राष्ट्रीय सुरक्षा एवं डॉ. बाबासाहब आंबेडकर

देश की सुरक्षा का विचार केवल फौज तक सीमित न होकर उससे भी अधिक व्यापक है। राष्ट्रपुरुष डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने हमारे समक्ष इस विचार को सभी पहलुओं से रखा है। समाज व सरकार को उसका अनुशीलन करना चाहिए।

इस लेख में हम डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में क्या विचार थे, इस पर संक्षेप में विचार करने वाले हैं। कइयों के मन में शायद यह प्रश्न उठेगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का क्या संबंध है? डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तो केवल दलित हितों का ही विचार करते थे, राष्ट्र के बारे में उन्होंने कब सोचा? ऐसे अनेक प्रश्न उठाए जा सकते हैं? इसके दो कारण हैं। पहला कारण यह कि समाज के समक्ष बाबासाहब की जो छवि पेश की जाती है वह अत्यंत प्रदूषित होती है। वे एक महान राष्ट्र पुरुष थे, राष्ट्र निर्माता थे इसकी उनके अंधे भक्त, उनके मायावी भक्त और उनके सेक्युलर भक्त जानबूझकर अनदेखी करते हैं। इस लेख में अपने देश की सुरक्षा पर उन्होंने कितना गहराई से सोचा था, इसे संक्षेप में पेश करने का प्रयास कर रहा हूं।
राष्ट्रीय सुरक्षा पर अपने जैसे सामान्य लोग बहुत गहराई से नहीं सोचते। हमारी दृष्टि से देश की सुरक्षा का माने है देश की सीमाओं की रक्षा, यह रक्षा बेहतर ढंग से करने के लिए बेहतर फौज और हथियार हो तो बहुत हो गया। किंतु राष्ट्रनेता देश की सुरक्षा का विचार इस तरह नहीं करते, उनकी दृष्टि बहुत व्यापक होती है। किसी भी देश की दो सीमाएं होती हैं- १. भौगोलिक सीमा और २. हितसंबंधों की सीमाएं। भौगोलिक सीमाओं को नक्शे में दिखाया जा सकता है। इन सीमाओं के नाम होते हैं। उदा. भारत और चीन के बीच की सीमा को मैकमोहन सीमा कहा जाता है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा को डुरांड सीमा रेखा कहा जाता है। इन सीमाओं पर चौकियां और पहरेदार होते हैं।
हितसंबंधों की सीमा रेखाओं को नक्शों में दिखाया नहीं जा सकता। उदा. अमेरिका के हितसंबंधों की सीमा रेखाएं विश्व में कहां नहीं हैं यह दिखाना होगा। इन सीमाओं की रक्षा के लिए अमेरिका की प्रचंड नौसेना तैनात है। विभिन्न देशों में अमेरिका के फौजी अड्डे हैं। अमेरिका कोरिया में भी युद्ध करेगा और मध्य पूर्व में भी करेगा। इनमें से किसी भी भू-प्रदेश से अमेरिका पर हमले की संभावना शून्य होती है। फिर अमेरिका इन प्रदेशों में लड़ाई क्यों करता है? अमेरिका को दीर्घावधि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए युद्ध करने होते हैं।
भारत की भौगोलिक सीमा रेखाएं पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं। इन सीमाओं की सुरक्षा के बारे में बाबासाहब का क्या दृष्टिकोण था यह देखना उपयोगी है। १९४७ में पाकिस्तान की निर्मिति हुई। इस निर्मिति के समय बाबासाहब ने खुलकर अपने विचार रखे हैं। इसका संक्षेप में सारांश यह है कि पाकिस्तान की मांग यद्दपि तर्क पर न टिकने वाली हो, भारत की भौगोलिक एकता को तोड़ने वाली हो फिर भी मुसलमान यदि उस पर डटे रहे तो पाकिस्तान देने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। अखंड भारत में मुसलमान सदा झगड़ते रहेंगे, उससे मुक्ति पाने के लिए उन्हें पाकिस्तान दे दिया जाए और जनसंख्या का आदान-प्रदान कर लिया जाए।
देश की सुरक्षा के बारे में बाबासाहब की राय थी कि, भारतीय सेना में मुसलमानों की संख्या अंधिक होने पर देश की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो सकता है। ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ किताब में वे कहते हैं,‘If India is invaded by a foreign power can the muslims in the army be tusted to defend India.’
