नोटबंदी का एक्स-रे

ओशो और नोटबंदी की बात करना बड़ा अटपटा लगेगा। लेकिन ओशो के चिंतन की गहराई में उतरे तो इसमें सिद्धांत पकड़ में आ जाएगा। ओशो ने कहा है, जब बदलाव या नवनिर्माण होता है तब सब कुछ उल्टा-पुल्टा हुआ लगता है। अराजकता का माहौल बन जाता है। पुरानी इमारत ध्वस्त हो जाती है, नई का अतापता नहीं होता। सब ओर निराशा, अंधःकार, नकारात्मकता का माहौल दिखाई देता है। वैसे भी एक पल में कुछ भी नहीं बदलता, उसकी लम्बी पृष्ठभूमि होती है। यह सब उथल-पुथल तात्कालिक होती है। लेकिन दीर्घावधि में बदलाव की कोख में नवसृजन, नई व्यवस्था, नई आशा का जन्म होता है। ओशो का यह कथन अध्यात्म के संदर्भ में है। जो कुछ लिखा है उसमें विचार ओशो के हैं, शब्द मेरे हैं। इस विचार को जरा नोटबंदी से जोड़ कर देखें तो लगता है, अरे हां- यही तो स्थिति बन गई थी।
नोटबंदी तो अर्थव्यवस्था की सफाई का एक मिशन है, अभियान है, आंदोलन है। यह बात मैं केवल सरकार की ‘जी हुजूरी’ करने के लिए नहीं लिख रहा हूं, देशभर की जनता के हृदय के स्पंदन को स्वर दे रहा हूं। लोगों ने पहली बार अनुभव किया कि केंद्र में कोई सरकार होती है, प्रधान मंत्री सक्रिय होता है, वह हिम्मत दिखा सकता है, जनता भी भागीदार बनती है और परेशानियां झेल लेती हैं। यह कोई साधारण बात नहीं है।
राजनीतिक पैंतरेबाजी
८ नवम्बर को नोटबंदी के बाद हुई
बहुत सारी घटनाओं को आम लोगों ने पैनी नजर से देखा है, अनुभव किया है; क्योंकि वे स्वयं भुक्तभोगी थे। फिर भी, वे किसी राजनीतिक झांसे में नहीं फंसे। राजनीतिक दल दो खेमों में बंट गए थे। भाजपा एवं एनडीए के घटक दल एक तरफ और दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ ममता बैनर्जी, मायावती, अरविंद केजरीवाल, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, राकांपा, सपा और वामपंथी हो गए। नोटबंदी के बहाने यह परम्परागत विभाजन हो गया। एनडीए के घटक दलों में भी शुरु-शुरू में हिचक थी, संभ्रम था। लेकिन बाद में निर्णय का स्वागत कर उन्होंने व्यवस्था का प्रश्न उठाया। विपक्षी खेमे में भी एका नहीं रहा। आरंभ में २८ नवम्बर को ‘भारत बंद’ का आवाहन किया।

