परंपरा के साथ आधुनिकता का संगम भारतीय नव वर्ष यात्रा

ौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!
कितनी भी कठिन, असंभव हो, स्थितियां कितनी भीविपरीत हो लेकिन इंसान यदि ठान लेता है, तहे-दिल से कोशिश करता है और उसके प्रयासों में सचाई और कुछ करने का माद्दा हो तो उसकी जीत और सफलता को कोई रोक नहीं सकता। यहां सबसे अहम् बात होती है आसमान की तरफ पत्थर उछालने की यानी पहल या शुरुआत करने की! यहीं पहल फिर नए कार्य, नई बात और नई सुबह को जन्म देती है।
डोंबिवली शहर में दि १८ मार्च १९९९ को ऐसी ही एक नई सुबह हुई। इस सुबह ने एक नई बात, नई परंपरा को जन्म दिया…
महाराष्ट्र के मानचित्र पर उभरा हुआ डोंबिवली नामक छोटा सा शहर! यह शहर परंपरा और आधुनिकता का संगम स्वयं में पालते हुए अपने सांस्कृतिक और शैक्षिक मूल्यों के लिए जाना जाता है। डोंबिवली के रास्ते हरदम भीड़ से बहते रहते हैं, यहां एक इमारत दूसरी इमारत से सट कर खड़ी होती है, यहां ‘सिविक सेंस’ नहीं है, ऐसा भी कुछ इस शहर के बारे में कहा जाता है। बावजूद इसके इस शहर द्वारा परंपरा का निर्वाह किया जाना, नई पीढ़ी का आधुनिकता के साथ सांस्कृतिक परंपरा से जुड़ जाना भी अपने आप में बेमिसाल है। कुछ नया, नवोन्मेषी करने का सिलसिला इस शहर की आदत सी बन गई है। ‘जो कुछ असली भारतीय है, उसे अपनाने तथा अपने इतिहास का सम्मान करने में यह शहर हरदम आगे रहता है।
इसी डोंबिवली शहर में १८ मार्च १९९९ को ‘भारतीय नव वर्ष स्वागत यात्रा’ और इसकी शुरुआत करने की संकल्पना क्यों उपजी, इस बारे में विस्तृत रूप से जानने के लिए डोंबिवली के आद्य नगराध्यक्ष और डोंबिवली के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक क्षेत्र में समान रूप से विचरण करने वाले तथा ‘नव वर्ष स्वागत यात्रा’ की संकल्पना को संजोने वाले आदरणीय श्री आबासाहेब पटवारी जी से इस बारे में की गई बातचीत के कुछ अंश-

हम ३१ दिसम्बर को वर्ष का अंतिम दिन मानते हुए १ जनवरी को नए साल का स्वागत करते हैं, फिर मार्च अर्थात् चैत्र में ‘नव वर्ष स्वागत यात्रा’ को शुरू करने की बात कैसे सामने आई?