उन्होंने प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि भारत पर विदेशी हमला हो तो सेना में शामिल मुसलमान क्या भारत की रक्षा के लिए लड़ेंगे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘यदि सेना के मुसलमान पाकिस्तान की संकल्पना से सम्मोहित होंगे तो वे आतंक फैलाएंगे और देश की स्वतंत्रता को खतरे में डालेंगे।’
यही बात उन्होंने बहिष्कृत भारत के सम्पादकीय में १९२९ में पेश की थी। ‘जो कोई एशिया महाद्वीप के नक्शे को देखेगा उसे समझ में आएगा कि यह देश किस तरह घिर गया है। एक ओर से चीन व जापान जैसे भिन्न संस्कृति के राष्ट्रों का घेरा है। इन दोनों के मार में फंसे इस देश को बहुत सम्हलकर चलना होगा ऐसा हमें लगता है। इन सभी राष्ट्रों का एक संघ बनेगा और महाद्वीप के हम सभी लोग एक हैं इस भावना से प्रेरित होकर शांति और प्रेम से रहेंगे यह आशा करने का कम से कम आज तो कोई सशक्त कारण दिखाई नहीं देता…. इस परिस्थिति में चीन व जापान में से कोई भी हमला करे तो उसमें किसकी पराजय होगी यह आज भले ही न कह सकें फिर भी इस हमले का सम्पूर्ण एकता के साथ सामना करेंगे इसकी कोई गारंटी दे सकता है। किंतु, स्वतंत्र हिंदुस्तान पर यदि तुर्की, पर्शिया अथवा अफगानिस्तान इन तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से कोई हमला करता है तो उस स्थिति में सभी लोग एकजुट होकर इसका मुकाबला करेंगे इसकी क्या कोई गारंटी दे सकता है? हम तो नहीं दे सकते। हिंदुस्तान के मुसलमान लोगों का मुसलमान संस्कृति के राष्ट्रों के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। यह आकर्षण इतना बेशुमार बढ़ चुका है कि, मुसलमान संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाना और अधिकाधिक काफिर देशों को उसके शासन में लाने का उनका लक्ष्य बन चुका है। इन विचारों से प्रभावित होने के कारण उनके पैर हिंदुस्तान में और आंखें तुर्कस्तान या अफगानिस्तान की ओर होती हैं। हिंदुस्तान अपना देश है इसका उन्हें गर्व नहीं है और उनके निकटवर्ती हिंदू बंधुओं के प्रति उनमें बिल्कुल अपनापन नहीं है। ऐसे लोग विदेशी मुस्लिम हमले से हिंदुस्तान की रक्षा के लिए सिद्ध होंगे यह मानकर चलना खतरनाक है ऐसा हमें लगता है। संदर्भ- बहिष्कृत भारत- पृष्ठ क्र. १७७
पाकिस्तान ने अस्तित्व में आने के बाद १९४८ में ही भारत पर हमला

किया। एक तिहाई कश्मीर उसने निगल लिया है। पं. नेहरू ने कश्मीर समस्या को जटिल बना दिया।’ बाबासाहब ने उसका प्रखर विरोध किया है। कश्मीर के तीन भाग होते हैं- १. जम्मू- जहां हिंदुओं की संख्या अधिक है २. लद्दाख- जहां बौद्धों की संख्या ज्यादा है और ३. कश्मीर घाटी- जहां मुसलमान बहुसंख्यक है। बाबासाहब का कहना था कि बहुसंख्य मुसलमानों के साथ हिंदुओं और बौद्धों को संलग्न न किया जाए। जनमत संग्रह कराना ही हो तो वह केवल घाटी के मुसलमानों का ही लिया जाए। हिंदू या बौद्धों को उनकी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में न भेजा जाए। पंजाब व बंगाल के बारे में यही गलती हो गई, वह पुनः न दोहराई जाए। उनकी और एक राय थी कि मुस्लिम बहुल घाटी पाकिस्तान को दे दी जाए। बाबासाहब की राय तब भी देश को स्वीकार नहीं होने वाली थी और आज भी मान्य नहीं है।
