मजदूर आंदोलन में बदलाव

हमारे देश के मजदूर आंदोलन में थकावट आ गई है। १९९० के दशक में भारत द्वारा स्वीकारी गई नई आर्थिक नीति का स्वाभाविक परिणाम मजदूर आंदोलन को आज की स्थिति को दर्शाता है। नई आर्थिक नीति में खुली बाजार अथर्र्व्यवस्था इ. को महत्व प्राप्त है। बाजार से सरकार की दखलअंदाजी धीरे-धीरे कम करना नई आर्थिक नीति की प्रमुख विशेषता है।

बाजार से सरकार की दखलअंदाजी कम करने में सब से ज्यादा हानि मजदूर क्षेत्र को हुई। समय के साथ मजदूरों से कॉन्ट्रैक्ट किया जाने लगा। काम करने के घंटे (समय) बढ़ गए और यूनियन की स्थापना करने पर पाबंदी लग गई। जब भारत ने इक्कीसवीं सदी में प्रवेश किया तब मजदूर आंदोलन की कमर टूट गई थी। मजदूर खास कर संगठित मजदूर इसके लिए जिम्मेदार थे। यह सारी उलझन या जटिलता समझने के लिए हमें मजदूर-आंदोलन पर नजर दौड़ानी पड़ेगी।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में निजी कंपनियां शुरू हुईं। इनमें से ज्यादातर कपड़े की मिलें थीं। निजी कंपनियों में काम करने हेतु मजदूर आए। १९५४ में मुंबई में पहली कपड़े की मिल लगी, तो कोलकाता में पहली ज्ाूट की मिल शुरू हुई। समयानुसार मजदूर संघों बा निर्माण हुआ। भारत का पहला मजदूर-संगठन स्थापित करने का श्रेय एक ‘मराठी’ व्यक्ति को जाता है, यह हम सबके लिए गर्व की बात है। उनका नाम था नारायण मेघाजी लोखंडे, जिन्होंने १८९० में मुंबई में ‘मुंबई मिल हैंड्स एसोसिएशन’ बनाई। ये स्वयं ‘दीनबंधु’ मासिक पत्रिका भी चलाते थे।

बीसवीं सदी के आरंभ में मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में बड़े पैमाने पर मजदूर वर्ग निर्माण हुआ था। उस समय देश भर में राष्ट्रीय आंदोलन का वातावरण था, मजदूर वर्ग इससे पृथक नहीं था। १९०८ के वर्ष में जब लोकमान्य तिलक को छह साल के लिए कारावास की सजा सुनाई गई थी, तब मुंबई के मजदूर एकत्रित होकर छह दिन की हड़ताल पर चले गए। छह दिन ही क्यों? पांच या सात दिन की हड़ताल पर क्यों नहीं? तिलक को छह साल की सजा हुई थी, इसीलिए मजदूरों ने छह दिन की हड़ताल की।

मजदूर आंदोलन के संदर्भ में विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण बात हुई, जो थी अक्टूबर १९१७ में रूस में हुई मजदूर क्रांति। इस घटना से दुनिया के मजदूरों का आत्म सम्मान जागृत हुआ। भारतीय स्वतंत्रता-आंदोलन चलाने में अग्रणी कांग्रेस को मजदूरों की ताकत का अंदाजा लगा। परिणामस्वरूप कांग्रेस ने आगे आकर ३१ अक्टूबर १९२० को ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ यानि (ए. आय. टी. यू. सी) की स्थापना की। इस संगठन का पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ, जिसके अध्यक्ष लाला लाजपतराय थे। इस प्रथम अधिवेशन में कांग्रेस के पं. जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेता उपस्थित थे।

जिस प्रकार भारतीय नेताओं को मजदूरों का महत्व समझ में आने लगा था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार भी मजदूर वर्ग का महत्व समझती थी। अंग्रेज सरकार ने १८८१ में पहला फैक्टरी एक्ट परित किया था। तत्पश्चात १९२३ में ‘इंडियन ट्रेड युनियन एक्ट’ आया। उसके बाद १९२९ में ‘ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट’ आया।

बाबासाहब आंबेडकर जी भी मजदूर वर्ग का महत्व भली-भांति समझते थे। उन्होंने १९३६ में प्रथम राजनीतिक दल स्थापित किया वह था, ‘स्वतंत्र मजदूर दल’। इस दल ने १९३७ साल के प्रांतीय चुनाव में मुंबई प्रदेश में सुयश प्राप्त किया था। भाई डांगे जी जैसे और कई लोगों की कोशिशों से भारत में १९२५ साल में ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ की स्थापना हुई। तब तक मजदूर क्षेत्र पर कम्युनिस्ट नेताओं की पकड़ मजबूत हो गई थी। जब स्वंतत्रता प्राप्त हुई तब सरदार पटेल ने कांग्रेस के कई नेताओं की मदद से ‘इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ नामक मजदूर संगठन स्थापित किया।

