वामपंथी आतंकवाद

माओवादियों में नेतृत्व के लिए संघर्ष, धन के स्रोतों में व्यवधान और फंड में गबन आदि चल रहा है। ….इनके समर्थकों के बीच वैचारिक मुद्दाविहीनता ने आंदोलन को संगठित अपराध के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इसलिए पुलिस कार्रवाई के अतिरिक्त एक विश्वसनीय, केद्रिंत और निरंतर मनोवैज्ञानिक आक्रामकता इस आंदोलन को बेनकाब करने के लिए अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।
 जेहादी आतंकवाद के अतिरिक्त वामपंथी आतंकवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बहुत गंभीर खतरा बनकर उभरा है। इसने २००४ के बाद से और अधिक गंभीर रूप धारण कर लिया है जब से पीपुल्स वार ग्रुप (PWG) माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) की दलीय एकता एवं अन्य छिटपुट बिखरे हुए समूहों ने आपस में मिलकर भाकपा (माओवादी) का गठन किया है।
नक्सलवाद के इस तरह निरंतर विकास का लक्ष्य अपने खतरनाक राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सहायता प्राप्त करना तथा अंत में बंदूक के बल पर सत्ता अर्जित करना है। उन्होंने बड़ी संख्या में जनजातीय एवं गैर जनजातीय जनता का शोषण किया है तथा उनके हृदय में देश के प्रति असंतोष भरा है। इन चरमपंथियों ने सामाजिक एवं आर्थिक अन्याय के विरुद्ध तथा प्रमुख जल-विद्युत परियोजनाओं एवं आदिवासी क्षेत्रों में बृहद् खनन के चलते आदिवासी जनसंख्या के बड़े स्तर पर विस्थापन के विरुद्ध एक सशस्त्र संघर्ष प्रारम्भ करने का आह्वान किया है।
इससे आदिवासी जनता के मध्य इनका प्रभाव बढ़ा है तथा इनका साम्राज्य २००१ में ९ राज्यों के ५३ जिलों से अब तक १८ राज्यों के लगभग २५२ जिलों तक फैल चुका है। इस प्रकार वर्तमान में देश के लगभग ४० प्रतिशत भू-भाग पर वामपंथी चरमपंथियों का जाल फैला हुआ है। छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा एवं बिहार नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित राज्य हैं।
सशस्त्र छापामार नक्सलियों की संख्या एवं शक्ति जो २००४ के पूर्वार्द्ध में लगभग ७,००० थी आज बढ़कर लगभग १६,००० हो गई है। आज वामपंथी चरमपंथियों के पास बहुत अधिक हथियार हैं, जिनमें लगभग ९०० एके ४७ राइफल, २०० लाइट मशीन गन और स्थानीय स्तर पर निर्मित रॉकेट लांचर आदि सम्मिलित हैं। उनके पास ८५ से अधिक ऐसे परिसर हैं जहां वे रणकौशल और कार्यक्षेत्र के विषय में विशेष प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। उनके तथाकथित ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ के सदस्यों को नियमित वेतन का भुगतान करने के लिए उनके पास एक सशक्त वित्तीय आधार है। वे एक वर्ष में लगभग १,२०० करोड़ रुपए की निश्चित पूंजी इकट्ठा करते हैं। इन चरमपंथियों ने दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों एवं जंगल के भीतरी क्षेत्रों में भी सामरिक कौशल, भूभाग का ज्ञान एवं खुफिया क्षमताएं हासिल कर ली हैं। जिससे सुरक्षा एजेंसियों के लिए इनका सामना करना कठिन हो रहा है।
