अति से विकृति

फैशन अगर व्यक्त्वि को आकर्षक बनाती है, आत्म-विश्वास देती है, तो उसकी अति अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक विकृतियों को भी जन्म देती हैं। फैशन के प्रति स्वीकृती तो हो, लेकिन वह विकृति की सीमा तक नहीं पहुंचनी चाहिए।

शन एक ऐसा शब्द है, जो हर दिन हमारे कानों से न जाने कितनी बार टकराता है। फैशन हरेक की जुबान पर होता है- चाहे शहरी हो या देहाती। वैसे अब देहाती की परिभाषा बदल चुकी है। शहरी कहेगा, वॉव! इस बंदे को देख फैशन सीखनी चाहिए; तो गांव का मानुस कह देगा, बड़ी ‘फैसन’ करती है। यह फैशन शब्द कभी संज्ञा के रूप में, कभी क्रिया के रूप में हम सबके जीवन में सांसों की तरह घुल-मिल चुका है। पर सांसें संतुलित चलें, तो स्वास्थ्य अच्छा रहता है। न ज्यादा तेज चले, न कम, और बंद हुई तो कहानी खत्म। इसी तरह फैशन का जीवन में होना आवश्यक है, वरना हमारा अस्तित्व ही नहीं होगा।

फैशन का अर्थ यह कदापि नहीं कि फैशन चैनल की मॉडल्स की तरह डिज़ायनर्स द्वारा डिज़ाइन किए कपड़े पहनकर रैंप पर चलना है, या उसी तरह के कपड़ों में दिखना है। नीता लुल्ला, मनीष मल्होत्रा जैसे डिजायनर साथ हों तो ही फैशन हो ऐसा नहीं है। गांव की महिलाएं भी जो पहनती हैं, वह उनकी फैशन है। रहने-बोलने, खाने का तरीका फैशन है। बनाव श्रृंगार का तरीका, जीवन शैली, रीति-प्रथा, परंपरा, परिधान- अंग्रेजी में ‘स्टाइल’, ‘लुक’, ‘ट्रेंड’, ‘रेंज’ ये सब फैशन है।

महाराष्ट्र की औरतें नौवारी साड़ी, राजस्थानी लूगड़ा (घाघरा), बंगाली विशेष तरह की साड़ी पहनती हैं, जो अपने-अपने जगह की फैशन ही है। सब फैशन को जीते हैं, चाहे अनजाने में ही हो। यह तो हुई, सांसों की तरह जरूरत के रूप में। लेकिन अगर बिल्कुल सलीके से न रहा जाए, कौन सा मौका है, उस पर उसके मुताबिक न पहन, आतला-भातला कुछ पहन लिया जाए, तो नजरों में खटकता है। मसलन, किसी शुभ अवसर पर बिल्कुल सफेद कपड़े पहन लिए जाएं, या मातम पुर्सी के मौके पर तड़क-भड़क परिधान का श्रृंगार सजा लिया जाए, तो आलोचना का शिकार बनना लाजिमी है। इस तरह के बेमेल पहनावा पहनने वाले के अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया जाएगा। जो संतुलित रहेगा, समयानुसार परिधान और उचित शैली में रहेगा, उसका अनुसरण भी किया जाएगा। इसलिए कुछ लोग फैशन आइकॉन माने जाते हैं। जैसे अक्सर सोनम कपूर को यह उपाधि दी जाती है। कुछ लोग फैशन की अपनी परिभाषा गढ़ते हैं।

फैशन जीवन में दूध, पानी की तरह घुली हो, पर दूध में पानी की मात्रा कितनी हो, यह जरूरी है उसकी गुणवत्ता के लिए। यदि पानी जरूरत से ज्यादा हो जाएगा, तो दूध का मौलिक स्वाद तो खत्म होगा ही, पानी का भी अपना कोई स्वाद नहीं होगा। इसी तरह अगर फैशन की अति हो जाए, याने फैशन हठीलापन तक पहुंच जाए, तो सारा मामला गड़बड़ हो जाएगा। फैशन अगर व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है, आत्म-विश्वास देती है, तो उसकी अति अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक विकृतियों को भी जन्म देती है। कुछ लोग फैशन के नाम पर ऐसे परिधान पहन लेते हैं, जिन्हें देखकर वे परिहास का कारण ही बनते हैं। ऐसा ही एक मजाक है। बी.एम.डब्ल्यू. गाड़ी से एक लड़की उतरी। उसकी जीन्स इतनी फटी थी कि उसके पैर छिपते कम थे, दिखते ज्यादा थे। वहां एक भिखारी भीख मांग रहा था। वह उसे पचास का नोट देने लगी। भिखारी की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा- नहीं बेटी, ये पैसे आप रखो। पहले अपना जीन्स सिलवा लो। फेडेड जीन्स, फटे जीन्स, मिट्टी कीचड़ लगे जीन्स ट्रेंड में हैं। और ये अपेक्षाकृत मंहगे भी मिलते हैं। अब यह मानसिक विकृति कही जाए, या इसे कैसे परिभाषित किया जाए समझ से परे है। फटे, रंग उड़े और कीचड़ सने जैसे जीन्स लोगों की विशेष पसंद बन रहे हैं। इनके साथ एक विकृति और पैदा होती है। जब इस तरह असामान्य तरीके से शरीर दिखता है, तो सबका ध्यान ज्यादा जाता है। यह लड़के और लड़की दोनों के साथ होता है। क्योंकि दोनों ही वर्ग कटी-फटी जीन्स को स्टेट्स सिम्बल मानते हैं।

