विधान सभा चुनावों में राष्ट्रीय राजनीति की झलक

हाल के विधान सभा चुनाव परिणामों ने भले पांच राज्यों में से चार में नई सरकारें दे दी हैं, भाजपा सरकार से बाहर हो गई है, इसकी राष्ट्रीय प्रतिध्वनि शत-प्रतिशत साफ नहीं है। इसने कई संदेश दिए हैं जिनके आधार पर राष्ट्रीय राजनीति का ताना-बाना विकसित होगा। भाजपा हारी है लेकिन उसके लिए संभावनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगा है।

पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव परिणामों का कई तरीकों से विश्लेषण किया जा रहा है। चूंकि भाजपा ज्यादातर चुनावों में लगातार विजीत होती रही हैं, इसलिए तीन प्रमुख राज्यों मेंं पराजय को उसके राजनीतिक अवसान के रूप में भी व्याख्यायित किया जा रहा है। ये 2019 के आम चुनाव के पूर्व के अंतिम विधान सभा चुनाव थे, इसलिए इसे 2014 की तुलना में भाजपा के लिए स्पष्ट प्रतिकूल परिस्थितियों का संकेतक तक बता दिया गया है।

इन राज्यों में लोकसभा की कुल 83 लोकसभा सीटें हैं। इनमें से 2014 में भाजपा ने 63, कांग्रेस ने 6 तथा टीआरएस ने 11 सीटें जीतीं थीं। इसके अलावा तेदेपा 1, वाईएसआर कांग्रेस 1 तथा एआईएमआईएम को 1 सीटें मिलीं थीं। हालांकि इस समय कांग्रेस के पास 9 सीटें हैं और भाजपा के पास 60। तीन उप चुनाव कांग्रेस ने जीते हैं। उसमें तीन राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान को अलग करके देखें तो यहां की 65 लोकसभा सीटों से भाजपा को 62 सीटें मिलीं थीं। ये तीन उसके मुख्य जनाधार के राज्य थे। इन तीनों राज्यों में भाजपा की पराजय का मतलब है भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति में उसकी हैसियत कमजोर होना। इसका सीधा निष्कर्ष यही है कि अगर भाजपा को केन्द्र की सत्ता बनाये रखनी है तो उसे 2019 में 2014 की स्थिति तक पहुचंना होगा तथा तेलांगना में अपना प्रदर्शन बेहतर करना होगा। इसके समानांतर यदि कांग्रेस को 2014 के अपने सबसे बुरे अंकगणित से निकलकर केन्द्रीय सत्ता की दावेदारी करनी है तो उसे कई गुना बेहतर प्रदर्शन करना होगा।

इस समय तीन प्रमुख राज्यों में मिली विजय कांग्रेस के लिए निस्संदेह, आशा की मजबूत किरण बनकर आए हैं। प्रश्न है कि भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से इन चुनाव परिणामों को कैसे देखा जाए? क्या यह इतना ही सरल सपाट है जितना आम तौर बताया जा रहा है या इसके मायने कुछ अलग भी हैं? इसमें दो राय नहीं कि भाजपा के लिए यह बहुत बड़ा आघात है। चुनाव में सामूहिक माहौल एक बड़ा कारक होता है। इन चुनावों के पहले तक माना जाता था कि भारत में कोई पार्टी या नेता नरेन्द्र मोदी और भाजपा को ऐसी चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं कि वह इसे बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुंचा सके। राहुल गांधी में तो भाजपा और नरेन्द्र मोदी के धुर विरोधी भी संभावना नहीं देख रहे थे।

भाजपा के विरुद्ध एकजुटता की बात करने वाले कई नेता भी राहुल गांधी एवं कांग्रेस को लेकर नकारात्मक धारणा रखते थे। राहुल और उनके सहयोगियों ने जो रणनीतियां बनाईं उनका मूल उद्देश्य यही था कि वे मोदी को सीधी आक्रामक चुनौती देने वाले एक प्रभावी नेता के तौर पर उभरें। राहुल ने राफेल सौदा से लेकर नोटबंदी, जीएसटी या अन्य कई मामलों में जो कुछ बोला उनसे असहमत होने के पर्याप्त कारण हैं। हिन्दुत्वनिष्ठ होने की उनकी जो छवि बनाई गई उस पर भी प्रश्नवाचक चिह्न खड़े हैं। बावजूद इसके चुनाव परिणामों का एक संदेश यह निकला है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र नेता हैं जिन्होंने मुद्दों और व्यक्तित्व दोनों स्तरों पर मोदी और अमित शाह को चुनौती दी तथा उसमें वे एक हद तक सफल रहे हैं। इस संदेश का असर उन लोगों पर अवश्य होगा जो मोदी एवं भाजपा के विरोध में मतदान करने के लिए विकल्प के तौर पर नेता और पार्टी की तलाश में थे। इस संदेश को कांग्रेस लगातार चुनावों तक प्रचारित करेगी। दूसरे विपक्षी दलों ने भी कहना आरंभ कर दिया है कि जनता ने मोदी एवं भाजपा की नीतियों के विरुद्ध असंतोष प्रकट कर दिया है जो 2019 का पूर्व संकेतक है। ऐसी एक समान आवाजों का जो सामूहिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा उसे नकारा नहीं जा सकता। जहां तक चुनावी अंकगणित का प्रश्न है तो इसमें हिन्दी क्षेत्र के तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस ने 2013 और 2014 से अपनी स्थिति काफी बेहतर की है।

