संगीत के लिए नज़र नहीं, नज़रिये की आवश्यकता है

“मैं वाद्ययंत्र बजाती नहीं हूं; बल्कि उनसे बातें करती हूं, उनके साथ गप्पें लड़ाती हूं, खूब मस्ती करती हूं। मैंने वाद्ययंत्रों के साथ ही जीवन भर का नाता मैंने जोड़ लिया है।”, कहती हैं 65 वाद्ययंत्रों को बजाने में महारत हासिल कर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करने वाली नेत्रहीन सुश्री योगिता तांबे। प्रस्तुत है उनसे अंतरंग बातचीत के कुछ प्रेरक अंशः-

आपके अंदर आंतरिक शक्ति का अपार स्रोत दिखाई देता है। ऐसा लगता है मानो दैवीय शक्ति का प्रवाह आपके अंदर बहता रहता है। इससे आपको किस तरह की ऊर्जा मिलती है?

रोज सुबह सूर्योदय होता है। सूरज के प्रकाश से सभी सजीवों को शक्ति मिलती है। सूरज के प्रकाश को ग्रहण कर पेड़-पौधें स्वयं के लिए खाद्य तैयार करते हैं, उसके बाद वे मानवजाति के लिए हानिकारक कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर प्राणवायु-ऑक्सिजन छोड़ते हैं। जिससे सभी प्राणी जीवित हैं और यह सृष्टि चल रही है। वैसे ही अध्यात्म भी सूर्य जैसा ही है। जब हम हमारे मन मस्तिष्क को अध्यात्म की ओर ले जाते हैं, तब अध्यात्म की रोशनी से हमें जो खाद्य मिलता है उससे हमारे अंदर सकारात्मक शक्ति का संचार होता है। आध्यात्मिक शक्ति को ही मैं आंतरिक शक्ति का स्रोत मानती हूं और उससे मुझे अपार सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। जिसके बलबूते मैं सारे कार्य सहजता से कर पाती हूं।

प्रज्ञाचक्षु को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता, उनकी उपेक्षा की जाती है। परंतु, आपने प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी समाज में सम्मान प्राप्त किया है। यह कैसे संभव हुआ?

प्रज्ञाचक्षु बच्चों के सामने कोई दिशा नहीं होती; क्योंकि उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता है। प्रज्ञाचक्षु बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जो स्कूल चलाए जाते हैं उन्हीं से उन्हें प्राथमिक दिशा मिलती है। यदि मैं घर से बाहर न निकलती, स्कूल न जाती और वहां रह कर शिक्षा ग्रहण न करती तो मेरे लिए कुछ भी कर पाना संभव नहीं होता। स्कूल जाकर शिक्षा ग्रहण करने के कारण ही मुझे समाज में सम्मान मिला है। स्कूल में संगीत, योग, मल्लखंब आदि विषय सिखाए जाते थे। संगीत में मेरी रूचि व प्रतिभा को देखते हुए मुझे स्कूल की ओर से स्कॉलरशिप मिली। जिसके बाद मैंने तबला बजाने की तालिम ली। करीब 3 वर्षों के प्रशिक्षण के दौरान ताल वाद्य यंत्र तानपुरा, हार्मोनियम, सिंथेसाइजर, मराठी वाद्य यंत्र, चंडा, ढ़ोल-ताशा, दिमड़ी, नगाड़ा, हलगी आदि वाद्ययंत्रों पर अपना हाथ आजमाया। लगभग 25 वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद मुझे 65 वाद्ययंत्र बजाने में महारथ हासिल हुई। उसीके फलस्वरूप समाज में मुझे प्रज्ञाचक्षु के रूप में नहीं बल्कि कलाकार के रूप में जाना जाता है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि मेरी कड़ी मेहनत एवं हुनर के बलबूते समाज में सम्मान प्राप्त करना मेरे लिए संभव हो पाया है।

आप बचपन से ही प्रज्ञाचक्षु हैं या कुछ समय बाद आपको दिखाई देना बंद हो गया?

