मुस्लिम महिलाओं से ही बदलाव की अपेक्षा

मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव के प्रश्न पर इस समय देश भर में बड़ी बहस छिड़ी हुई है। मुस्लिम समाज की महिलाओं ने स्वयं ही इस कानून को अदालत में चुनौती दी है। उनका कहना है कि इस कानून में महिलाओं के हितों की अनदेखी की गई है। इस कानून के जुबानी (तीन) तलाक, हलाला, बहुपत्नीत्व के प्रावधानों को इन महिलाओं का विरोध है। उनकी मांग है कि इसे बदला जाना चाहिए। तीन तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच खींचतान चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने खुद संज्ञान लेते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ की समीक्षा का फैसला लिया है। मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक और बहुपत्नीत्व की प्रथा को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं पर केंद्र सरकार की ओर से दाखिल किया गया हलफनामा बेहद अहम है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपने जवाब में तीन तलाक का बचाव किया है; जबकि केंद्र सरकार ने साफ शब्दों में इन प्रथाओं को समाप्त करने की आवश्यकता बताई है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि यह कानून शरीयत याने अल्लाह के कानून के अनुसार होने से इसमें परिवर्तन संभव नहीं है। यह कानून इस्लाम धर्म पर आधारित होने से इस कानून में सरकार को कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इस रवैये के कारण देश भर में यह सवाल उपस्थित किया जा रहा है कि क्या ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ या ‘शरीयत’ भारतीय संविधान से ऊपर है? मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कहता है कि सुप्रीम कोर्ट को मुस्लिम पर्सनल लॉ की समीक्षा करने का अधिकार ही नहीं है; क्योंकि यह कुरान की आयतों में बना ‘अल्लाह’ का कानून है। दरअसल यह ‘अल्लाह’ का बनाया कानून नहीं वरन ‘उलेमा’ का बनाया कानून है।

इस्लाम के नाम पर महिलाओं पर अन्याय

मुस्लिम पुरुषों ने ज्यादातर स्त्रियों के साथ अन्याय किया है। यह अन्याय उन्होंने इस्लाम के नाम पर किया है। उन्होंने स्त्री-पुरुष असमानता और दोनों में भेद को इस्लामिक रवैया बता कर इस्लाम की एक सीमित छवि तैयार की है। मुस्लिम महिलाओं ने इसका विरोध नहीं किया; क्योंकि वे इस्लाम के खिलाफ नहीं जाना चाहती थीं। लेकिन अब समय बदल रहा है और बुनियादी बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। दुनिया भर में स्त्रियों को लग रहा है कि भेदभाव और अन्याय भरा आचरण इस्लामी नहीं हो सकता। मुस्लिम महिलाएं अब न्याय और समानता के आधार पर पवित्र कुरान की व्याख्या और विवेचना कर रही हैं। वे पुरुषों की चाल समझने लगी हैं। इस्लाम के दायरे में रह कर ही पुरुषों को चुनौती दे रही हैं। वे कह रही हैं कि वे गलत व्याख्या को सहन नहीं करेंगी। उन्हें भी अल्लाह ने बनाया है और उन्हें अपने मजहब को समझने के लिए न ‘उलेमा’ जैसे बिचौलियों की आवश्यकता है और न ही स्वार्थी मर्दों की।

हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि किसी शौहर ने अपनी बीवी को तीन बार तलाक कह कर क्षण भर में अपनी जिंदगी से हमेशा के लिए अलग कर दिया। यही नहीं, आजकल तो पत्नी को एसएमएस या ईमेल के जरिए तलाक देने की घटनाएं भी हो रही हैं। एकतरफा और जुबानी तलाक का सिलसिला मुस्लिम समाज में सदियों से चला आ रहा है। इस्लाम और कुरान इसकी इजाजत नहीं देता है। कुरान में तलाक को न करने लायक काम का दर्जा दिया गया है और उसकी प्रक्रिया भी बहुत जटिल बनाई गई है। जहां तलाक देना अत्यंत जरुरी है वहां तलाक देने की एक विस्तृत प्रक्रिया अता की गई है। वहां भी परिवार में बातचीत, पति- पत्नी के बीच संवाद और सुलह पर जोर दिया गया है। कुरान में कहा गया है कि जहां तक संभव हो तलाक न दिया जाए और अगर तलाक देना अत्यंत आवश्यक हो तो कम से कम उसकी प्रक्रिया अन्यायकारक न हो। एकतरफा या सुलह के प्रयास के बिना दिए गए तलाक का कुरान में कोई जिक्र नहीं है।

