भाजपा का सेक्युलर मार्ग से साम्प्रदायिक कार्ड

साम्प्रदायिक कार्ड का अर्थ है, मतदाता की जातिगत पहचान के आधार पर वोट मांगना। यह पहचान जातिगत अथवा धार्मिक भी हो सकती है। इस आलेख में मैं जाति और मोटे तौर पर धर्म के आधार की चर्चा करूंगा।

स्वतंत्रता के बाद के भारत के बहुचर्चित समाजशास्त्री प्रो. एम.एन.श्रीनिवास ने समाज के दो महत्वपूर्ण पहलुओं का जिक्र किया है। हर पहलू को उन्होंने एक पदावली दी है ताकि इन अवधारणाओं को आसानी से समझा जा सके। एक है संस्कृतिकरण- इसका अर्थ है समाज के निम्नतम वर्ग में शामिल किसी जाति का अपने स्वयं के विकास के लिए एक समूह के रूप में कार्यरत होना। यह समूह उच्च वर्णियों की प्रथाओं को स्वीकार तो करेगा ही साथ ही शिक्षा, कौशल विकास आदि में  भी प्रगति करेगा। जाति ऐसा प्रयास करती है, जिससे उसके कमजोर लोगों का स्तर ऊंचा उठाया जा सके। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे सरकार के समर्थन की आवश्यकता नहीं होती- वास्तव में आधुनिक राजनीति में कभी-कभी सरकार पर हावी लोग प्रत्यक्ष में ऐसे अभियानों को रोकने की कोशिश कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें अपने अधिकार इस समूह द्वारा छीने जाने का खतरा महसूस होता है।

दूसरा मुद्दा है बड़ी संख्या वाली जाति- जो चुनावी ताकत पाने का प्रयास करती है और इसी कारण विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ अपनी ही जाति के लोगों को दिलाने की जुगत में रहती है। जनसंख्या के स्वरूप के आधार निर्वाचन क्षेत्र का स्वरूप भी अलग होता है। अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में अलग-अलग जातियां बलशाली हो सकती हैं। प्रो. श्रीनिवास के कथन का सार निम्न दो उद्धरणों से समझा जा सकता है। पहला है प्रो. टी.एन.मदान का-

भारत में १९५० में सभी वयस्क मतदाताओं के आधार पर विभिन्न स्तरों पर चुनाव हुए। प्रो. श्रीनिवास ने पाया कि चुनावी राजनीति में जातिगत निष्ठाओं का उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने इस पर कई लेख लिखे और व्याख्यान दिए। उनका कहना था कि इस तरह जाति का पुनरुज्जीवन हो जाएगा। आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं के प्रभाव से वे खत्म नहीं होंगी, बल्कि उन्हें स्वीकार कर लिया जाएगा। (टी.एन.मदानः ‘एम.एन.श्रीनिवासनः व्यक्ति और उनका कार्य’, द हिंदू, दिसम्बर ८, १९९९)

 दूसरा उद्धरण है प्रो. आंद्रे बेतीले का-

स्वाधीनता के आरंभिक कुछ वर्षों में शिक्षित भारतीय भी यह सोचते थे कि जाति अब उतार पर हैः भारत में पहले उसका महत्व था लेकिन भविष्य में उसका महत्व बहुत कम हो जाएगा। कम से कम कोलकाता में पचासवें दशक के मध्य में यही सामान्य धारणा थी। तब मैं वहां छात्र था और जब १९५९ में दिल्ली में प्राध्यापक बना तब भी वहां के अर्थशास्त्रियों, इतिहासकारों और राजनीति शास्त्र के विशेषज्ञों की लगभग यही राय थी। केवल समाजशास्त्रियों ने ही जाति को गंभीरता से लिया था और चूंकि मैं उनमें से एक था इसलिए दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्रियों में मैं मजाक का विषय बन गया था।

जब एम.एन.श्रीनिवास ने जनवरी १९५७ में भारतीय विज्ञान कांग्रेस में पुरातत्व और मानववंश शास्त्र पर अपने व्याख्यान में कहा कि स्वतंत्र भारत में जाति का पुनरुज्जीवन हो रहा है, तब टाइम्स ऑफ इंडिया ने टिप्पणी की कि वे जाति के महत्व को अनावश्यक रूप से तूल दे रहे हैं। अब तो समकालीन भारत में अखबार के लेखकगण जाति का ही महत्व विशद करने में एक दूसरे से स्पर्घा करने में लगे हैं। यहां तक कि उनके बीच इस स्पर्धा के कारण गंभीर अध्येता तक अब सकते में हैं। (आंद्रे बेतीले, द लॉंग शैडो, डीएनए, अगस्त १, २००६) इस लेख को हींींि:// ुुु.वपरळपवळर.लेा/ेळिपळेप/ारळप-रीींळलश्रश ींहश-श्रेपस-ीहरवेु १०४४९१३ पर देखा जा सकता है।