लेकिन बाद में एक-एक कर बिखर गए। ममता दीदी नेतृत्व की जुगाड़ में दिल्ली तक आ पहुंची, लेकिन साथियों ने उन्हें कह दिया, ‘ना चालबे। ’ बस फिर क्या था ‘भारत बंद’ का नारा पिछड़ गया और इज्जत बचाने के लिए ‘आक्रोश दिवस’ मनाया गया। बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में मोर्चे निकले, रैलियां हुईं। केरल में कुछ ज्यादा असर था। शेष देश शांत था। इस खेमे ने भांप लिया था कि जनता साथ नहीं देगी; अतः उन्होंने राजनीतिक जुमलेबाजी कर इसे ‘आक्रोश दिवस’ कह दिया। इतने विशाल देश में आक्रोश प्रकट करने के लिए कितने गिनेचुने लोग आए थे, इसीसे इसके दयनीय हश्र और नोटबंदी को जनसमर्थन का पता चलता है।
विपक्षी दल एक और बाजी हार गए। विभिन्न राज्यों में इसी दौरान १९ नवम्बर को ७ राज्यों में हुए लोकसभा और विधान सभा की कुल १४ सीटों के उपचुनावों में भी भाजपा को सर्वाधिक सीटें मिलीं। असम की दोनों लोकसभा सीटें व म.प्र. की एक सीट उसने बरकरार रखीं। विधान सभा उपचुनावों में भी उसने बाजी मारी। उपचुनावों में अमुमन सत्तारूढ़ दल विजयी नहीं होता, लेकिन नोटबंदी के निर्णय के बावजूद जनता ने भाजपा को जिताया। इसी दौरान महाराष्ट्र में नगर पालिकाओं के पहले दौर के चुनाव हुए। कुल ३७०६ सीटों में भाजपा को ८९३, शिवसेना को ५२९, कांग्रेस को ७२७, राकांपा को ६१५ और अन्य को ८४२ सीटें मिलीं। भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने इसमें बाजी मार ली। इसमें भी भाजपा ने सर्वाधिक सीटें जीतीं। दूसरे दौर के स्थानीय निकाय चुनाव १४ दिसम्बर को हुए और उसमें भी ३३५ सीटों में से भाजपा को ८९ सीटें मिलीं, जबकि पूर्व में उसके पास केवल १७ सीटें थीं। उसकी सहयोगी शिवसेना २५ सीटों पर विजयी रही, जबकि पूर्व में उसके पास १९ सीटें थीं। उसने साफ है कि नोटबंदी पर जनमत सरकार के अनुकूल था। ये उपचुनाव और नगर निकाय चुनाव इसके साक्ष्य हैं। जनता की राय का इससे और ठोस सबूत क्या हो सकता है?
संसद में भी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का होहल्ला जारी रहा और शीत सत्र हंगामे की बलि चढ़ गया। कोई कामकाज नहीं हो सका। संसद में लगाए गए आरोपों से सदस्यों को सुरक्षा मिलती है और कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती। अतः विपक्ष ने तरह-तरह के आरोप मढ़ना शुरू किया। पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने अपना मौन तोड़ कर नोटबंदी को सब से बड़ा घोटाला करार दिया। राहुल गांधी ने तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के बचकाने आरोप तक लगा दिए; लेकिन कोई प्रमाण दे नहीं दे पाए; क्योंकि इसका कोई आधार था ही नहीं। केवल आरोप कर होहल्ला मचाना ही इसका एकमात्र उद्देश्य था। चूंकि लोकसभा अध्यक्ष विपक्ष के हर बड़े नेता को बोलने का अवसर दे चुकी थीं तथा मायावती से लेकर माकपा के सीताराम येचुरी और तृणमूल व सपा के नेता तक सभी उस पर बोल चुके थे, अतः पुनः राहुलजी को मौका देने का अर्थ ही नहीं बचा था। जनता के दरबार में वैसे भी वे खड़े रह नहीं पाएंगे, यह सभी जानते हैं।
नोटबंदी को लेकर कांग्रेस नेता संभ्रम में दिखाई देते हैं। मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, राहुल गांधी ने घोटाले वाले स्वर उठाए; लेकिन पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने नोटबंदी का स्वागत किया, परंतु इसके परिणामों को लेकर संदेह व्यक्त किया। अन्य विपक्षी दल भी भ्रष्टाचार और काले धन को रोकने के नाम पर हुई नोटबंदी का खुल कर विरोध नहीं कर पाए और जनता को होने वाली दिक्कतों पर ही जोर देते रहे। जनता का दबाव इतना था कि उन्हें निर्णय का विरोध कम और उससे हुए तात्कालिक प्रभावों तक ही अपने को सीमित रखना पड़ा। किसी बड़े बदलाव से आरंभिक दिक्कतें तो होती हैं। इसे सरकार और जनता भी जानती है। जनता इसे सहने के लिए तैयार भी होती है। देश भर में बैंकों के सामने लगी कतारों के बावजूद कोई अवांछित घटना न होना इसका सबूत है।
आर्थिक पहलू
नोटबंदी के आर्थिक लक्ष्य पर गौर करें तो राजनीतिक होहल्ला बेमानी हो जाता है। नोटबंदी के निम्न लक्ष्य तय किए गए हैं-

१. काले धन को बाहर निकालना और अर्थव्यवस्था को स्वच्छ करना
२. भ्रष्टाचार को रोकना
३. जाली नोटों पर अंकुश लगाना
४. आतंकवादी एवं बगावती कार्रवाइयों को धन के प्रवाह को रोकना
५. नकदीरहित अर्थव्यवस्था को बढ़ाना, ई-भुगतान को प्रोत्साहन देना
६. कर-व्यवस्था को तर्कसंगत बनाना
इस निर्णय का आलोचकों ने स्वागत तो किया लेकिन निम्न समस्याओं को उजागर किया-
१. जनता को भारी असुविधा का सामना करना पड़ रहा है
२. दिहाड़ी मजदूरों एवं असंगठित छोटे व्यवसायों पर बुरा असर पड़ेगा
३. इसे मोहलत देकर धीरे-धीरे किया जाना चाहिए था
४. इससे काला धन बाहर नहीं आएगा, न भ्रष्टाचार रुकेगा