इस्लाम के मुताबिक शादी एक सामाजिक करार है। यह करार दोनों पक्षों पर लागू होता है। तलाक स्त्री और पुरुष दोनों दे सकते हैं। तलाक के तीन महीने पूर्व तक पुन: अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना होता है तथा यह प्रयास करना होता है कि रिश्ता सामान्य हो सके। दोनों तरफ के लोगों को मध्यस्थता करनी चाहिए। तब भी बात न बने तो फिर तलाक लिया जा सकता है।

इस्लाम इसे एक सामाजिक करार मानता है, और दोनों पक्षों को समान दर्जा देता है, किंतु मौलवी इस करार में स्त्री और पुरुष दोनों को समान दर्जा नहीं देते। उलेमा स्त्रियों को सदियों से ही पुरुषों से कम दर्जे के मानते आ रहे हैं। भारतीय संविधान स्त्री-पुरुष दोनों को समान दर्जा देता है। मौलवी, उलेमाओं का बर्ताव भारतीय संविधान के विरुद्ध है, साथ में कुरान के भी विपरीत है। जब ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ कुरान में दिए गए नियमों के विरुद्ध बर्ताव कर रहा है तो यह सवाल पूछने की जरूरत है कि ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ की वैधता क्या है? तीन तलाक की न्याय प्रक्रिया के संदर्भ में बोर्ड की राय लेना क्यों जरूरी है?

चूंकि हम भारतीय नागरिक हैं इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह होनी चाहिए कि शुरू से अंत तक हमारी पहचान सिर्फ भारतीय नागरिक के रूप में ही हो। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक के आधार पर कानून नहीं बदलना चाहिए। एक स्वस्थ समाज और देश के लिए, एक ऐसे देश के लिए जो स्वयं को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानता हो, विश्व में उस लिहाज से आदर पाना चाहता हो, उस देश में समानता यह सबसे बड़ी राजनैतिक कसौटी होनी चाहिए। लेकिन आज़ादी के बाद से जिस तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की राजनीति हमारे देश की सरकारों ने अपनाई है, उससे स्वस्थ राष्ट्रीय नागरिकता पर ही निरंतर चोट होती रही है।

अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का दुष्परिणाम

मजहब आधारित अलगाववाद के फलस्वरूप देश का बंटवारा हुआ था। लेकिन अलगाववाद और खुद को राष्ट्र के संविधान से ऊपर बताने वाली जहरीली सोच अभी थमी नहीं है। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण में राजनीतिक दल अब भी लगे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत के अधिकांश मुसलमानों के आर्थिक हालात सुखद नहीं है। मजहब के कारण उत्पन्न सामाजिक और व्यक्तिगत बंधन निश्चित ही इसमें महत्वपूर्ण है। इस्लामी कौम पर मुल्ला-मौलवी-उलेमाओं की हुकूमत, सामाजिक सुधारों का अभाव, नारियों के अधिकारों का प्रश्न आदि अनेक कारण हैं; जो व्यापक सामाजिक बहस, राजनैतिक सक्रियता और कानूनी बदलाव से हमेशा से दूर रहे हैं। मुस्लिम समुदाय को हमेशा से एक वोट बैंक के रूप में देखने की प्रवृत्ति रही है। जिसके कारण ऐसे भी कुछ निर्णय लिए गए हैं जो भारतीय संविधान के हित में नहीं थे।

१९८६ में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर देश भर में मुस्लिमों में बवाल मचा। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम महिला को भी सामान्य कानून लागू है और इसके तहत उसे भरण-पोषण की राशि प्राप्त करने का अधिकार है। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार ने मुस्लिमों के तुष्टीकरण के लिए इस फैसले को संसद में एक विधेयक पारित करा कर रद्द करवा दिया। उस वक्त राजीव गांधी की सरकार के एक मंत्री आरिफ मोहम्मद ने सरकार के इस कदम का पुरजोर विरोध किया था। लेकिन उनकी आवाज दबा दी गई। कुछ कांग्रेसी दिग्गज नेता भी मानते हैं कि शाह बानो मामले में तत्कालीन सरकार का फैसला गलत था। स्वतंत्रता के ६९ वर्षों बाद भी इस समुदाय में कोई सुधार न होने की वजह से मुस्लिम महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर स्थिति में हैं। १९८५ में शाह बानो केस में सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम महिलाओं के पक्ष में फैसला दे चुका था। मुस्लिम समाज का एक प्रभावशाली हिस्सा अदालत के फैसले के पक्ष में खड़ा था। सारा देश इस फैसले को एक परिवर्तन की लहर के रूप में महसूस कर रहा था। इसके बावजूद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने कट्टरपंथी तत्वों के प्रभाव में आकर संसद में पास किए बिल के जरिए इस परिवर्तनशील फैसले को निष्प्रभावी बना दिया। यह मुस्लिम समाज की प्रगति को कांग्रेसी सरकार द्वारा रोके जाने का खतरनाक उदाहरण है। साथ ही मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन भी कांग्रेसी सरकार ने किया था।