किसी निर्वाचन क्षेत्र में प्रभावी जाति होने के लिए उस जाति के ३५% से अधिक मतदाताओं की जरूरत नहीं है। जीत के लिए ऐसी प्रभावी जाति अपने से कम संख्या वाली किसी जाति का समर्थन हासिल कर सकती है। बड़ी जाति के समर्थन के बदले में इस छोटी जाति को संरक्षण का लाभ भी मिलता है। यही नहीं, उनकी संख्या कम होने से उनमें विभाजन भी कम होता है।

 

जब चुनाव आते हैंै तब जिन जातियों को लाभ नहीं मिला वे एकत्रित हो जाती हैं, उनका गठबंधन हो जाता है और इस तरह बड़ी जाति को परास्त कर दिया जाता है। परिणामतः गठबंधन प्रभावी जातिगत समूह बन जाता है। इस तरह लाभ अब अन्य समूह के लोगों को मिलना शुरू हो जाता है। इससे बहुसंख्या वाली जाति में कटुता फैलती है, लेकिन वैधानिक रूप से वे कुछ नहीं कर सकती।

प्रभावी समूह के समक्ष यह समस्या होती है कि लाभ का बंटवारा किस तरह हो- स्वाभाविक रूप से कमजोर जाति अधिक हिस्सा मांगती है। लेकिन, अन्य जातियों के लोग इस बात को स्वीकार नहीं करते और अधिक हिस्सा देने को तैयार नहीं होते। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब उपलब्ध संसाधनों की कमी के कारण पूरे समूह की उचित आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं होता। अर्थव्यवस्था जब वृद्धि के बजाय वितरण पर मुख्यतः केंद्रित होती है तब यह स्थिति पैदा होती है।

इससे प्रभावी समूह में संघर्ष पैदा होता है। चूंकि संघर्ष का बाह्य स्वरूप जातिगत आधार ही होता है, इसलिए समाजशास्त्री यह कहना शुरू कर देते हैं कि जातिगत व्यवस्था के फलस्वरूप यह सामाजिक अन्याय होता है। मेरी राय में ऐसे मामलों को पक्षपातपूर्ण रवैये से देखने का कई समाजशास्त्रियों का स्वभाव बन जाने के कारण उनकी यह राय बनती है। जब प्रभावी जाति संघर्ष का अंग बन जाती है तब यह स्थिति और उभरती है। लिहाजा, स्पष्ट है कि इस संघर्ष का मुद्दा सेक्युलर है और वह है सरकार के पास उपलब्ध सीमित लाभों का बंटवारा कैसे हो।

जाति के संदर्भ में भारतीय राजनीति में तीन प्रमुख समूह हैं। जो सब से निम्न माने जाते हैं वे दलित हैं, उसके बाद अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) का नम्बर आता है और तीसरा समूह है सवर्णों या उच्च जातियों का। बहरहाल, इनमें भी कई उप-समूह और उन उप-समूहों के और उप-समूह भी हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें तो  दलितों में हैं जाटव एवं गैर-जाटव, ओबीसी में हैं यादव एवं गैर-यादव। इनके भी दो उप-समूह हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश के राजनीतिक नेता इन दो बड़े समूहों- दलित एवं ओबीसी- से ही आते हैं। अतः यह धारणा है और सच भी है कि राजनीतिक नेता अपने उप-समूह के बारे में ही अधिक चिंतित रहते हैं और इस तरह अन्य दूसरे बड़े समूहों के लोगों को सरकारी लाभों से वंचित कर देते हैं।

और यहीं भाजपा प्रवेश करती है। उसने इन दो बड़े समूहों की छोटी-छोटी जातियों को बड़ी जातियों के प्रभाव से मुक्त कर दिया और तीसरे बड़े समूह-अर्थात उच्च जातियों- से गठजोड़ कर लिया। चुनावी गणित में उनकी संख्या कुल मतदाताओं के ५५% हो जाती है और इस तरह ध्रुवीकरण के अंतर्गत ४०% वोट मिल जाना संभव है।

जैसा कि हम जानते हैं, गठजोड़ के हर सदस्य के साम्प्रदायिक हित अलग-अलग हैं और उन्हें संतुष्ट करना बहुत मुश्किल काम है। भाजपा ने सेक्युलर कार्यक्रम- सब का साथ, सब का विकास- का नारा दिया था। यह उनके पूर्व के सेक्युलर कार्यक्रम- सब के लिए न्याय- का ही विस्तार था। इन कार्यक्रमों में विकास पर बल था, न कि महज वितरण पर।