आइए, इन मुद्दों की तथ्यों के आधार पर बारी-बारी विवेचना करते हैं। काले धन को रोकना एवं अर्थव्यवस्था को स्वच्छ करने की जेहमत पिछले ७० साल में किसी सरकार ने नहीं उठाई। इन वर्षों में अधिकतम समय कांग्रेस की ही सरकार रही। अतः उन्हें अब इस पर कोई सवाल उठाने का नैतिक अधिकार ही नहीं बनता। अनुमान है कि देश में काले धन की मात्रा सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी के २३ से २६ प्रतिशत है। यह काला धन बड़े नोटों के अलावा सोना-चांदी, भूमि, भवन, शेयर एवं अन्य सम्पदाओं के रूप में है। देश में वर्तमान में १५ लाख करोड़ की बड़ी मुद्रा प्रचलन में है। नोटबंदी के बाद से बैंकों में कोई साढ़े बारह लाख करोड़ रु. जमा हो चुके हैं। इसका दूसरा अर्थ यह है कि कोई २ से २.५ लाख करोड़ रु. का काला धन प्रचलन से बाहर रह गया है, जो कुल मुद्रा प्रचलन के १८ से २० फीसदी है। काले धन का मतलब है करवंचना कर छिपा कर रखी गई तथा भ्रष्टाचार या हवाला के जरिए प्राप्त रकम। इससे काले धन की समांतर अर्थव्यवस्था कायम हो गई थी, जो वास्तविक अर्थव्यवस्था को कालांतर में तबाह कर देती। इसलिए उसे रोकना जनहित में ही है।

भ्रष्टाचार को रोकना सब से अहम मुद्दा है। देश का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहां जायज काम के बदले भी पैसे न देने पड़ते हो। यह पैसा चेक से नहीं दिया जाता, न किसी खाते में दिखाया जाता है। कभी-कभी नकद धन देने के बजाय अन्य सम्पत्ति खरीद कर पाने वालों को दी जाती है। वह भी रोकड़ से ही खरीदी जाती है। सत्ता से जुड़े लोग दलालों के जरिए यह पाते हैं। मिसाल ही देनी हो तो राहुलजी के बहनोई वाड्रा की हरियाणा के गुड़गांव में जमीन खरीदी का घोटाला या महाराष्ट्र में प्रस्तावित मुंबई-नागपुर समृद्धि मार्ग से लगी भूमि की पूर्व आईएएस अधिकारियों या नेताओं द्वारा खरीदारी। केंद्रीय स्तर पर हथियारों की खरीदारी में दलाली आदि। मोदी सरकार ने धीरे-धीरे इस पर अंकुश लगाना शुरू किया। दिल्ली में पहले विदेशी दलालों से पंचसितारा होटल अटे रहते थे, लेकिन अब वहां कोई नहीं फटकता। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में इसकी अक्सर मिसाल दी जाती है।

जाली नोटों पर अंकुश लगाना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बेहद अहम है। सब जानते हैं कि पाकिस्तान विभिन्न रास्तों से भारतीय नोट छाप कर भारत में पहुंचाता है। इसके दो उद्देश हैं- एक तो जाली नोटों से भारत की अर्थव्यवस्था को तोड़ देना और दूसरा है आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन का इंतजाम करना। इसे रोकने के अन्य उपायों के साथ नोटबंदी करते ही कश्मीर में आतंकवादी हलचलों में अचानक कमी आ गई; क्योंकि आतंकवादियों को धन का टोटा पड़ गया। इसी तरह देश के अंदर चल रही नक्सली एवं अन्य विद्रोही गतिविधियां भी फिलहाल ठप पड़ गईं। काला धन रुकने एवं जाली नोटों की आवाजाही बंद होने से ये गुट आर्थिक संकट में फंस गए हैं। इसके अलावा कई तथाकथित स्वैच्छिक संगठनों को विदेशों से आने वाले धन का प्रवाह भी ठप पड़ गया। कई संदेहास्पद संगठनों के विदेशी धन पाने के लाइसेंस रद्द कर दिए गए। ग्रीन पीस, इस्लामिक रिसर्च संगठन, तीस्ता सेतलवाड के संगठन आदि इसके कई उदाहरण हैं। इससे उनकी बौखलाहट उजागर भी हो रही है। उनके राजनीतिक गुर्गे हल्ला मचाने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। यह विषय इतना व्यापक है कि इस पर बहुत विस्तार से लिखा जा सकता है, लेकिन लेख की सीमा के कारण इसे यहीं विराम देते हैं।

