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फैशन की  मारी दुनिया  बेचारी

फैशन की मारी दुनिया बेचारी

by किशोर श्रीवास्तव
in फ़ैशन, फैशन दीपावली विशेषांक - नवम्बर २०१८, विशेष
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“मुझे पहली बार पता चला कि आजकल कम कपड़ों में, नंगे या फटे कपड़ों में घूमना ही बड़े होने और फैशन की निशानी है। और वास्तव में यह शर्म का नहीं बल्कि गर्व का विषय है।”

फैशन तो हर काल में रहा है, बेशक उसका स्वरूप बार-बार बदलता या फिर घूम फिर कर उसी उसी रूप में आता-जाता रहा हो। मुझे याद है कि बचपन में दीपावली व होली जैसे पर्वों पर घर में हम सभी छह भाई-बहनों सहित माता-पिता और नौकर-चाकर तक के लिए कपड़े ज़रूर आते थे। तब आजकल की तरह रेडीमड कपड़ों का ज्यादा चलन नहीं था, अत: कपड़े आने के बाद उन्हें नए फैशन के अनुसार अपनी नाप का सिलवाना और फिर ‘साला मैं तो साहब बन गया’ की दिलीप कुमार वाली स्टाइल में शहर के इस छोर से उस छोर तक घूमना हमें काफी सम्मानजनक लगता था। कमीज, पैंट की बात तो अलग, उन दिनों भी लोग इतने इज्ज्ततदार और फैशन परस्त हुआ करते थे कि त्यौहारों पर चड्डी-बनियान तक सबके लिए नई और फैशन के अनुरूप ही आती थीं, चाहे उन्हें कोई देख पाए भी या नहीं।

हमारे एक परिचित त्यौहारों पर भी अपने बच्चों के लिए स्कूल की नई ड्रेस सिलवा देते थे और बच्चे उन्हें ही पहन कर शान से पूरे शहर में विचरण कर आते थे। वे महाशय बच्चों के कपड़ों की सिलाई के पश्चात बचे कपड़ों में से ही प्राय: अपने और अपनी घरवाली के लिए भी कुछ न कुछ लपेटने लायक निकाल लेते थे। मुझे नहीं पता कि वे कंजूसीवश ऐसा करते थे अथवा इसके पीछे उनकी कोई राष्ट्रीय एकता की भावना काम कर रही होती थी। पर उनकी देखा-देखी कुछ ही समय में इसने फैशन का रूप जरूर धर लिया था और बदलते मौसम के नए फैशन की तर्ज पर मोहल्ले के अधिकांश घर के बच्चों का त्यौहारों के समय स्कूल की डे्रस में ही गुजारा होने लगा था।

मेरे एक फैशन परस्त मित्र पल-पल बदलते और घूम फिर कर बार-बार उसी-उसी फैशन के चले आने से अक्सर परेशान दिखते थे। कभी हिप्पी- कट बालों में घूमते-घूमते उन्हें मिलिट्री कट बालों में आना पड़ता। कभी चौड़ी मोहरी की पैंट की जगह पतली मोहरी तो कभी बेल बॉटम से होते-होते फिर उसी चौड़ी मोहरी की पैंट की तरफ। और यही हाल उनकी इकलौती पत्नीश्री का भी रहता था, जो कभी साधना कट तो कभी शर्मिला कट में उलझी रह जातीं।