हम बड़े हर्षोल्लास से १ जनवरी को नए साल का स्वागत करते हैं लेकिन क्या वह हमारा नया साल है? क्या कोई बात अज्ञानवश सालों साल चली आने की वजह से हमारी ‘परंपरा’ बन गई है, इसलिए हमें उसका स्वीकार करना चाहिए? जैसे सवाल मेरे दिल को हरदम मथते रहते थे। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाएं तो हमारा पंचांग चैत्र शुद्ध प्रतिपदा को ही वर्ष की शुरुआत मानता है और मेरे विचार से वहीं हमारा सही वर्षारंभ है। इसका वैज्ञानिक आधार भी है। अंग्रेजी के सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर जैसे महीनों को आप भारतीय परंपरा के अनुसार देखेंगे तो ये नाम सप्तम, अष्टम, नवम, दशम ही है। दिसंबर की समाप्ति पर ‘एक्स-मस’ अर्थात् एक्स (ु) यानी ‘मस’ और ‘मस’ यानी माह (दशम् मास) है। अब यह सातवां, आठवां, नौवां, दसवां यह क्रम तभी आ सकता है। जब हम इन महीनों को मार्च माह से गिनना शुरू करते हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार ‘मार्च’ माह, चैत्र माह में ही शुरू हो जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर भी इसी के तहत मार्च से ही शुरू हो जाता था। शुरू में उनका वर्ष भी दस महीनों का माना जाता था। इस्लामिक चांद वर्ष भी दस महीनों का होता है। सौर वर्ष की तरह ऋतुचक्र भी स्पष्ट दिखाई देता है। इसलिए अंग्रेजी कैलेंडर में बाद में जनवरी और फरवरी इन दो माहों को जोड़ा गया। वैसे देखा जाएं तो इन दो महीनों को अंत में जोड़ना चाहिए था लेकिन अज्ञानवश उन्हें शुरू मे जोड़ा गया और समय के साथ साथ यह जोड़ बिल्कुल अटूट बन गया। वास्तविक रूप से यदि देखा जाएं तो ‘मार्च’ या ‘चैत्र’ को वसंत ऋतु के प्रारंभिक महीने के रूप में तथा वैज्ञानिक दृष्टि से वर्षारंभ के लिए ‘चैत्र पाडवा’ के दिन को वर्षारंभ दिन के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। आज भी सरकारी कार्यालयों/बैंकों में वित्तीय वर्ष की समाप्ति मार्च में ही होती है। यदि साल का अंतिम माह दिसंबर है तो फिर ईयर एंड मार्च में कैसे होगा? नक्षत्र के अनुसार माह निर्धारित करने का वैज्ञानिक तरीका हमारे पास उपलब्ध होने के बावजूद अज्ञानवश या अंधश्रद्धावश हमारा जनवरी माह को वर्षारंभ मानना सर्वथैव गलत है। चैत्र पाडवा को ही वर्षारंभ दिन के रूप में मनाया जाना चाहिए और इस बात को लेकर ‘भारतीय नव वर्ष स्वागत यात्रा’ की संकल्पना सामने आई। पुराणों में भी चैत्र माह में ब्रह्मध्वजा होती है यानी इस दिन ब्रह्मा ने प्रकृति, मानव का निर्माण किया। यहीं नहीं, वर्ष १९४८ में लोकसभा ने वैज्ञानिक रूप से निर्माण भारतीय सौर वर्ष को अधिमान्यता दी है।
यदि मार्च या चैत्र माह हमारा वर्षारंभ है तो उसे उतने ही हर्षोल्लास से मनाया जाना चाहिए, नए वर्ष का स्वागत नए उल्लास, उत्साह, जोश, परंपरा, संस्कृति से संपन्न स्वागत यात्रा से होना चाहिए। इस सोच को मैंने अपने सहकर्मियों तथा हमारे श्री गणेश मंदिर संस्थान के सामने प्रस्तुत किया और उन सभी ने इस संकल्पना का सिर्फ स्वागत की नहीं किया गया बल्कि इसे मूर्त रूप देने हेतु कार्यवाही भी शुरू की।

क्या ़‘नव वर्ष स्वागत यात्रा’ के आयोजन के पीछे सिर्फ यही सोच थी?