देश की सुरक्षा के बारे में चार बातें अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं- १. देश की विदेश नीति २. देश में आंतरिक आर्थिक व्यवस्था ३. सामाजिक एकता और ४. फौज। इनमें से फौज के बारे में देश में लगातार चर्चाएं होती रहती हैं। अतः उस पर कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है। (इस अंक में भी अन्य लेखों में यह लिखा गया है)
देश की विदेश नीति बनाते समय मूर्खता करने पर देश के किस तरह हाल होते हैं इसकी नेहरूकालिन भारत के अलावा विश्व में अन्य कोई मिसाल नहीं होगी। विदेश नीति की बुनियाद देश के हित और व्यवहार होती है। वहां आदर्शवाद का कोई मूल्य नहीं होता। आदर्शवाद की बातें करनी होती हैं, दुनियाभर में घूमकर प्रवचन देने होते हैं लेकिन उस आदर्शवाद के लिए देश के हितों की बलि नहीं दी जा सकती। पं. नेहरू की विदेश नीति इसके विपरीत थी। बाबासाहब पं. नेहरू की विदेश नीति के कड़े आलोचक थे। नेहरू की विदेश नीति की आलोचना करते हुए बाबासाहब कहते हैं, ‘भारत को आज़ादी मिली उस दिन विश्व के देशों से दोस्ती के संबंध थे और वे देश भारत का शुभ चाहते थे। लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। आज भारत का कोई सच्चा दोस्त नहीं है। सभी देश भारत के दुश्मन नहीं हैं, फिर भी भारत से बहुत नाराज हैं। भारत के हितों को वे नहीं देखते। इसका कारण है भारत की लचर विदेश नीति। भारत की कश्मीर के बारे में नीति, राष्ट्रसंघ में चीन के प्रवेश के बारे में जल्दबाजी और कोरियाई युद्ध के बारे में अनास्था के प्रति पिछले तीन वर्षों में बचकानी नीति के कारण अन्य राष्ट्रों ने भारत की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है।’ संदर्भ- चां.भ. खैरमोडे खंड-१०-पृष्ठ क्र. १७०
आदर्शवाद के पीछे पड़कर नेहरू ने दो बड़ी भूलें की हैं- १. उन्होंने चीन को तिब्बत दान में दे दिया, २, उन्होंने चीन के साथ पंचशील पर समझौता किया। ये दोनों बड़ी भूलें देश के लिए बहुत महंगी साबित होंगी इसे बाबासाहब ने किसी के राग-द्वेष की परवाह किए बिना साफ-साफ कहा। पं. नेहरू ने एक हास्यास्पद विषय हाथ में लिया और वह था चीन को राष्ट्रसंघ में प्रवेश दिलाने का। इसके लिए पं. नेहरू अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास कर रहे थे। बाबासाहब का प्रश्न है, ‘चीन का प्रश्न लेकर हमारे संघर्ष करने का क्या कारण है, चीन अपनी लड़ाई लड़ने के लिए समर्थ है। कम्युनिस्ट चीन का समर्थन कर हम अमेरिका को क्यों अपना दुश्मन बना रहे हैं?’ राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में अमेरिका से दुश्मनी लेने का भारत के लिए कोई कारण नहीं था।
