जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति एवं अनुच्छेद ३५ (ए)

१५ अगस्त १९४७ को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता के साथ ही अंग्रेजों और कुछ स्वार्थी राजनेताओं ने पंथ के नाम पर देश को दो हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्से को मुस्लिम राष्ट्र घोषित कर पाकिस्तान बना दिया गया। स्वतंत्रता के समय भारत में कुल ५६५ से भी अधिक रियासतें थीं। अब इन रियासतों के भारत या पाकिस्तान में वैधानिक तरीके से सम्मिलित होने का समय था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ के अनुसार विलय करने का विशेषाधिकार केवल रियासतों के शासकों के पास था, केवल शासक ही विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर किसी भी अधिराज्य में विलय कर सकते थे

इसी अनुसार अनेक रियासतों के शासकों ने अपनी इच्छा अनुसार भारत या पाकिस्तान में विधिवत तरीके से विलय किया। केवल दो राज्य भारत में ऐसे थे जिनके विलय में शुरुआती दौर में कठिनाइयां आईं। इनमें से एक था हैदराबाद, जो हिन्दू बहुल राज्य था। हैदराबाद के मुस्लिम शासक निजाम की इच्छा पाकिस्तान में विलय करने की थी, लेकिन भौगोलिक सीमाएं साथ ना लगने के कारण यह संभव नहीं था। तब भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने अपनी सफल कूटनीति एवं राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए रियासत का विलय भारत में करवाया।

वहीं दूसरा राज्य था जम्मू-कश्मीर, जो मुस्लिम बहुल राज्य था परंतु यहां हिन्दू डोगरा शासकों का शासन था और महाराजा हरि सिंह तत्कालीन शासक थे। रियासत के विलय में समय जरूर लगा, परंतु इसके लिए महाराजा हरि सिंह की राष्ट्रभक्ति एवं भारत में विलय की इच्छा पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता। रियासत के देरी से विलय का कारण केवल अंग्रेजी हुकूमत और भारत की संास्कृतिक एवं भौगोलिक विरासत से अनभिज्ञ भारतीय राजनेता थे।

अंग्रेजी हुकूमत जम्मू-कश्मीर राज्य की भौगोलिक स्थिति एवं उसके रणनीतिक महत्व से भलीभांति परिचित थी। इसलिए वह कभी नहीं चाहती थी कि जम्मू-कश्मीर राज्य भारत के पास जाए। यदि ऐसा होगा तो भारत एक सशक्त देश होने के कारण कभी भी उन्हें अपनी सीमाओं का उपयोग नहीं करने देगा। उनकी दखल वहां न के बराबर हो जाएगी अथवा उनके हाथ से रूस और अन्य उत्तर-पश्चिमी एशियाई देशों पर नजर रखने का सब से महत्वपूर्ण स्थान छिन जाएगा। इसलिए अंग्रेजी हुकूमत का पूर्ण प्रयास था कि जम्मू-कश्मीर भारत में न जाकर पाकिस्तान के पास जाए। पाकिस्तान एक कमजोर देश होने के कारण उनकी सेना जब चाहे उस स्थान को अपने नियंत्रण में रख सकती है।

भारत की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विरासतों से अनभिज्ञ भारतीय राजनेता अंग्रेजों की इस चाल को अंत तक नहीं भांप सके। अंत तक माउंटबेटन और अंग्रेजी हुकूमत ने प्रयास किया कि महाराजा को किसी तरह पाकिस्तान में विलय के लिए मना लिया जाए। यहां तक कि जिन्ना द्वारा भी इस संदर्भ में प्रयाय किए गए। लेकिन सब दबावों के बावजूद महाराजा पाकिस्तान में विलय को तैयार नहीं हुए। इसी बीच में महाराजा की अस्वीकृति देख पाकिस्तान समझ गया था कि वैधानिक तौर पर जम्मू-कश्मीर कभी भी उसका अंग नहीं बन सकता। तभी पाकिस्तान की सेना ने षड्यंत्र से कबाइलियों के रूप में भारत की सीमाओं पर अतिक्रमण कर हिन्दुओं का कत्लेआम करना शुरू कर दिया। डोगरा सेना एवं स्थानीय वीरोंं द्वारा जब तक संभव था उनसे लड़ते रहे और अंत में राज्य के बहुत बड़े हिस्से में अवैधानिक रूप से कब्जा करने में पाकिस्तानी सेना कामयाब रही।