मैं इस बात से कतई सहमत नहीं कि लड़कियों के लिए बुर्का या ऐसे कपड़े जरूरी हों, जिसमें उनका शरीर बिल्कुल ना दिखे, पर यह भी स्वीकार्य नहीं कि वे इतना मिनी स्कर्ट भी पहनें, जिसमें उसके लिए झुकना, नीचे बैठना भी मुश्किल हो जाए। मेरे घर में एक दिन महिलाओं पर अत्याचार पर एक गोष्ठी आयोजित थी, जिसमें शहर की बहुत प्रबुद्ध विभूतियां उपस्थित थीं। उसमें एक गज़लकार जानीमानी शख्सियत ने कहा, माना गलत हो रहा है, पर ईमानदारी के साथ मैं यह स्वीकार करना चाहती हूं, कि पिछले हफ्तों, मैं एक रेस्तरां में खाना खाने गई, वहां एक ‘यंग’ लड़की बहुत ही छोटा मिनी स्कर्ट पहने बैठी थी। मेरी नजरें भी देख रही थीं, कि कहां तक, उसका शरीर दिख रहा है। इस तरह के परिधान मानसिक विकृति फैलाते हैं। इस पर लंबी बहस चली, और एक निष्कर्ष आया कि हमारी संस्कृति और विदेशी संस्कृति में बहुत अंतर है। वहां छोटे-कपड़े पहनना, सरेआम चुंबन करना, यह सब बहुत आम है, ‘बाय डिफॉल्ट’ सब चलता है, लेकिन भारतीय परिवेश में फैशन के अपने मापदण्ड हैं। अगर विदेशी फैशन का अंधानुकरण किया जाएगा, तो विसंगतियां पनपेंगी।

जब फैशन की बात होगी, और मानसिक, शारीरिक विकृतियों की बात होगी, तो समग्रता से आकलन जरूरी है। केवल लड़कियां या महिलाएं ही नहीं, लड़के और कुछ पुरुष भी फैशन की ऐसी अति करते हैं कि जोकर लगने लगते हैं। कुछ पुरुष तो बिल्कुल महिलाओं की तरह सज जाते हैं। आजकल चालीस-पचास पार की महिलाओं के बीच ‘क्लब कल्चर’ का फैशन बहुत पनपा है। थीम पार्टीज़ होती हैं, फैशन शोज, डांस शोज और बहुत से अवसर पर कई महिलाएं ऐसे-ऐसे कपड़े पहनती हैं कि भद्दी लगने लगती हैं। रही-सही कसर ‘फेस बुक’ पूरी कर देता है। न अपना शरीर देखती है, न उम्र। हाथ का मांस लटक रहा है, पर बिना बाहों के वन पीस पहनना है। शरीर का निचला हिस्सा थुलथुला हो रहा है, पर शॉर्ट वन पीस पहनकर वे स्वयं को किसी ‘दीवा’ से कम नहीं समझतीं। फिर अपनी ‘फनी’ और ‘थ्रिलिंग’ फोटोज फेसबुक पर चस्पां करती जाती हैं। उन्हें ‘वॉव, सो सेक्सी’, ‘वॉव, लुकिंग लाइक अ दीवा’, ‘लुकिंग सो यंग’ ऐसे कमेंट मिलते हैं। वे अति उत्साही होकर और ज्यादा फोटोज डालती जाती हैं। वही लोग जो सामने कुछ और कहते हैं, पीछे उनकी हंसी उड़ते हैं।

इसी तरह कुछ लोग यह नहीं समझते कि उन पर क्या फैशन अच्छा लगेगा। दूसरों की नकल कर के वैसे ही रंग में रंगना चाहते हैं। और कौआ चला हंस की चाल को चरितार्थ करते हैं। कुछ लोग देखादेखी दूसरों की फैशन की नकल तो करते हैं, पर सामान्य नहीं रह पाते। हर समय ‘कान्शस’ याने असहज रहते हैं। सामान्य व्यवहार भी नहीं कर पाते। क्यों खुद को असहज स्थिति में लाया जाए?