पिछले २५ वर्षों में बेतरतीब विकास हुआ है। सरकार के बिना भी यह हुआ है। इस सीमित विकास से जनता की, विशेष रूप से युवकों की कुछ आकांक्षाओं की पूर्ति हुई। सब से महत्वपूर्ण बात यह कि जनता को यह विश्वास हो गया था कि यदि विकास के लिए यथोचित कार्यक्रमों के साथ कोई आगे आता है तो वास्तविक विकास अवश्य होगा। १९८० के पूर्व लोगों ने देखा कि गरीबी हटाओ जैसे कार्यक्रम महज नारे साबित हुए हैं; क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था।

लोग जानते थे कि नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भाजपा ने अच्छा काम किया है। कोई सवाल उठा सकता है कि क्या जो कहा वैसा हुआ है या नहीं? लेकिन यह सवाल बेमानी हो गया; क्योंकि लोग देख रहे हैं कि अब दिन में २० घंटों से अधिक समय तक बिजली उपलब्ध है (जबकि पहले केवल चार घंटे ही उपलब्ध थी)। फिर लोग ‘चौबीसों घंटे बिजली’ के नारे को क्यों घास डालेंगे? यही नहीं, गुजरात में विकास की गति बढ़ने से लोगों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए, और इनमें भी दूसरे राज्यों से आए हुए लोगों की संख्या अधिक थी; क्योंकि उनके अपने गृहराज्य में वैसे अवसर उपलब्ध नहीं थे।

इस बात का उल्लेख करना भी जरूरी है कि उत्तर प्रदेश के यादव एवं जाटव नेताओं ने इस्लामिक समुदाय से भी जुड़ने की कोशिश की। उनकी अपनी जातियों की तरह ही इस्लामिक समुदाय के वोट भी पाने के प्रयास किए। जब धार्मिक समुदाय की बात होती है तब उनके नेता धर्मगुरू ही होते हैं; न कि अन्य। उनकी मांगों को पूरा करना होता है और मदरसों को धन, उर्दू को बढ़ावा देना, हज हाऊसों का निर्माण, कब्रस्तान बनाने के लिए सहायता, इफ्तार पार्टियों का आयोजन आदि कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं।

इसे खूब उछाला गया, क्योंकि इन नेताओं को लगता था कि उनके अपने उप-समूहों के वोट तो उन्हें मिलेंगे ही, अन्य एक बड़ा समूह भी उनके साथ आ जाएगा। इस बात को वे जान नहीं पाए कि इस उप-समूह अर्थात हिंदुओं की भी अपनी सांस्कृतिक एवं सभ्यतात्मक अस्मिता है। हिंदुओं को लगता था कि जब इस्लामिक समुदाय की मांगें पूरी की जाती हैं तो हिंदुओं की सांस्कृतिक एवं सभ्यतात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति क्यों न हो? इस एक बड़े समूह के भीतर केवल बड़ी उप-जाति को ही संरक्षण उपलब्ध होने से अन्य उससे छितर गए। इससे प्रति-ध्रुवीकरण के लिए मैदान बन गया।

इस तरह सेक्युलर आधार पर जाति समूहों का नया गठजोड़ बन गया। और, जब उन्हें महसूस हुआ कि उनकी साम्प्रदायिक एवं सेक्युलर आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकती है, तब गठजोड़ के समूह बात सुनने और विश्वास करने के लिए तैयार हो गए।

अंतिम प्रश्न यह है कि उत्तर प्रदेश में जीत के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में नए भारत के लिए कार्यक्रम बनाने की जो पहल की है क्या ये कार्यक्रम भी इस नए गठजोड़ के समूह के लोगों के लिए होंगे? यदि बेहतर सड़कें बनाई गईं, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार किया गया, अच्छी शिक्षा के लिए अवसर पैदा किए गए तो क्या यह सब केवल नए गठजोड़ वाले समूहों के लिए ही होगा? भाजपा नेताओं ने बार-बार कहा है कि बेहतर सेवा पाने वालों की साम्प्रदायिक पहचान वे कभी नहीं पूछते। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था में सुधार होगा वैसे-वैसे सरकारी सेवाओं के लिए अधिकाधिक धन उपलब्ध होगा।

नया गठजोड़ जिन कार्यक्रमों की अपेक्षा रखता है उससे ‘सब का साथ, सब का विकास’ चरितार्थ होगा। और, तब वह महज एक नारा मात्र नहीं रहेगा।

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