स्वंतत्रता के बाद लगभग सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों के मजदूर संगठन बने। समाजवादियों के ‘हिंदी मजदूर संघ’ और ‘हिंदू मजदूर पंचायत’ संगठन थे। इसी समय पं. नेहरू सरकार ने १९५६ में तमिलनाडु में ‘आवडी’ स्थान पर हुए कांग्रेस के अधिवेशन में ‘समाजवादी समाज रचना’ प्रस्ताव पारित किया। इस प्रकार देश के सार्वजनिक विकास का मार्ग खुला। उससे पहले देश में दो प्रकार के कर्मचारी होते थे। निजी कंपनियों में नौकरी करने वाले और अन्य जैसे कि मंत्रालय, रेलवे, पोस्ट आफिस जैसी जगहों पर नौकरी करने वाले। सार्वजनिक क्षेत्र का विकास शुरू होने पर एक तीसरे वर्ग का निर्माण हुआ; वह है- सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी करने वाले। उदाहरणार्थ मझगांव डॉक्स, राष्ट्रीय केमिकल्स एंड फटिलाइजर्स जैसी जगहों पर हजारों लोग नौकरी करते थे।

इस क्षेत्र में यूनियनबाजी जोर-शोर से शुरू हुई। जुलाई १९६९ में इदिरा गांधी की सरकार ने रातोंरात १४ बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसी कारण यूनियनबाजी में भी बढ़ोत्तरी हुई। ये सारे ऐसे क्षेत्र थे जहां पर मजदूर संगठन हड़तालें कर के सरकार को मजबूर कर अपनी मांगें मनवाते थे। परिणामस्वरूप मजदूर संगठनों की उद्दंडता बढ़ गई। यह अशिष्टता धीरे-धीरे समूचे कर्मचारी वर्ग में उतर गई। पुरानी पीढ़ी के लोगों को शायद याद होगा कि उस समय राष्ट्रीयकृत हुई बैंक का कर्मचारी ग्राहकों से कितनी उदंडता से पेश आता था। छोटे-मोटे कारण को लेकर वे हड़ताल पर चले जाते थे और समाज को सताते थे। इस संदर्भ में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में हुई रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को भी याद कर सकते हैं।

इस समय तक भाई डांगे की पीढ़ी के मजदूर नेता पुराने और अर्थहीन हो गए थे या काल के गाल में समा गए थे। जब तक डांगे जी थे, तब तक मजदूर आंदोलन में सद्हेतु था। डांगे जी जैसे नेता हमेशा हड़ताल नहीं करवाते थे; अगर करें भी तो हड़ताल के समय मजदूरों का चर्चा सत्र आयोजित कर, उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ बढ़ाते थे। उस समय का मजदूर वर्ग समाज का जिम्मेदार नागरिक था।

डांगे जी के पश्चात मजदूर आंदोलन सिर्फ वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करने वाला आंदोलन होकर रह गया। इसका दोष डॉ. दत्ता सामंत को जाता है। उन्होंने गोदरेज और प्रीमियर कंपनी में जबरदस्त हड़तालें करवाईं और मजदूरों के वेतन में बढ़ोत्तरी करवाई। उस समय १९७० और १९८० के दशक में डॉ. सामंत जी का नेतृत्व किसी आंधी के समान सर्वत्र दिखाई पड़ता था। उनका काम करने का ढंग अलग था। वे पहले लंबी हड़ताल का इशारा देते थे। मालिक असहाय हो जाता तो उससे मनचाही मांगें मनवा लेते। सामंत जी की कार्यशैली पर आपत्ति जताने से पूर्व उन्होंने समाज के सम्मुख कुछ बातें लाईं वे बतानी पड़ेगी। उनके मतानुसार अच्छी कंपनियों के सालाना हिसाब में गड़बड़ होती है। ज्यादा लाभ छिपाया जाता है। यह सालाना हिसाब कंपनी को हानि हो रही है, इस प्रकार दिखाया जाता है। सामंत जी ने हिसाब-किताब का ब्यौरा बताया करते थे। कभी-कभी दुगुना तो कभी तिगुना वेतन मांगा, उसे प्राप्त भी किया। उस समय डॉ. सामंत की लोकप्रियता आसमान छू रही थी। धीरे-धीरे इसी से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के मजदूरों की उदंडता बढ़ने लगी।

अब बारी आती है मिल मजदूरों की १९८२ की ऐतिहासिक हड़ताल की। जिस प्रकार यह हड़ताल हुई और आगे जाकर कुचल दी गई, उससे मजदूरों के भविष्य की एक भयंकर झलक दिखाई पड़ी। एक तरफ एकत्रित मजदूर और दूसरी ओर एकजुट मालिक। मालिकों ने तय कर ही लिया था कि मिलें फिर से शुरू नहीं करेंगे। जिस जमीन पर मिलें खड़ी थीं उसकी कीमतें आसमान पर थीं। परिणामस्वरूप इस हड़ताल में मजदूर वर्ग की कमर टूट गई और मिल नष्ट हो गए।