बाबासाहब नेहरू से कहते थे कि देश की विदेश नीति तय करते समय पूंजीवाद और संसदीय लोकतंत्र में फर्क किया जाना चाहिए। पूंजीवाद का विरोध समझने लायक है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम पूंजीवाद का विरोध करते समय तानाशाही का समर्थन करें। बाबासाहब का स्पष्ट संकेत कम्युनिस्ट चीन की ओर है। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही सत्ता थी (और आज भी है)। चीन को संयुक्त राष्ट्रसंघ का स्थायी सदस्य बनाने की उठापटक करने के बजाए भारत स्वयं को राष्ट्रसंघ का (अर्थात सुरक्षा परिषद) स्थायी सदस्य बनवाने पर बल देंे। १९५१ में बाबासाहब द्वारा व्यक्त यह राय है। आज भी भारत सुरक्षा परिषद का सदस्य नहीं है। भारत की विदेश नीति किस तरह है इस बारे में बाबासाहब की राय उनके ही शब्दों में- This quizotic(Quixotic) policy of saving the world is going to bring about the ruination of India and the sooner this suicidal foreign policy is reversed the better for India.
भावानुवाद यह कि दुनिया को बचाने की भारत की यह किकझोटिक कोशिश भारत के गले का फंदा बन जायेगी। अत: इस आत्मघाती नीति का तुरंत त्याग कर देना चाहिये। ‘किकझोटिक’ का अर्थ अत्यंत हास्यास्पद तरीके से जो शौर्य का दिखावा करता है उसे डॉन किकझोट कहते हैं। यह काल्पनिक दुनिया का सरदार है।
नेहरू कहते थे, माओ ने पंचशील का स्वीकार किया है। बाबासाहब कहते थे कि चीन तानाशाही देश है, विस्तारवादी है, भारत को उससे खतरा है। वे कहते हैं, ‘माओ का पंचशील नेहरू ने गंभीरता से लिया यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। पंचशील बौद्ध धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा है। माओ का पंचशील पर विश्वास होता तो उसके अपने देश के बौद्ध बंधुओं से उसका अलग बर्ताव होता। राजनीति में पंचशील का कोई काम नहीं है और कम्युनिस्ट राजनीति में तो बिल्कुल नहीं। सभी कम्युनिस्ट देश दो तत्वों को प्रमाण मानतेे हैं। पहला तत्व यह कि नैतिकता अस्थिर होती है, दुनिया में नैतिकता कुछ नहीं होती, आज की नैतिकता कल की नैतिकता नहीं होती।’ इसका अर्थ यह कि, चीन की किसी भी बात पर कोई भरोसा न रखें। आज चीन एक कहेगा और कल उसके विपरीत बोलेगा। बाबासाहब की दूरदृष्टि इतनी दूरगामी है कि, १९५१ में वे जो कुछ कह गए उसकी प्रचीति हमें आज भी आ रही है। बाबासाहब आग्रहपूर्वक कहते रहे हैं कि चीन पर कदापि विश्वास न रखें। अंत में १९६२ में चीन ने भारत पर आक्रमण किया ही और चीन ने बाबासाहब का कथन सत्य साबित कर दिया। (बौद्ध पंचशील है- १. हत्या न करना २. चोरी न करना, ३. व्यभिचार न करना, ४. झूठ न बोलना और ५. मद्यपान न करना)
बाबासाहब जब जीवित थे तब अनेक अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हो रही थीं। भारत पर प्रभाव डालने वाली इनमें कुछ घटनाएं ये हैं- १. स्वेज नहर संघर्ष २. कोरियाई युद्ध ३. वियतनाम युद्ध ४. सिटो व सिंटो संधियां। भारत की सुरक्षा पर दूरगामी परिणाम करने वाली ये घटनाएं हैं। बाबासाहब दूरदृष्टि रखकर इन घटनाओं पर विचार करते थे। भूमध्य सागर व लाल समुद्र को जोड़ने वाली मिस्र में स्थित नहर का नाम स्वेज नहर है|े १८५९ में फ्रेंच इंजीनियर ने इसकी खुदाई आरंभ की। उसकी लम्बाई १६५ कि.