अक्सर सुनने, पढ़ने में आता है, ‘एक्सेप्ट एज ग्रेसफुल्ली’। पर यह अमूमन होता नहीं। महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी अपनी उम्र छिपाते हैं। छोटा दिखने के लिए, गोरा दिखने के लिए, सुंदर दिखने के लिए बाजारवाद का शिकार बनते हैं। यदि कोई क्रीम गोरा कर सकती, तो कोई काला होता ही नहीं। हिरोईनें अपनी उम्र छिपाने के लिए बोटोक्स लगवाती हैं, और प्लास्टिक सर्जरी आदि करवाती हैं। विगत दिनों जब श्रीदेवी की असामायिक मौत हुई, तो यह सवाल बहुत उठा कि वे प्लास्टिक सर्जरी या इस तरह के जो भी प्रयोग करती थीं वे उनकी मौत का कारण बने। इसका सच क्या है, पता नहीं, पर इन इलाजों के जो साइड इफेक्ट्स होते हैं, उन पर बहुत चर्चा हुई सार्थक चर्चा हुई। हालांकि हेमा मालिनी, शबाना आजमी, सिमी ग्रेवाल ने अपनी उम्र को धता बता रखी है। पर धर्मेन्द्र की स्किन टाइटनिंग अटपटी हो गई। कैटरीना, अनुष्का सबने अपने होठों की प्लास्टिक सर्जरी कराई, साफ पता चलता है।

बहुत से सौंदर्य प्रसाधनों से गंभीर बीमारियां होती हैं, पर वे इस कदर जीवन में घुसपैठ कर चुके हैं कि अधिकांश जन चाहकर भी उनसे अलग नहीं हो पाते।

हम वार्तालाप कैसे करते हैं, व्यवहार कैसा करते हैं, यह सब भी फैशन के अंतर्गत आता है। हमारे देश की त्रासदी, यह है कि ‘निज माया उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल’ को भूल गए। हिंदी बोलना पिछड़ापन समझा जाता है, अंग्रेजी बोलना तथाकथित फैशन है। कुछ लोगों की सोच है, यदि आधुनिक दिखना है, प्रगतिशील दिखना है, तो अंग्रेजी बोलें। यहां तो यह है जिसे भाषा का उचित ज्ञान है, उसके मुंह से तो ठीक है, लेकिन कुछ लोग गलत-सलत अंग्रेजी बोलते हैं, उच्चारण भी ठीक नहीं करते, इज़ को इज, हिज़ को हिज बोलेंगे। व्याकरण की सही समझ नहीं, ‘ही डज़’ की जगह कहेंगे, ‘ही डू’। याने व्याकरण की बैंड बजाते हैं। यह मानसिक विकृति है, जहां स्वभाषा बोलने में हीन भावना महसूस हो, और अंग्रेजी बोलकर फैशनेबल समझा जाए। कुछ लोग अपना ये भाषा ज्ञान ऐसे स्थानों पर झाड़ने लगते है जहां उस भाषा को कोई ठीक से समझ ही नहीं पा रहा है। पर भई ये महानुभाव फैशन के मारे हैं, इन्हें कौन समझाए? सलमान खान अगर नारंगी, लाल पैंट पहन कर स्क्रीन पर दिखें, तो चलता है, पर आम तौर पर यदि पुरुष लाल, नारंगी पेंट पहनकर घूमेंगे तो आंखों को प्रिय तो नहीं ही लगेगा।

फैशन के बगैर जीवन नहीं, यह सच है, पर ‘एस्थेटिक सेंस’ होना जरूरी है। क्या हम पर फब रहा है यह जानना जरूरी है। जीवन शैली में मौलिक फैशन हो, ऐसी जो हमें प्रशंसा का पात्र बनाए। फैशन के नाम पर विकृतियों को अपनाना, फैशन की अति हमें उपहास का पात्र बनाएगी। ध्यान रखना होगा – ‘अति सर्वत्र वर्जतेय।’

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