ग्रामीण विपणन एवं बैकिंग का करीबी रिश्ता

भारत गांवों का देश है। अधिकांश लोग गांवों में रहते हैं। भारत की आत्मा गावों में बसती है। हमारे गावों में विभिन्न धर्म, जाति और संप्रदाय के लोग मिलजुलकर रहते हैं। गांवों के विकास के बिना देश का विकास अधूरा है। ’’
– महात्मा गांधी

ग्रामीण विपणन का सीधा संबंध ग्रामीण अर्थव्यवस्था से है। ग्रामीण विपणन के कई पहलू हैं जिसमें से देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि का स्थान सर्वोपरि है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग २२% तथा रोजगार मुहैया करने में लगभग ६५% का योगदान कृषि क्षेत्र की देन है। इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी भी होती है जो कि देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।

ग्रामीण विपणन के प्रसंग में महात्मा गांधी के उक्त वाक्य प्रासंगिक हैं। वैश्वीकरण के युग में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए कृषि का व्यावसायीकरण महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। प्रतियोगिता में बने रहने हेतु यह आवश्यक है कि कृषि वस्तुओं में गुणवत्ता हो और यह तभी संभव है जब कृषि क्षेत्र को एक उद्योग के रूप में विकसित कर लाभ का धंधा बनाया जाए और इस हेतु ग्रामीण विपणन की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। कृषि के स्व रूप में भी परिवर्तन आज दुनिया भर के किसानों के लिए एक बडी चुनौती है। बेहतर मुनाफे के लिए कृषि उत्पादन से लेकर हार्वेस्टिंग, पैकेजिंग, एग्रो प्रोडक्ट की प्रोसेसिंग और मार्केटिंग के गुर सीखना किसानों की आज जरूरत बन गई है। आज किसानों को मुख्य रूप से पूंजी और तकनीक समेत दो चीजों की जरूरत है। इस हेतु बैंकिंग को ग्रामीण विपणन के साथ जोड़ कर देखना आवश्यक है।

ग्रामीण विपणन की परिभाषा एवं इसके आयाम

‘ग्रामीण विपणन- ग्रामीण उपभोक्ताओं की मांग का निर्धारण करते हुए, ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पहुंच के साथ-साथ बिक्री बढ़ाते हुए लाभ कमाना है। ’ ग्रामीण विपणन से आशय उन सभी क्रियाओं से है जिनका संबंध कृषि उत्पाादन को किसान के यहां से अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचाना है अर्थात विपणन में कृषि उपजों को एकत्रित करना उनका श्रेणियन एवं प्रमाणीकरण, भंड़ारो में रखना, मंड़ी तक पहुंचाना, उनकी बिक्री करना और इन सबके लिए आवश्यक वित्त, व्यवस्था करना आदि शामिल हैं। बैंकिंग और ग्रामीण विपणन का संबंध केवल उत्पादों की बिक्री तक सीमित नहीं है। इसकी व्यापकता समावेशी विकास पर आधारित है। समावेशी विकास, वित्तीय समावेशन और वित्तीय साक्षरता पर प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए बैंकिंग और ग्रामीण विपणन को ही सबसे बड़ा माध्यम बनाया गया है। ग्रामीण विपणन और बैंकिंग उत्पाादों की बिक्री के साथ देश के दूरस्थ गैर बैंकिंग एवं वित्तीय सुविधाओं से रहित लोगों को जोड़ने हेतु व्यवसाय प्रतिनिधियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। वित्तीय समावेशन के लिए व्य्वसाय प्रतिनिधि एवं बिजनेस ेफैसिलिटेटर की अवधारणा सफल प्रतीत हो रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग कारोबार की बढ़ोत्तरी और दूरस्थ स्थानों में इसकी पहुंच बढ़ाना ही शाब्दिक रूप में ग्रामीण विपणन है।

