पुलिस को मजबूत तो करिए

‘‘पुलिस को एक कसी रस्सी पर चलना पड़ता है। एक तरफ सत्तारूढ़ सरकार तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों के बीच पिसना पड़ता है। इन हालात में पुलिस की छवि धुंधली रहती है और कानून का पालन कराने वाली निष्पक्ष संस्था को नुकसान उठाना पड़ता है।’’
कुछ समय पूर्व कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा था कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा संचालित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा मुजफ्फरनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों में पीड़ित लोगों को भड़का कर आतंकी संगठनों से जोड़ना चाहता है। दिसम्बर, २०१३ में दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने लश्कर-ए -तैयबा से जुड़े हरियाणा से दो संदिग्ध इमामों को गिरफ्तार किया था। इन्होंने मुजफ्फरनगर में दंगा पीड़ितों के शिविरों में जाकर उनसे संपर्क कर आतंकी संगठनों से उन्हें जोड़ने की कथित कोशिश की थी। इस बीच दंगा पीड़ितों ने दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ को उनके बारे में सूचना देकर पकड़वा दिया था। ३१ दिसम्बर, २०१३ को उनके बयान दिल्ली में नगर दंडाधिकारी के समक्ष सीआरपीसी की धारा १६४ के तहत दर्ज किए गए थे, जिन्हें साक्ष्य के तौर पर स्वीकृति मिल चुकी है।
हमारे देश में आतंकवाद से लड़ने के लिए कोई कड़ा कानून नहीं है, जिसका देश के दुश्मन आसानी से लाभ उठा रहे हैं्। देश में आज भी अंग्रेजों द्वारा सन् १८६१ व १८६३ में निर्माण किए गए कानूनों का पालन हो रहा है, जबकि पूरी दुनिया में नए कानून बन चुके हैं्। देश के पूर्व गृहमंत्री पी़ चिदम्बरम ने स्वीकार किया था कि देश में निचले स्तर पर तैनात पुलिसकर्मी बिना अत्याधुनिक हथियारों के आतंकवादी और नक्सलियों की गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं्। देश की आंतरिक सुरक्षा की चुनौती के बारे में उन्होंने कहा था कि पुलिसिया ढांचा पुराना हो चुका है, प्रशिक्षण की कमी, अत्याधुनिक हथियारों का अभाव और पुलिसकर्मियों को वेतन भी पर्याप्त नहीं मिलता है। उन्होंने कहा था कि सिपाही पूरे साल रोजाना १२ से १४ घंटे ड्यूटी पर तैनात रहते हैं, उनके साथ इससे बड़ा भेदभाव और क्या होगा? जबकि सिपाही प्रशासनिक व्यवस्था और न्याय का हिस्सा है। ये मामले सीधे राज्यों के अधिकार क्षेत्र में हैं। केंद्र सरकार ने कुछ संस्थान खोलकर इन कमियों को दूर करने का प्रयास किया है, जैसे कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर मानवाधिकार आयोग का गठन करके।
सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिसिया ढांचे में सुधार के लिए २२ नवम्बर, २००६ को एक आदेश पास किया था। हैरानी की बात यह है कि किसी भी राज्य ने उस आदेश को लागू नहीं किया। उदाहरण के लिए, राज्य स्तर पर एक समिति ऐसी होनी चाहिए, जो कि पुलिसकर्मियों के तबादले और तैनाती को देखे, जबकि दूसरी समिति पुलिस के खिलाफ शिकायतों का निस्तारण करे। कुछ राज्यों में ऐसी समितियों की व्यवस्था है तो कुछ में नहीं है। जिन राज्यों में ऐसी समितियां कार्यरत भी हैं वे वास्तव में उस तरह से कार्य नहीं कर रही हैं, जैसी कि उनसे अपेक्षाएं हैं। सर्वोच्च न्यायालय लगातार समितियां नहीं बनाने वाले या फिर समिति बनाकर उन्हें पालन में नहीं लाने वाले राज्यों की खिंचाई करता रहता है। हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए इन सुझावों का पूरी तरह से समर्थन करते हैं।