इतने विरोधों और दबावों के बावजूद भी भारत के प्रति श्रद्धा का उत्कृष्ट उदाहरण देते हुए महाराजा हरि सिंह ने २६ अक्तूबर, १९४७ को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर भारत में विधिवत तरीके से राज्य का विलय कर दिया। महाराजा हरि सिंह द्वारा जिस विलय पत्र पर हस्ताक्षर किया गया वह कोई विशेष न होकर वही विलय पत्र था जिस पर अन्य रियासतों के शासकों ने हस्ताक्षर किए थे। विलय के लिए महाराजा द्वारा कभी कोई शर्त नहीं रखी गई थी, अपितु भारत के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा महाराजा हरि सिंह पर दबाव वनाया गया कि विलय तभी स्वीकार किया जाएगा जब उनके मित्र शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को राज्य का पहला प्रधान मंत्री बनाया जाएगा।

पाकिस्तान द्वारा किए गए अतिक्रमण में लद्दाख और जम्मू का बहुत बड़ा क्षेत्रफल पाकिस्तान के अवैध कब्जे में चला गया। शांतिपूर्ण तरीके से इस मसले को सुलझाने के लिए ३१ दिसम्बर १९४७ को भारत संयुक्त राष्ट्र में गया एवं पाकिस्तान के अवैध कब्जे के संदर्भ में अपना विरोध दर्ज कराया। संयुक्त राष्ट्र ने भी अपने फैसले में पाकिस्तान को भारत के हिस्सों (पूरे जम्मू-कश्मीर) से अपनी सेनाएं हटाने को कहा क्योंकि वह पूर्ण रूप से भारत का था और पाकिस्तान द्वारा अवैधानिक ढंग से कब्जा में लिया गया था।

इसी बीच में भारत में संविधान बनाने की प्रक्रिया भी जोरों-शोरों से चल रही थी। स्वतंत्र भारत को पूर्ण गणतंत्र बनाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। इसके लिए सभी रियासतों में भी संविधान सभा बनाना तय हुआ। संविधान सभा भारत में सम्मिलित सभी रियासतों में बनी थी एवं भारतीय संविधान में उन्हें पार्ट बी स्टेट कहा गया। १९५६ तक हर राज्य का अपना संविधान था न कि केवल जम्मू-कश्मीर का।
राज्यों की संविधान सभा को तीन काम सोंपे गएः पहला- अधिमिलन का सत्यापन करना, दूसरा- राज्यों में संघ के संविधान को विस्तार देना और तीसरा- वे अपना खुद संविधान बनाएंगे। परंतु उस समय जम्मू-कश्मीर के अंदर युद्ध चल रहा था, हम संयुक्त राष्ट्र चले गए थे, परिस्थितियां और थीं इसलिए जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा बन नहीं सकती थी तो भारत के संविधान का राज्य में विस्तार कौन करेगा?
यहीं से अनुच्छेद ३७० का उद्भव हुआ, जो मात्र एक अस्थायी व्यवस्था की गई थी जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए। जिसका काम केवल भारत के संविधान का राज्य में विस्तार करना था और इससे अधिक कुछ नहीं। यह संविधान सभा के अभाव में जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान को लागू करने की तात्कालिक एवं अंतरिम व्यवस्था थी। इसका जम्मू-कश्मीर राज्य से किसी विशिष्ट व्यवहार एवं विशेष दर्जे का कोई भी लेना-देना नहीं था।