ग्रामीण विपणन का इतिहास

ग्रामीण विपणन और भारत में इसका इतिहास १९२८ के रॉयल कमीशन में पहली बार मिलता है। ग्रामीण विपणन को १९३५ में विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय की स्थापना तथा १९३७ में कृषि उत्पादों की ग्रेडिंग एवं मेकिंग एक्ट के पश्चात ही बल मिला। ग्रामीण विपणन को कई एक्ट ने सहायता प्रदान की, जिसमें वेयर हाउसिंग निगम एक्ट १९६२, ग्रामीण गोदामों के लिए राष्ट्रीय ग्रिड योजना १९७९, कोल्ड स्टोरेज आदेश १९८०, खाद्य मिलावट अधिनियम १९५४, आवश्यक उत्पाद अधिनियम १९५५, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम १९८६, निर्यात (गुणवत्ता नियंत्रण एवं निरीक्षण अधिनियम १९६३), नापतौल एवं माप मानक अधिनियम १९७६, भारतीय मानक ब्यूरो १९८६, इसके अलावा केन्द्रीय भंड़ारण निगम (सीडब्लूसी), भारतीय खाद्य निगम, राष्ट्रीय सहकारी विपणन संघ (एनएफईडी), राज्य ट्रेडिंग निगम (एसटीसी), कृषि एवं खाद्य प्रसंस्कृत निर्यात प्राधिकरण (एपीईडीए), समुद्रीय उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एमपीईडीए), राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर बोर्ड, मसाला बोर्ड, राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान (एनआईएएम) आदि शामिल हैं।

ग्रामीण विपणन व्यवस्था में दोष

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से ही सरकार ने कृषि उपज की विपणन व्यववस्था में काफी सुधार किए हैं। मंडियों में व्याप्त कपटपूर्ण पद्धतियों पर रोक लगाई है, भंड़ार गृहों की स्थापना की है, मध्यस्थों में कमी कर मूल्यों को नियंत्रित किया है। इन सबके बावजूद कृषि उपज की विपणन व्यवस्था में निम्न दोष व्याप्त हैं-

हमारे देश में कृषि उपज की विपणन व्यवस्था में किसान और उपभोक्ता के बीच बहुत सारे बिचौलिए हैं जिनमें कच्चा, पक्का, आढ़ती, दलाल, व्यापारी ऋण देने वाले साहूकार एवं महाजन थोक एवं फुटकर व्यापारी शामिल हैं। इन सभी के द्वारा लगभग बीस से पचास प्रतिशत तक हिस्सा किसानों से वसूला जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की कृषि संबंधी आवश्यकताएं पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्तीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। परिणामस्वरूप उन्हें साहूकार एवं महाजनों से ऋण लेना पड़ता है और इन्हीं की इच्छानुसार माल बेचने के लिए बाध्य होना पड़ता है जिससे उनको अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता।

भूमि का उप विभाजन एवं अपखंडन तथा खेतों का आकार छोटा होने से, उपज की मात्रा कम रहती है। उसमें से भी कुछ खाद्यान्न वह अपने उपयोग के लिए रख लेते हैं जिसे वह अपने गांव में बहुत ही कम मूल्य पर बेचते हैं। यदि व इस आधिक्य को विक्रय के लिए शहर अथवा मंड़ियों में ले जाता है तो आनुपातिक रूप से उसे अधिक खर्च वहन करना पड़ता है।

अभी भी अनियमित मंड़ियों की संख्या बहुत अधिक है। इन मंड़ियों में दलाल एवं आढ़ती धोखेबाजी से किसानों को नुकसान पहुंचाते हैं। जैसे उपज का एक अच्छा भाग नमूने अथवा बानगी के रूप में निकाल लेते हैं, बाट एवं तराजू की गड़बड़ी, इशारों से मूल्य निर्धारित करना, मूल्य तय करते समय किसान को विश्वास में न लेना, आढ़त, तुलाई एवं पल्लेदारी के अलावा, गोशाला, धर्मशाला, रामलीला, प्याऊ एवं बोराबंदी आदि के नाम पर अनुचित कटौती करते हैं। मंडी में यदि कोई विवाद हो जाए तो आढ़ती क्रेता का ही पक्ष लेते हैं, किसान की कोई परवाह वहां नहीं की जाती है।

