मुसीबत और परेशानी

किसी कवि ने लिखा है –
दुनिया में आदमी को मुसीबत कहां नहीं
वो कौन सी जमीं है जहां आसमां नहीं॥
न पंक्तियों पर अपनी अमूल्य टिप्पणी देने से पहले मैंयह कहना चाहूंगा कि मुसीबत और परेशानी के बीच एक छोटा सा अंतर है। कोई मुसीबत को भी परेशानी समझ कर टाल देता है और कोई परेशानी के बारे में सोच-सोचकर अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लेता है। आप अपनी मुसीबत को परेशानी समझें या परेशानी को मुसीबत, यह आप जानें।
पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों से पता लगा कि भारत में बाघों की संख्या तीस प्रतिशत बढ़ गई है। जिन्हें बाघों से वास्ता नहीं पड़ता, वे शहर वाले और देसी-विदेशी एन.जी.ओ. इससे प्रसन्न हैं; पर जिन गांवों के आसपास बाघ रहते हैं, वे इस समाचार से परेशान हैं। चलिये खैर, बाघों से आज नहीं तो कल, हम निबट ही लेंगे; पर जापान वाले एक दूसरी परेशानी में उलझ गए हैंं, जो धीरे-धीरे उनके लिए मुसीबत बनती जा रही है।
वहां जनसंख्या के आंकड़ों और विभिन्न सर्वेक्षणों में बताया गया है कि लोगों द्वारा पाले जा रहे कुत्तों की संख्या उनके अपने बच्चों से अधिक हो गई है। सबको लगता है कि जब शासन उन्हें बुढ़ापे में सब तरह की सुरक्षा और चिकित्सा सुविधाएं दे रहा है, तो फिर बच्चे पैदा कर परेशानी में क्यों पड़ें? इसका एक पक्ष यह भी है वहां पुरुषों की तरह महिलाएं भी काम करती हैं। यदि कोई महिला गर्भवती हो जाती है, तो उस संस्थान के मालिक मुंह बनाने लगते हैं। उन्हें लगता है कि मां बनने पर यह कई महीने छुट्टी लेगी। इससे इसकी कार्यक्षमता ही नहीं, सुंदरता भी घटेगी और काम की हानि होगी। अत: नौकरी जाने या वेतन और पदोन्नति प्रभावित होने के भय से दम्पति भी बच्चे पैदा करने में रुचि नहीं लेते।
पर काम से घर आने के बाद लोगों को स्नेह-प्रेम और मानसिक संतोष भी चाहिए। दूरदर्शन द्वारा परोसे गए मनोरंजन की भी एक सीमा है, जबकि बच्चे माता-पिता की गोद में कूदफांद कर, उनके कपड़े गंदे कर, उनसे लड़-झगड़कर, उनकी थाली में खाकर और रात में सोते हुए लातें मारकर उन्हें यह संतोष उपलब्ध कराते हैं। जापान वाले इस कमी को पूरा करने के लिए कुत्ते पाल रहे हैं। वे काम से लौटकर कुत्तों के साथ ही खेलते, खाते और सोते हैं। जहां तक घर के अन्य कामों की बात है, उसके लिए वहां रोबोट है ही।
कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। कुत्तों की बढ़ती संख्या को देखकर वहां हर नगर में ‘कुत्ता बाजार’ खुल गया है। अत: कुत्तों के लिए कपड़े, बिस्कुट, मिठाई, दूध, उपहार, चिकित्सा, जिम और शृंगार की दुकानें लगातार बढ़ रही हैं। कुत्तों के फैशन शो भी होते हैं, जिसमें कुत्तों के पीछे उनके मालिक और मालकिन भी शान से चलते हैं। वे यह ध्यान रखते हैं कि कुत्तों की देखरेख करने वाला नौकर चाहे जैसे रहे; पर ‘कुत्ता कक्ष’ का ए.सी. कभी बंद न हो।
अब तो लोग अपने कुत्तों के जन्मदिन भी बड़ी धूमधाम से मनाने लगे हैं। लोगों ने खुद भले ही अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह किया हो; पर उनके पप्पी किसी ऐसे-वैसे गलीछाप के चक्कर में न पड़ जाएं, इसका वे बहुत ध्यान रखते हैं। मानवजाति में व्याप्त रंगभेद अब वहां भी पहुंच गया है। सुना है एक अंग्रेजीछाप नववधू ने विवाह के तीन बाद ही अपने पति से तलाक ले लिया। क्योंकि पति महोदय ने उसके साथ मायके से आए डॉगी को कुत्ता कह दिया था।
जापान में जहां बच्चों की घटती संख्या परेशानी का कारण बनी है, वहां भारत में बच्चे लगातार बढ़ रहे हैं। जापान की अधिकांश जनसंख्या वृद्ध है, तो भारत में ६० प्रतिशत लोग युवा हैं। यदि यही हाल रहा, तो ५० साल बाद जापान और भारत का क्या हाल होगा, इससे लोग चिंतित हैं। जापान में घर होंगे; पर उसमें रहने वाले नहीं, जबकि भारत में लोगों के रहने के लिए घर ही नहीं होंगे।