नोटबंदी या इसी तरह के उपायों का मुख्य लक्ष्य रोकड़ रहित कारोबार को बढ़ावा देना है। देश में इस समय ८५ प्रतिशत के लगभग व्यवहार नकदी में होते हैं। देश की कुल स्थिति पर गौर करें तो ग्रामीण एवं दूरदराज के इलाकों तक नकदीरहित कारोबार को पहुंचाना एक विशाल काम है। माना कि हमारी परंपरागत व्यवस्था नकदी व्यवहारों की रही है, इसलिए उसे आनन-फानन में नकदीरहित या कैशलेस बनाना संभव नहीं है। लेकिन, इसकी शुरुआत तो अवश्य की जा सकती है और धीरे-धीरे उस स्थिति के करीब पहुंचा जा सकता है। मिसाल के तौर पर मोबाइल या टीवी को कौन कहता था कि वह जीवन का अनिवार्य अंग बन जाएगा? लेकिन वैसा हुआ है। मजदूर से लेकर बच्चों तक सब के हाथ में अब मोबाइल आ गए हैं और टीवी भी दूरदराज तक पहुंच गया है। आज से बीस-पच्चीस साल पहले कंप्यूटर को देश में लाने का कितना विरोध हुआ था, लेकिन आज वह विरोध खत्म हो गया है और हर कोई कंप्यूटर चाहता है। नई पीढ़ी ने उसे आत्मसाथ कर लिया है। वही बात रोकड़रहित व्यवहारों को भी लागू हो सकती है। यह सही है कि कोई नई या क्रांतिकारी बात जल्दी गले नहीं उतरती। हमारे संस्कारों में गतानुगतिका बहुत गहरी है। याने जो जारी है उससे हटने के लिए हम जल्दी तैयार नहीं होते। लेकिन, समय के साथ आखिर सब को बदलना ही होता है। नकदीरहित व्यवहारों या ई-भुगतान को लेकर भी यही स्थिति है। बस, समय का इंतजार करना होगा। नीति आयोग ने उस दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। ई-भुगतान से आपका हर व्यवहार दर्ज होगा और काले धन व भ्रष्टाचार पर बहुत बड़े पैमाने पर अंकुश लगेगा। बदमाशी बहुत नहीं चलेगी, पकड़े जा सकते हैं। सही आदमी को कोई दिक्कत नहीं होगी। मोबाइल में ही आपका मनीपर्स मौजूद होगा।

इससे करचोरी को रोका जा सकेगा और फलस्वरूप सरकारी राजस्व में वृद्धि होगी। यह राजस्व अंत में जनता की विकास योजनाओं में ही काम आएगा। वर्तमान में देश में कार्पोरेट कर ३५% है, व्यक्तिगत आय कर ढाई लाख के बाद १०% से लेकर ३०% तक है। इस तरह जैसे-जैसे आय बढ़ती है वैसे-वैसे कर की दर बढ़ जाती है। स्रोत पर कर कटौती १०% चल ही रही है। इस तरह देश में करों की दरें कुछ ऊंची मालूम पड़ती है और फलस्वरूप करचोरी की घटनाएं भी बहुत होती हैं। रोकड़रहित व्यवहार हो तो सब कुछ सफेद में होगा और करों की दरें भी तर्कसंगत हो सकती हैं या घट सकती हैं। इससे कुल राजस्व में कोई कमी नहीं आएगी, बल्कि इजाफा ही होगा। करों की दरें यदि आसान हो गईं तो करचोरी की घटनाएं भी कम होंगी और लोग खुशी से कर चुका कर चैन की सांस लेना चाहेंगे। जहां करों की दरें अधिक होती हैं, वहां करचोरी भी अधिक होती है, यह अर्थशास्त्र का सिद्धांत ही है। अर्थव्यवस्था की सफाई इस दिशा में बहुत माने रखती है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली कर प्रावधानों को तर्कसंगत बनाने का संकेत दे भी चुके हैं।