अगर किसी मौलवी या मुसलमान पुरुष से पूछा जाए कि क्या आप मानते हैं कि, एकतरफा ‘तीन तलाक’ को मुस्लिम महिलाएं खुशी से कुबूल करें? इस प्रश्न पर अधिकतर मुस्लिम पुरुष कहते हैं कि, ‘अगर वह महिला एक सच्ची मुसलमान है तो वह जरूर खुशी से कुबूल करेगी।’ पुरुषों की इस तरह की मानसिकता किसी गंभीर मुद्दे पर होने वाली बहस को रोकने वाली प्रतीत होती है।

मौलवी या स्वार्थी पुरुषों के अनुसार अगर उपरोक्त वर्णन सच्ची मुसलमान महिला होने की कसौटी है, तो यह कुरान के खिलाफ है। कुरान में स्त्री गौण नहीं है। ऐसी कई आयतें हैं जो स्त्रियों का अव्वल दर्जा देती हैं। ‘तलाक, तलाक, तलाक’ ये शब्द कहता पुरुष है और भुगतती महिला है। इसके बाद महिला को न्याय पाने में अक्सर कई साल लग जाते है। इस्लाम चार शादियों की इजाजत देता है। पुरूष शादी करके आराम से रहता है और तलाक चाहने वाली महिला अकेली न्यायिक प्रक्रिया के लिए चक्कर काटती रह जाती है। लंबी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया में पुरुष महिला को बदनाम कर देता है। उसके भविष्य में जीवन जीने के रास्ते बंद कर देता है। वैसे भी तलाकशुदा होना इस देश में अपने आप में एक अभिशाप समझा जाता है।

इसे व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए

यह बहुत व्यापक लड़ाई है। समाज में जारी पुरुषों के वर्चस्व का प्रतिवाद करना होगा, उसे रोकना होगा। तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी लोग एवं स्वार्थी राजनीतिक पार्टियां अपने आपको मुसलमानों का रहनुमा दिखाने की होड़ में मुसलमान समाज के दूरगामी भविष्य से खिलवाड़ करने में हिचकते नहीं हैं। ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’  को अपना अड़ियल रवैया त्याग कर मुस्लिम कानून को भारतीय संविधान के अनुकूल बनाने की दिशा में कदम उठाना चाहिए। समान नागरी कानून सभी मुसलमानों पर समान रूप से लागू होना आवश्यक है। एक पैंगबर और एक किताब(कुरान) पर यकीन करने वाले मुसलमान आखिर सबके लिए एक कानून पर राजी क्यों नहीं होते? महिलाओं की प्रतिष्ठा और अधिकारों के हित में भी कानून होने आवश्यक हैं। समता एवं सामाजिक न्याय का कानून प्रस्थापित होना जरूरी है। आज महिलाओं से जुड़े सभी कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए, जो भारत की सभी महिलाओं के हित में होगा।

अब समय बदल रहा है। महिला समानता की लड़ाइयां महिलाएं खुद स्वयं प्रेरणा से लड़ रही हैं। धार्मिक स्थलों पर पुरुषों के बंधनों को आज महिलाएं चुनौती दे रही हैं, मुस्लिम महिलाएं अपने हितों के लिए आगे आ रही हैं। ‘मुस्लिम महिलाएं गौण हैं और पुरुष सर्वोपरि है’, इस धारणा को तोड़ने का प्रयास वे कर रही हैं। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के विचारों को मुस्लिम महिलाओं द्वारा न्यायालय में चुनौती देना पुरुष- वर्चस्व में दबी मुस्लिम महिलाओं की बहुत बड़ी जीत है। मौलवी सोचते हैं कि तीन तलाक मुसलमानों का सांस्कृतिक और सामाजिक मामला है। सुप्रीम कोर्ट को इससे दूर रहना चाहिए। किसी भी समाज में होने वाले अन्याय पर सुप्रीम कोर्ट नहीं तो और कौन बोलेगा? अब यह सोचना मुस्लिम महिलाओं के जिम्मे है कि वह अपने पारिवारिक जीवन को कैसे सुधारें? विश्वभर में अब बदलाव आ रहा है। मुस्लिम औरतें खुद कुरान पढ़ कर कुरान को समझ रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ये मौलवी-इमाम गैर इस्लामिक काम कर रहे हैं और मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है। ऐसे में बदलाव की उम्मीद देश किससे करें? मुल्ला-मौलवियों से, स्वार्थी पुरुषों से या खुद तकलीफ झेल रही मुस्लिम औरतों से?

मो.: ९८६९२०६१०६

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