जंगलों में माओवादियों से लड़ना कश्मीर में अलगाववादियों एवं आतंकवादियों तथा पूर्वोत्तर में उग्रवादियों से लड़ने की अपेक्षा अधिक कठिन हो गया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आधिकारिक आकड़ों से पता चलता है कि माओवादियों के कारण प्रत्येक तीन दिन में कम से कम एक सुरक्षाकर्मी अपना जीवन खोता है। माओवादी क्षेत्र में २०११ से २०१३ के मध्य मरनेवाले सुरक्षा कर्मियों की संख्या ३७१ थी तथा इस क्षेत्र में हिंसा की घटनाएं ४,३११ थीं। उसी अवधि में सभी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में मरने वालों की संख्या २३७ थी और हिंसक घटनाओं की संख्या ३,१२३ थी। स्थिति यह है कि हमारे सुरक्षा बलों के लिए अत्यधिक संघर्ष वाले क्षेत्र जैसे जम्मू और कश्मीर, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर एवं मेघालय, माओवादियों के गढ़ झारखण्ड, छत्तीसगढ़ अथवा ओडिशा की अपेक्षा अधिक सुरक्षित प्रतीत होते हैं। आतंकवाद शत्रु देशों की उपज है; परंतु माओवादियों के संदर्भ में ऐसा नहीं है। वे देश के अंदर ही विभिन्न भागों से समर्थन प्राप्त कर रहें हैं। सरकार उनके समक्ष स्वयं को असमर्थ अनुभव कर रही हैं। पूर्वोत्तर में उग्रवाद को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया गया है पर माओवादियों के साथ ऐसा नहीं है। माओवादियों के विरुद्ध संघर्ष करने वाला मुख्य सुरक्षा बल- केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) है, जो इस समय सब से अधिक कठिन परिस्थितियों से प्रभावित है एवं संकटों से गुजर रहा है। अर्द्धसैनिक बलों के मध्य सीआरपीएफ में जवानों के मारे जाने की दर सर्वाधिक है। लगातार जंगलों में रहने एवं कठिन परिस्थितियों से मुकाबला करने के कारण इन जवानों का मनोबल भी काफी घटा है इसीलिए अर्द्धसैनिक बलों में होने वाली आत्महत्याओं में सीआरपीएफ के जवानों की आत्महत्या की दर ४० प्रतिशत है। सीआरपीएफ में आत्महत्या की यह निराशाजनक प्रवृत्ति गृह मंत्रालय के लिए चिंता का विषय बन गई है। नक्सलवाद एक से अधिक तरीकों से सुरक्षा बलों से अपना मूल्य चुकता कर रहा है। पिछले पांच वर्षों में सीआरपीएफ ७०० लोगों की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का साक्षी रहा है।
माओवादी क्षेत्रो में सामान्य नागरिकों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। पिछले तीन वर्षों में नक्सलियों एवं सुरक्षा बलों के मध्य मुठभेड़ में लगभग एक हजार नागरिक मारे गए हैं। जबकि अन्य उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में नागरिकों के मृत्यु की संख्या ३८९ है। वस्तुत: माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में मारे गए नागरिकों की संख्या सुरक्षा बलों और मारे गए माओवादियों की संख्या की तुलना में बहुत अधिक है।
नक्सलवाद में कई तत्व सम्मिलित हैं, जो इस समस्या को दु:साध्य बना देते हैं। विस्तृत एवं पहुंच से बाहर अपर्याप्त रूप से शासित भूभाग पर आधिपत्य स्थापित करना और उसे साफ-सुथरा बनाना कठिन है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितना और किस स्तर का सैन्य बल उसके लिए लगाया गया है। बड़ी संख्या में ऐसी असंतुष्ट एवं अलग-थलग जनसंख्या, जिसने दशकों से सामाजिक और आर्थिक उपेक्षा को सहन किया है, का पूरा फायदा माओवादियों को मिला है। इस प्रकार मौजूदा हालात ने माओवादियों के लिए आदिवासियों के मध्य एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के झूठे वादे का प्रचार आसान बना दिया है, जो उन्हें न्याय देगी, शोषण से मुक्त करेगी तथा नौकरी उपलब्ध कराएगी एव उनके जीवन-पद्धति का संरक्षण करेगी। माओवादी भिन्न-भिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न वस्तुओं का वादा करके अपने लिए जनसमर्थन इकट्ठा करने के लिए सभी स्थानीय असंतोषों, शिकायतों एवं संघर्षों का अपने हित में लाभ उठाने में सक्षम हैं।