केवल निर्णय कर देने से कुछ नहीं होता, उस पर कड़ाई से अमल भी करना होता है। नोटबंदी के पहले सरकार काले धन वालों को स्वयंघोषणा कर टैक्स चुकाने का अवसर दे चुकी है। नोटबंदी के बाद भी आम जनता को पुरानी मुद्रा के नई मुद्रा में विनिमय का अवसर दिया जा चुका है। बैंकों में पुराने नोट जमा करने की अवधि भी ३१ दिसम्बर तक थी। जाहिर है कि नोट जमा करने वालों को उसका स्रोत भी बाद में बताना पड़ेगा, इसलिए कुछ पुरानी मुद्रा बैंकों में आएगी ही नहीं और स्वयंमेव रद्द हो जाएगी। इसमें कुछ तिकड़म करने वालों ने गरीबों के जनधन खातों का दुरुपयोग किया। ऐसे सभी लोगों के खिलाफ अब कड़ी कार्रवाई की जा रही है। देश भर में जगह-जगह छापे मार कर करोड़ों रु. के नए-पुराने नोट बरामद किए जा रहे हैं। सरकार की सभी एजेंसियां इस काम में जुटी हुई हैं। यह कार्रवाई आगे भी निरंतर जारी रहेगी।

इस निर्णय का विरोध करने वालों की मुख्य शिकायत यह है कि इससे जनता को भारी असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है। ग्रामीण व दूरदराज के इलाकों में स्थिति खराब है, लोग हैरान हैं। इस शिकायत में तथ्य अवश्य है, लेकिन ये आरंभिक स्थितियां हैं। इसे अंग्रेजी में ‘टीथिंग प्राब्लम’ कहते हैं। शिशु को दांत उभरने लगते हैं तो उसे कई परेशानियां भुगतनी होती हैं। लेकिन दांत आते ही यह सब ठीकठाक हो जाता है और उन दांतों का वह जिंदगी भर उपयोग करता है। नोटबंदी से उत्पन्न स्थिति कुछ इसी प्रकार की है। कुछेक विश्लेषकों ने आंकड़ें देकर कहा है कि आवश्यक नए नोट छापने में ही अप्रैल आ जाएगा। बात सही भी हो सकती है, लेकिन यह भी ‘टीथिंग प्राब्लम’ ही तो है। उसके बाद मुद्रा की कमी नहीं रहेगी और इस बीच ई-भुगतान के जोर पकड़ते ही नकदी की आवश्यकता भी कम हो जाएगी।

दिहाड़ी मजदूरों एवं छोटे व्यवसायों पर असर होगा। माना कि शुरुआती दौर में ऐसा होगा, क्योंकि वे रोज कमाते और खाते हैं। यह भी तात्कालिक समस्या है, जो नकदी की आपूर्ति बढ़ते ही अपने-आप खत्म हो जाएगी। यहीं क्यों, काम पर रखने वाला भी उनके मोबाइल पर रकम हस्तांतरित कर सकेगा। हर बैंकों के एप्प एवं पेटीएम जैसे वैलेट अब उपलब्ध हो गए हैं। आपके इलाके में बैंक न भी हो तो भी आप परचून वाले को पेटीएम जैसे एप्स से पैसे चुकता कर सकेंगे। रही छोटे व्यवसायियों की बात तो वे तुरंत नई स्थिति के साथ अपने को समायोजित करने लगेंगे। शुरुआती दौर में अफरातफरी महसूस हो सकती है, लेकिन कुछ समय बाद ई-भुगतान ही लोगों को अच्छा व सुविधाजनक लगेगा।

एक शिकायत यह भी है कि कुछ मोहलत देनी चाहिए थी। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ याने लक्ष्यभेदी हमले जैसा आपात कदम नहीं उठाना चाहिए था। यह एक तरह से वित्तीय आपात स्थिति जैसा है। मोहलत वाली बात तो महज मूर्खता है। नोटबंदी हमेशा फौरी तौर पर अच्छी मानी जाती है; क्योंकि तब भ्रष्टाचारियों या काले धन वालों को अपना धन सफेद करने का मौका नहीं मिलता। जो वित्तीय आपात स्थिति की बात करते हैं, वे अर्थव्यवस्था में काले धन एवं भ्रष्टाचार तथा करचोरी के प्रति आंखें मूंदे हुए हैं। अर्थव्यवस्था पर संकट तो था ही, क्या उसके पूरी तरह हावी होने का इंतजार करना चाहिए था? समय रहते सुधारात्मक कदम उठाना क्या गलत है?