गांव में अनेक खेत होते हैं, जिनमें एक ही वस्तु की विभिन्न प्रजातियां पैदा की जाती हैं किंतु अज्ञानतावश किसानों द्वारा सभी उपज को एकसाथ मिलाने से और उनका ग्रेडिंग तथा श्रेणी विभाजन न करने से उन्हें फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
आज भी खेती करने की पुरानी पद्धति, अच्छे बीज एवं खाद की कमी व फसल के प्रमाणीकरण के अभाव के कारण किसानों की उपज का स्तर घटिया रह जाता है और उसके खरीददार उसे कम मूल्य पर ही खरीदते हैं।

विपणन में एक महत्वपूर्ण बाधा यातायात की भी है। पक्की सड़कें न होने के कारण वर्षा के समय बहुत ही परेशानी का सामना करना पड़ता है। साथ ही अधिक समय लगने से कृषि वस्तुओं जैसे फल, सब्जी आदि के वजन में भी कमी आ जाती है।
किसानों को मूल्य संबंधी सूचनाएं समय पर उपलब्ध नहीं हो पाती हैं क्योंकि किसानों की व्यस्तता के चलते एवं अशिक्षित होने के कारण उन्हें समाचार पत्र, रेडियो तथा टीवी पर मूल्यों की समुचित जानकारी नहीं हो पाती और वे महाजन अथवा व्याापारी द्वारा बताए गए मूल्यों पर ही विश्वास कर लेते हैं।

भारतीय किसान पूरे देश में दूर-दूर तक फैले होने के कारण संगठित नहीं हो पाए। अत: फसल बेचते समय व्यापारी उन पर हावी हो जाते हैं और किसानों को अपनी फसल कम मूल्य पर बेचने को विवश करते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उपज को अच्छे और पक्के भंडार गृहों में रखने की सुविधाओं का आज भी अभाव है। अत: किसानों के अपने निजी भंडार जैसे खत्तीर, कोठे, मिट्टी व बांस के बने बर्तन आदि में जहां कीटाणुओं, सीलन, घुन, चूहे, दीमक व अन्य कीड़े-मकोड़ों से सुरक्षा नहीं हो पाती, वहां किसान अच्छा भाव आने का इंतजार न कर, उपज को शीघ्र बेचने के लिए बाध्य हो जाता है।

ग्रामीण विपणन में चुनौतियां

-निवेश वितरण और स्थानीय कृषि शासन प्रणाली की दुर्बलता।
-गैर-कृषि क्षेत्र में सीमित रोजगार के अवसर।
-घरेलू खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करना, गरीबी उन्मूललन और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पादन खतरों को कम करना।
-कृषि प्रसंस्कृंत उत्पादों की बढ़ती मांग को देखते हुए इसे तत्काल कृषि क्षेत्र में लाना।
-बाजार में पूंजी निवेश और नए अवसरों से उत्पन्न होने वाले लाभ को साझा करने में कृषक समुदाय, विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों को शामिल करने की चुनौती।

कृषि विपणन व्यवस्थाओं में सुधार हेतु सरकारी प्रयास

सरकार द्वारा कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार हेतु समय-समय पर विभिन्न कदम उठाए गए हैं ताकि किसानों की स्थिति सुदृढ़ हो एवं गांवों का तीव्र विकास संभव हो सके। इसके लिए प्रमुख सरकारी प्रयास निम्नवत हैं-

