समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज हेतु…

“समता के मूल में ही समरसता है। हमें समरस हिंदू समाज खड़ा करना है अर्थात शोषणमुक्त समाज, आत्मविस्मृति-भेद-स्वार्थ-विषमता इन बातों से समाज को मुक्त करना है। किसी भी प्रकार की विषमता को हिन्दू समाज में स्थान नहीं है। “समरस समाज, समर्थ भारत” ही हमारा लक्ष्य है।”

एक तथा दो दिसंबर 2018 को नागपुर में समरसता गतिविधि में काम करने वाले कार्यकताओं का अभ्यास वर्ग आयोजित किया गया। रा. स्व. संघ में कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने वाले ऐसे वर्ग सतत होते रहते हैं। “समरस समाज, समर्थ भारत” इस उद्देश्य के साथ इस अभ्यास वर्ग में देश के 37 प्रांतों से 368 पुरूष एवं 46 महिलाएं, कुल 404 प्रतिनिधि उपस्थित थे।

प्रारंभ में समरसता की संकल्पना को “सार्वजनिक स्थान पर व्यर्थ के विचारों का मंच” कह कर खिल्ली उड़ाई जाती थी। आज समरसता संघ की महत्वपूर्ण ‘गतिविधि’ बन चुकी है। ‘गतिविधि’ अर्थात अधिक गति से, अधिक ताकत के साथ काम करना।

सन् 1983 में महाराष्ट्र की सामाजिक परिस्थिति का विचार कर सामाजिक समरसता मंच का काम प्रारंभ हुआ। समरसता मंच के नेतृत्व में ‘भटके (घुमंतू) विमुक्त विकास परिषद’ एवं ‘समरसता साहित्य परिषद’ का कार्य आरंभ हुआ। समरसता यात्रा, साहित्य संमेलन, यमगरवाडी प्रकल्प के माध्यम से समाज को समरसता का मार्ग दिखाया गया। श्रीगुरूजी जन्मशताब्दी वर्ष अर्थात सन् 2006 से समरसता अखिल भारतीय विषय हो गया।

नागपुर में सम्पन्न हुए दो दिवसीय अभ्यास वर्ग का मुख्य सूत्र यह था कि यदि समाज में समरसता लानी हो तो वह कृति से प्रकट होनी चाहिए। अत: वह प्रथम कार्यकर्ताओं के व्यवहार में आनी चाहिए। इसलिए संघ स्वयंसेवकों के आचार-विचार समरसता युक्त होना आवश्यक है। उसका एवं उसके परिवार का प्रभाव आसपास के परिसर पर निर्माण होना चाहिए। इसी सूत्र के पकड़ कर अभ्यास वर्ग में दो दिन विविध विषयों पर मंथन हुआ। इन दो दिनों में चार बार कार्यकताओं को प.पू. सरसंघचालक जी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।

कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करते हुए उन्होंने कहा, “हमें समरसता का काम नहीं, आचरण करना है। गत 2000 वर्षों की समाज की विषमता अब समाप्त होनी ही चाहिए। यह काम सबको मिल कर करना है। संगठन के अंदर एवं समाज में समरसता का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होना चाहिए। इसके लिए स्वयंसेवकों को अपना व्यवहार बदलने की आवश्यकता है। समाज एवं संगठन के प्रत्येक स्तर पर मित्रता कर संबंध मजबूत करने की आवश्यकता है। समरसता समय मिलने पर करने का विषय नहीं है, उसके लिए नियमित समय देने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, व्यावसायिक जीवन एवं सामाजिक जीवन इन चारों स्तरों पर हमारा व्यवहार समरसतापूर्ण होना चाहिए।”

“कार्यकर्ता बंधुओं को अपने आचरण से समाज को समरसता का संदेश देने की आवश्यकता है। समाज में काम करते समय महापुरूषों की जयंती एवं पुण्यतिथि सभी को साथ मिल कर मनानी चाहिए। इसके लिए कार्यकर्ताओं को प्रयत्न करना चाहिए। समाज में द्वेष फैलाने वाले लोगों एवं संगठनों का विचार करने की भी आवश्यकता है। सामाजिक समस्याओं के निराकरण में भी हमें नेतृत्व करना चाहिए। बौद्धिक स्पष्टता, जीवंत संपर्क, समाज के गुणी व्यक्तियों का समूह एवं समरसता गतिविधि के कार्यकर्ता ये सभी आगामी समय में चतुरंग सेना साबित होंगे। इसी के बल पर हम समाज को सामाजिक समरसता की अनुभूति देने वाले हैं।”

