ग्राम देवता और ग्राम्य जीवन

भारतीय जीवन रचना के अनुसार हर ग्राम की एक देवता होती है। ग्राम का जो निर्धारित क्षेत्र है, उस पर इस देवता का अधिकार चलता है। यह देवता स्त्री या पुरुष दोनों हो सकती है। भारतीय परंपरा कहती है कि, हमारे देश का सबसे प्राचीन ग्राम या नगर है वाराणसी। अब इस वाराणसी क्षेत्र की ग्रामदेवता है कालभैरव। दूसरा प्राचीन उल्लेख मिलता है रामायण में। जब सौ योजन समुद्र लांघकर हनुमान जी लंका के किनारे पर उतरे और जब उन्होंने लंका नगरी में छुप कर प्रवेश किया, तब उन्हें रोका लंका नगरी की नगर देवता लंकिनी ने। हनुमान जी हाथों मार खाने के बाद ही वह चुप हो गयी। मतलब यह है कि, ग्रामदेवता एक निर्धारित क्षेत्र की, भूभाग की रक्षण करनेवाली शक्ती है। उस क्षेत्रपर उसका अधिकार चलता है। अत: उस क्षेत्र में निवास करने वाले लोग इस रक्षक देवता को, वर्ष के किसी निश्चित दिन पर कुछ चढावा करते है, उसका सम्मान करते है। घर में कुछ मंगल कार्य आदि है, तब इस ग्रामदेवता को आमंत्रित करते है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने, समाज चिंतकों ने अति प्राचीन काल में जब समाज रचना की, ग्राम नगर रचना की, तभी उन्होंने इन ग्राम देवताओं को भी विशिष्ट क्षेत्रों की रक्षण जिम्मेदारी सौंपी। तो क्या हमारे ऋषि मुनियों का अधिकार देवताओं पर भी चलता था?

इस बिंदु पर कुछ अधिक परामर्ष करने से पहले, आइये सुनेंगे महानगरी मुंबई के दो ग्रामदेवताओं की रोचक कहानी।
आज भारत की आर्थिक राजधानी कहलाई जानेवाली महानगरी मुंबई मूल रुप से केवल (सात टापू) सात द्वीपों का एक छोटा समूह इतनी ही थी। इन सात टापूओं में मुंबई नाम का जो टापू था, उस की ग्रामदेवता थी, या आज भी है-मुंबादेवी। मुंबा आई अर्थात मुंबा माता, इस मराठी संबोधन का अपभ्रंश रुप ही मुंबई है। अब इस मुंबादेवी ग्रामदेवता का मूल मंदीर था बोरीबंदर या व्हिक्टोरिया टर्मिनस (व्ही.टी) या अब छत्रपती शिवाजी (सी एस टी) कहा जाता है, बराबर उसी स्थान पर।
चौंदहवी-पंद्रहवी सदी में गुजरात के मुसलमान सुलतानों ने हिंदू राजाओं को हराकर मुंबई-वसई आदि स्थानों पर अधिकार कर किये। सोलहवीं सदी में पुर्तगाल से आए फिरंगियों ने मुंबई-वसई समेत अन्य किनारी स्थलों पर अपना कब्जा जमाया। इन फिरंगियों ने इस परिसर में भयानक धर्मपरिवर्तन का दौर चलाया। ईसाई मत अस्वीकार करने वालों को लूटा, उनके घर खेत जला दिये, उन्हें भी जिंदा जला दिया। इसवी सन १६४६ में छत्रपती शिवाजी ने हिंदवी स्वराज की स्थापना की। उनके भय से फिंरगीयों का ये धर्मपरिवर्तन का दौर धीमा हुआ, पर रुका नहीं। इसवी सन १६६२ में फिरंगियों और अंग्रजों के बीच यूरोप में एक राजनैतिक करार हुआ। उसके फलस्वरुप मुंबई के सात टापूओं के समूह पर अंग्रजों का अधिकार हुआ। अंग्रजों की ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय अब तक सुरत शहर में था। अब अंग्रजों ने धीरे धीरे अपना सारा कारोबार मुंबई में स्थलांतरित किया। मुंबई का बाम्बे फोर्ट नामक मुख्य किला उन्होंने और मजबुत,तथा विस्तृत बनाया। तोपों बंदूकों से सुसज्ज, हथियारबंद अंग्रेज फौज इस किले पर तैनात की गयी। इस बॉम्बे फोर्ट के तीन दरवाजे थे। उस में से ‘बजार गेट’ नामक दरवाजा बराबर मुंबादेवी के मूल मंदिर के सामने था। मुंबादेवी मंदिर के आसपास अन्य इमारतें भी थी। लोगों के घर थे। एक मस्जिद थी। एक कॅथॉलिक चर्च भी था।