-सरकार द्वारा सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र में कृषि उपज के लिए संग्रहण एवं गोदामों की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है जिनमें केंद्रीय एवं राज्य गोदाम निगम, भारतीय खाद्य निगम तथा सहकारी भंडार गृह प्रमुख हैं ।
-सरकार द्वारा नियमित बाजारों की स्थापना कर १ अप्रैल १९६२ से बाटों और मापों में मीट्रिक पद्धति लागू की है। इससे माप-तोल की दिशा में बहुत सुधार हुआ है।
-समन्वित सड़क विकास कार्यक्रम के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का विकास कर देश के अधिकांश गांव से शहरों की मंड़ियों से जोड़ा गया है।
-मूल्यों में उतार-चढ़ाव रोकने की दृष्टि से वर्ष १९९६ से सरकार प्रत्येक वर्ष कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है।
-भारत सरकार ने कॉफी, रबर, गर्म मसाले, तंबाकू, नारियल, दलहन एवं तिलहन और वनस्पति तेल आदि के बारे में विशिष्ट वस्तु बोर्ड स्थापित किए हैं।
-जनजातीय क्षेत्र के लोगों को बेहतर मूल्य दिलाने के लिए सरकार द्वारा अगस्त १९८७ से भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ की स्थापना की गई जो अप्रैल १९९८ से कार्यरत है।
-कृषि विपणन ढांचे का विकास करने तथा शिक्षण अनुसंधान व परामर्श के कार्यक्रमों हेतु कृषि विपणन के राष्ट्रीय संस्थान की वर्ष १९८८ में स्थापना की गई।
-निर्यात बढ़ाने हेतु एक नई कृषि उत्पाद योजना चालू की गई है ताकि फलों, सब्जियों, फूलों और छोटे वन उत्पाद के निर्यात को बढ़ावा मिल सके।

ग्रामीण विपणन व्यावस्था में सुधार हेतु सुझाव

‘‘जब तक गांव में आधारभूत सुविधाओं का विस्तार नहीं होगा तब तक देश का चतुर्दिक विकास नहीं हो सकता है। ’’ सरकार ने सुधार हेतु अनेक कदम उठाए हैं किंतु अभी भी ये उपाय पर्याप्त नहीं हैं, इसके लिए सुझाव निम्न हैं:

-सरकार को चाहिए कि सरकार के नियंत्रण वाली नियमित मंड़ियों की और अधिक स्थापना करें, तथा एक प्रबंध समिति भी गठित की जाए जिसमें किसान, व्यापारी सरकारी प्रतिनिधि व नगरपालिका के प्रतिनिधि शामिल हों लेकिन बहुमत किसानों का ही होना चाहिए।
-मंड़ियों में दलाली, कमीशन, आढत, तुलाई, मंडी का समय, भुगतान व्यवस्था आदि के नियम तय होने चाहिए, जो मंड़ी कार्यस्थल पर बड़े-बड़े बोर्ड अथवा होर्डिंग लगाकर प्रदर्शित किए जाएं।
-मंडी में कार्यरत मुनीम, दलाल कच्चे एवं पक्के आढ़तियों को लाइसेंस प्राप्ति होनी चाहिए। मंडी स्थल पर किसानों के रूकने तथा ठहरने व अपनी उपज को रखने की भी उचित व्यवस्थाहोनी चाहिए।
-ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के लिए, कृषि पदार्थों के स्थानीय मूल्य व संबंधित बातों की जानकारी, मुख्य मंड़ियों के भाव प्रतिदिन रेडियो, दैनिक समाचार पत्रों एवं टेलीविजन के माध्यम से प्रचारित एवं प्रसारित किए जाने चाहिए तथा ग्राम पंचायत घरों पर रेडियो, टेलिविजन एवं दैनिक समाचार पत्रों की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए तथा जहां तक संभव हो सके किसानों हेतु इंटरनेट की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
-कृषि उपज विपणन हेतु आधुनिक सुविधाओं से युक्त भंडार गृहों की सुविधा आवश्यक है ताकि किसान अपनी विक्रय योग्य फसल को सुरक्षित रख सकें और उचित मूल्य प्राप्त कर सकें।
-विपणन अनुसंधान एवं सर्वेक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि विपणन, कृषि बागवानी एवं पशुपालन से संबंधी कमियों का पता लगाया जा सके और उन्हें दूर करने के प्रयास किए जा सकें।
-सरकार को चाहिए कि वह फसल उगाने से पूर्व ही फसल का क्रय मूल्य घोषित कर दे और यदि फसल का बाजार मूल्य सरकार के निर्धारित मूल्य से कम हो जाए तो मूल्य स्थायित्व हेतु सरकार उपज को स्वयं क्रय कर लें।
-विपणन व्यवस्था में सुधार हेतु वित्तीेय सुविधाओं के विकास की सर्वाधिक आवश्यकता है ताकि किसानों को साहूकार एवं महाजनों के चंगुल से छुड़ाया जा सके। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाओं का विस्तार किया जाना चाहिए तथा माल गोदाम की रसीद पर ही किसानों को ऋण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
-विपणन व्यवस्था में मध्यस्थों की संख्या को कम किया जाए तथा अधिकाधिक सहकारी विपणन समितियां बनाई जानी चाहिए। भारतीय ग्रामीण विपणन में कृषि सहकारी विपणन संस्थाएं, नियमित बाजार, लोक ट्रेडिंग, एवं वायदा बाज़ार, शामिल हेै। कृषि विपणन की चार स्थितियां हैं- प्राइमरी मार्केटिंग, जिला स्तरीय विपणन, राज्य स्तरीय विपणन, तथा राष्ट्र स्तरीय विपणन जिसे कि नाफेड, राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ के उक्त चारों स्तरों पर बैंकिंग की विभिन्न सुविधाओं को जोड़ा जा सकता है और इनमें छिपी अपार संभावनाओं का लाभ उठाया जा सकता है।
-किसान कॉल सेंटर, किसान चैनल में बैंकिंग समुदाय इस क्षेत्रों मे अपनी ऋण सुविधाओं एवं योजनाओं का लाभ विज्ञापन देकर कर सकते हैं।
-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों को सूचनाएं प्रदान की जाती हैं, इनमें बैंकिंग उत्पादों के विज्ञापन की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
-भारतीय मानक ब्यूरो १९८६, केन्द्रीय भंड़ारण निगम (सीडब्ल्ाूसी), भारतीय खाद्य निगम, राष्ट्रीय सहकारी विपणन संघ (एनएएफईडी), राज्य ट्रेडिंग निगम (एसटीसी), कृषि एवं खाद्य प्रसंस्कृत निर्यात प्राधिकरण (एपीईडीए), समुद्रीय उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एमपीईडीए), राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), राष्ट्रीय हॉर्टिकल्चर बोर्ड, मसाला बोर्ड, राष्ट्रीय कृषि विपणन संस्थान (एनआईएएम) आदि संस्थाओं से बैंकिंग संपर्क अधिकारी, अग्रणी जिला प्रबंधक, शाखा प्रबंधक से लेकर शीर्ष प्रबंधन के अधिकारी यदि उक्त संस्थाओं के प्राधिकारियों से नियमित संपर्क स्थापित कर, बैंकिंग और ग्रामीण विपणन को साथ-साथ बढ़ाते हुए, इनके अंतर संबंधों को मजबूती प्रदान कर सकते हैं।

संपर्क से बैंकिंग उत्पादों की पहुंच को बढ़ाते हुए, प्रचार-प्रसार में सहयोग एवं लाभप्रदता में वृद्धि की जा सकती है।
उक्त संस्थानों में अद्यतन जानकारी मिलती है एवं बैंकिंग उत्पादों को कस्टमाइज्ड करने तथा टेलर मेड सोल्यूशंस प्रदान कर अपने उत्पादों को आगे तक पहुंचाया जा सकता है।