देश में इतिहास और वर्तमान को देखते हुए एक नई परम्परा बन चुकी है कि समाज के किसी भी वर्ग की सरकार से कोई मांग होती है तो वह सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करता है। शांतिपूर्ण आंदोलन करना तो बीते दिनों की बात हो गई है, बंद, हिंसा, हत्या और तोड़फोड़ ने आज उसकी जगह ले ली है।
पुलिस, जिसका इन सब विषयों से कोई लेना-देना नहीं होता, वह प्रदर्शनकारियों की मांगों और सरकार के रुख के बीच में फंसकर रह जाती है। पुलिस समाज में सरकार और उसके प्रशासन का दिखाई देने वाला प्रतिरूप है, इसलिए सरकार पर वार करने का यह सबसे आसान साधन बन गया है। वास्तव में सरकार का विरोध पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच का विरोध बनकर रह गया है।
आजकल आम शिकायत यह रहती है कि पुलिस बल ने लूटपाट व आगजनी करने वाले दंगाइयों पर अत्यधिक बल का प्रयोग किया। कमरों में आराम से कुर्सी पर बैठकर पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाना आसान है। नुकसान को रोकने के लिए यदि पुलिस बल प्रयोग करती है या भीड़ पर गोली चलाकर काबू करती है, या फिर इस कार्रवाई में कभी कोई आतंकी मारा जाता है तो उसे पुलिस की अनावश्यक और अनुचित कार्रवाई करार दिया जाता है। यदि पुलिस सावधानीपूर्ण तरीके से कार्रवाई नहीं करती है तो उस पर निष्क्रियता का आरोप लगाया जाता है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी कहा है कि पुलिस को एक कसी रस्सी पर चलना पड़ता है। एक तरफ सत्तारूढ़ सरकार तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों के बीच पिसना पड़ता है। इन हालात में पुलिस की छवि धुंधली रहती है और कानून का पालन कराने वाली निष्पक्ष संस्था को नुकसान उठाना पड़ता है।
आज ऐसी धारणा बन चुकी है कि राजनेता पुलिस को निर्देश देकर उनके सभी कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते हैं। ये सभी हस्तक्षेप मौखिक रूप से होते हैं, जिन्हें कभी न्यायालय में और राजनेताओं द्वारा आयोग गठित होने पर साबित करना मुश्किल हो जाता है। राजनेता हमेशा पुलिस को मौखिक आदेश देते हैं न कि लिखित रूप में। ऐसे में जवाबदेही पुलिस और प्रशासन की बन जाती है न कि राजनेताओं की। प्रो. डेविड. एच. बेल्ली ने कहा है कि आपराधिक न्याय में दोहरी व्यवस्था का चलन हो गया है, एक कानून की और दूसरी राजनीति की। पुलिस के संबंध में जो भी निर्णय पुलिस अधिकारी कानून लागू करने के बारे में लेते हैं, उनके पुनरावलोकन का अधिकार जनप्रतिनिधियों को होता है। पुलिस अधिकारियों की स्वायत्तता को इस माध्यम से दबाया जाता है। साथ ही कानून एवं व्यवस्था में यही परेशानी उनके सामने नहीं आती और भी परेशानियां हैं जिनसे उन्हें निपटना पड़ता है।