मैं जन्म से ही प्रज्ञाचक्षु हूं किंतु बाल्यकाल में ही मेरी दोनों आंखों का ऑपरेशन हो चुका था। जिससे बेहद कम मात्रा में मेरी एक आंख से कुछ-कुछ दिखाई देता था। जैसे ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखे हुए अक्षर दिखाई देते थे किंतु बुक में लिखे हुए नहीं दिखाई देते थे। धीरे-धीरे समय के साथ ही मेरी आंखों की थोड़ी बची हुई रोशनी भी जाने लगी। हालांकि कमला मेहता ब्लाइंड स्कूल में मैंने एसएससी तक पढ़ाई पूरी की, इसके बाद कॉलेज की पढ़ाई पूर्ण कर एम.ए. की डिग्री हासिल की।

संगीत एवं वाद्ययंत्रों की ओर आप कैसे आकर्षित हुईं?

मैं बचपन से ही संगीत व वाद्ययंत्रों में रचि रखती थी। जब मैं करीब 5 वर्ष की हुई तब से ही टीवी, अलमारी आदि सामानों पर हाथों से बजाने में मुझे बड़ा मजा आता था। हां, लेकिन मैंने कभी टीवी के कांच नहीं तोड़े। सुर-ताल के साथ बजाने में मुझे बड़ा आनंद आता था।

बचपन से ही आपको दिखाई नहीं देता था बावजूद इसके संगीत, वाद्ययंत्रों को सीखने हेतु आप आगे बढ़ीं। क्या कभी आपको अपनी कमी का एहसास हुआ और नकारात्मक भाव के चलते परेशान हुईं?

कमियों का एहसास तो था किंतु संगीत क्षेत्र में आगे बढ़ने के दौरान मुझ में नकारात्मक भाव नहीं आए; क्योंकि संगीत सुनने के लिए आपको आंखों की आवश्यकता नहीं होती। बंद आंखों से जो संगीत की अनुभूति होती है वह खुली आंखों से नहीं होती।

इतिहास में आपकी इतनी रुचि का क्या कारण है?

इतिहास विषय सर्वसमावेशक है। इसी से सभी विषय जुड़े हुए हैं। इतिहास में भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, इंजीनियरिंग, विज्ञान, मेडिकल क्षेत्र आदि सब कुछ समाए हुए हैं और वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हमें प्रेरणा कहां से मिलती है तो केंद्र बिंदु से, उसी तरह सभी विषयों का केंद्र बिंदु इतिहास है। जैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई में सर्वप्रथम यह सवाल आता है कि, शोध कब हुआ? इस मशीन का आविष्कार कैसे हुआ, किसने किया, किसी भी जानकारी हेतु हमें पुन: इतिहास की ओर ही देखना पड़ता है।

2-4 वाद्ययंत्र सीखने में ही कई लोगों की जिंदगी बीत जाती है, फिर इतने कम समय में आपने 65 वाद्ययंत्र बजाने में विश्व रिकॉर्ड कैसे बनाया?

मां शारदा की कृपा से और संगीत की सतत साधना से ही मैं इस मुकाम पर पहुंची हूं। किसी भी एक वाद्ययंत्र की जीवन भर सतत साधना करना बेहद जरूरी है। मैं स्वयं आज भी ‘तबला’ की सतत साधना में लीन हूं। यदि हम पूरे सर्मपण भाव से कुछ भी सीखते हैं तो वह स्वयं में सहज ही आत्मसात हो जाता है। मैंने अनारका इंस्टिट्यूट से साधना शुरू की, उसके बाद शारदा संगीत विद्यालय में 3 वर्षो तक अभ्यास किया, फिर अपने गांव रत्नागिरी में पंडित बालासाहेब ऐरेवट जी से तालिम ली। अभी भी बनारस घराने के पंडित कालुनाथजी से मैं तबले की तालिम ले रही हूं। मेरे गुरूजी जब किसी कार्यक्रम में मेरा परिचय देते हैं तब वे मेरी तारीफ में कहते हैं कि इसके नाम 50 मिनट में 50 वाद्य बजाने का विश्व रिकॉर्ड लिम्का बुक में दर्ज है। तब मुझे गर्व की अनुभूति होती है।

आप अनेकानेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजा लेती हैं। इनमें पारंगत होने के लिए आपको क्या करना पड़ा?