उक्त संस्थानो में उचित तरीके से संपर्क स्थापित हो तो कई प्रकार की बैंकिंग शिकायतों के निवारण में सुविधा होगी। ‘विन विन सिचुएशन’ की स्थिति एवं परस्पर विजेता बन कर लाभप्रदता में वृद्धि की जा सकती है।

ग्रामीण विपणन और सूचना प्रौद्योगिकी

बारिश का पूर्वानुमान हो या फिर फसल की उन्नत तकनीकी देखभाल हो, कंप्यूटर के युग में यह काम अब आसान हो गया है। गांव-गावं में मोबाइल टावर, कंप्यूटर इंटरनेट के फैलते जाल से जरूरी सूचनाएं भेजना आसान हो गया है। उन्नत तकनीक और इंटरनेट की पहुंच के बावजूद किसानों को तकनीकी प्रशिक्षण की आवश्यकता है।

फूड प्रोसेसिंग ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने में महत्वपूर्ण कारक

कृषि व्यवसायीकरण में जुटे तमाम किसान, संप्रति फूड प्रोसेसिंग के जरिए मुनाफा कमा रहे हैं। फूड प्रोसेसिंग में सीधे तौर पर १६ लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है। भारत, चीन के बाद दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य समाग्री उत्पाादक देश है। कृषि उत्पाादों को सुरक्षित रखने और मार्केटिंग, फूड प्रोसेसिंग के अंतर्गत आता है। उत्पादन, खपत, निर्यात और विकास के लिहाज से फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री देश की पांचवीं सबसे बड़ी इंडस्ट्री है। उक्त क्षेत्र के विकास में बैकिंग ऋण प्रबंधन, सूक्ष्म वित्त की सुविधा मुहैया कराते हुए बैंकिंग को बढ़ावा दिया जा सकता है।

ग्रामीण विपणन, मेक इन इंडिया और बैंकिंग

भारतीय अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए वर्तमान सरकार द्वारा एक महत्वाकांक्षी परियोजना ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम प्रारंभ किया गया है ताकि भारतीय उत्पाद मूल्य व गुणवत्ता के मामले में न केवल देश में बल्कि बाहर भी प्रतिस्पर्धा में खुद को खड़ा कर सकें। घरेलू उत्पादन को समर्थ बनाने के क्रम में स्थानीय उत्पादन की लागत में कमी के लिए प्राधिकारियों ने कई कदम उठाए हैं जिससे कि देश में प्रशासनिक कार्यवाहियों से व्यावसायिक संस्कृति सुधारी जा सके ताकि वृद्धि उन्मुख व व्यवसाय-उन्मुख नजरिए की ध्वनि साफ सुनाई दे और उद्यमी ऐसे माहौल का लाभ ले सकें।

एसौचेम एवं अन्ट्स्ना एंड यंग के सर्वे अनुसार देश में १४.८ करोड़ ग्रामीण परिवार में से ८.९ करोड़ परिवार कृषि से जुड़े हैं। इनमें से ४.६ करोड़ वित्तीय सेवा के दायरे से बाहर हैं। अध्ययन में कहा गया है कि कंपनिया कृषि उत्पादों के लिए जोखिम प्रबंधन तथा बाजार उपलब्ध कराने में अहम भूमिका निभा सकती हैं जिसमें किसानों एवं बैंक के साथ – साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी फायदा होगा। कृषि क्षेत्र में कंपनियों के शामिल होने से प्रौद्योगिकी हस्तां्तरण तथा पूंजी प्रवाह में तेजी आएगी। कृषि को एक व्यावसायिक माडल की तरह पेश करने की जरूरत है और आश्वासन देना होगा कि कृषि भी एक व्यवसाय है और इसमें असीम लाभ की संभावनाएं हैं।