इस समय तक दुनिया के सामने चीन जैसे देश के ‘स्पेशल इकोनॉमिक जोन’ का मॉडल आ गया था। यहां मालिकों को खास सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थीं, मजदूरों के आम कानून यहां पर लागू नहीं थे। यहां पर मालिक ‘हायर एंड फायर’ की नीति पर अमल करता था। काम के घंटों का बंधन नहीं था। उन्नीसवीं सदी के ब्रिटिश उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स ने उस वक्त के इंग्लैड के मजदूरों के अमानवीय शोषण का जो वर्णन किया था वह आंखों के सामने दिखने लगा। इस नए मॉडल के पीछे सरकार ही थी, यह प्रमुख बात थी। १९८० के दशक में डेंग के नेतृत्व में उदारतावाद का जो कार्यक्रम चीन ने शुरू किया था, उसके परिणाम १९९० तक दिखाई देने लगे। इसी काल में भारत ने १९९१ में नई आर्थिक नीति स्वीकार कर ली थी। यहीं से मजदूर आंदोलन का पतन शुरू हो गया।

आजकल सर्वत्र कान्ट्रैक्ट कार्यप्रणाली प्रचलित है। जब अपने देश में १९८० के दशक में मजदूर आंदोलन जोरों पर था तब देश के कुल मजदूरों की संख्या में से सिर्फ दस प्रतिशत मजदूर संगठित क्षेत्र में थे; जबकि लगभग ९०% असंगठित क्षेत्र में थे। आज तो हालात बेहद खस्ता हैं। आज ‘स्थायी नौकरी’ शब्द लगभग चलन से बाहर ही हो गया है। सभी जगहों पर अनुबंध (कॉंटै्रक्ट) प्रणाली से मजदूर भरती की जाती है। मुंबई जैसे महानगरों में मॉल्स में काम करने वालों को बारह घंटे की नौकरी करनी पड़ती है। ओवरटाइम, बोनस जैसे शब्दों का शायद इस्तेमाल भी नहीं होता।

इन बदले हालातों के लिए जितनी जिम्मेदार वैश्विक स्थिति है, उतना ही जिम्मेदार है पैसे के पीछे भागने वाला मजदूर आंदोलन। समाज का बड़ा तबका इससे कोई सहानुभूति नहीं रखता। भारतीय मजदूर आंदोलन में यथासमय अनेक दुष्प्रवृत्तियों ने जोर पकड़ा। उदाहरणार्थ १९६५ में पारित बोनस कानून; शायद भारत ही दुनिया का एकमात्र ऐसा देश होगा जहां कंपनी को लाभ हो या हानि मजदूरों को कम से कम ८.३३ प्रतिशत (यानि एक महीने की तनख्वाह) बोनस देना ही पड़ता था। बोनस की दुनिया की संकल्पना यानि लाभ में हिस्सा। लाभ हुआ तो उसका हिस्सा मजदूरों को देने के बारे में सोचा जा सकता है। यह पद्धति है। भारत में कम से कम एक महीने का वेतन मिलेगा ही ऐसी स्थिति थी। सारांश में यह कहा जा सकता है कि ग्यारह महीने के काम के लिए तेरह महीनों का वेतन। तर्क का विरोध स्पष्ट है। समाजवादी समाज रचना का सपना देखने वाली सरकार मजदूरों की सारी मांगें पूरी कर रही थीं। आज वही सरकार मजदूरों की ओर अनदेखा करती है।

मैं विगत बीस साल से शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत हूं। इसमें होने वाले परिवर्तन आपके सामने रखता हूं। दूसरे क्षेत्रों में इससे कुछ अलग हो रहा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज शिक्षा-क्षेत्र में भी कॉन्ट्रैक्ट प्रणाली आ गई है।

अध्यापकों की नौकरी निश्चित नहीं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह प्रश्न उठाया जाए तो उंगली अध्यापक की ओर ही उठती है। नौकरी में जिनकी नियुक्ति निश्चित रूप से हुई है ऐसे अध्यापक सही काम करते हैं क्या? इसका सर्वेक्षण किया जाए तो बहुत सारी मजेदार जानकारियां मिलेंगी। अपने विषय का आधुनिक ज्ञान हो, इसके लिए शायद ही कोई अध्यापक कोशिश करता हो, फिर भी हर चार-पांच साल के बाद वेतन आयोग लागू किया जाता है, वेतन में बढ़ोत्तरी होती है। मिलने वाली तनख्वाह और अध्यापकों के आउटपुट (गुणनफल) का कोई आपसी मेल या संबध नहीं होता। ऐसी हालत में अगर कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) प्रणाली आए तो दोष सरकार का होगा या आलसी अध्यापकों का? भारत का मजदूर क्षेत्र इस चक्र से गुजरा है। स्वतंत्रता पूर्व के मजदूर आंदोलन, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का मजदूर आंदोलन और १९९१ के पश्चात का मजदूर आंदोलन; साधारणत: तीन पड़ाव बनाए जा सकते हैं। इसमें से कुछ मजदूर संगठनों की अशिष्टता और समाज को कठिनाई में डालने का तरीका समाज ने नजदीक से देखा है। असंगठित मजदूरों पर अत्याचार आज हम से नहीं देखे जाते फिर भी संगठित क्षेत्रों के मजदूरों के बारे में समाज में सहानुभूति या संवेदना नहीं है। यह सच है।

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