मुझे इसके लिए रियाज करना पड़ा। मैं पूरे तन-मन, सर्मपण से सतत रियाज करती थी, जिसके बलबूते मैं अनेक वाद्ययंत्र बजा लेती हूं। हम कितने भी बड़े उस्ताद क्यों न हो जाए किंतु हमें रोजाना रियाज करना नहीं छोड़ना चाहिए। सफलता का यही एकमात्र मंत्र है।

आप बच्चों को भी वाद्ययंत्र बजाना सिखाती हैं। इस बारे में कुछ जानकारी दीजिए?

बोरिवली के अस्मिता विद्यालय के संस्थापक पटवर्धन जी ने छात्रों को वाद्ययंत्र बजाने की ट्रेनिंग देने हेतु मुझे प्रस्ताव दिया था, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। काफी वर्षों तक मैंने वहां पर बच्चों को बहुत कुछ सिखाया और अब भी सिखा रही हूं। वे बच्चे मुझसे बेहद प्रभावित हुए। आज भी मेरे शिष्य रहे बच्चे बड़े होने के बाद भी मुझ से मिलने मेरे घर आते हैं। हर कार्यक्रम में मेरी सहायता करने हेतु आते हैं। इससे गुरू-शिष्य परंपरा की महानता का पता चलता है और इसका महत्व रेखांकित होता है।

आपने अनेक सफल कार्यक्रम किए हैं। उनका स्वरूप कैसा होता है?

आयोजकों की मांग के अनुरूप हमें प्रस्तुतिकरण करना होता है। कोई 5 वाद्ययंत्र बजाने को कहता है तो कोई 10 वाद्य बजाने की मांग करता है। उनके मुताबिक हमें काम करना होता है। मैंने 5 से लेकर 30 वाद्ययंत्रों को कार्यक्रमों के दौरान बजाया है। मैं वाद्ययंत्र बजाती नहीं हूं; बल्कि उनसे बातें करती हूं, उनके साथ गप्पे लड़ाती हूं, खूब मस्ती करती हूं। मेरी बहन तो जल्दी ही मेरा साथ छोड़ कर भगवान के पास चली गई। मैं वाद्ययंत्रों को ही अपना भाई-बहन मानती हूं और उनके साथ ही जीवन भर का नाता मैंने जोड़ लिया है।

क्या आप अपने प्रस्तुतिकरण को व्यावसायिक रूप देना चाहती है?

हां, मैं विश्वस्तर पर अपने प्रस्तुतिकरण को व्यावसायिक रूप देना चाहती हूं; ताकि विश्व के सभी प्रज्ञाचक्षुओं को नई प्रेरणा मिले, उन्हें आर्थिक रूप से एक आधार स्तंभ दिखाई दे और उन्हें स्वयं का लक्ष्य निर्धारण करने में सहायता मिले। इस हेतु से मैं ऐसे किसी विश्वस्तरीय कार्यक्रम में भाग लेने की इच्छुक हूं। भारतीय संगीत, शास्त्रीय संगीत, म्युजिक, भजन सुनने से हमें अपार शांति मिलने का एहसास होता है। संगीत की सच्ची अनुभूति होती है। भारतीय संगीत सुनकर हमारे हाथ-पैर नहीं थिरकते बल्कि हमारा सिर धीरे-धीरे झूमने लगता है। हम संगीत में ऐसे रम जाते हैं कि हमें किसी चीज का भान ही नहीं रहता। कुछ ही देर में हमारा मन, मस्तिष्क, शरीर सब शांत हो जाते हैं और हमारी सारी थकान जैसे गायब हो जाती है। हम स्वयं को तरोताजा महसूस करते हैं। यदि संगीत का शाश्वत आनंद लेना है तो शास्त्रीय संगीत की ओर ही आना होगा। इसलिए विश्वस्तर पर मैं अपनी प्रस्तुतियां देना चाहती हूं।

प्रज्ञाचक्षुओं को आप क्या संदेश देना चाहती हैं?