कहते हैं अति हर चीज की बुरी होती है। इस नाते मेरे खुराफाती दिमाग में एक बहुत क्रांतिकारी विचार आया है। भारत में एक वर्ग ऐसा है, जिसका मुख्य काम जनसंख्या बढ़ाना ही है। ऐसे सब लोगों को यदि नौ संतानों वाले लालू दम्पति के नेतृत्व में जापान भेज दिया जाए, तो ‘एक पंथ दो काज’ की तरह भारत और जापान दोनों की समस्या हल हो जाएगी।
बात कुत्तों की चल रही थी, तो यह भी निवेदन कर दूं कि मेरे भारत महान में भी कुत्ताप्रेमी धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। जिन्होंने आवश्यकता से अधिक पैसा कमा लिया है, या बहुत अधिक अंग्रेजी पढ़ ली है, वे भी जापान के मार्ग पर चल दिए हैं। सुबह-शाम टहलते समय ऐसे लोगों से मुलाकात होती रहती है। पहले लोग अपने घर के दरवाजे पर ‘स्वागतम्’ का बोर्ड लगवाते थे; पर अब उसके बदले ‘कुत्तों से सावधान’ लिखा मिलता है।
कुत्ते को अपनी थाली में खिलाते, बिस्तर पर अपने साथ सुलाते और उसका मुंह चूमते बच्चे प्राय: ऐसे घरों में मिल जाते हैं। कई बेरोजगार लोग इन कुत्तों को नहला-धुला और टहलाकर अपना पेट भर रहे हैं। जैसे बीमार एवं वृद्धों की देखभाल के लिए पुरुष तथा स्त्री नर्सों के भर्ती व प्रशिक्षण केन्द्र हैं, महानगरों में ऐसे ही केंद्र अब कुत्तासेवकों के लिए भी खुल रहे हैं।
शर्मा जी को गर्व है कि उनका प्यारा डॉगी अंग्रेजी के अलावा कोई और भाषा नहीं समझता। यह बात दूसरी है कि वे उसकी भाषा, हावभाव और इशारे बहुत अच्छी तरह समझने लगे हैं। पहले लोग कुत्तों के नाम शेरू, टॉमी और जैकी आदि रखते थे; पर वैश्वीकरण के इस युग में नामों की शृंखला ओबामा से लेकर ओसामा तक और क्लिटंन से लेकर जरदारी तक जा पहुंची है। मुझे तो भय है कि जैसे एक फिल्म ‘मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस.’ के कारण देश में हर तरफ ‘गांधीगीरी’ होने लगी थी, ऐसे ही कहीं ‘कुत्तागीरी’ का फैशन भी न चल निकले।
कलियुग में कुत्ताप्रेमियों की महिमा अपार है। माता-पिता वृद्धाश्रम में, बच्चे देश या विदेश के छात्रावास में, और घर में मन लगाए रखने के लिए कुत्ते। माता-पिता के लिए नर्स, बच्चों के लिए वार्डन, और कुत्तों की सेवा के लिए तो वे खुद हैं ही। ऐसे में उनका भविष्य क्या होगा, ये वही जानें। काश, वे ऐसे बुजुर्गों से कुछ सीख सकें, जिनके सपूतों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया है और जो अपनी सुरक्षा के लिए कुत्तों पर ही निर्भर हैं।
कुत्तों की मानव जाति से मित्रता कब से है, यह शोध का विषय है। महाभारत काल का एक प्रसंग इसमें कुछ सहयोग कर सकता है, जब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने सहयात्री कुत्ते के बिना स्वर्ग जाने से मना कर दिया था। यद्यपि अब न युधिष्ठिर जैसे धर्मराज रहे और न वैसे कुत्ते। सोवियत रूस वालों की कृपा से ‘लाइका’ नामक कुतिया ने मनुष्य से पहले ही अंतरिक्ष की सैर कर ली थी।
अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ उनकी सुरक्षा के लिए प्रशिक्षित कुत्तों का दस्ता भी आता है। पिछली बार क्लिटंन के आने से पूर्व उन कुत्तों द्वारा गांधी जी की समाधि के निरीक्षण पर बड़ा विवाद हुआ था। कुत्ते तो इस बार ओबामा के साथ भी आए थे; पर गनीमत है वे गांधी समाधि पर नहीं गए।
जहां तक वर्मा जी की बात है, वे टहलते समय कुत्तों और कुत्ते वालों से एक लाठी की दूरी बनाए रखते हैं। मैंने इसका कारण पूछा, तो उन्होंने बुजुर्गों की कही हुई ये पंक्तियां दोहरा दीं।
बहिन के घर भाई कुत्ता
ससुर के घर जंवाई कुत्ता
जो कुत्ता पाले वह कुत्ता।
यदि आप इसमें से किसी श्रेणी में हों, तो सावधान हो जाएं। कहना मेरा कर्तव्य है, बाकी तो ये आपकी परेशानी और आपके पड़ोसियों की मुसीबत है। भौं-भौं।

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