अनुच्छेद ३७० की वजह से अनुच्छेद ३५(ए) प्रस्तुत हुआ। १९५४ में राष्ट्रपति के एक आदेश के द्वारा बिना संसदीय कार्यवाही के एक संवैधानिक आदेश निकाला गया जिसमें उन्होंने एक नया अनुच्छेद ३५(ए) भारत के संविधान में जोड़ दिया; जबकि यह शक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३६८ के अंतर्गत केवल संसद को प्राप्त है। राष्ट्रपति अपनी विशेष शक्तियों से किसी अनुच्छेद में बदलाव या संशोधन तो कर सकते हैं परंतु भारतीय संविधान में कोई नया अनुच्छेद डालने का अधिकार केवल भारत की संसद के पास है। बिना संसदीय प्रक्रिया के भारतीय संविधान में असंवैधानिक ढंग से एक नया अनुच्छेद जोड़ कर भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३६८ का उल्लंघन किया गया। इस अनुच्छेद में कहा गया कि जम्मू-कश्मीर की विधान सभा स्थायी निवासी की परिभाषा निश्चित कर उनके विशेष अधिकार सुनिश्चित करे तथा शेष लोगों के अधिकारों को सीमित करे।

इस अनुच्छेद के अनुसार जो जम्मू-कश्मीर राज्य का रहने वाला नहीं है वह वहां पर जमीन नहीं खरीद सकता, वह वहां पर रोजगार नहीं कर सकता और वह वहां पर निवेश नहीं कर सकता। अब इसकी आड़ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद १४, १५, १९ एवं २१ में भारतीय नागरिकों को समानता और कहीं भी रहने के जो अधिकार दिए, वह प्रतिबंधित कर दिए गए।

अनुच्छेद ३७० की वजह से जन्मे अनुच्छेद ३५(ए) का दंश आज सब से ज्यादा कोई झेल रहा है तो वह है १९४७ में पश्चिमी पाकिस्तान से आए दस लाख शरणार्थी। ये लोग राज्य में ७० वर्षों से रह रहे हैं परंतु उन्हें वहां स्थायी निवासी के अधिकार नहीं हैं। वे राज्य में जमीन नहीं खरीद सकते, उनके बच्चे को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, उन्हें व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल सकता। उनको जम्मू-कश्मीर राज्य कोई अधिकार नहीं देता। वे लोकसभा चुनावों में तो वोट डाल सकते हैं, लेकिन विधान सभा एवं अन्य स्थानीय चुनावों में न वोट डाल सकते हैं न ही लड़ हो सकते हैं। दो पीढ़ियां गुजर गईं, ७० वर्ष हो गए लेकिन वे लोग आज भी शरणार्थियों का जीवन जीने को मजबूर हैं। अगर भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० और ३५(ए) नहीं होते तो पश्चिम पाकिस्तान से आए लोगों को आज राज्य में पूरे अधिकार मिलते।

आज पूरे देश में दलित अधिकारों को लेकर हाहाकार मची है। दलितों के शोषण के विरोध में बहुत से तथाकथित मानवाधिकार एवं दलित अधिकार कार्यकर्ता पूरे देश में सक्रिय हैं। परंतु जम्मू-कश्मीर में दलितों के साथ दशकों से हो रहे अन्याय के विरूद्ध वे भी आवाज़ नहीं उठाते। १९५० के दशक में प्रदेश सरकार द्वारा विषेश आग्रह पर बुलाए जाने पर पंजाब से सैंकड़ों दलित परिवार जम्मू-कश्मीर की सफाई के लिए यहां आए थे। दो पीढ़ियां बीतने के बाद इनकी संख्या हज़ारों में हो गई है और अनुच्छेद ३५ (ए) की वजह से वे आज तक राज्य के स्थायी निवासी नहीं बन पाए। सब से बड़ा शोषण जम्मू-कश्मीर के दलितों के साथ इस असंवैधानिक अनुच्छेद, अनुच्छेद ३५ (ए) ने यह किया कि ये लोग सफाई कर्मचारी के अलावा कोई अन्य काम भी नहीं कर सकते। अनुच्छेद ३५ (ए) की वजह से इनके बच्चे व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नहीं ले सकते, यदि वह निजी शिक्षा पाकर किसी और क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहते हैं तो जम्मू-कश्मीर राज्य में उन्हें इसकी अनुमति नहीं है क्योंकि वे केवल सफाई कर्मचारी की नौकरी के अलावा राज्य में कोई अन्य सरकारी नौकरी के लिए आवेदन तक नहीं कर सकते। जम्मू-कश्मीर राज्य से बाहर रहने वालों के साथ तो अनुच्छेद ३५ (ए) की वजह से भेदभाव हो ही रहा है, साथ ही स्वतंत्रता के समय से यहां रहने वाले लाखों लोग भी इसका दंश झेल रहे हैं।

