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अमेरिका से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ा

by सरोज त्रिपाठी
in पर्यावरण, पर्यावरण विशेषांक -२०१७, सामाजिक
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ग्लोबल वार्मिंग से मौसम का बदलता मिजाज पृथ्वी पर मानव सभ्यता के लिए खतरे की घंटी है। वैज्ञानिकों में यह मान्यता मजबूत हो चुकी है कि जलवायु बदलाव व इससे जुड़े कई अन्य गंभीर संकट (जैसे जल संकट, जैव विविधता का हाल और समुद्रों का अम्लीकरण) अब धरती की जीवनदायिनी क्षमता को ही खतरे में डाल रहे हैं। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट चेतावनी दी है कि दो डिग्री सेल्शियस से ऊपर तापमान बढ़ने से धरती की जलवायु में बड़ा बदलाव हो सकता है जिसके असर से समुद्रतल की ऊंचाई बढ़ना, बाढ़, जमीन धंसना, सूखा, जंगलों में आग जैसी आपदाएं बढ़ सकती हैं। विशेष चिंता की बात तो यह है कि औद्योगिकीकरण शुरू होने के बाद से धरती का तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। यहीं कारण है कि १९९७ के क्योटो सम्मेलन से लेकर २०१५ में हुए पेरिस सम्मेलन तक दुनियाभर की सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय मंचों से जलवायु परिवर्तन संकट को समय रहते संभालने के लिए कई प्रयास भी किए हैं। आज हालत यह है कि विश्व की सब से गंभीर समस्याओं के समाधान की जब भी कोई गंभीर चर्चा होती है तो एजेंडे में सबसे ऊपर जलवायु बदलाव व उससे जुड़े संकटों को ही रखा जाता है।

ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है। ये गैसें इंसानी जरूरतों, जैसे बिजली उत्पादन, गाड़ियों, फैक्ट्री और बाकी कई वजहों से पैदा होती हैं। इस दौरान जो गैस उत्सर्जित होती है, उसमें मूल रूप से कार्बन डायऑक्साइड शामिल है। यह गैस धरती के वायुमंडल में डरावने तौर पर जमा हो रही है। कार्बन डायऑक्साइड ही सूरज से आने वाले तापमान को सोख कर धरती का तापमान बढ़ाती है।

चीन और अमेरिका के बाद भारत दुनिया का तीसरा सब से बड़ा कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन करने वाला देश है। लेकिन जहां तक प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की बात है, भारत का इसमें दसवां स्थान है। भारत का हर व्यक्ति २.५ टन से कम कार्बन डाय ऑक्साइड का उत्सर्जन करता है। प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करने में अमेरिका पूरी दुनिया में अव्वल है। यहां हर आदमी २० टन कार्बन उत्सर्जन करता है। इसी कारण अमेरिका की पर्यावरण नीति पूरी दुनिया पर अपना असर डालती है।

फ्रांस की राजधानी पेरिस में ३० नवम्बर २०१५ से १२ दिसम्बर २०१५ तक संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में मानव इतिहास में पहली बार दुनिया के १९१ देशों के बीच जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर एक आम सहमति बनी। इसे पेरिस समझौता कहा जाता है। यह समझौता वैश्विक तापमान में वृद्धि को २१वीं सदी के अंत तक दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने से जुड़ा है। समझौते में सभी देशों को वैश्विक तापमान में बढोत्तरी को १.५ डिग्री सेल्सियस तक रखने की कोशिश की बात भी कही गई है। यह बात काबिलेगौर है कि यह मांग दुनिया के गरीब और बेहद गरीब देशों की ओर से रखी गई थी।

पेरिस समझौते के बाद विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच इस आकलन का दौर शुरू हुआ कि दोनों में किसका पलड़ा भारी रहा। बेशक, पेरिस समझौता कई दृष्टियों से ऐतिहासिक है। इसमें दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए ग्रीन हाउस उत्सर्जन का लक्ष्य १.५ फीसदी रखने पर आम सहमति बनी यह अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। परंतु इस समझौते ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सदा से ही विकसित देशों को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति को छोड़ दिया गया। पेरिस सहमति बनने के उपरांत विकसित देशों को उत्सर्जन में कमी लाने की दरकार ही नहीं रहेगी। बल्कि सच तो यह है कि यह समझौता विकसित देशों को भविष्य में पहले से ज्यादा ‘कार्बन स्पेस’ उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करता है। पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के गरीब देशों को होने वाले नुकसान और क्षति की जिम्मेदारी से भी विकसित देशों को मुक्त करता है। अब जलवायु परिवर्तन की गंभीरता कम करने तथा उसके दुष्प्रभावों की क्षतिपूर्ति का जिम्मा विकासशील देशों को उठाना पड़ेगा। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि समझौते के उपरांत विकसित देशों को उत्सर्जन की कटौती को मानने की न तो कोई कानूनी बाध्यता है, न ही कार्बन उत्सर्जन की कटौती की जांच का कोई ठोस तरीका है। लिहाजा कुल मिला कर इस समझौते का महत्व कागजों तक सीमित रह जाने की आशंका पैदा करता है।

वैसे सरसरी तौर से देखा जाए तो पेरिस समझौता एक बेहद महत्वाकांक्षी समझौता नजर आता है। इस समझौते के मुताबिक पूरी दुनिया इस बात की कोशिश करने वाली है कि २१वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के औसत तापमान में बढ़ोत्तरी १.५ सेल्सियस से ज्यादा न होने पाए। डेढ़ डिग्री सेल्सियस का स्तर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में उल्लेखनीय कमी ला सकता है। गौरतलब है कि विकसित देशों ने २०१० में कानकुन सम्मेलन में २०२० से पहले उत्सर्जन का स्तर कम करने का वादा किया था। लेकिन अब वे अपने इस वादे से मुकर चुके हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि किस आधार पर विकसित देशों से यह उम्मीद की जाए कि वे पेरिस समझौते के तहत किए गए अपने वादे को निभाएंगे।

