क्या राजनीति को धर्म से जुदा रखना संभव है?

हाल में उच्चतम न्यायालय ने धर्म के नाम पर वोट मांगने को अवैध करार देने वाला फैसला सुनाया है। राजनीति और धर्म एक दूसरे से इतने उलझे हुए हैं कि उन्हें जुदा

धर्म के नाम पर वोट मांगना अवैध होने के उच्चतम न्यायालय के ताजा फैसले में नया कुछ भी नहीं है। बांसी कढ़ी में फिर उबाल आया है। लिहाजा, इस फैसले से राजनीति, धर्म, सेक्युलरिज्म पर पुनः एक बार बहस आरंभ हो गई है। धर्म का सहारा लेकर राजनीति न हो यह हमारा संविधान कहता है। धर्म के आधार पर राजनीति न हो यह चुनाव आयोग की आचार संहिता का हिस्सा है। मनोहर जोशी, अभिराम सिंह और अन्य राजनीतिक नेताओं के बहाने धर्म और राजनीति के मुद्दों पर अदालती बहसें भी हो चुकी हैं। धर्म के आधार पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी की उम्मीदवारी ही रद्द होने की घटनाएं हमारे यहां हो चुकी हैं। फिर भी उच्चतम न्यायालय ने धर्म के आधार पर राजनीति न करने के प्रति देश का ध्यान पुनः एक बार आकर्षित किया है।

उच्चतम न्यायालय का धर्म और राजनीति से जुड़ा यह फैसला भारतीय आध्यात्मिकता एवं सामाजिक व्यवहार पर गहराई से नजर डालें तो संभ्रमात्मक लगता है। भारतीय लोकतंत्र का ढांचा, भारतीय सामाजिक व्यवस्था के आधार पर ही अब तक टिका हुआ है। और, इस सामाजिक व्यवस्था में धर्म, अध्यात्म को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय समाज व्यवस्था की ओर यदि हम देखें तो यह बात उजागर होगी कि अब तक हुए सारे बदलावों को भारतीय सामाजिक व्यवस्था ने स्वीकार किया है। आधुनिक परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तन, औद्योगिक और आर्थिक परिवर्तन समयानुकूल प्रवाही रहे हैं। लेकिन धर्म सदा शाश्वत रहा है। मानवी स्वभाव बदला, किंतु धर्म स्थिर रहा। पुरातन काल से अब तक जो नहीं बदला वह है धर्म और धर्म से जुड़े धार्मिक मूल्य। प्राचीन काल से धर्म को विशद करने की पद्धतियां बदलीं, किंतु उसके सिद्धांत नहीं बदले।

भारतीयों की दृष्टि से ‘धर्म’ का अर्थ क्या है? भारत में धर्म की संकल्पना मानवी जीवन के सभी क्षेत्रों को छू लेने वाली है। इसीलिए धर्म याने सत्य, सदाचार, प्रेम, कर्तव्य, परोपकार, न्याय, मानवता तथा अस्पृश्यता, जातिभेद, गोपूजा ये भी धर्म ही है यह भी समाज की धारणा है। ‘समाज की धारणा करता है वह धर्म’ यह महाभारत की धर्म की व्याख्या है। धारणा का अर्थ है ऐक्य, संगठन, कल्याण, संवर्धन और भारतीय धार्मिक चिंतन में व्यक्त इन नियमों का जीवन में पालन करने का अर्थ होगा धर्म की धारणा करना, जिसे भारतीय समाज मानता है।

भारत के सम्पूर्ण ढांचे पर गौर करें तो धर्मनिरपेक्ष बनने के लिए धर्म का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में धर्मनिरपेक्षता और धार्मिकता साथ-साथ ही चल रही हैं और चल सकती हैं यह भी साबित हो चुका है। व्यक्तित्व को निखारने में अध्यात्म से ही सहायता मिलती है। धर्म की उपेक्षा अथवा धर्म का विरोध जैसी बातों से यह सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। भारतीय समाज व्यवस्था एवं राज व्यवस्था ने हरेक को आचार, विचार की स्वतंत्रता और उसकी गारंटी दी है। भारत ने अपने को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया है। इसका अर्थ यही है कि अपने राष्ट्रीय, सामाजिक जीवन में धर्मनिरपेक्षता, सामंजस्य एवं सहिष्णुता की नीतियों के प्रति हम आस्था रखते हैं। अतः, भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्मविरोधी होना नहीं लगाया जाना चाहिए।