उन्हें मैं बस यही प्रेरक संदेश देना चाहती हूं कि प्रज्ञाचक्षु होने पर सिर्फ किस्मत को दोष मत दीजिए। उठिए, आगे बढ़िए, कुछ ऐसा कीजिए कि हमें कुछ देखने की लालसा रहे ना रहे; किंतु दुनिया को हमें देखने की चाहत हो, लालसा हो हम से कुछ सीखने की, प्रेरणा लेने की। हमें हमारे कर्मों के आधार पर आगे आना होगा और समाज में आदर्श स्थापित कर बताना होगा कि जो देखने वाले नहीं देख सकते वह हम देख सकते हैं। जो वे नहीं कर सकते वह हम कर सकते हैं। देखने वालों के पास तो सिर्फ दृष्टि होती है किंतु प्रज्ञाचक्षुओं के पास दूरदृष्टि होती है। आंखों के देखने की सीमा है लेकिन मन से देखने की कोइ सीमा नहीं है।

स्कूल में संगीत की शिक्षा देने के अलावा क्या आप प्राइवेट भी संगीत की शिक्षा देती है?

जी हां, मैं 3 दिव्यांगों को संगीत की शिक्षा प्राइवेट दे रही हूं। जिनमें से एक मानसिक रूप से अस्वस्थ है, दूसरा चलने-फिरने में अस्वस्थ है, तीसरे की हाथ की उंगलियां नहीं हिलती थीं। कहते है न संगीत में जादू है। उसी जादू के प्रभाव से अब तीसरे दिव्यांग की हाथो की उंगलियां हिलने लगी हैं और वह अपनी मुट्ठी बांध सकती है। चम्मच पकड़ सकती है। तीनों बच्चों के अभिभावक मुझ से बेहद खुश हैं। एक लड़का तो ऐसा था कि सबने आशा ही छोड़ दी थी। 12 वर्षों से तबला सीख रहा था, बावजूद इसके वह तबला रिदम में नहीं बजा पा रहा था। उसके अभिभावकों ने मुझ से कहा था कि आप को तो कुछ दिखाई भी नहीं देता फिर आप ऐसे लड़के को कैसे सीखा पाओगी? उनके इस सवाल के जवाब में तब मैंने कहा था कि मुझे केवल 6 माह का समय दीजिए। मैं उसे रिदम के साथ तबला बजाना सीखा दुंगी और मैंने कर दिखाया। आज वह लड़का बेहद अच्छी तरह से रिदम में तबला बजा रहा है। मैं ये सारे काम पैसों के लिए या मान-सम्मान के लिए नहीं करती हूं। दिव्यांगों के लिए कुछ करना मुझे बेहद अच्छा लगता है। मुझे इस बात की बेहद खुशी है और मैं अपने काम से संतुष्ट हूं।

आपको अब तक कौन-कौन से पुरस्कार मिले हैं?

मेरे उल्लेखनीय कार्यों का गौरव एवं सम्मान देने हेतु महामहिम राष्ट्रपति के करकमलों द्वारा मुझे वर्ष 2016 में पुरस्कार से नवाजा गया था। दिव्यांग दिवस के मौके पर न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (भारत सरकार) के दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग की ओर से ‘सर्वश्रेष्ठ रचनात्मक वयस्क दिव्यांग’ पुरस्कार से मुझे सम्मानित किया गया था। लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में विश्व रिकॉर्ड दर्ज कराने के उपरांत मुझे पुरस्कार से नवाजा गया। इसके बाद ‘ज़ी चौबीस तास’ चैनल द्वारा ‘अनन्य’ पुरस्कार से मुझे अलंकृत किया गया।

आपने अब तक बहुत कुछ किया है। अब भविष्य में क्या करने की योजना है?

इतिहास में मैंने जो पाया, वही मुझे भविष्य में देना है, मैंने  जो संगीत सीखा, वह अगली पीढ़ी को देना है। मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चो को संगीत के माध्यम से यदि उनका विकास होता है तो उसके लिए मैं सदा प्रयासरत रहूंगी और उनकी सभी आवश्यकताओं को संगीत के द्वारा पुरा करने का छोटा सा प्रयास निरंतर करती रहूंगी।

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  1. डॉ. अखिलेश वनमाली सप्रे (प्राध्यापक, संगीत)

    लेख एकदम प्रेरणादायक एवं प्रोत्साहित करने वाला है। ऐसे अनेक संगीत साधक है जो इस प्रकार के है। उन्हें भी अपने इस पत्रिका के माध्यम से प्रकाश में लाया जा सकता है। लेख हेतु शुभकामना।

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