जहां तक आज के आधुनिक समय की बात है तो, महंगाई कहें या ‘कोई क्या कहेगा’ वाले तकिया कलाम से बेफिक्री, तीज-त्यौहारों पर इकलौती औलाद और इकलौती घरवाली के लिए भी नए फैशन के अनुरूप कपड़े सिलवाने या रेडीमड खरीदने में पसीने छूट जाते हैं, बेशक आज हमारी तनख्वाह बाप-दादाओं के ज़माने से सैकड़ों गुना ऊपर उछाल मार रही हो। यही वजह है कि अक्सर मेरी इकलौती औलाद और एक अदद पत्नी भी मुझे ताने मारने से नहीं चूकती है कि इकलौते हैं तब भी आप हमारा ख़्याल नहीं रखते। अब मैं उन्हें यह कैसे समझाऊं कि मैं भी तो उनका इकलौता बाप और पति ही हूं। इस बढ़ती महंगाई में कहां से अकेले इतनी सारी चीजें जुटाऊं अपने बड़े से दिखने वाले छोटे से परिवार के लिए। अब वो ज़माना तो रहा नहीं जब दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची वगैरह-वगैरह का भी घर की दान पेटी में थोड़ा बहुत शेयर हो जाया करता था। कई गुना बढ़ती तनख्वाह के बावजूद मुंआ इस महंगाई ने तो बड़े-बड़ों के छक्के छुड़ा रखे हैं, क्या टाटा क्या बिड़ला, क्या अंबानी और क्या हम और क्या हमारा पड़ौसीे। अब देखिए न आज बड़े-बड़े लोग भी फैशन के बहाने खुल्लम खुल्ला अपनी फटी जीन्स और टी शर्ट तक निपटाए जा रहे हैं।

यहां एक बात ज़रूर उल्लेखनीय है कि बढ़ती महंगाई को यदि किसी ने पछाडा है तो वह एकमात्र फैशन ही है। वरना किसमें हिम्मत थी कि फटी और कई-कई दिनों तक धुलने से महरूम रही जीन्स सार्वजनिक जगहों पर बेख़ौफ पहनकर वह घूम सकता और लोगों के आकर्षण का केंद्र भी बना रहता। महंगाई की मार का ही आलम है कि कल तक मुगले आजम और बैजू बावरा के ज़माने की पूरे बदन को ढांप कर चलने वाली संभ्रान्त महिलाएं, जो कंधे से ज़रा सा पल्लू खिसकने से ही शर्मसार हो जाया करती थीं; के बच्चे भी अब अच्छे दिन की उम्मीद में अपनी गरीबी को हॉफ पैंट में ही सेलीब्रेट किए जा रहे हैं।

पिछले दिनों मेरे एक परिचित अपना पाजाम फटने पर घरवाली और बच्चों के बार-बार मना करने पर भी बेझिझक अपनी साइकिल पर सवार होकर आफिस पहुंच गए थे। रास्ते भर उनके फटे पाजामे से ज्यादा उनके द्वारा ईजाद किए गए नए फैशन की चर्चा होती रही। बहुत सी राह चलती लड़कियों के बीच वह आकर्षण का केंद्र भी बने। परिणामस्वरूप अगले दिन जब वह सड़क पर निकले तो उन्होंने अपनेे आजू-बाजू फटी जीन्स और टी शर्ट वालों के बीच अनेक फटे पाजामा धारियों को भी फैशन की आड़ में लज्जाहीन चहलकदमी करते देखा।

उस दिन मुझे बहुत शर्म आई जब मैंने फिल्मी दुनिया के एक बड़े एक्टर को फटी जीन्स में बेधड़क व बेझिझक एक मॉल में घूमते पाया। मैं ज़्यादा रईस नहीं था तो शर्म से लाल हो गया पर वे ज्यादा रईस थे अत: गर्व से भरे हुए थे, अपनी उस ड्रेस पर। जब मैंने यह बात अपने एक आधुनिक मित्र को बताई तो वह मेरी नादानी पर बहुत हंसा। उसी से मुझे पहली बार पता चला कि आजकल कम कपड़ों में, नंगे या फटे कपड़ों में घूमना ही बड़े होने और फैशन की निशानी है। और वास्तव में यह शर्म का नहीं बल्कि गर्व का विषय है। उसकी यह बात मेरे गले से नीचे नहीं उतरी। यदि ऐसा ही होता तो पिछले दिनों पड़ोस की भिखारिन दिवाली का ईनाम मांगते समय फटे कपड़ों से अपने अंग छुपाते हुए मुझसेे साबुत साड़ी की मांग क्यों करती?

 

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