार करते हैं। इन व्रतों और त्योहारों का रूप कुछ दिखावटी और भावहीन होता जा रहा है। विशेष करके लोक व्रतों का अनुष्ठान एक अनियोजित नगरीकरण के कारण धीरे-धीरे लुपत हो रहा है जहां इनका अनुष्ठान हो भी रहा है वहां उनके प्रयोजन की पहचान और वह प्रयोजन जिस विश्व द़ृष्टि से जुड़ा हुआ है, उस विश्व द़ृष्टि की पहचान खोती जा रही है। इसलिए आवशयक है कि उनके बारे में प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की जाय और उस जानकारी के साथ-साथ उससे सम्बद्ध कहानियों चित्रांकनों की भी जानकारी यथा सम्भव दी जाय।

यह दीपावली जागरण की रात है, मन के द्वार खुलेे रखने की रात है, तन-मन-घर-बाहर सबकी शुद्धि की रात है। आइये सत्य के प्रकाश के आवाहन की इस रात में असत्य के अंधेरों से जूझ रहे छोटे-छोटे दीफों की संघर्ष की रात उस लौ को बुझने से बचाये और उनमें स्नेह भरकर उनके संघर्ष में साथ दें।

 

This Post Has 2 Comments

  1. Amol pednekar

    दीपावली का महत्व और प्रकाशमय करनेवाला सुंदर आलेख.

  2. mukesh gupta

    sarahniy lekh

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