सुरक्षा के मायने

‘सुरक्षा’ का दायरा बहुत व्यापक है। बाहरी हमलों से सुरक्षा के अलावा घरेलू हिंसा, यातायात दुर्घटनाएं, महिला एवं बाल शोषण इत्यादि जैसे आंतरिक सुरक्षा के मामले भी इसमें शामिल होते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में दूसरे देशों की वस्तुएं पट जाना भी आर्थिक असुरक्षा का कारण बनता है। इन पर दूरदृष्टि रखकर उपाय करने की जरूरत है।
‘सुरक्षा’! जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक, परंतु आज की जीवनशैली में सब से दुर्लभ। आजकल अखबार हों या न्यूज चैनल, सब कुछ ऐसे समाचारों से पटे होते हैं जिनसे आम आदमी के मन में असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। परंतु हम सारा दोष मीडिया को भी नहीं दे सकते क्योंकि मीडिया भी वही दिखाता है (थोडा मिर्च मसाला लगाकर) जो समाज में घटित हो रहा है।
आम तौर पर ‘सुरक्षा’ शब्द सुनते ही हमारे मन में आतंकवाद या युद्ध मंडराने लगता है, परंतु क्या सुरक्षा इन्हीं तक सीमित है? आज जरा समाज पर नजर घुमाकर देखें तो मां की कोख से लेकर सीमा तक सब कुछ असुरक्षित दिखाई देता है। पढ़ने में शायद बहुत नकारात्मक लगे परंतु यह सच्चाई है कि व्यक्ति के जीवन की कीमत बहुत कम हो गई है।
आखिर सुरक्षा के मायने हैं क्या? हम कब कह सकते हैं कि हम सुरक्षित हैं? शायद तब, जब यह पता चलने के बाद कि किसी महिला के गर्भ में कोई कन्या है; उसकी भ्रूण हत्या न हो, जब कोई महिला रात को १-२ बजे सड़क पर अकेले निकले और सही सलामत वापस आ जाए, जब कोई आर्थिक मजबूरियों के कारण आत्महत्या न करे, जब किसान को कर्जमुक्ति के लिए ठाकुरों या अफसरों के तलवे न चाटने पड़े, जब अपने धर्म का प्रसार करने की जिद में नरसंहार न किया जाए, जब कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए दूसरे देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने की कोशिश न करे, जब वैश्विक महासत्ता बनने की होड़ में एक राष्ट्र दूसरे को खत्म करने की कोशिश न करे। ये तथा इन जैसी और कई परिस्थितियां सुरक्षा के लिए आदर्श तो हो सकती हैं परंतु यथार्थ नहीं। यथार्थ तो इससे कोसों दूर है।
सुरक्षा का दायरा
आज की परिस्थिति में; विशेषत: भारत के परिप्रेक्ष्य में सुरक्षा का अर्थ क्या होना चाहिए इस पर जरा विचार करते हैं। भारत के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को शस्त्रास्त्रों से संपन्न देश बनाना चाहते हैं। इस दिशा में कार्य भी शुरू हो चुका है। कदम स्वागत योग्य जरूर है, परंतु क्या इससे उन दिहाड़ी मजदूरों को फर्क पड़ेगा जो रात को ये सोचकर सोते हैं कि आज का काम तो हो गया कल न जाने कुछ मिले न मिले। आर्थिक असुरक्षा से रोज दो हाथ करनेवालों को क्या फरक पडता है कि भारत ने कौन सी नई मिसाइल बनाई है या कौन सा नया युद्ध टैंक खरीदा है। उन्हें तो इस बात से फर्क पड़ेगा कि कल उनके और उनके परिवार की दो जून की रोटी सुरक्षित हो जाए।
आंतरिक असुरक्षा
आज सही मायने में भारत सीमा पर होनेवाले हमलों से उतना असुरक्षित नहीं है जितना आंतरिक असुरक्षा अर्थात सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा से है। सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा दोनों ही में गहरा संबंध है। आर्थिक असुरक्षा से गुजरने वाले व्यक्तियों का आपराधिक गतिविधियों की ओर रुझान अधिक होता है। सही तरीके से पैसे कमाने में बहुत वक्त लगता है जबकि इन कृत्यों के कारण तुरंत पैसे मिल जाते हैं। जल्दी पैसा कमाने, अपनी तथा अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारने के विचार में लोग अपराधों की ओर अग्रसर होते हैं तथा अपने लिए और दूसरों के लिए असुरक्षा का सबब बन जाते हैं।
