केंद्रीय बजट एवं राष्ट्रीय सुरक्षा

सेना में १९८४ के बाद से आज तक एक भी नई तोप शामिल नहीं हुई है, भारतीय वायुसेना पुराने मिग २१ हवाई जहाज पर निर्भर है तथा नौ-सेना में पनडुब्बियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। इसका अर्थ है कि हमें सेनाओं के आधुनिकीकरण पर अधिक खर्च करना होगा। बढ़ती कीमतों एवं मुद्रा स्फीति को ध्यान में लें तो लगेगा बजट में रक्षा पर होने वाला खर्च लगातार घट रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आर्थिक विकास दो पहियों के समान है और राष्ट्र की नैया संतुलित चलने हेतु दोनों पहिये जरूरी है। विगत कई वर्षों से सुरक्षा क्षेत्र में देश पिछड़ गया, क्योंकि पिछले कई वित्त-मंत्रियों ने बजट का वित्तीय घाटा कम करने के लिए रक्षा खर्च में अप्रत्यक्ष कटौती की। पिछले साल रक्षा बजट में प्रावधान १,१६,९३१ करोड़ था, तथापी संशोधित अनुमान के अनुसार रक्षा खर्च रु. १,०८,९२५ करोड़ दिखाया गया। इसका सीधा अर्थ यह कि रक्षा खर्च में १०,००० करोड़ की कमी की गई। सैनिकों का वेतन खर्च यथावत रखने के बाद इस कटौती का सेना (थल, वायु तथा नौ सेना) के नए हथियार खरीद पर असर हुआ। यह सिलसिला पिछले दस सालों से चला आ रहा है। परिणाम स्वरूप तीनों सेनाओं के आधुनिकीकरण पर इसका सीधा असर देखा जा सकता है। सेना में १९८४ के बाद से आज तक एक भी नई तोप शामिल नहीं हुई है, भारतीय वायुसेना पुराने मिग २१ हवाई जहाज पर निर्भर है (जिसने कई वैमानिकों की जान ली है) तथा नौ-सेना में पनडुब्बियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। विडंबना यह है कि इसी समय अमेरिका अफगानिस्तान से वापसी कर रहा है और सभी रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार इसका सीधा असर भारत की सुरक्षा पर पड़ सकता है।
पिछली वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में बजट प्रक्रिया में संशोधन किया गया था जिसके फलस्वरूप रक्षा प्रणाली एवम् हथियार खरीद हेतु तय खर्च वित्त वर्ष समाप्ति पर अगले वर्ष में जोड़ दिया जाता था। इसके कारण रक्षा खरीद में देरी होने से भी सेनाओं के आधुनिकीकरण पर इसका असर नहीं होता। किंतु यूपीए सरकार ने यह निर्णय बदल दिया। इसके कारण रक्षा साधनों के आधुनिकीकरण पर प्रभाव पड़ा। मोदी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जागरुक है और इस विषय में गंभीर भी होने का दावा कर चुकी है। इस सरकार से अपेक्षा है कि वह पुरानी नीति फिर से लागू करें।
रक्षा बजट के अलावा रक्षा के संदर्भ में गृह मंत्रालय, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष विभाग तथा परिवहन मंत्रालय का खर्च भी जुड़ा हुआ है। इन सभी विभागों का व्यय मिलाकर भी भारत समग्र घरेलू उत्पादन का केवल २ प्रतीशत हिस्सा ही रक्षा पर खर्च कर रहा है। पड़ोसी देश तथा रूस, अमेरिका की तुलना में यह बहुत कम है।
पिछले दशक का, सिंहावलोकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि रक्षा खर्च में ४ प्रतिशत वृद्धि हुई है। अगर बढ़ती कीमतें तथा मुद्रा स्फीति ध्यान में रखें तो रक्षा खर्च पिछले दस सालों में बढ़ने के बजाय कम ही हुआ है। इस साल के बजट में रक्षा खर्च में बढ़ोतरी अपेक्षित तथा अनिवार्य है।
परंतु देश की रक्षा की समस्या केवल बजट के साथ सुलझ नहीं सकती है। आज हम ८० फीसदी शस्त्र प्रणाली दूसरे देशों से मंगवाते है। आयात पर निर्भर इस स्थिति में भारत के रक्षा खर्च की वजह से दूसरे देशों में रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं जबकि हमारे अपने देश में करोड़ों लोग बेरोजगार बैठे हैं। इस स्थिति से देश का आर्थिक नुकसान तो होता ही है, अलावा इसके हमारी सुरक्षा दूसरे देशों में गिरवी रखी जाने के समान है।
आज रक्षा क्षेत्र में १९९० जैसी स्थिति बरकरार है। लायलेंस-परमिट राज भले ही बाकी क्षेत्रों में कम हुआ हो, लेकिन रक्षा क्षेत्र में आज भी मात्र सरकारी क्षेत्र का बोलबाला है। सरकारी कंपनियों की एकाधिकारशाही के चलते आज भी रक्षा उत्पादन क्षेत्र आर्थिक सुधारों से दूर है। इस रक्षा बजट में निजी क्षेत्रों को रक्षा उत्पादन से जोड़ने का प्रयास होना जरूरी है।
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रक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिए कुछ प्रशासकीय निर्णय होने जरूरी हैं। आज गृह मंत्रालय के अधीन बी. एस. एफ. तथा केंद्रीय पुलिस बल, संख्या में सेना के पैदल दस्तों के बराबर संख्या में मौजूद है; तथापि समग्र राष्ट्रीय योजना के तहत वह राष्ट्रीय सुरक्षा से आज भी जुड़े नहीं हैं। समय की मांग है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की जिम्मेदारी मात्र सेना की नहीं तो पूरे राष्ट्र की मानी जानी चाहिए।

हमारी रक्षा प्रणाली आज भी १९४७ के तथा दूसरे विश्व युद्ध समान लड़ाई की तैयारी जैसी है। आज भारत एक परमाणु शस्त्र संपन्न देश है। इस प्रकार के परंपरागत युद्ध भविष्य में होने की संभावना को ध्यान में रख कर रक्षा पर होनेवाला खर्च इसी मद में अपेक्षित है। साथ ही साथ सेना, खासकर पैदल दस्ते, दिन रात अपरोक्ष युद्ध तथा आंतकवाद का सामना करने में लगे हैं। सेना एवम् शस्त्रों की खरीद में पैदल दस्तों की युद्ध सामग्री को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भारतीय इतिहास में हम बहुत कम युद्धों में विजय प्राप्त कर सके हैं। इसका प्रमुख कारण हमारी शांतिप्रिय मानसिकता है। हमारी जनता की सोच है कि हम शांतिप्रिय है इसलिए दूसरे देश भी हमारे प्रति शांति से ही पेश आएंगे। इतिहास में यह गलत सिद्ध होने के बाद भी हमारे बुद्धिजीवि युद्ध एवम् सुरक्षा के अध्ययन में कभी जुड़ नहीं पाए। रक्षा क्षेत्र में केवल आर्थिक योगदान से देश की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती है, आवश्यकता है देश के वैज्ञानिक, इंजीनियर तथा श्रमिक आदि सभी इस क्षेत्र में रूचि ले।
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