इस तरह मोदी, अमित शाह एवं भाजपा के लिए राष्ट्रीय राजनीति में चुनौतियां बढ़ गईं हैं इनसे इन्कार किया ही नहीं जा सकता। राहुल और कांग्रेस के साथ विपक्ष की आक्रामकता बढ़ गई है। सरकार के साथ उनका असहयोगात्मक रवैया परवान चढ़ रहा है। इसका अर्थ है कि आम चुनाव तक विरोधी पार्टियां आसानी से सरकार को ऐसा कोई निर्णय नहीं करने देगी जिससे उसको राजनीतिक लाभ हो सके। जो करेंगी उसको विपरीत रूप में पहले से ज्यादा शोर से प्रचारित किया जाएगा। मीडिया की ध्वनि भी बदल रही है। इसके बाद विरोधियों की यह धारणा मजबूत हुई है कि अगर हम एकजुट हुए तो मोदी और भाजपा को चुनौती दी जा सकती है। किंतु सब कुछ इतना ही सरल और सपाट नहीं है। वस्तुतः इसके परे दूसरे पहलू इतने महत्वपूर्ण हैं जिन पर विचार किए बगैर भविष्य की राजनीति की तस्वीर नहीं बनाई जा सकती।

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों का अंकगणित इसका ऐसा पहलू है जो कुछ दूसरी कहानी भी कहता है। कांग्रेस को केवल छत्तीसगढ़ में भारी बहुमत मिला। मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में वह बहुमत से वंचित है। मिजोरम में कांग्रेस हार चुकी है। तेलांगना मेें तेलुगू देशम, तेलांगना जन समिति और भाकपा का गठबंधन बुरी तरह पराजित हुआ है। मध्यप्रदेश में पराजय के बावजूद भाजपा को कांग्रेस से 47 हजार 827 मत ज्यादा मिले हैं। भाजपा को 41 प्रतिशत और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले हैं। इसी तरह राजस्थान मेें कांग्रेस को भाजपा से केवल 1 लाख 77 हजार 699 मत अधिक मिले हैं। कांग्रेस के हिस्से 39.3 प्रतिशत और भाजपा के हिस्से 38.8 प्रतिशत मत आए हैं।

44 संसदीय सीटों वाले दोनों राज्यों मेें ज्यादातर सीटों पर जीत-हार का अंतर इतना कम है जिसमें भाजपा 2019 के लिए उम्मीद कर सकती है। हां, छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में 14 लाख 37 हजार 51 वोटों का बड़ा अंतर अवश्य है। दोनों के बीच 10 प्रतिशत मतों का अंतर है। 2019 में भाजपा को कांग्रेस से 10 प्रतिशत मत ही अधिक मिला था और उसने 11 में से 10 सीटें जीतीं थीं। यह है तीन राज्यों का मोटा-मोटी अंकगणित।

अगर इन चुनावों में जीत-हार के कारणों को समझ लें तो भविष्य की राष्ट्रीय राजनीतिक तस्वीर कुछ और साफ हो जाएगी। जिन लोगों ने तीनों राज्य पर गहराई से नजर रखी है उनको मालूम है कि मतदाताओं के सामने मुख्य मुद्दे वे नहीं थे जिनको सबसे ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है। तीनों राज्य में भाजपा के विरुद्ध अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को संसद में पलटना एक ऐसा मुद्दा था जिससे सवर्णों का एक वर्ग प्रभावित था। इसने अपनी भूमिका निभाई। हालांकि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने नाराजगी को देखते हुए यह घोषणा की कि बिना जांच के इसमें गिरफ्तारी नहीं होगी। इसका थोड़ा असर हुआ होगा पर इसने नाराजगी को खत्म नहीं किया।