राह चलती महिलाओं के गले से चेन या मंगलसूत्र खींचना, ट्रेन में यात्रियों को लूटना, किसी का बैग छीनकर भागना इत्यादि घटनाओं में कई बार लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा है। सोचिये! सोने की एक चेन, या कुछ हजार रुपये…..क्या मनुष्य की जान की कीमत इतनी ही रह गई है? सवाल यह उठता है कि क्या मिलता है लोगों यह करके? जवाब फिर वही है तुरंत पैसा। अब जरा ये भी सोचें कि इस तरह की वारदातों को अंजाम देनेवाले कौन होते हैं। जाहिर सी बात है ये वे लोग होंगे जिनके पास आय के साधन उपलब्ध नहीं हैं। अपने साथ-साथ दूसरे की जान को खतरे में डालने वाले कृत्य वे लोग नहीं कर सकते जो ९ से ६ की ऑफिस ड्यूटी पूरी करके महीने के अंत में तनख्वाह पाते हैं। ये वे लोग हैं जिनके पास नियमित आय का कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं। लोगों को इन अपराधों से परावृत्त करने के लिए उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारना बहुत आवश्यक है। इससे भी अधिक आवश्यक है लोगों में इस भाव का जागृत होना कि सही मार्ग से कमाया गया धन भले ही देर से मिलता है परंतु वह हर दृष्टि से सुरक्षित होता है।
हमारे देश में लोग तब भी असुरक्षित महसूस करते हैं जब परिवार का कोई सदस्य वाहन लेकर घर से बाहर निकले। यातायात के नियमों का उल्लंघन करना हमारे देश में फैशन सा हो चला है। सिग्नल तोड़ना, गलत ओर से ओवरटेक करना, बिना इंडिकेटर के गाड़ी मोड़ देना इत्यादि सभी कुछ हमारे यहां आम बात है। ऐसा करने वाले लोग यह भी नहीं सोचते कि उनके कारण अन्य लागों को भी खतरा हो सकता है।
वाहन चलाने का लाइसेंस मिलना भी हमारे यहां कोई मुश्किल काम नहीं है। नियमों के अनुसार तो इसके लिए परीक्षा उत्तीर्ण करना जरूरी है परंतु हमारे यहां कुछ हरे पत्तों के जोर पर बिना परीक्षो के भी यह काम हो जाता है। अठारह वर्ष से काम आयु के युवा; जिनमें जोश कुछ अधिक होता है ऐसे लाइसेंस पाकर और भी स्वतंत्र हो जाते हैं। बेझिझक वे अपनी धुन में वाहन चलते हैं और यातायात दुर्घटनाओं का कारण बन जाते हैं।
यातायात दुर्घटनाओं का एक कारण यह भी है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण आज रास्तों पर वाहनों की संख्या भी अत्यधिक हो गई है। सार्वजनिक वाहनों में जगह न मिलने के कारण लोग अपने वाहनों को प्राथमिकता देते हैं। सब को गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी होती है और रास्तों पर जगह कम होती है। ऐसे में दूसरे से आगे निकलने की होड़ में भी दुर्घटनाएं हो जाती हैं। इन सभी से बचने का एक ही उपाय है यातायात के नियमों का हर परिस्थिति में पालन करना। यह जिम्मेदारी जितनी ट्रैफिक पुलिस की है उतनी ही हर उस इंसान की भी है जो वाहन चलाता है। यहां तक कि पैदल चलने वालों को भी अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए यातायात के नियमों का पालन करना ही चाहिए। मोबाइल में नजरें गड़ाए सड़क पार करना भी दुर्घटना को निमंत्रण देना ही होगा।
