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मुस्लिम धर्म की कुरीतियों पर कठोर प्रहार करने वाली विचारोत्तेजक फिल्म “सायरा खान केस “

मुस्लिम धर्म की कुरीतियों पर कठोर प्रहार करने वाली विचारोत्तेजक फिल्म “सायरा खान केस “

by अमोल पेडणेकर
in ट्रेंडींग
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हमारे समाज में विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच कुछ ऐसी परंपराएँ प्रचलित हैं जो अब समय के साथ समाज के लिए घातक बन चुकी हैं। ऐसी ही कुरीतियों पर प्रहार करने का कार्य हमारी भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री ने कई बार किया है, और भारतीय दर्शकों ने भी ऐसी विचारप्रधान फ़िल्मों का स्वागत किया है। ऐसी ही एक फ़िल्म “सायरा खान केस” के प्रीमियर शो में कल रात शामिल होने का अवसर मिला। यह फ़िल्म अभी रिलीज़ होना बाकी है।

मुस्लिम धर्म में क़ुरान और सुन्नत के अनुसार पुरुष को स्त्री को तलाक देने का अधिकार है। भारत सरकार ने 2019 में तीन तलाक के विरुद्ध जो कानून पारित किया है, उसके बावजूद भी कुछ लोग इस प्रथा को कागज़ पर लिखकर या ईमेल के माध्यम से तलाक देने के रूप में जारी रखे हुए हैं। मुस्लिम समाज में तलाक देने और एक से अधिक (चार) विवाह करने का अधिकार केवल पुरुषों को है।

इन्हीं सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करने वाली फिल्म “सायरा खान केस” शीघ्र ही रिलीज़ होने जा रहा है। मुस्लिम समाज एवं महिलाओं को भीतर से झकझोरने वाली तीन तलाक और चार निकाह जैसी प्रथाओं पर तीखा और साहसी टिप्पणी करने का कार्य इस फ़िल्म के माध्यम से स्वाती चौधरी और करण राजदान ने किया है।
यह फ़िल्म देखने के बाद इसे एक प्रभावशाली कोर्टरूम ड्रामा कहा जा सकता है। बहुविवाह और तीन तलाक जैसे ज्वलंत विषय को बहुत सशक्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस फ़िल्म की खासियत यह है कि यह किसी भी प्रकार का विवाद (controversy) उत्पन्न नहीं करती। इसमें ऐसा कोई संवाद या दृश्य नहीं है जो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाए।

फ़िल्म मुख्यतः इस बात पर प्रकाश डालती है कि तीन तलाक और बहुविवाह जैसी प्रथाओं से मुस्लिम महिलाएँ किस तरह से पीड़ित हैं। “सायरा खान” नाम पाकिस्तानी महिला के जीवन में घटी वास्तविक घटनाओं पर आधारित यह फ़िल्म सत्य घटना से प्रेरित है। इस केस को स्वयं स्वाती चव्हाण ( जो उस समय प्रिंसिपल जज के पद पर कार्यरत थीं) ने अपने न्यायालय में संभाला था। इसलिए फ़िल्म में कोर्टरूम के संवाद और घटनाएँ अत्यंत प्रभावशाली और यथार्थपूर्ण प्रतीत होती हैं।

हालाँकि यह फ़िल्म मुस्लिम समाज की धार्मिक प्रथाओं पर प्रश्न उठाती है, फिर भी यह कहीं भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगती। यह फ़िल्म हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों को सोचने पर मजबूर करती है। स्वाती चव्हाण की प्रस्तुति और करण राजदान का निर्देशन दोनों ही सराहनीय हैं।फ़िल्म में भोपाल और अज़रबैजान में किए गए दृश्यांकन अत्यंत भव्य और आकर्षक हैं। यह फ़िल्म पारिवारिक, धार्मिक और व्यक्तिगत प्रवृत्तियों पर टिप्पणी करती है, फिर भी इसकी प्रस्तुति में एक प्रभावशाली भव्यता है।

फ़िल्म की कहानी में एक पाकिस्तानी नागरिक सायरा खान है, जिसका पति भारतीय मुस्लिम नागरिक है। वह उसे झूठे बहानों से ग़लत तरीक़े से तलाक देता है, और वहीं से फ़िल्म की कहानी शुरू होती है। अंत में भारतीय न्यायपालिका किस प्रकार एक पाकिस्तानी मुस्लिम महिला को ऐतिहासिक न्याय दिलाती है, यही इस फ़िल्म का मुख्य बिंदु है। पूर्व प्रिंसिपल जज स्वाती चव्हाण ने अपने न्यायालय में 2014 मे घटी इस सत्य घटना को अत्यंत शोधपूर्ण और रचनात्मक ढंग से बड़े परदे पर प्रस्तुत किया है। चौहान ने स्पष्ट किया कि फ़िल्म में उनके 2014 के फैसले की आत्मा को बरकरार रखा गया है और संबंधित पक्षों की पहचान को सख़्ती से गोपनीय रखा गया है। कहानी व्यक्तिगत धार्मिक कानून और भारत के धर्मनिरपेक्ष क़ानून के बीच टकराव को उजागर करती है।

यह फ़िल्म न केवल मुस्लिम समाज को, बल्कि पूरे भारतीय समाज को सोचने पर मजबूर करती है। मुस्लिम महिलाएँ इस फ़िल्म को देखकर अवश्य ही अपने भीतर झाँकेंगी । ऐसा विश्वास है। गंभीर विषय पर आधारित होने के बावजूद फ़िल्म अपने पूरे समय में संतुलित और संयमित बनी रहती है। इसमें किसी की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं होतीं, फिर भी इसके संवाद मुस्लिम समाज की परंपराओं पर गहरा प्रहार करते हैं, यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।

इस फ़िल्म के माध्यम से स्वाती चव्हाण और करण राजदान ने यह दिखाया है कि एक गंभीर और संवेदनशील विषय को बिना किसी विवाद के, प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। फिल्म का निर्माण सोल फ़िल्म्स बैनर तले सलीम ललानी, स्वाति चौहान, निज़ार ललानी, शमशु पिरानी, निमेष पटेल और सतीश भनुशाली ने किया है। इसमें राजनीश दुग्गल, पूनम दुबे, करण रज़दान, आराधना शर्मा, राजीव वर्मा और मुकेश त्यागी मुख्य भूमिकाओं में नज़र आएंगे। सभी कलाकारों ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। भारतीय सिनेप्रेमियों को इस अनोखे और विचारोत्तेजक चित्रपट “सायरा खान केस ” की अवश्य अनुभूति लेनी चाहिए।

 

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अमोल पेडणेकर

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