भारतीय परंपरा धार्मिक, सामाजिक न्याय का आदर्श रही है। यही लाकेतंत्र में समानता का विचार देती है। विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक संगठनों के चुनाव प्रचार की रणनीति उनके सामाजिक मुद्दों पर निश्चित होता है। लेकिन, यह भी सच है कि इससे सामाजिक, धार्मिक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। क्या राजनीति सामाजिक विद्वेष का विषय बनती जा रही है? यह दुर्भाग्यपूर्ण चित्र भी आंखों के समक्ष आता है। देश में जो कुछ हो रहा है क्या इसे राजनीति कहा जाए? यह भी प्रश्न मन में उपस्थित होता है। क्योंकि, हमारे यहां बेहतर राजनीति का आदर्श महाभारत को माना जाता है। राजनीति एवं राजधर्म के रूप में हम उसे देखते हैं। दुर्योधन ने जो किया वह राजनीति और पांडवों ने जो किया वह राजधर्म का पालन! राजनीति में समाज के विकास का चित्र होगा तो वह व्यापकता राजनीति के माध्यम से अनुभव होनी चाहिए। लेकिन ऐसा कुछ होते दिखाई नहीं दे रहा है। राजनेताओं का इन विचारों से दूर का भी नाता दिखाई नहीं देता। २ जनवरी को न्यायालय ने यह फैसला सुनाया और दूसरे ही दिन बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की कि उन्होंने ‘‘८७ दलितों, ९७ मुसलमानों, ११३ सवर्णों एवं १०६ पिछड़े वर्ग के लोगों को उत्तर प्रदेश चुनाव में पार्टी की उम्मीदवारी दी है।’’ आगे उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों के वोटों का विभाजन नहीं होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के फैसले के दिन से ही इस निर्णय की अवमानना आरंभ हो ही गई थी। मायावती ने जो खुले रूप से कहा, वही बात सभी राजनीतिक दल न बोलते हुए चुपके से करेंगे ही। उम्मीदवारी जाति एवं धर्म के आधार पर ही बांटी जाती है, यह सत्य है। उच्चतम न्यायालय के फैसले के कारण वह बिना बोले होगा और पहले जैसी ही निरंतरता उसमें बनी रहेगी, यह भी सच है। लेकिन इन समस्याओं से जूझते हुए भारतीय लोकतंत्र को सुचारू रखना यह महत्वपूर्ण है। अदालत से आया फैसला राजनीति की जाति आधारित व्यवस्था को क्या बदल पाएगा?

उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय समस्याएं उत्पन्न करने वाला है। क्योंकि यह निर्णय हमारे राष्ट्रीय जीवन में धर्म को गैरकानूनी करार दे रहा है। धार्मिकता की जड़ें हमारे समाज में गहराई तक जा चुकी हैं। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनने की राह पर है और धर्मनिरपेक्षता भारत की बुनियादी पहचान है। ऐसे समय में अदालत ने धर्म को मतदाताओं एवं उम्मीदवारों की जाति का रूप देकर गड़बड़ पैदा की है। चुनाव प्रचार में धर्म का लगातार उपयोग होता रहा है, इससे इनकार नहीं हो सकता। लेकिन उसे रोकने के लिए राजनीति को धर्म से दूर रखने का उपाय हो नहीं सकता। इसका जवाब धार्मिक प्रथाओं के साथ राजनीति, प्रशासन, सरकार चलाने की कुशलता और न्याय प्रणाली में सुधार कर खोजा जा सकता है।