भाकपा (माओवादी) का प्रमुख निकाय एक सुगठित संगठन है। इसका सर्वोच्च निर्णयकारी समूह केंद्रीय समिति है, जिसमें ६ सदस्य होते हैं। उसके बाद इसमें राज्य समितियां, जिला समितियां, मंडल समितियां और स्थानीय समितियां होती हैं। विशेष उद्देश्यों के लिए इनमें तकनीकी और विशेषज्ञ समितियां भी होती हैं। इन समितियों के अतिरिक्त इसके पास केंद्रीय सैन्य समिति (CMC) नामक एक पृथक समिति भी होती है जो छापामार गतिविधियों के निर्देशन एवं हथियारों के खरीद-फरोख्त के लिए उत्तरदायी है। पूरा संगठन केंद्रीय समिति द्वारा नियंत्रित किया जाता है। और इसके सशस्त्र संवर्ग के लगभग ३० कमांडर पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) के नाम से जाने जाते हैं, जो भाकपा (माओवादी) का सैन्य घटक है। वे राजनीतिक विषयों में सीमा रेखा का निर्धारण, संसाधनों पर नियंत्रण एवं रणनीतियों का निर्माण करते हैं। छोटे-मोटे कुल १६,००० कमांडरों का सशस्त्र संवर्ग और कई समर्थक केवल भोले-भाले आदिवासी एवं गरीब लोग हैं जिनको इन्होंने अपने शातिर प्रचार और पैसे की लालच के बल पर गुमराह किया है। इन कारकों के अतिरिक्त कभी-कभी इनके द्वारा गरीब आदिवासियों को बंदूक की नोंक पर दल में शामिल होने के लिए बाध्य किया जाता है। बंदूक के डर से गरीब आदिवासी जनता को सम्मिलित होने के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नहीं दिखता। आदिवासी क्षेत्रों में यह प्राय: देखा गया है कि जिन्होंने इनका विरोध किया है वे या मार डाले गए हैं अथवा विकलांग बना दिए गए हैं।
यद्यपि विलम्ब से ही सही अर्द्धसैनिक बलों द्वारा कड़ी कार्रवाई से इनके शीर्ष नेताओं तथा उनकी गतिविधियों को निष्प्रभावी करके इनको वैचारिक रूप से कमजोर बना दिया गया है। इनमें असंतोष का भाव भी देखा जा रहा है एवं इनका उत्साह भी काफी हद तक भंग हुआ है। यह भी सूचना मिली है कि इन माओवादियों के मध्य नेतृत्व के लिए संघर्ष, धन के स्रोतों में व्यवधान और फंड में गबन आदि चल रहा है जो मूल रूप से इनके आंदोलन को कमजोर कर रहा है। इनके समर्थकों के बीच वैचारिक मुद्दाविहीनता ने आंदोलन को संगठित अपराध के रूप में परिवर्तित कर दिया है। इसलिए पुलिस कार्रवाई के अतिरिक्त एक विश्वसनीय, केद्रिंत और निरंतर मनोवैज्ञानिक आक्रामकता इस आंदोलन को बेनकाब करने के लिए अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।
माओवादी जबरन वसूली, भ्रष्ट सरकारी अपराधियों से संग्रह, घूस तथा संपन्न भूस्वामियों, व्यवसायियों, ठेकेदारों एवं ट्रांसपोर्टरों आदि से लेवी द्वारा धन-संग्रह करते हैं। इसके अतिरिक्त माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास गतिविधियों के लिए सरकार द्वारा दिए गए धन में से लेवी के रूप में वे अपना हिस्सा सरकारी अधिकारियों से वसूलते हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि माओवादी हर वर्ष लगभग १,२०० करोड़ रुपया इकट्ठा करने में समर्थ हैं। इतनी बड़ी मात्रा में धनराशि का इकट्ठा होना नए कैडर बनाने, हथियारों को प्राप्त करने और अपने प्रभाव-क्षेत्र में वृद्धि करने के लिए माओवादियों के सशक्तीकरण का एक महत्वपूर्ण आधार है। इनके द्वारा एक नवनियुक्त युवा को प्रतिमाह २००० से २५०० रुपए दिए जाते हैं, जो गरीबी से प्रभावित क्षेत्र के युवाओं को इनकी तरफ आकर्षित करने तथा इनके अभियान में शामिल होने के लिए लुभाने हेतु एक अच्छी खासी रकम है।

 

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