चौपाल की चहल-पहल और सूनापन

मैं बुन्देलखण्ड के एक गांव की चौपाल हूं। यहां की स्थानीय बोली में चौपाल को ‘अथाई’ कहते हैं जो शायद ‘अस्थायी’ का अपभ्रंश है, क्योंकि यहां की चहल-पहल अस्थायी और अनियमित रहती है। यहां कुछ भी पहले से निश्चित नहीं होता। लोग अनायास एक दूसरे को देखकर जमा हो जाते हैं, और बतियाने लगते हैं। यह भी हो सकता है कि ‘अथाई’ शब्द स्थायी का अपभ्रंश हो, क्योंकि गांव में घटने वाली प्रत्येक होनी और अनहोनी बात की बहस का मैं ही एकमात्र अथायी अड्डा हूं। अस्थायी और स्थायी का यह विरोधाभासी घाल-मेल वैसा ही समझो जैसे अपने देश की एकता में अनेकता। मेरे यहां होने वाली चहल-पहल और सूनापन जीवन में सुख-दुख की भांति होते रहते हैं, जिनका साक्षी मेरे किनारे पर खड़ा नीम का पेड़ है जो मेरा स्थायी साथी है। रात के सूनेपन में हम दोनों यहां दिनभर हुई चर्चाओं की जुगाली करते रहते हैं, जब तक नींद हमें अपने आगोश में नहीं ले लेती।

मैं वह स्थान हूं जहां गांव के ठलुआ लोग (जिन्हें कोई काम नहीं होता, जो फुरसत में होते हैं), आकर गप-शप, हंसी-ठट्ठा मसकरी-चिरीरी, छींटाकशी, मजाक-दिल्लगी, सुख-दुख, परनिंदा, मौसम की बेरुखी आदि किसी भी बात पर बहस करते हैं। गांव वालों को ‘टाईम-पास’ करने की मैं सबसे अच्छी और निरापद जगह हूं। यहां आकर लोग अपने मन का गुबार निकाल कर या दूसरे की बुराई कह-सुन कर फ्रेश (तरोताजा) हो जाते हैं। जिनके पेट में कोई बात न पच रही हो, जिसके कारण पेट में खलबली मच रही हो, उसका इलाज यहां मुझ में मिल जाता है। मैं गांव का सूचना-केन्द्र हूं। यहां रोज कोई न कोई नारद मुनि आकर नए समाचार दे जाता है और यहां से सूचनाएं लेकर पूरे गांव में प्रसारित करता है। अच्छी-बुरी सभी तरह की खबरें, अच्छी कम, बुरी, सनसनीखेज ज्यादा तेजी से फैलती हैं। लगता है शहरी अखबारों ने सनसनी फैलाने वाली खबरों को सुर्खियां बना कर छापना मेरे यहां से ही सीखा है। किसकी भैंस को पाड़ा हुआ, किसकी औरत पेट से है, गांव की किस औरत और किस मर्द के बीच नैनमटक्का चल रहा है, किसकी लड़की किसके साथ भाग गई, गांव का कौन सा अनब्याहा पंडित जाने कहां से दलित वर्ग की औरत भगा लाया है, इन सबका रोचक वर्णन यहां सुनने को मिल जाता है।

अतिशयोक्ति अलंकार का जन्म अवश्य ही किसी चौपाल पर हुआ होगा। बात को बढ़ाचढ़ा कर, नमक-मिर्च लगाकर मसालेदार बनाने की कला चौपाल पर ही विकसित हुई होगी। परनिंदा इल्म का जन्म भी किसी चौपाल पर हुआ होगा। यहां नामों को बिगाड़ने की और लोगों के हास्यास्पद नाम रखने की परंपरा भी बहुत पुरानी है। यहां हरिराम को ‘हर्रु’, बल्देव को ‘बदलू’, रामलाल को ‘रमल्ला’ पुकारा जाता है। असली नाम कोई नहीं जानता, यह संक्षिप्त नाम ही प्रचलित हो जाते हैं। जो आड़ा-टेढ़ा चलता है उसे ‘टिड़का’, जो दिलफैक होता है उसे ‘रसीला’ कहा जाता है। इस बारे में मुझे एक बार बड़ी अनोखी बात सुनने को मिली। एक बार यहां जमींदार और पटवारी के लड़के जो शहर में ऊंची शिक्षा ले रहे हैं, आपस में बतिया रहे थे। पटवारी का लड़का बोला- ‘‘एक बात में हमारे गांव अंग्रेजीदां लोगों से सदियों आगे हैं। हमारे यहां बड़े नामों को छोटा करके बोलने की जो परंपरा सदियों से चली आ रही है, उसे अंग्रेजी बोलने वालों ने अब अपनाया है। अब वे एक्जामिनेशन को ‘एक़जाम’, हैंकरचीफ को ‘हैंकी’, डिमोस्ट्रेशन को ‘डेमो’ बोलने लगे हैं। ’’ सुनकर मुझे अच्छा लगा कि चलो यह बड़े गौरव की बात है कि इस मामले में तो यहां के लोग अंग्रेजी बोलने वालों के पथ प्रदर्शक हैं।