मी. व चौड़ाई ४८ मीटर है। यह नहर बन जाने से भारत और यूरोप की दूरी साढ़े चार हजार मील से कम हुई और अफ्रीका महाद्वीप से घूमकर आना बच गया। १९५६ में मिस्र के राष्ट्रपति नास्सर ने इस नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इंग्लैण्ड, फ्रांस और अमेरिका को यह बात कतई पसंद नहीं थी। उन्होंने बमबारी आरंभ कर दी। पं. नेहरू ने नास्सर का साथ दिया। बाबासाहब का इसे विरोध था। उनकी राय थी कि, यह नहर अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण मंडल के नियंत्रण में हो, वह मिस्र के कब्जे में न हो। भारत का विदेश व्यापार इसी नहर से चलता है। कल मिस्र भारत का दुश्मन हो गया तो क्या स्थिति होगी?’ मिस्र इस्लामी राष्ट्र है, पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र है, मिस्र पाकिस्तान का दोस्त है- ये संबंध ध्यान में रखें तो बाबासाहब की दूरदृष्टि ध्यान में आने में कोई दिक्कत नहीं होगी।
कोरिया और वियतनाम में कम्युनिस्टों के आक्रमण बढ़ते ही जा रहे थे। उत्तर कोरिया पर कम्युनिस्टों का कब्जा हो गया था। वियतनाम पर भी कब्जा करने की तैयारी चल रही थी। बाबासाहब कम्युनिस्टों के कट्टर विरोधी थे। इसके तीन कारण थे-१. कम्युनिस्टों का आर्थिक तत्वज्ञान उन्हें मान्य नहीं था २. कम्युनिस्ट तानाशाह थे, बाबासाहब लोकतंत्र समर्थक थे ३. कम्युनिस्ट हिंसक और किसी तरह के नीतिमूल्य न मानने वाले थे। इस तरह के कम्युनिज्म का दुनिया में फैलाव होना घातक है यह उनकी राय थी। वे सोचते थे कि हमें अमेरिका से सहयोग करना चाहिए।
अमेरिका ने कम्युनिज्म को रोकने के लिए दक्षिण पूर्व एशिया के देशों का एक संगठन बनाया था। मनीला संधि के अनुसार यह संघ बना था। उसका नाम ‘सिटो’ है। सदस्य देश आपस में सहयोग करें, एक पर आक्रमण होने पर दूसरा मदद के लिए पहुंचे इस तरह की दूसरी संधि बगदाद संधि के रूप में पहचानी जाती है। उसे ‘सिंटो संधि’ कहा जाता है। बगदाद संधि में पाकिस्तान
शामिल हुआ था। भारत शामिल नहीं हुआ। पं. नेहरू का अमेरिकी द्वेष और रूसी प्रेम इसका कारण था। साथ में था उनका झूठा आदर्शवाद। बाबासाहब को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी। उनकी राय थी कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए इस तरह की भिन्न-भिन्न संधियों में हमें शामिल होना चाहिए। बनार्ड शॉ की एक उक्ति बाबासाहब ने दी है। वह कहता है, ‘Good ideas are good but one must not forgate that it is often dangerous to be too good.’ बाबासाहब की सारी चेतावनियों को नजरअंदाज किए जाने के कारण आज भी हम दुनिया में एकाकी ही हैं।