ई मंडी, एक इलेक्ट्रानिक मार्केट प्लेटफार्म है, जो पूरी प्रणाली में पारदर्शिता बनाए रखने का सुविधाजनक तरीका उपलब्ध कराते हुए खुदरा और थोक विक्रेता दोनों के लिए अच्छे दामों पर ऑनलाइन बेचने का अवसर उपलब्ध कराता है। इस परियोजना की मदद से, देशभर की विनियमित मंड़िया एक समान ई-प्लेटफार्म पर मिल सकेंगी, किसानों और खुदरा एवं थोक विक्रेताओं जैसे व्यापारियों को पारदर्शक ढंग से कृषि उत्पादों को सबसे ज्याादा अनुकूल दामों पर खरीदने अथवा बेचने का अवसर प्रदान करेगा। जिससे, विक्रेताओं द्वारा किसानों को ठगने की गुंजाइश भी समाप्त हो सकेगी।

विपणन और बैंकिंग का सीधा संबंध ग्राहक सेवा से है

विपणन की दुनिया में ग्राहक केंद्र में है। जब तक उत्पाद ग्राहक स्पर्शी नहीं होंगा, इसका कोई महत्व नहीं है। प्रबंधन के गुरु पीटर ड्रकर ने कहा है कि ‘समय से आगे की सोचो’ अर्थात ग्राहक की मांगों को न केवल समझना है बल्कि उसे पूर्ण संतुष्टि प्रदान करना है, वर्तमान में ग्राहक संतुष्टि के स्थान पर ग्राहक प्रसन्नता ने ले लिया है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में ग्राहकोन्मुखी बैंकिंग की आवश्यकता है, एम एन गोइपोरिया का कथन है कि ‘आक्रामक विपणन की प्रासंगिकता आज बैंक मे इतनी बढ़ चुकी है जितनी पहले कभी भी नहीं थी। ’

मॉनसून की माया एवं आश्रय से बचने के लिए इसरो की रिमोट सेन्सिंग तकनीकों के ज्ञान एवं मत्स्य पालन, शहद उत्पादन, डेयरी, पशुपालन, फल -फूल उद्योग, उत्पादन, खादी एवं ग्रामोद्योग, रेशम उत्पादन, कागज़ व कपड़ा उद्योग, सिलाई कढ़ाई, बुनाई, प्रिंटिंग, कम्पोजिंग, साबुन बनाना, चाक बनाना, इलेक्ट्रोनिक उपकरण, मशीनों के पुर्जे, कम्प्यूटर, दुर्लभ जड़ी-बूटी, पवन चक्की, सोलर प्लांट, रबर वस्तुओं, वनोपज आदि ग्रामीण विपणन के क्षेत्रों में अपार संभावनाएं हैं। बैंकिंग सहयोग एवं उचित मार्गदर्शन, इनके विकास में सहायक सिद्ध होगा। पुणे के अबरोल ने एग्रो टूरिज्म का केन्द्र स्थापित किया है जहां देश-विदेश के लोग खेतीबाड़ी की प्रक्रिया को करीब से देखने आते हैं। उन्होंने आसपास के इलाकों के किसानों का एक नेटवर्क तैयार किया है जो उनकी देखरेख में गुणवत्तायुक्त फल एवं सब्जियों का उत्पादन करके शहर के मॉल्स में सप्लाई करते हैं। यह सामूहिक मार्केटिंग का एक उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है जो देश के अन्य हिस्से में किसानों के लिए प्रेरणादायी हो सकता है। शहरी औद्योगीकरण के जनित प्रदूषण, तनाव व बीमारियों ने ‘लौटे प्रकृति की ओर’ की भावना को प्रबल किया है जिससे ग्रामीण पर्यटन में अपार संभावनाएं देखी जा रही हैं, बैंकिंग क्षेत्र भी इस ओर अपना ध्यान देकर लाभप्रदता में बढ़ोतरी कर सकती है।

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