वही दूसरी ओर यदि जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति पर नज़र डाली जाए तो राज्य के भारत के साथ विलय को लेकर एवं तथाकथित विवादित क्षेत्र की जो आधारहीन कहानियां गढ़ी गई हैं वे सब स्पष्ट हो जाती हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद १ के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का १५वां राज्य है। वहीं जम्मू-कश्मीर के संविधान की भी यदि बात करें तो वह भी जम्मू-कश्मीर राज्य के संवैधानिक स्थिति के बारे में स्पष्ट बताता है।

जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद (३) के अनुसार, ’’जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है अथवा रहेगा।’’ इसी संविधान के अनुच्छेद (४) के अनुसार जम्मू- कश्मीर राज्य का भूखंड वह माना जाएगा जो कि १५ अगस्त १९४७ को राज्य के शासक महाराजा हरि सिंह के अधिकार के अधीन था। इस भूखंड में पूर्ण जम्मू-कश्मीर अर्थात गिलगित-बाल्टीस्तान समेत पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े में आने वाला जम्मू-कश्मीर भी है। साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान के अनुच्छेद (५) के अनुसार भारतीय संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत भारतीय संसद के पास राज्य के लिए कानून बनाने का पूर्ण अधिकार है। अंत में तथाकथित विवादित राज्य जम्मू-कश्मीर के संविधान का अंतिम अनुच्छेद, अनुच्छेद १४७ के अनुसार जम्मू-कश्मीर राज्य के अनुच्छेद ३, ५ और १४७ कभी बदले नहीं जा सकते।

भारत तथा जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान को देखते हुए, राज्य का भारत का अभिन्न अंग होने एवं राज्य का भारत में पूर्ण एवं वैधानिक विलय होनेे पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता। साथ ही भारत एवं विशेषकर जम्मू-कश्मीर राज्य के संविधान से यह भी स्पष्ट होता है कि पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर एवं गिलगित-बाल्टीस्तान भी भारत के अभिन्न अंग हैं। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के संविधान एवं अन्य किसी कानूनी एवं वैधानिक दस्तावेज़ में पाकिस्तान के अवैध क़ब्जे में पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर एवं गिलगित-बाल्टीस्तान को पाकिस्तान का अंग नहीं बताया गया है, पूरे राज्य पर उसका दावा तो दूर की बात है।

यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र में भी कभी पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर राज्य के अपना होने का दावा नहीं किया क्योंकि पूर्ण राज्य का कानूनी एवं संवैधानिक विलय भारत के साथ हुआ है, जिसे कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद ३५ के अंतर्गत भारत संयुक्त राष्ट्र में गया था। संयुक्त राष्ट्र्र में जाने का कारण पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों में अवैध एवं उग्र अतिक्रमण करना था न कि जम्मू-कश्मीर राज्य की वैधानिक स्थिति या भारत में उसके विलय को लेकर या पाकिस्तान से कश्मीर को लेकर कोई विवाद को लेकर था। जम्मू-कश्मीर के बारे में जितने भी भ्रम एवं झूठ पिछले ७० वर्षों में चलाए गए उनका उत्तर राज्य से संबंधित संवैधानिक दस्तावेज़ों एवं तथ्योें को जान कर एवं पढ़ कर मिल सकता है।

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