सामाजिक असुरक्षा का एक पहलू घरेलू हिंसा भी है। दहेज़ न मिलने के कारण महिलाओं पर होनेवाले अत्याचार के बारे में हम आए दिन सुनते रहते हैं। दिल्ली के ‘निर्भया’ जैसे मामलों को हम भूल नहीं सकते। पैसों के अभाव में आज भी कई बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं। इन जगहों पर उनका मानसिक और शारीरिक शोषण भी होता है। सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से इस ओर कदम उठाने भी आवश्यक हैं। सरकार के द्वारा कानून बनाने भर से काम नहीं होगा क्योंकि ये समस्याएं कानून के माध्यम से सुलझना कठिन हैं। इनके लिए समाज के लोगों में जागरूकता लाने की आवश्यकता है। इनके आलावा सामाजिक और क्षेत्रीय सद्भाव का अभाव, जातिगत हिंसा जैसे भी कुछ कारण हैं जो सामाजिक सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न उपस्थित करते हैं।
इतनी सारी सामाजिक असुरक्षा के साथ-साथ हमारे देश को एक और आंतरिक असुरक्षा से निपटना पड़ रहा है और वह है नक्सलवाद। नक्सलवाद हमारे समाज में उस परजीवी की तरह है जो हमारे समाज से ही अपना उदर भरण कर रहा है और हमारे समाज को ही खोखला कर रहा है। नक्सली इलाकों में रहनेवाले आम लोगों और नक्सलवादियों की पहचान करना अत्यंत कठिन होता है। दिनभर अपनी सामान्य दिनचर्या करनेवाला व्यक्ति रात को नक्सली गतिविधियों में लिप्त दिखाई देता है। आश्चर्य की बात यह है कि नक्सलवादियों तक मीडिया की पहुंच है परंतु सुरक्षा कर्मियों की नहीं। वास्तव में आम आदमी और नक्सलियों में अधिक भेद न होने के कारण भी इनका खात्मा करना मुश्किल है। विचारधारा से प्रभावित होकर समाज से लड़ने के लिए ये लोग भले ही एकजुट हो जाएं परंतु इनमें भी आंतरिक शोषण होता ही है। आत्मसमर्पण करनेवाले कुछ नक्सलवादियों (विशेषतः महिलाओं) ने यह स्वीकार किया है कि उनके ही कार्यकर्ताओं द्वारा उनका शोषण किया जाता था। असल में नक्सलवाद जिस विचार, जिस मानसिकता की उपज है उसे ख़त्म करना आवश्यक है। किसी विचार को खत्म करके उसकी जगह नए विचार को प्रस्थािपत करने में लंबा कालखंड बीत जाता है परंतु, कहीं न कहीं अब इसकी शुरुआत अब होनी आवश्यक है।
बाह्य असुरक्षा
व्यक्ति या समाज की तरह ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी देश को भी अपनी पहचान कायम रखने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। यह संघर्ष मुख्यत: तीन स्तर पर होता है- आर्थिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक। विश्व के इतिहास पर नजर डालें तो यह दिखाई देगा कि इन्हीं तीन क्षेत्रों में विस्तार करने के लिए किसी एक देश ने दूसरे देश पर आक्रमण किया है।
अगर भारत का ही इतिहास लें तो भी हमें यही दिखाई देगा। सोने की इस चिड़िया को लूटने के लिए जितने भी आक्रमणकारी भारत में आए वे अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाए। उसका यह प्रभाव हुआ कि अनादि काल से हिंदू राष्ट्र के रूप में पहचाने जानेवाले इस देश में आज धर्म के नाम पर विवाद और दंगे हो रहे हैं। धर्मांतरण जोरों पर है। कई स्थानों पर इसके लिए दहशद का सहारा लिया जाता है। इसके कारण ही आतंकवाद फैलता है। आज इस्लामिक आतंकवाद ने लगभग पूरी दुनिया पर शिकंजा कस रखा है। उसी का सहारा लेकर पाकिस्तान भारत में आए दिन कुछ न कुछ ऐसे कांड करता रहता है जिसके कारण भारत में तनाव बना रहे। अपना भौगोलिक विस्तार करने के लिए भी वह १९४७ से ही प्रयत्नशील रहा है। कश्मीर घाटी और उसके आसपास के इलाकों में पाकिस्तान की ओर से हमेशा ही घुसपैठ होती रहती है। कश्मीर को पकिस्तान का हिस्सा बनाने के लिए वह हर स्तर पर, हर संभव प्रयास करता रहता है। अत: सीमा सुरक्षा की दृष्टि से पाकिस्तान हमेशा ही भारत के लिए चिंता का विषय रहेगा।