राजस्थान में इसका सबसे तीखा विरोध राजपूतों द्वारा हुआ जो भाजपा के घोर समर्थक रहे हैं। इसके अलावा भी उनकी नाराजगी के कई कारण थे। ब्राह्मणों के मतों को पक्ष में सुदृढ़ करने के लिए सी पी जोशी ने एक भाषण में जो कुछ कहा उसके लिए उन्हें खेद प्रकट करना पड़ा, लेकिन उस समय एक संदेश कांग्रेस ने दे दिया। वैसे इस कानून को पलटने में अकेले भाजपा की भूमिका नहीं थी। सभी पार्टियों ने इसका समर्थन किया। भाजपा अब इसमें वापस नहीं लौट सकती, क्योंकि इससे ये जातियां नाराज हो जाएंगी। बावजूद इसके उसके पास नाराज मतदाताओं को समझाने का वक्त है। यह नाराजगी भी एक सीमा तक ही थी, अन्यथा उसे इतना ज्यादा वोट नहीं मिलता।

भाजपा को लेकर उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक वर्ग मेंं हिन्दुत्व के प्रति उदासीनता से निराशा थी। कांग्रेस ने अपनी मुस्लिमपरस्त छवि तोड़ने के लिए राहुल गांधी को जनेउधारी ब्राह्मण का कार्ड खेला, पुष्कर से उनका एक गोत्र भी सामने आ गया। राहुल गांधी ने मंदिर-मंदिर जाकर तथा हिन्दुत्व पर बयान देकर हिन्दुओं के एक तबके को कुछ हद तक प्रभावित किया है। सीपी जोशी ने तो यह भी कह दिया कि कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री ही अयोध्या में राम मंदिर बनवाएगा। यह एक बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है। इन चुनावों तक राम मंदिर का मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप एवं साधु-संतों के कारण पूरी तरह सतह पर आ चुका है। थोड़े शब्दों में कहें तो कांग्रेस की भूमिका के बाद हिन्दुत्व आगामी चुनाव के लिए एक केन्द्रीय मुद्दा के रुप में उभर चुका है।

भविष्य की राजनीतिक तस्वीर इससे भी बनेगी कि केन्द्र सरकार और भाजपा हिन्दुत्व को लेकर क्या भूमिका अपनाती है। इन चुनाव परिणामों ने उसके सामने स्पष्ट कर दिया है कि या तो वह अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकले या फिर क्षति उठाने के लिए तैयार रहे। योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व का तेवर दे सकते हैं, प्रदेश सरकार की सीमाओंं में जो करना है कर सकते हैं, किंतु निर्णय केन्द्र सरकार और केन्द्रीय नेतृत्व को ही करना है। नरेन्द्र मोदी और भाजपा की समस्या यह है कि वे अगला चुनाव राजग के अंदर रहकर लड़ना चाहते हैं। हिन्दुत्व के मुद्दों विशेषकर मंदिर निर्माण के लिए रास्ता बनाने का कदम उठाना उनके कुछ सहयोगियों को शायद स्वीकार्य नहीं होगा। वे अपनी तथाकथित सेक्युलर छवि बनाए रखने के लिए गठबंधन तोड़ सकते हैं। इसमें सबसे पहला स्थान बिहार में जनता दल यू के साथ संबंधों पर पड़ेगा। किंतु यदि निर्णय नहीं करते हैं तो मूल परंपरागत समर्थकों और कार्यकर्ताओं की नाराजगी तथा उदासीनता के माहौल में चुनाव में जाना पड़ेगा।

अगर सरकार राम मंदिर निर्माण के लिए जमीन सौंपने के लिए विधेयक लाती है तो कांग्रेस के सामने भी निर्णय करने की चुनौती पैदा हो जाएगी। हिन्दुत्वनिष्ठ होने के उसके दावे की असलियत भी सामने आ जाएगी। हालांकि इसमें भाजपा के साथ एक समस्या और है कि अगर कांग्रेस ने विधेयक का समर्थन कर दिया तो क्या होगा? किंतु कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं है। वह यह मानकर चल रही थी कि भाजपा के विरोध में तीन राज्यों में मुस्लिम मत उसके अलावा किसी को मिल नहीं सकते। दूसरे राज्यों में ऐसा नहीं था। इसलिए तेलंगाना में उसका स्वर अलग था। तो उसके लिए समर्थन करना आसान नहीं होगा।