हमारे यहां विधान सभाओं वाली बहस बिना किसी एजेन्डा के होती है और अदालतों की भांति पंचायती फैसले भी बिना बकीली जिरह आनन-कानन में हो जाते हैं। शहर की अदालतें यदि यहां लगने वाले समय से सौ गुना समय लेकर भी फैसला सुना सकें, तो वहां मुकदमों का अंबार न लगे। हां तब वहां के वकील अवश्य आत्महत्या करने पर वैसे ही आमादा हो जाएंगे जैसे फसल खराब होने पर कर्ज में डूबा हुआ यहां का किसान।

जब खेती-किसानी का काम जोर-शोर से चल रहा होता है तब मेरे यहां इतने लोग नहीं आते जितने गर्मी के दिनों में। फिर भी ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब मेरा स्थान कुछ घड़ी के लिए आबाद न जो। हां रात में, या लगातार वर्षा होने पर, या गरमी की तपती दोपहरी में जब लू के थपेड़े लगते हैं या धूलभरी आंधी चलती है तब मेरा दरबार सुना रहता है। अच्छे मौसम में यहां जोरदार बहस चलती हैं लेकिन विधान सभाओं या संसद की भांति यहां कोई सभापति नहीं होता। सबको बोलने या न बोलने की आजादी रहती है। हां यहां हुड़दंग, हो-हल्ला, नारेबाजी, सामूहिक बहिर्गमन या बहिष्कार नहीं होता। यहां कोई अनुशासन न होने पर भी कभी कोई अवांछित बात, उठा-पटक, मारपीट नहीं होती। इस मामले में हम चुने हुए विधायकों और सांसदों से श्रेष्ठ हैं। यहां दूसरों की आलोचना-प्रत्यालोचना भी होती है और दूसरों को सलाह भी दी जाती है। एक दिन गांव का अनपढ़ किसान ‘घसीटा’ गलती से यहां आ गया। वह अपने आठ वर्ष के बच्चे को स्कूल नहीं भेजता है। पुजारी ने इसका कारण पूछा तो घस्सीटा बोला पढ़ने से क्या फायदा? तनिक पढ़े तो हर (हल) से गए, बहुत पढ़े तो घर से गए। अब गांव की पाठशाला में थोड़ा पढ़ लेगा तो उसे हल चलाने में शर्म आएगी और अगर ज्यादा पढ़ने को शहर गया तो वहीं का होके रह जाएगा। ’’ उसकी इस बात का कल्लू मियां ने भी समर्थन किया, बोला- मुखिया का इकलौता नाती शहर पढ़ने गया था, खूब पढ़ा लिखा, इतना कि अमेरिका चला गया। अरे, अपना बच्चा अपनी आंखों के सामने रहे, तो ही ठीक है। किसान का बेटा घर में रह कर किसानी करें तो ही अच्छा। ’’ पुजारी बोले- तुम गंवार के गंवार ही रहे। आजकल खेती किसानी की ऊंची से ऊंची शिक्षा देने के कॉलेज खुल गए हैं। खेती में बी.ए., एम.ए. करके लोग उन्नत किस्म की खेती करके माटी से सोना पैदा कर रहे हैं। घसीटा बोला- हम गरीब किसान हैं, हमारी इतनी हैसियत नहीं कि बेटवा को बी.ए., एम.ए. पढ़ा सकें। इस पर पुजारी जी निरुत्तर हो गए।