रमेश पंतगे जी का सम्मान
आज समरसता विषय देशभर में व्याप्त है। परंतु उसकी शुरूआत महाराष्ट्र में वर्ष 1983 में हुई। ‘सामाजिक समरसता मंच’ नाम से ये काम शुरू हुआ था। अनेक समस्याओं का सामना करते हुए शुरुआती दौर के कार्यकर्ताओं ने समरसता आंदोलन को खड़ा किया। उनमें कुछ प्रमुख कार्यकर्ताओं का सम्मान अभ्यासवर्ग में किया गया। स्व. दत्तोपंत ठेंगडी, स्व.दामूअण्णा दाते, स्व.नामदेवराव घाटगे, स्व.मोहनराव गवंडी, स्व. प्रतापशेठ किनवडेकर इत्यादि दिवंगत कार्यकर्ताओं का स्मरण किया गया। बाद में सर्वश्री रमेश पतंगे, भि.रा.इदाते, रमेश महाजन, रमेश पांडव, श्याम अत्रे, देवजीभाई रावत, अशोक मोढे इत्यादि मान्यवरों का सम्मान रा.स्व.संघ के सरसंघचालक मा. मोहन भागवत जी के करकमलों द्वारा किया गया।

उन्होंने आगे कहा, “समरसता का काम हमारे लिए नया नहीं है। यह काम बहुत समय से चल रहा है। कई बार समता शब्द का उल्लेख होता है। समता के मूल में ही समरसता है। हमें समरस हिंदू समाज खड़ा करना है अर्थात शोषणमुक्त समाज, आत्मविस्मृति-भेद-स्वार्थ-विषमता इन बातों से समाज को मुक्त करना है। किसी भी प्रकार की विषमता को हिन्दू समाज में स्थान नहीं है। विचारों के आधार पर आचरण करने वाला समाज ही हिन्दू समाज है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार हमें उसका विचार करना है। समाज में जो विकृति आई है उसे समझना आवश्यक है। यह विकृति मानसिकता से जुड़ी है। इसलिए मन परिवर्तन आवश्यक है। मन से भेद दूर कर भारतीय जनसिंधु का प्रत्येक बिंदु मेरा है, यह मनोभाव निर्माण करने की आवश्यकता है। संघ में हम सब हिंदू हैं, परंतु समाज में ‘जाति’ होती है और वह भाव मन में होता है। इसलिए मनोभावों को बदलने पर जोर देने की आवश्यकता है।”

हमें तात्कालिक परिणामों के साथ-साथ दीर्घकालीन परिणामों का भी विचार करना होगा। अपना काम गति से करते हुए समताविरोधी प्रचार-प्रसार को भी उत्तर देना होगा। हमें सुनने की क्षमता बढ़ानी होगी। विषमता को लेकर समाज में बहुत रोष है एवं ऐसा भी भ्रम समाज में है कि विषमता के मूल में धर्म है। हमें सुनने की क्षमता विकसित करते हुए समरसता का भाव सहज रूप से सामने वाले के मन में उतारना है। अनेक प्रश्न आएंगे, टीका होगी, इन सबका सामना करने हेतु हमें तैयार रहना होगा।

आरक्षण जैसा विषय सामने आएगा। हमारी आरक्षण की भूमिका निश्चित एवं शांत सुर में समझाने की आवश्यकता है। भ्रम निर्माण करने वालों को वैचारिक मार्ग से उत्तर देते हुए समझाना होगा। समरस आचरण करने वालों की संख्या बढ़ाना एवं उनका प्रभाव निर्माण करना यही हिंदू समाज को समरस करना है। यह ध्यान में रखते हुए आवश्यक काम करने की हमारी मानसिक तैयारी होनी चाहिए। हमें केवल संगठन निर्माण नहीं करना है, वरन् समाज के आधार पर समाज परिवर्तन करना है। हमारा मूल विचार हिंदू समाज को संगठित करना है। सामाजिक समरसता उसका एक आयाम है। यह काम आदेश देकर नहीं, विवेक से होगा।

इस दो दिवसीय अभ्यास वर्ग का समापन करते हुए मा. मोहनजी ने कहा, “हम युगों से चली आ रही इस संस्कृति के घटक हैं। हमारा कार्य हमें स्पष्ट होना चाहिए। हमारे सरीखा अन्य कोई विचार करता भी नहीं है और हमें अन्य लोगों के समान काम करना भी नहीं है। हमारा विचार एवं पद्धति अलग है। धर्म की परिभाषा कहती है कि हम सब एक हैं। मन, कर्म, वचन से यदि यह प्रगट होगा तो ही समाज उसे स्वीकार करेगा। इसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। ‘पहले किया फिर बताया’ इस मानसिकता से हमें खड़े रहना चाहिए। रोज समय निकाल कर इस कार्य हेतु हमें अपने आपको समर्पित करना है।”

“समरस समाज, समर्थ भारत” यह ध्येय आंखों के सामने रख कर मार्गक्रमण करने वाले कार्यकर्ताओं को मा.मोहनजी के ये विचार दीर्घकाल तक उपयुक्त रहेंगे।

Leave a Reply