जब राजनीति किसी भी धर्म से निकटता न रखें यह अपेक्षा की जाती है तब वह राजनीति धर्मविरोधी अथवा धर्म के बारे में गलतफहमियां फैलाने वाली भी नहीं होनी चाहिए। भारत का विचार करें तो यहां धार्मिक सम्प्रदाय हिंदू, मुसलमान, सिख व अन्य में धर्म और जीवन व्यवहार, राज्य व्यवहार में इतनी उलझन है कि राजनीति को धर्म से दूर रखना आज भी असंभव लगता है। सभी धर्मों का आधार मानवता ही है। इसका अर्थ यह कि हर धर्म में मनुष्य के अभ्युदय की ही नीति है। अभ्युदय की इस नीति में विभिन्न नीतियां शामिल हैं। इसमें राजनीति भी एक नीति है, इसलिए राजनीति में धर्म और नीति को अलग करना कठिन है। इसी तरह राजनीति में धर्म की ओर संदेह से देखने की बात पर मुहर लगाना भी अनुचित है।

गांधीजी की राय में मनुष्य की हर छोटी-बड़ी क्रिया धर्म से जुड़ी होती है। इसलिए धर्म और राजनीति को जुदा करना केवल असंभव है। गांधीजी ने अपनी राजनीति में किसी भी धर्म का पक्ष लेना टाला था, लेकिन विभिन्न धर्मों के तत्वज्ञान के आधार पर अपनी राजनीति जारी रखने की आवश्यकता उन्हें महसूस होती थी। इसी समय बै. जिन्ना की राजनीति में धर्म का ही उपयोग था, लेकिन उसकी दिशा विपरीत थी। उन्हें गांधीजी जैसी सहअस्तित्व की राजनीति मंजूर नहीं थी। जिस समय गांधी धार्मिकता, धर्म के आधार पर सम्पूर्ण देश खड़ा करने का प्रयास कर रहे थे, उसी समय जिन्ना धार्मिक विद्वेष पर बल देकर एक पृथक देश निर्माण करने के मार्ग पर चल रहे थे। गांधी और जिन्ना ये दो उदाहरण भारतीय राजनीति में सकारात्मक-नकारात्मक प्रेरणा देने वाले सिद्ध हो चुके हैं; क्योंकि धर्म के नाम पर स्वतंत्र संघर्ष खड़ा किया जा सकता है और उसी समय एक अलग देश निर्माण किया जा सकता है इस राजनीतिक लाभ की मिसाल को वर्तमान किसी भी राजनीतिक दल ने अनदेखा नहीं किया है।

इसी कारण नई धार्मिक प्रेरणाएं जगाने, अस्मिताएं जगाने, परंपराएं खतरे में पड़ने का हल्ला मचाने, धार्मिक उत्सवों के बहाने राजनीतिक लाभ उठाने जैसी बातें फिलहाल चल रही हैं। धार्मिक समस्याओं पर राजनीति अर्थात सभी धर्मियों की धार्मिक अस्मिता को खाद-पानी देने की राजनीति इस तरह का सुविधाजनक अर्थ भारतीय राजनेताओं ने लगाया है। अतः, राजनेताओं द्वारा पैदा की गई धार्मिक समस्याएं अपने रोजमर्रे के जीवन से सम्बंधित न होने की बात मतदाताओं के ध्यान में न आने देने की बौद्धिक सतर्कता भी राजनेता बरतते हैं। इसी कारण राजनेता यह भी हौवा खड़ा कर देते हैं कि ये धार्मिक समस्याएं मतदाताओं के अस्त्त्वि से जुड़ी हुई हैं। इससे राजनेता अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। और फिर इन्हीं मुद्दों को लेकर राजनीतिक दल बन जाते हैं जैसे कि मुस्लिम लीग, अकाली दल, शिवसेना, गोरखा जन मुक्ति मोर्चा आदि। तो क्या ऐसे दलों की मान्यता रद्द कर दी जाएगी? यह फैसला प्रगतिशील है, परंतु व्यवहार में उस पर कितना अमल होगा यह प्रश्न ही है।