विस्तारवाद का आधार लेकर भारत पर आर्थिक आक्रमण करके चीन ने भी हमें मुश्किल में डाल रखा है। जिस तरह कम दाम पर विभिन्न वस्तुओं को बाजार में लाकर चीन ने भारतीय बाजार पर कब्जा कर रखा है, उसके चलते हमारी अर्थव्यवस्था पर चीनी शिकंजा कसने में देर नहीं लगेगी। चीन यह जानता है कि सीमा पर हथियार लेकर युद्ध करना कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कारणों से संभव नहीं होगा। अत: उसने हमारे देश की रीढ़ की हड्डी अर्थात अर्थव्यवस्था पर ही हमला करना शुरू कर दिया है। हालांकि चीन भी तिब्बत की ओर से घुसपैठ करता रहता है। परंतु उसका अनुपात अन्य की तुलना में कम है।
भारत में घुसपैठ के मामले में अगर कोई सबसे आगे है तो वह है बांग्लादेश। भारत की मदद से बना यह देश अब भारत को ही आखें दिखा रहा है। वहां पर भारतीय हिंदुओं की अवस्था दयनीय है। भारत में जो बांग्लादेशी घुसपैठिए आते हैं वे बड़ी आसानी से भारतीय रंगढंग में ढल जाते हैं। आर्थिक जुगाड़ के लिए भारत में आए ये लोग दिहाड़ी मजदूर, घर का काम करनेवाले नौकर, प्लंबर आदि व्यवसाय अपना रहे हैं। कम पैसों में काम करनेवाले मजदूर मिलने के कारण इन्हें प्राथमिकता दी जाती है। एक ओर इसका सीधा असर भारतीय मजदूरों पर पड़ता है। उनकी रोजीरोटी छिन जाती है और दूसरी ओर भारत का पैसा बांग्लादेश में जाता है। कुछ लोग तो नकली कागजों के बल पर भारत के नागरिक बन बैठे हैं। उन्हें बकायदा ’आधार कार्ड’ भी दिया जा चुका है।
असुरक्षा की इतनी सारी समस्याओं का सामना करते समय भारत को दूर की सोच भी रखनी होगी। भविष्य में जमीनी स्तर पर युद्ध करने की रणनीति खत्म हो जाएगी। रह जाएगा तो सिर्फ आंकडों का खेल। जो कि कोई भी कहीं से भी इंटरनेट के माध्यम से खेल सकता है। इसे ’सायबर आतंकवाद’ कहा जाता है। आतंकवादी संगठनों ने कुछ पैमाने पर इसकी शुरुआत भी कर दी है। आनेवाले समय में यह अत्यंत तेज गति से और बहुत कम लागत पर घाव करनेवाला हथियार साबित होगा।
हमारा कर्तव्य
अंग्रेजी में एक कहावत है ‘प्रिवेन्शन इस बेटर दैन क्योर’। अर्थात उपचार से सावधानी बेहतर है। सीमा पर होनेवाले हमलों के लिए हमारी तीनों सेनाएं सक्षम और सजग हैं। राज्यों की पुलिस भी अपना काम कर ही रही है। परंतु क्या हम अपना कर्तव्य कर रहे हैं? घरेलू हिंसा, यातायात दुर्घटनाएं, महिला एवं बाल शोषण इत्यादि जैसे मामलों में हम कितने जागरूक हैं? क्या घटना होने के बाद आंदोलन करने भर से हमारा दायित्व समाप्त हो जाता है? भारत में उत्पन्न होने वाली या निर्माण होने वाली वस्तुओं को खरीद कर भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारना क्या हमारा कर्तव्य नहीं है? केवल सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर स्वदेशी अपनाने के मैसेज भेजकर देश की अर्थव्यवस्था नहीं सुधारी जा सकती। लोगों को अपने घर में या दफ्तर में काम देने से पूर्व उनकी पूरी छानबीन करने से कई दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। अब ‘सुरक्षा’ को लेकर नजर और नजरिया दोनों ही बदलने का समय आ गया है। जब यह व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का विषय बन जाएगी तभी सही मायने में वह ‘समग्र सुरक्षा’ कहलाएगी।

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