मेरे एक ओर बड़ा ऊँचा सा माटी का चबूतरा है जो एक मकान के सामने की दीवार से ऐसे चिपका है जैसे किसी सेठ का पेट। वह चबूतरा मेरा अभिन्न अंग बन गया है। उसके सामने अर्धचन्द्रकार में पास की पहाड़ी से लुढ़क कर आए बड़े-बड़े पत्थर किसी ने ऐसे जमा दिए हैं, जैसे किसी आदमी के नीचे के जबड़े के दांत हों। इनकी ऊपरी सतह लगभग चपटी है। इन पर आकर लोग बैठते हैं। ऊँचे तबके के भले मानुस चबूतरे की शोभा बढ़ाते हैं। पत्थरों पर बैठे लोग और चबूतरे के भले मनुष्य बीड़ी फूंकते हुए बलियाते हैं। या फिर खैनी चबाते हैं। तमाखू को चूना मिलाकर हथेली पर सलते हैं फिर बड़े जतन से मुंह खोल कर चुटकी भर खैनी दांतों के बीच ऐसे दबाते हैं जैसे कोई महाजन तिजोरी में सोना-चांदी संभाल कर रखता है। तमाखू चबाना और थोड़ी देर बाद मुंह टेड़ा करके पिच्च से थूकना यहां का नियमित कर्मकाण्ड है।

कुछ लोग जिन्हें बीड़ी की तलब लगती है किन्तु वह उनके पास नहीं होती तो वे यहां इस मतलब से आकर बैठते हैं कि कोई जब बीड़ी पियेगा तो लोकरीति के अनुसार उन्हें भी देगा। किसी से कोई मतलब निकलता हो तो पहले उसे बीड़ी पिलायी जाती है, फिर अपनी बात कही जाती है। यही यहां का शिष्टाचार है। एक बार गांव के सम्पन्न घरों के दो युवक जो शहर में कॉलेज में पढ़ते हैं, गलती से यहां आकर बैठ गए। उन्हें देख कर दो मुफ्तखोर बीड़ीबा़ज इस आशा से आकर उनसे बतियाने लगे कि बीड़ी पीने को मिल जाएगी, हो सकता है सिगरेट मिल जाए। जब लड़कों ने यहां का शिष्टाचार नहीं निभाया तो एक बोला- ‘‘क्यों भइया! तुम बीड़ी-सिगरेट कुछ नहीं पीते?’’ लड़कों ने कहा नहीं, तो प्रत्युत्तर मिला- ‘‘कब सीखोगे? इतने बड़े तो हो गए! कैसे मर्द हो?’’ लड़कों ने कहा, ‘‘तमाखू खाने या पीने से बहुत नुकसान होता है। टी. बी. और कैंसर जैसी बीमारियां हो जाती हैं। ’’ इस पर दोनों बीड़ीबाज ठठाकर हंसे। एक बोला बीड़ी-‘‘तमाखू तो यहां का लोकाचार है। तमाखू तो औरतें भी खाती हैं लेकिन सबको न तो टी.बी.होती है, न कैंसर। जिन्होंने पूर्व जनम में पाप किए होते हैं, उन्हीं को ये बीमारियां लगती हैं। ’’ इसी बीच एक और मसखरा आ टपका। मजाक में बोला ‘‘इन्हें अगले जनम में फिर आदमी बनना है। तुमने वह किस्सा तो सुना होगा कि एक आदमी यमराज के दरबार में पहुंचा तो उन्होंने उससे पूछा ‘‘क्या तुमने जीवन में तमाखू का सेवन किया है?’’ वह बोला- नहीं। यमराज ने हँसकर कहा, ‘‘तुमने अपना जीवन जानवरों की तरह बिताया। जानवर तमाखू का इस्तैमाल नहीं करते। ’’ फिर वह चित्रगुप्त से बोले- इसे फिर से मनुष्य योनी में भेजो। दूसरा बोला, कृष्ण भगवान को जब बहेलिए ने पैर में बाण मारा, तो वे स्वर्ग जाने लगे। कहते हैं, उसी समय राधिका जी वहां प्रकट हो गई – ‘‘राधा बोली कृष्ण से गहकर उनकी बांह, यहां तमाखू खाय लो, वहां तमाखू नांह। ’’ इस पर जोरदार ठहाका लगा।