आरंभिक काल में उम्मीदवार अपनी राजनीति के लिए अथवा चुनाव प्रचार में निरंतर जाति, धर्म, भाषा, अस्मिता का आधार लेकर वोट मांग रहा हो तो ऐसा करना अवैध माना जाता था। वर्ष १९६१ में इसमें संशोधन कर ‘निरंतर’ शब्द हटा दिया गया। अर्थात, एकाध बार भी धार्मिक या जाति से सम्बंधित मुद्दे पर वोट मांगा गया तो उम्मीदवारी अवैध होकर रद्द होगी यह नियम बना। इसका उद्देश्य था धार्मिक मुद्दों पर जारी राजनीति बंद हो। चूंकि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष प्रक्रिया है, उसमें धर्म और राजनीति की मिलावट न हो। लेकिन उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने मनोहर जोशी के मामले में निर्णय दिया कि हिंदुत्व एक जीवनशैली है। उसके आधार पर वोट मांगना गैरकानूनी नहीं है। इसी विषय पर अभिराम सिंह का चुनाव मुंबई उच्च न्यायालय ने रद्द करार दिया था। इसके विरोध में अभिराम सिंह उच्चतम न्यायालय में गए और मामला अभी भी चल रहा है। लेकिन अब उसमें किसी की रुचि नहीं रही है। अदालत को यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि किन मुद्दों पर वोट मांगने से कानून का उल्लंघन होता है। उसकी कार्रवाई के सम्बंध में भी संभ्रम दीखता है।

जिन पर धर्म के सहारे से चुनाव जीतने के आरोप लगे, उन्हें अदालती कार्रवाई का सामना करना पड़ा। फिर भी राजनीति में जाति-धर्म का उपयोग कुछ कम हुआ ऐसा दिखाई नहीं देता। भारत जैसे धर्म का अधिष्ठान मानने वाले देश में उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का अथवा चुनाव आयोग की आचार संहिता का बहुत उपयोग होगा ऐसा दिखाई नहीं देता।

ध्यान में रखने लायक बात यह है कि ‘सेक्युलर’ शब्द की भारतीय संविधान में या किसी कानून में कहीं भी परिभाषा नहीं की गई है। फिर भी भारतीय चिंतन और आचरण में समता और स्वतंत्रता का बहुत बड़ा आशय है। विचार, विवेक, पसंदीदा धर्म के आचार-विचार का पालन करने, उसका प्रचार करने; यही क्यों किसी भी धर्मश्रद्धा के बिना जीवन जीने की स्वतंत्रता भारतीय संविधान ने प्रदान की है। अतः, भारत में धर्मनिरपेक्षता कहें या सेक्युलरिज्म कहें उसे कभी विरोध नहीं था। विवाद केवल इतना ही शेष है कि धर्मनिरपेक्षता याने निश्चित रूप से क्या है?

इसी कारण कानून की भी सीमाएं हैं। प्रश्न लोगों का, समाज का है। क्या धार्मिक राजनीति का विकल्प है? कहें तो है, न कहें तो नहीं। लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान कर धर्म को राजनीति से दूर रखना क्या संभव है? इसे भी खोजना होगा। प्रश्न लोगों की भावनाओं का है। लोगों का धार्मिक होना स्वाभाविक है। लेकिन क्या हमारा धर्म राजनीति का विषय बनें? इस पर अब लोगों को ही फैसला करना होगा। इस बात पर जनता ध्यान दें तो राजनीति और धर्म जुदा हो सकते हैं। अन्यथा राजनीति और धर्म को लेकर चल रहा गड़बड़झाला खत्म न होने वाला विषय है। क्योंकि, ‘धर्म’ समाज की ‘आत्मा’ है, और राजनीति इस आत्मा के आसपास ही अपना खेल खेलती रहेगी, यह निश्चित है।

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