हां। यह सोच तो थी ही; लेकिन इसके अलावा बहुत सी बातें थीं जो दिमाग में कुलबुला रही थी। इस स्वागत यात्रा से ढेरों अपेक्षाएं थीं। देखिए, हमारा समाज सदियों से इस धरा पर निवास कर रहा है। समाज ने यहां अपनी संस्कृति और सभ्यताओं का भी निर्माण किया है। समय के साथ एक समाज नष्ट होकर उसका स्थान दूसरे समाज ने लिया। सभ्यता, संस्कृति भी बदलती रही। यह सिलसिला सदियों से चलता आ रहा है। यदि इस परंपरा में आप आज के समाज को देखेंगे तो पाएंगे कि आज का समाज बिल्कुल अलग है। यह समाज ज्यादातर भौतिकतावादी है। हर बात का इस्तेमाल कर उसे फेंकने का यहां चलन है। हम अंग्रेजदा हो गए हैं। पाश्चात्यों के अंधानुकरण की वजह से हमारा समाज हमारी अच्छी बातों को भी भूल गया है या फिर उस वे बातें ‘आऊटडेटेड’ लगती है। नए साल को मनाने की संकल्पना शराब के दौर और बेतरतीब नृत्य तक सीमित रह गई है। मोबाइल, ई-मेल, सायबर कैफे, वीडियो गेम्स ने बच्चों तथा युवा पीढ़ी पर कब्जा कर लिया है। ‘डे’ज की संख्या बढ़ने लगी है, पहनावे बदल रहे हैं, फास्ट फूड आया है, पार्टियों का जमाना है। और, इस बदले हुए हालातों में इंसान इंसान से दूर होता जा रहा है। इस बदलते हुए परिवेश से डोंबिवली कैसे अछूती रह सकती थी? मानवी सभ्यता के लिए यह चिंता का विषय था; क्योंकि मूल्यों का, संस्कृति का र्हास हो रहा है। ऐसे में लग रहा था कि एकत्रित होकर ऐसा कुछ किया जाएं जो हमारी संस्कृति को फिर से प्रतिस्थापित करेगा, लोगों को एकत्रित लाएगा, परंपरा को नए सिरे से जागृत करेगा और हिंदू धर्म को अनुस्यूत ‘सर्व धर्म सम भाव’ की संकल्पना को फिर से स्थापित करेगा।

सपना तो बहुत बड़ा है और हम देख रहे हैं कि डोंबिवली ही नहीं बल्कि ठाणे, कल्याण और मुंबई में भी ये ‘नव वर्ष स्वागत यात्राएं’ शुरू हुई हैं। यही नहीं, केवल महाराष्ट्र तक ही ये यात्राएं सीमित नहीं रही हैं; बल्कि महाराष्ट्र के बाहर और भारत के बाहर अमेरिका में- ह्यूस्टन जैसे शहरों में भी ‘एकत्रित होने’ का यह सिलसिला शुरू हुआ है। क्या आपको लगता है, आपकी संकल्पना पूरी तरह से सफल हुई है?
देखिए, जब संकल्पना पूरी तरह से सफल होती है या वास्तविकता में उतरती है, तब भविष्य में करने के लिए कुछ बचता नहीं, यह तो इस संकल्पना की शुरूआत है। आगे जाकर इसमें बहुत से पहलू जुड़ने वाले हैं और अब भी जुड़ते जा रहे हैं। संकल्पना और विस्तृत और गहरी बनती जा रही है। पूर्व में गांवों में किसी त्योहार या आयोजन पर गांव के सभी लोग इकट्ठा होते थे। उस आयोजन को सभी लोग जाति, धर्म से ऊपर उठकर मनाते थे। इससे गांव की एकता और मजबूत हो जाती थी। हम उसी जज्बे को फिर से जगाना चाहते हैं। साथ ही, गांव या शहर में अनेक संस्थाएं होती हैं, उनके अलग-अलग नजरिये होते हैं तथा उनमें अपनी अपनी परिधि में सीमित रहने की तथा स्वयं को एक दूसरे से श्रेष्ठ साबीत करने की होड़ सी लगी रहती है। ये संस्थाएं कभी एक मंच पर आकर कोई ठोस बात नहीं कर पातीं। ऐसे में समता और एकता को अपने में सहेज कर सांस्कृतिक, सामाजिक नींव पर परंपरा की अच्छाइयों को शामिल कर सामाजिक एकता, आपसी भाईचारा तथा प्रेम और इंसानी अच्छाईयों का आवाहन करने का यह प्रयास था। इसमें मंदिर को आधार इसलिए बनाया गया क्योंकि पूजा स्थानों को लेकर संभवतया अधिकतर मतभेद कम होते हैं और हमारा किसी भी जाति या उसके पूजा स्थान को लेकर कोई विरोध नहीं है। इस यात्रा में कोई भी भारतीय नागरिक शामिल हो सकता है। लेकिन पूजा स्थानों का अपना सामाजिक पहलू होता है। इसलिए इनसे जुड़ कर आप समाज के साथ जुड़ जाते हैं।