छत्रपती शिवाजी को बहुत कम समय मिला। उनके बाद छत्रपती संभाजी, छत्रपती राजाराम, पेशवा बाजीराव यह सारे घर्मरक्षक वीर, उन से भी कम आयु में स्वर्गलोक सधारे। उनका सारा जीवन मुगलों से लडने में ही बीत गया। पर पेशवा बाजीराव के कार्यकाल में वसई प्रांत में फिरंगीयों ने फिर से जबरन धर्मांतरण का कहर ढाया। भारत का राजसिंघासन याने दिल्ली जीतने में अपनी सारी शक्ती जुटाये प्रतापी बाजीराव के कानों पर वसई प्रांत की हिंदू जनता का आक्रोश इतनी अधिक मात्रा में गया कि उन्होंने तुरंत वसई पर आक्रमण करना तय किया।

इस मुहिम पर उन्होंने अपने सगे छोटे भाई चिमाजी अप्पा को प्रमुख सेनापती नियुक्त किया। चिमाजी अप्पा बाजीराव से कुछ अधिक वीर, राजनैतिक तथा कुशल प्रशासक भी थे। दोनों भाई हिंदु धर्म के अभिमानी तथा देवदेवताओं के प्रति अत्यंत श्रद्धालू थे। फिरंगीयों को हराकर वसई जीतना आसान काम नहीं था। क्योंकि फिरंगी अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र से लैस थे। युद्ध चलता रहा। वसई के परिसर में से कई छोटे बडे स्थान चिमाजी अप्पा ने जीत लिये। पर वसई कीले पर कोई भी हमला टिक नही पा रहा था।

ऐसी स्थिती में सारे श्रद्धालु लोग जो जो उपाय करते आये है, वह चिमाजी भी कर रहे थे-देंवो के जागृत स्थानों पर जाकर प्रार्थना करना, चढावा करना, मन्नत मांगना। अब ने किसी चिमाजी से कहा कि, मुंबई की उत्तर भाग में माजगांव नाम का टापू है। वहां एक छोटीसी पहाडी पर माजगांव की ग्रामदेवता वैकुंठमाता का स्थान है। यह स्थान बहुत जागृत है। जो मन्नत मांगें पूरी होती ही है।

अब राजनैतिक स्थिति यह थी कि माजगांव सहित मुंबई के सात टापू अंग्रजोंं के राज में थे। चिमाजी अप्पा का युद्ध पुर्तगालियों याने फिरंगीयों के साथ था। उन्होंने सोचा अंग्रजों का अधिकार है तो क्या हुआ क्या हमारे देवता के दर्शन के लिए क्या हमें विदेशी गोरों से अनुमती लेनी होगी? हमें नहीं लेगे कोई अनुमती। और वह बेखटक माजगांव चले आये। ग्रामदेवी वैकुंठमाता के दर्शन किये और वसई मुहिम पर चले गये।

जब यह खबर मुंबई फोर्ट के अंग्रजों को मिली, तब वह चिंतित हो गये। चिमाजी का युद्ध हमारे साथ तो नहीं है, पर क्या भरोसा इन हिंन्दूओ का। कल हमारे उपर भी चढकर आयेंगे।

अगर हिंन्दू सेना मुंबई पर आती है तो उत्तर दिशा से आयेगी। अत: उत्तर का दरवाजा जो कि बाजार गेट था, उसके सामने वाला हर मकान, हर इमारत अंग्रजों ने हटा दी और वहां एक मैदान बना दिया। तकि हिंदू सेना को उसी मैदान से आना पडेगा और अंग्रेज बाजार गेट के बुरुजों पर से उस सेना पर तोंपे चला सकें।
इस दौर में मुंबादेवी का मूल मंदिर अपने मूल स्थान से हटकर आज की जगह आ गया। चुंकि चिमाजी अप्पा की इस मुहिम का लक्ष्य केवल वसई जीतना यह था। अत: वे वसई जीतने के बाद अन्य मुहीम पर चले गये। मुंबई की तरफ नहीं मुडे।

बाद में हमारे दुर्भाग्य से और अंग्रजों के सौभाग्य से वे बलवान होते गये और मुठ्ठीभर गोरो ने हमारा यह देश हथिया लिया। अंग्रेज विजेता बने, हम गुलाम बने। जब मुंबा देवी मंदिर की बात चलती थी, तब विजेता यह कैसे कहेंगे कि, उस काखंड में अंग्रेज हिंदु सेना से डर गए थे। इसलिये अंग्रेज इतिहास लेखक और उन के स्थानिक चमचे इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है।

आज ग्रामदेवता मुंबादेवी का मंदिर जहां स्थित है, उस पूरे परिसर को ही मुंबादेवी नाम से जाना जाता है और मूल मंदिर तथा अन्य मकान हटाकर अंग्रजों ने जो एक विस्तृत मैदान बनाया था, उसी मैदान पर आज का विशाल छत्रपती शिवाजी टर्मिनस, मध्य रेल्वे का विशाल यार्ड आदि है।

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