खैर, ये बाद की बाते हैं लेकिन यह मुद्दा 2019 के लिए महत्वपूर्ण हो गया इसमें दो राय नहीं हो सकतीं। किसानों की नाराजगी की बहुत बातें की जा रही हैं। कुछ विश्लेषक कह रहे हैं कि सरकार को किसानों की नाराजगी का खामियाजा उठाना पड़ा है। अगर ऐसा ही है तो किसानों की नाराजगी के लिए जिस मंदसौर कांड को सभी सामने रख रहे थे वहां से भाजपा अच्छे अंतरों से कैसे जीत गई? साफ है कि किसानों के लिए काम करने की आवश्यकता तो है, पर जिस तरह की नाराजगी की बात की जा रही है वैसा है नहीं। इसे भविष्य की राजनीति के लिए मोदी सरकार विरोधी मुद्दा बनाने की जो कोशिश हो रही है उसमें सफलता की संभावना नहीं है। हां, कांग्रेस द्वारा किसानों की कर्ज माफी की घोषणा का थोड़ा असर इन चुनाव परिणामों पर दिखता है, पर ऐसा करना देश के वित्तीय हित में नहीं होगा। देखना होगा कांग्रेस 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी घोषणा करती है या नहीं। अगर वह करेगी तो फिर भाजपा ही नहीं कई दलों के लिए समस्या पैदा हो जाएगी। तब राष्ट्रीय राजनीति में इसकी प्रतिध्वनि सुनाई देगी। अगर भाजपा ने जनादेश का इस संदर्भ में गलत निष्कर्ष निकाला तो वह किसानों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कुछ लुभावनी घोषणाएं कर सकती है जिसका उसके समर्थन आधार पर कितना असर होना कहना कठिन है।

मुद्दों के बाद राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य निर्धारक तत्व पार्टियों के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन होगा। चुनाव परिणामों के बाद मोदी और भाजपा विरोधी गठबंधन की उत्साहजनक तस्वीर पेश की जा रही है। इसका एक परीक्षण तेलांगना में हुआ। वहां कांग्रेस के साथ चार दलों के गठजोड़ को तेलांगना राष्ट्र समिति से 14 प्रतिशत कम मत मिले हैं। तेलुगू देशम के प्रमुख चन्द्रबाबू नायडू तत्काल गठबंधन के मुख्य सूत्रधार बने हुए हैं। अगर उनका गठबंधन तेलांगना में इतनी बुरी तरह विफल हुआ तो उसकी प्रभाविता को लेकर प्रश्न उठेगा। बसपा ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस को समर्थन अवश्य दिया, पर मायावती ने कहा कि वहां मन मारकर ऐसा कर रही हैं। सपा के अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को लेकर अनुकूल बयान नहीं दिया। इससे पता चलता है कि चुनाव परिणामों के बाद उत्साहित नेता जो भी बयान दें, भाजपा विरोधी गठबंधन का रास्ता आसान नहीं है। उत्तर प्रदेश की तस्वीर में बसपा, सपा कांग्रेस को आसानी से सीटें देने को तैयार नहीं होंगी। कांग्रेस यदि मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में उन्हें सीटे देंगी तभी उनको गठबंधन में शामिल किया जाएगा।

राजधानी दिल्ली में हुई विपक्षी दलों की बैठक में बसपा,सपा शामिल नहीं हुई। ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस के अनुकूल बात नहीं कही। शरद पवार ने चुनाव परिणामों के साथ ही मांग कर दिया है कि बसपा के साथ महाराष्ट्र में भी गठबंधन किया जाये। ऐसी मांग और उठेगी। दूसरी ओर तेलंगाना से के. चन्द्रशेखर राव तथा असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि वे गैर कांग्रेस गैर भाजपा संघीय मोर्चा के लिए काम करेंगे। इस तरह चुनाव परिणामों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी दो गठबंधनों की संभावना बन रही है। अगर कांग्रेस ने मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ की तरह रवैया अपनाया तो इसके परे भी कुछ क्षेत्रीय गठबंधन हो सकते हैं। यह 2019 के लिए बड़ा कारक होगा।

कुल मिलाकर इन चुनाव परिणामों ने भले पांच राज्यों में से चार में नई सरकारें दे दी हैं, भाजपा सरकार से बाहर हो गई है, इसकी राष्ट्रीय प्रतिध्वनि शत-प्रतिशत साफ नहीं है। इसने कई संदेश दिए हैं जिनके आधार पर राष्ट्रीय राजनीति का ताना-बाना विकसित होगा। भाजपा हारी है लेकिन उसके लिए संभावनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगा है। हां, राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्र सरकार एवं पार्टी की सोच और व्यवहार में परिवर्तन की अपरिहार्यता अवश्य पैदा हो गई है। कांग्रेस तीन राज्यों में जीती है जिससे गठबंधन में भले मोलभाव की उसकी ताकत बढ़ी है किंतु ऐसी स्थिति में नहीं है जिससे यह मान लिया जाए कि वह राष्ट्ीय राजनीति का मुख्य निर्धारक बन गई है। इससे अभी वह दूर है। महागठबंधन की चाहत का बलवती होना एक बात है और उसके सम्पूर्ण रुप से साकार होने का साफ संकेत मिलना दूसरा जो धुंधलके में उलझा हुआ है।

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