देश की सुरक्षा के बारे में बाबासाहब ने आग्रहपूर्वक कहा है कि, भारत की दूसरी राजधानी होनी चाहिए और वह दक्षिण में होनी चाहिए। वे कहते हैं, ‘देश की फौजी सुरक्षा और सत्ता, प्रशासन में समान सहभाग की दृष्टि से दक्षिण में भारत की उपराजधानी अवश्य होनी चाहिए। मेरी बहुत दिनों से यह राय है कि हैदराबाद, सिकंदराबाद व बोलाराम का इलाका केंद्र सरकार अपने अधीन करें और वहां उपराजधानी कायम करें। दिल्ली में रहकर राज्य चलाने की बात आती है तब मुझे उनकी फौजी कौशल पर हंसी आती है। हमारा राष्ट्र फौजी बनाना हो तो दक्षिण भारत में राजधानी बनाना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से उपयोगी होगा। आज केंद्र सरकार में उत्तर भारत के लोगों का प्रभुत्व है। राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री के पद दो प्रांतों के बड़े लोगों में बारी-बारी से बंटते रहेंगे। दक्षिण भारत के सामान्य लोग नौकरी के लिए आज भी दिल्ली नहीं जा सकते और प्रशासन व्यवस्था में हिस्सा मिलना भी मुश्किल हो गया है। भारत के सभी लोग एक हैं यह यद्दपि सच है, लेकिन व्यवहार में यह भावना निरर्थक है। राजनीति में यह उदारता संकट में डालती है व सीधे-साधे लोगों का घात होता है। इसी कारण हैदराबाद में उपराजधानी हो तो दक्षिण भारतीयों को सरकारी व्यवस्था में स्थान मिलेगा। इधर के लोग सत्ता में सहभागी हो सकेंगे। हम इस बात को सोच नहीं पा रहे हैं।
देश की अर्थव्यवस्था बेहतर होनी होती है, मात्र फौज उपयोगी नहीं है। १९९० तक रूस महासत्ता था, १९९० में रूस का दीवाला पीटने को हो गया। रूस ने फौजी ताकत पर जिन देशों को अपने कब्जे में रखा था वे स्वतंत्र हो गए, सोवियत संघ टूटा। बाबासाहब ने अनेक बार आर्थिक लोकतंत्र व आर्थिक समानता के बारे में अपने विचार रखे हैं। संविधान सभा के समक्ष अपने अंतिम भाषण में उन्होंने देश की सुरक्षा के बारे में अत्यंत मौलिक विचार रखे हैं। वे कहते हैं, ‘हमारे सामाजिक व आर्थिक जीवन में सामाजिक व आर्थिक ढांचे के कारण हर व्यक्ति के समान मूल्य के तत्व को हम ठुकराते रहने वाले हैं। हम यदि अधिक समय तक इसे अस्वीकार करते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़े बिना नहीं रहेगा।’
राष्ट्रीय सुरक्षा का सब से बड़ा मुद्दा सामाजिक एकता होता है। सामाजिक एकता पैदा होने के लिए सामाजिक लोकतंत्र निर्माण होना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ समाज की व्यवस्था स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व इन तीन तत्वों के आधार पर होनी चाहिए। इनमें से बंधुता का तत्व सब से महत्वपूर्ण है। बाबासाहब कहा करते थे, सभी भारतीयों को एक दूसरे से सगे भाइयों की तरह स्नेह करना चाहिए। यह सामाजिक एकता का बुनियादी तत्व है, सामाजिक एकता हो तो समाज किसी भी तरह का विदेशी आक्रमण नहीं सहता और उसे पराजित करता है। इंग्लैण्ड, रूस, जापान, फ्रांस, जर्मनी का इतिहास इस बात को स्पष्ट रूप से उजागर करता है।
देश की सुरक्षा का विचार केवल फौज तक सीमित न होकर उससे भी अधिक व्यापक है। राष्ट्रपुरुष डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने हमारे समक्ष इस विचार को सभी पहलुओं से रखा है। समाज व सरकार को उसका अनुशीलन करना चाहिए।

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