नोटबंदी और उत्तरप्रदेश चुनाव

उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधान सभा चुनावों से पहले केन्द्र सरकार द्वारा की गई नोटबंदी को लेकर सियासत भी शुरू हो गई है और कई राजनीतिक दल इसे चुनावी फायदे के लिए उठाया गया कदम बताने में जुट गए हैं। हालांकि प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी इसे देशहित में फैसला बता कर किसी भी तरह का राजनीतिक रंग नहीं देने की बात कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में यह मुद्दा हावी जरूर रहेगा और इसे लेकर हर दल अपनी तैयारी में अब फिर से जुट गए हैं।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष डॉ. रीता बहुगुणा जोशी ने कांग्रेस तथा विधान सभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। रीता बहुगुणा जोशी अतीत में कांग्रेस की टिकिट पर लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुकी हैं परंतु उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली लेकिन २०१२ में संपन्न उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में उन्हें जीत का स्वाद चखने का अवसर हाथ लगा था। अब जबकि उत्तर प्रदेश विधान सभा का कार्यकाल समाप्त होने में मात्र चार माह शेष रह गए हैं तब रीता बहुगुणा जोशी ने अगर भाजपा में शामिल होने का फैसला किया है तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि उन्हें राज्य विधान सभा के आगामी चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में अपनी जीत की संभावनाओं पर ग्रहण लगाने की आशंकाएं सताने लगी थीं। इसीलिए उन्होंने उस पार्टी में शामिल होने का फैसला किया जिसकी उत्तर प्रदेश विधान सभा के आगामी चुनावों में सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की संभावनाएं सर्वाधिक बलवती प्रतीत हो रही हैं।

गौरतलब है कि पिछले दिनों एक न्यूज चैनल द्वारा कराए गए चुनाव सर्वेक्षण के नतीजों में भी यही संकेत मिले हैं कि रीता बहुगुणा जोशी कभी जिस कांग्रेस पार्टी की प्रदेशाध्यक्ष थीं उसे राज्य विधान सभा की ४०५ सीटों में से मात्र ८-१० सीटों पर जीत का स्वाद चखने का मौका मिल सकेगा और भारतीय जनता पार्टी इन चुनावों में सर्वाधिक सीटों पर विजय हासिल कर सत्ता पर काबिज होने का सौभाग्य अर्जित कर लेगी।

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में वर्चस्व की बागड़ोर अपने हाथों में कस कर थामे रखने वाले पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के परिवार में ही अब वर्चस्व की लड़ाई ने जो रूप घारण कर लिया है उससे तो पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता दिखाई देने लगा है। पार्टी की कमान हमेशा अपने हाथों में रखने वाले वयोवृद्ध सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव आए दिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की बैठक बुला कर उन्हें पहले समझाईश देते हैं, फिर डांटते हैं और कभी-कभी निष्कासन की कार्रवाई का सहारा भी लेते हैं; परन्तु कोई उनकी बात सुनने या मानने के लिए तैयार नहीं हैं। राजनीति के कुशल खिलाड़ी की छवि रखने वाले मुलायम सिंह यादव अब अपनी हर चाल में असफल सिद्ध हो रहे हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अपने सगे भाई शिवपाल यादव और अपने मुख्यमंत्री बेटे अखिलेश यादव के बीच सुलह कैसे कराएं। मुलायम सिंह यादव अपने मुख्यमंत्री बेटे से इतने खफा हैं कि उन्होंने अखिलेश यादव के प्रति हमदर्दी जताने वाले अपने चचेरे भाई रामगोपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उन्होंने अपने भाई शिवपाल यादव को प्रदेश सपाध्यक्ष पद की कुर्सी सौंप दी और जिस ‘बाहरी व्यक्ति’ को अखिलेश यादव अपने परिवार में कलह के लिए जिम्मेदार मानते थे उसी ‘बाहरी व्यक्ति’ को उन्होंने पार्टी के महासचिव के पद से नवाज दिया। अब यह बात आम हो चुकी हे कि वह ‘बाहरी व्यक्ति’ अमर सिंह हैं जो अपने मुंहबोले भतीजे अखिलेश को राजनीति में अभी भी बच्चा समझते हैं। अखिलेश यादव आज भी यह मानते हैं कि अमर सिंह उन्हें कमजोर करने की साजिश में लगे हुए हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव अपने बेटे के मुंह से अपने मुंहबोले भाई अमर सिंह के विरूद्ध एक शब्द भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने अपने बेटे से साफ कह दिया है कि अमर सिंह ने अतीत में उन्हें जेल जाने से बचाया है इसलिए वे अमर सिंह का पक्ष लेते रहेंगे। अखिलेश यादव को ऐसा लगता है कि पहले तो उनके अपने चाचा शिवपाल यादव ही उनका कद घटाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब अमर सिंह का साथ भी उन्हें मिल गया है।