इसके अलावा राजनीति से संबंधित लोगों का ध्यान अपराधी अपनी ओर आकर्षित करते हैं, जिससे उन्हें कानूनी लाभ मिल सके। पूरे भारत में पुलिस अधिकारी कोई भी कदम उठाने से पहले उसके राजनीतिक परिणाम के बारे में सोचते हैं। उनमें अपने भविष्य, तैनाती और तबादले को लेकर एक घबराहट रहती है। लेकिन सभी जगह राजनेता बडे़ अधिकारियों द्वारा निचले अधिकारियों के उठाए गए कदमों के लिए उनकी व्यक्तिगत जवाबदेही की अपेक्षा रखते हैं। आखिरकार आधुनिक भारत में कानून के नियम, जिन पर न्याय व्यवस्था टिकी हुई है, राजनीति के सामने बौने साबित होते हैं।
उत्तर प्रदेश में करीब ५० फीसदी पुलिस बल की कमी है। यह प्रदेश सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित रहा है। अंतरराष्ट्रीय नियम के मुताबिक एक लाख की आबादी पर २४० पुलिसकर्मियों की जरूरत होती है, जबकि उत्तर प्रदेश में एक लाख की जनसंख्या पर सिर्फ ७० पुलिसकर्मी ही हैं। इनमें से ५० फीसदी पुलिसकर्मियों के पद रिक्त हैं। बिहार में तो एक लाख की आबादी पर ५० पुलिसकर्मी ही हैं, जिनमें से ३० प्रतिशत पद रिक्त हैं। (देखें बॉक्स) २५ फीसदी पुलिसकर्मी सदैव प्रशिक्षण में होने चाहिए, जिससे उन्हें नए-नए कानूनों की जानकारी मिलती रहे। वास्तविकता यह है कि राज्यों में जो पुलिस प्रशिक्षण केंद्र हैं, उनमें सेवानिवृत्त पुलिसकर्मियों के बदले नए आए पुलिसकर्मियों को भी प्रशिक्षण देने की व्यवस्था तक नहीं है।
भारत में पुलिस बल के दुरुपयोग का प्रत्यक्ष उदाहरण यासीन भटकल का प्रकरण है। उसके खिलाफ बिहार सरकार ने कोई भी कार्रवाई नहीं की, जबकि इंडियन मुजाहिदीन के तार पूरे बिहार में फैले हुए थे। पूरे राष्ट्र को उसके द्वारा आतंकी हमलों के बारे में जानकारी थी। यहां तक कि एक पार्टी के प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार भी आतंकी हमले से अछूते नहीं रहे, जबकि इस पार्टी के साथ बिहार में साझा सरकार थी। राज्य सरकार ने रैली में हुए विस्फोट पर या बोधगया में हुए विस्फोट के बारे में केंद्र सरकार द्वारा कोई भी पूर्व सूचना होने से साफ मना कर दिया। हर राज्य स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य कर रहा है न कि संयुक्त रूप से। राष्ट्रीय मुद्दों की महत्ता राज्यों पर निर्भर करती है। इसका परिणाम यह है कि केंद्र सरकार आतंकवाद पर जिम्मेवारी से मुंह फेर लेती है और उसे राज्य का मुद्दा बताती रहती है। कोई भी राज्य भारत की सुरक्षा और अखंडता से ऊपर नहीं है। सत्ता के लालच में वोट बैंक की राजनीति कर राजनेता ऐसा गंदा खेल खेलते हैं।
मजहब, जाति के नाम पर ऐसे लोग सत्ता में आ जाते हैं और अपने हितों को पूरा करते हैं्। सर विंस्टन चर्चिल ने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक का विरोध करते हुए अगस्त, १९४७ में कहा था कि सत्ता दुष्टों और गलत लोगों के हाथों में चली जाएगी। सभी नेता कम क्षमता वाले होंगे। उनकी मीठी जुबान होगी और वे आपस में सत्ता के लिए झगडे़ंगे। साथ ही देश राजनीतिक विवाद में उलझ जाएंगे। एक दिन ऐसा आएगा कि जब हवा और पानी पर भी कर लगेगा। उन्होंने ६७ वर्ष पहले ऐसा लिखा था। मेरा कहना है कि हमेशा राष्ट्र के प्रति वफादार रहें, पर सरकार के प्रति तब वफादार रहें कि जब वह इसके योग्य हो।
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(लेखक सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं।)

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