मैंने जमाने को बदलते देखा है। पहले लोग यहां पर घुटनों तक धोती पहने आते थे, कुछ लोग साफा बांधे तो कुछ सिर घुटाए हुए। अब यहां बहुत से लोग पैंट पहन कर जुल्फी बने हुए आते हैं। धोती वाले कभी कभार ही दिखते हैं, एक चीज जो नहीं बदली वह है कंधे पर टंगा हुआ गमछा या गले में मफलर-जैसी लटकी हुई साकी या अंगोछा। गमछा या साफी उनके ग्रामीण होने की पहचान है। इनसे बहुत से काम किए जाते हैं। पत्थर पर बैठते समय उस पर की धूल इससे झाड़ी जाती है। कुछ खाने पीने के बाद इससे हाथ-मुंह पोंछा जाता है। पसीना पोंछा जाता है, नाक पोंछी जाती है। लू से बचने के लिए कान बांधते हैं और हाट से आलू-बैंगन इसी में भरकर लाते हैं। ऐसा बहु-प्रयोजनीय कपड़ा शहर वालों के पास नहीं होता। यहां की बातों का सिलसिला भी बदला है। अब राजनीति की बातें और चुनाव की चर्चा होती है, जो अंग्रेजी राज में नहीं होती।

एक बार चुनावी मौसम में एक पुरानी पार्टी का हिमायती अपनी पार्टी का प्रचार करते हुए बोला- ‘‘भइया! चावल जितना पुराना हो उतना ही अच्छा होता है। हमारी पार्टी सबसे पुरानी है। उसी को वोट देना। इस पर दूसरे ने नहले पर दहला मारा। बोला- चावल तो अपने गांव में उगता नहीं, ज्वार पैदा होती है। हम तो यह जानते हैं कि पुरानी ज्वार बेस्वाद हो जाती है। तुम इस गांव के होकर चावल कैसे हो गए? यहां दूसरों को निरुत्तर करने वाले जवाब ला-जवाब होते हैं।
पहले यहां की बातचीत ठेठ बुन्देली में होती थी। अब उसमें खड़ी बोली के शब्दों का छौंक भी लगने लगा है। अपने को पढ़ा-लिखा जताने को नई पीढ़ी के कुछ युवक अंग्रेजी शब्दों का तड़का भी लगाते हैं।

गांव में एक तुकबंद है जो बुन्देली में व्यंग्य कवित्व रचते हैं। अपनी कविता सुनाने का शौक वह यहां आकर पूरा करते हैं। वह स्वयं को बुन्देली के प्रसिद्ध कवि ‘ईसुरी’ के समकक्ष समझता है। अपने मुंह मिया-मिट्ठू बने यह कवि महाराज शादी-ब्याह में हलवाई का काम भी करते हैं। यदि कोई इन्हें खाना बनाने को नहीं बुलाता तो उस पर व्यंग्य कविता बनाकर यहां सुना जाते हैं। लोगों को परनिंदा रस से सराबोर कर जाते हैं।

मुझे यहां तरह-तरह के विचित्र चरित्रों को देखने समझने का अवसर मिलता है, मैं यहां हूं भी तो न जाने कब से। याद नहीं। शायद जब यह गांव बसा होगा, तभी से। मैंने यहां की चहल-पहल भी देखी है और सूनापन भी। नीम का पेड़ तो बहुत बाद में आया। मैंने जमाने को कई करवटें बदलते देखा है। अब तो यहां लोगों के पास मोबाईल भी हो गए। गांव में बिजली आ गई जिसका एक खम्भा मेरे पास ही खड़ा है। नीम के पेड़ के अलावा मुझे एक नया साथी मिल गया, बोलने बताने के लिए। अकेलेपन का कष्ट मैं जानती हूं। एक बार एक कथावाचक यहां बता रहे थे कि भगवान श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा को शाप दिया था कि तू तीन हजार वर्ष तक पृथ्वी पर अकेला भटकता फिरेगा और कोई तुमसे बोलने बताने को नहीं होगा। सच है जीवन में सूनेपन से बड़ा कोई दुख नहीं।

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