राज्य में २०१२ में सपा सरकार गठित होने के बाद से ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उस सरकार के मुख्यमंत्री पद की बागडोर थामे हुए हैं। २०१२ में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने पिता मुलायम सिंह यादव की मर्जी से ही मिली थी; परंतु लगभग पौने पांच सालों के कार्यकाल के बाद अखिलेश यादव अब यह चाहते हैं कि राज्य में सपा का लोकप्रिय चेहरा उन्हें ही माना जाए। उनका यह भी मानना है कि इस अवधि में वे अपने अकेले दम पर पार्टी को आगामी विधान सभा चुनावों में भी बहुमत दिलाने की क्षमता अर्जित कर चुके हैं।

समाजवादी पार्टी और उसकी बागड़ोर हमेशा अपने हाथ में रखने वाले मुलायम सिंह यादव के परिवार में इस समय जो कलह मची हुई है उसकी परिणिति कब और किस तरह होगी यह कोई नहीं जानता। अखिलेश यादव ने अपनी ताकत दिखाने के लिए मुख्यमंत्री के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने चाचा शिवपाल यादव सहित चार मंत्रियों को अपनी सरकार से बर्खास्त किया तो मुलायम सिंह ने सपा सुप्रीमो की हैसियत से अखिलेश के समर्थक अपने चचेरे भाई राम गोपाल यादव को पार्टी से ही निकाल दिया। इस पर राम गोपाल यादव ने कहा है कि मैं सपा में रहूं या नहीं परंतु इस धर्मयुद्ध में हमेशा अखिलेश का ही साथ दूंगा। शिवपाल यादव ने तो पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष के रूप में अपनी ताकत दिखाने के लिए अखिलेश यादव के अनेक समर्थकों को पहले ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

उत्तर प्रदेश की सपा सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने कार्यकाल में प्रारंभ की गई विकास योजनाओं की दुहाई देकर पुन: सपा के सत्तारूढ़ होने के प्रति आशान्वित जरूर हैं, परंतु इस हकीकत से वे अनभिज्ञ हैं कि उनके कार्यकाल में ही राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होती चली गई है और इसके लिए अगले विधान सभा चुनावों में सपा को जनता का कोपभाजन बनना ही पड़ेगा। यह बात सही है कि अखिलेश यादव की युवा वर्ग में लोकप्रियता अभी भी बरकरार है; परंतु सपा सरकार के प्रति उत्तर प्रदेश में भारी आक्रोश है। समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनावों में जिस मुस्लिम-यादव गठजोड़ के टूटने की आशंका ने भी सपा सुप्रीमो को गहरी चिंता में डाल रखा है। शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल के सपा में विलीनीकरण की जो योजना बनाई थी उसके पीछे उनकी यही मंशा थी कि इससे उत्तर पदेश के पूर्व क्षेत्र की लगभग पचास सीटों पर कौमी एकता दल के प्रभाव का सपा को लाभ मिलेगा; परंतु अखिलेश यादव के सख्त विरोध के कारण वह योजना खटाई में पड़ चुकी है। मुलायम सिंह यादव ने बिहार में महाजनता परिवार में सपा को शामिल करने से जब इनकार कर दिया था तब उन्हें यह कल्पना नहीं रही होगी कि आगे चल कर उनके अपने ही परिवार की कलह उन्हें फिर से महाजनता परिवार के घटक दलों से गठजोड़ की संभावनाएं तलाशने के लिए विवश कर देगी।

 

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