इससे काला धन बाहर न आने एवं भ्रष्टाचार के खत्म न होने का तर्क दिया जा रहा है। सारा काला धन बाहर नहीं आएगा, यह सरकार भी मानती है; लेकिन जो नहीं आएगा वह रद्दी कागज के टुकड़े होगा। रद्दीवाला भी उसे नहीं खरीदेगा। ऐसा धन जो छिपा रह गया, उतनी राशि के नए नोट छाप कर प्रचलन में लाए जा सकते हैं। इससे मुद्रा प्रसार अपनी पूर्व सीमा में ही रहेगा। नोटबंदी एक तरह से मुद्रा संकुचन है। लोगों के हाथ से रकम लेकर उनके ही नाम पर यथावत रखने की शल्यक्रिया है। इससे महंगाई पर अंकुश रहेगा, नए रोजगारों का सृजन होगा। देश को आज इसीकी आवश्यकता है।

भारत के देखादेखी लैटिन अमेरिकी राष्ट्र वेनेन्जुएला ने भी अपने १०० बोलिवर (मुद्रा) के नोटों का विमुद्रीकरण कर दिया। १०० बोलिवर का अमेरिकी डॉलर में मूल्य केवल २ सेंट होता है, इससे वहां की भयावह स्थिति का पता चलता है। उनकी मुद्रा का कोई मूल्य ही नहीं बचा था। भारी मात्रा में मुद्रा प्रचलन में होने तथा महंगाई बढ़ने से बोलिवर का मूल्य लगभग खत्म हो गया। वेनेन्जुएला खनिज तेल उत्पादक देश है। खनिज तेल की कीमत में भारी गिरावट आने से वेनन्जुएला की अर्थव्यवस्था ही ढह गई। वेनेन्जुएला का तेल प्रति बैरल केवल १२ डॉलर पर पहुंच गया, फिर भी लेवाल नहीं थे। मुद्रा का प्रसार इतना बढ़ गया कि मुट्ठीभर नोटों में भी एक किलो सब्जी नहीं आती थी। राष्ट्रपति निकोलस मदुरो ने लोगों को नोट बदलने के लिए केवल १० दिन का समय दिया। पूरे देश में हड़कम्प मच गया और बैंकों के सामने लोगों की कतारें लग गईं। कुछ अपने यहां जैसी ही वहां स्थिति थी। राष्ट्रपति का कहना था कि काले धन वालों, भ्रष्टाचारियों एवं माफिया से निजात पाने और अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के लिए इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। क्या भारत को भी ऐसी भयावह स्थिति का इंतजार करना चाहिए था?

भारत में नोटबंदी पर कई एशियाई एवं अन्य देशों की नजर है। वे भारत के अनुभव को जानने के बाद ही अपने यहां कदम उठाना चाहते हैं। आस्ट्रेलिया से खबर आई है कि वह भी अपने १०० डॉलर के नोट रद्द करने को उत्सुक है। आस्ट्रेलिया के राजस्व एवं वित्तीय सेवा मंत्री केली ओडायर ने एबीसी रेडियो से एक साक्षात्कार में यह बात उजागर की। उन्होंने कहा, ‘‘काले धन को खत्म करने का एकमात्र मार्ग यह है कि काले धन के संभावित रास्तों को ही बंद कर दिया जाए। सरकार करचोरी करने वालों एवं काले धन वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने जा रही है। ’’

इस सारे कच्चे-चिट्ठे का सार यह है कि काला धन, भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी तरह के किसी ठोस ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की जरूरत थी; ताकि अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरे और खुशहाली का मार्ग प्रशस्त हो। इसके लिए बेहद साहस की जरूरत थी, जो मोदी सरकार ने जुटाई। वैसे भी मोदीजी साहसिक कदमों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनका एकमात्र लक्ष्य राष्ट्र होता है। इसके पूर्व बर्मा की सीमा पर विद्रोहियों के खिलाफ उन्होंने पहला ‘सर्जिकलज स्ट्राइक’ किया था। दूसरा ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पाक अधिकृत कश्मीर में घुस कर आतंकवादियों के शिविर ध्वस्त करना था। पहले दो ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ तो फौजी किस्म के थे, तीसरा ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है नोटबंदी जो अर्थव्यवस्था से ताल्लुक रखता है। इसके अच्छे परिणाम भविष्य में अवश्य दिखाई देंगे।

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