पेरिस समझौते के तहत दुनिया के तमाम देशों की अपनी-अपनी क्षमताएं और उनके राष्ट्रीय हालात ही जलवायु को लेकर उनके कार्यकलाप का आधार होंगे। इसका मतलब है कि अमेरिका जैसे देश अब मंदी का नाम लेकर या अपनी संसद की सहमति मिलने या न मिलने के बहाने उत्सर्जन में आवश्यक कटौती करने से इनकार कर सकते हैं। दूसरी तरफ ‘अपनी-अपनी क्षमताएं’ का अर्थ होगा कि भारत जैसे देश को उत्सर्जन में ज्यादा कटौती करने के लिए कहा जाएगा। आखिर, भारत ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाला विश्व का तीसरा सबसे बड़ा देश है। इस तरह पेरिस समझौते के परिणामस्वरुप भारत को कार्बन कटौती के लिए लगातार अंतरराष्ट्रीय दबाव झेलने की आशंका बढ़ जाती है।

यह बात तयशुदा है कि दुनिया के अधिकांश गरीब मुल्क ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी संबंधी अपनी प्रतिबद्धताओं को निभाने के लिए व जलवायु में बदलाव का सामना करने के लिए जरूरी वित्तीय और तकनीकी सहायता की मांग करेंगे। इसके लिए मूल योजना यह थी कि वर्ष २०२० तक दुनिया के विकसित देश परस्पर सहयोग और अनुदानों से एक ऐसा ग्रीन कोष बना देंगे, जिससे निर्धन व विकासशील देशों को प्रति वर्ष १०० अरब डॉलर उपलब्ध हो सकेगा। अभी तक इस कोष के लिए मात्र तीन अरब डॉलर ही उपलब्ध हुए हैं। इस तथ्य से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में चाहे कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर ली जाएं, पर वास्तविक प्रगति नहीं के बराबर ही है।

पेरिस समझौते के क्रियान्वयन की प्रारंभिक चिंताओं के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क सम्मेलन का आयोजन पिछले साल नवम्बर में मोरक्को के मराकेश शहर में किया गया था। इस सम्मेलन में पर्यावरण संशयवादी डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति चुने जाने से पेरिस समझौते के भविष्य को लेकर अटकलबाजियां होती रहीं।

ज्ञातव्य है कि अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को चीनी सरकार द्वारा खड़ा किया गया हौवा बताया था। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा था कि ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के प्रयासों को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद कर दी जाएगी। पेरिस पर्यावरण समझौते को उन्होंने अमेरिकी वाणिज्य के लिए नुकसानदेह बताया था। उनका कहना था कि पेरिस समझौता अमेरिका कितनी ऊर्जा खर्च करता है इस पर विदेशी नौकरशाहों को नियंत्रण स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है। पर्यावरणविद् ट्रंप के प्रस्तावों को गलत मानते हैं। मराकेश सम्मेलन में ऐसी अफवाहों का बाजार गर्म रहा कि डोनाल्ड ट्रंप २० जनवरी २०१७ को राष्ट्रपति का पदभार संभालते ही जल्दी से जल्दी अमेरिका को पेरिस समझौते से बाहर निकालने का तरीका तलाश रहे हैं। मौजूदा हाल में पेरिस समझौते से निकलने में अमेरिका को करीब चार साल लगेंगे। लेकिन पेरिस समझौता १९९२ में हुई रियो ट्रीटी से बंधा हुआ है और कहा जा रहा है कि ट्रंप के नीतिकार यह सोच रहे हैं कि रियो समझौते को नकार कर सीधे पेरिस समझौते को बेकार कर दिया जाए। इस तरह शायद ट्रंप की रणनीति है कि अमेरिका एक साल के भीतर ही पेरिस समझौते से बाहर हो जाए।

पेरिस समझौता संपन्न कराने में ओबामा के नेतृत्व में अमेरिका की प्रमुख भूमिका थी। यदि डोनाल्ड ट्रंप इस समझौते से हटने का निर्णय लेते हैं तो यह समझौता, लगभग निरर्थक हो जाएगा। अब पूरी दुनिया के देशों तथा पर्यावरणविदों के समक्ष सब से बड़ी चुनौती यह है कि वे ट्रंप को इस बात पर राजी करें कि जलवायु परिवर्तन कोई हौवा नहीं बल्कि वास्तविकता

अब तक पेरिस व मराकश जैसे सम्मेलनों में चाहे जितने भी विवाद उठे हों, कितनी ही समस्याएं आई हों, पर इनके अंत में कोई ऐसा समझौता पत्र तैयार कर दिया जाता रहा है जिससे कि जलवायु बदलाव व उससे जुड़े मुद्दों के समाधान तलाशने की प्रक्रिया जारी रहे। वर्ष २०१७ में सबसे अहम सवाल यही उठता है कि क्या जलवायु बदलाव व उसमें जुड़े मुद्दों के समाधान पर कोई बड़ी पहल इस वर्ष हो सकेगी। वैसे एक बड़ा और बुनियादी सवाल यह भी है कि क्या विकास की प्राथमिकताओं को बदले बिना और विनाश करने वाली नीतियों में व्यापक बदलाव के बिना पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है? इस तरह के बुनियादी सवाल से सभी सरकारें नजर चुराती रही हैं।

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