यह आयोजन करना इतना आसान नहीं था। वैसे भी किसी बात की शुरुआत करना, अपने आप में बड़ी कठिन प्रक्रिया होती है। एक बार शुरुआत हो जाने पर फिर बात आगे बढ़ती जाती है। आपको भी शुरू में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। अपने शुरुआती अनुभवों को बताइए।
कठिनाइयों को मैं उतना महत्व नहीं देता; क्योंकि व्यक्तिगत बात से हट कर सामाजिक स्तर पर कुछ करना, सहजता से नहीं होता। सब को साथ लेना होता है। बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है। स्वयं को सजग और लचीला रखना पड़ता है और निरंतर काम करना पड़ता है। लोगों ने मेरा साथ दिया, सहयोग दिया। उस साल मैंने आयोजन से पूर्व इस क्षेत्र की १५० संस्थाओं से साक्षात्कार किया, उन्हें इस आयोजन का महत्व बताया और उसे उनमें गहरे तक रोप दिया, प्रचार किया। युवाओं को इसमें शामिल करना अत्यावश्यक था। हमने युवाओं से स्कूल, कॉलेजेस, संस्थाओं के जरिए बात की। ‘भरारी’ जैसी शारीरिक विकलांग बच्चों की संस्था तथा ‘वात्सल्य’ जैसी मतिमंद बच्चों की संस्था ने भी सहयोग दिया। इस यात्रा को भव्य, दिव्य तथा सोने की तरह चमकने वाले अपने अतीत को और चमकीला करने का मेरा सपना और प्रयास था। ‘चित्ररथ’ बनाने हेतु जो विषय दिए गए थे वे भी हमारी पुरानी और वर्तमान संपन्नता को दिखाने वाले थे। जैसे कि आयुर्वेद, कम्प्यूटर आदि। स्वच्छता अभियान का आयोजन कर यात्रा की पूर्व संध्या को स्कूली बच्चों के जरिए लोगों को जागृत किया गया।
महिलाओं तथा उनकी संस्थाओं द्वारा महत्वपूर्ण स्थानों तथा रास्तों पर बड़ी-बड़ी रंगोलियां बनाई गई, आसमान और मैदानों पर पटाखों की आवाज रहित सजावट देखते ही बन रही थी। दूसरे दिन प्रात: ५ बजे ‘नव वर्ष स्वागत यात्रा’ का शुभारंभ श्री गणेशजी की समग्र पूजा के साथ किया गया। पूजा के बाद गणेशजी की प्रतिमा को पालकी में स्थापित किया गया और घुड़सवारों और चित्ररथों की मालिकाओं के साथ यात्रा आगे बढ़ने लगी। शहर के अनेक हिस्सों की उपयात्राएं इस मुख्य यात्रा में शामिल होती गईं और यात्रा की व्यापकता बढ़ती गई। ढोल ताशे बज रहे थे, डोंबिवली की सभी शैक्षिक, सामाजिक, जाति संस्थाएं, उपासना पद्धति, संप्रदायों ने इस यात्रा में सहभागिता दी थी। विकलांग, अनाथ बालकों, वनवासी बंधुओं, समाज के दुर्बल घटकों, युवाओं के उत्कर्ष तथा महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु कार्यरत संस्थाओं ने भी सक्रियता से इस यात्रा में हिस्सा लिया था। कुल ११० संस्थाओं तथा ६६ रंगबिरंगी चित्ररथों ने एक अलग समां बांध रखा था। सार्वजनिक गुढियों को खड़ा किया गया था। लेजिम, भजन-कीर्तन के जत्थों ने अपने वाद्यों के साथ संगीतमय समां बांध दिया था। तकरीबन ३०-४० हजार नागरिक पूरी मुस्तैदी तथा अनुशासन के साथ यात्रा में शामिल हो गए थे। लोगों को पानी तथा गणेशजी का प्रसाद बांटा जा रहा था। रास्ते पर संजाए गए दरवाजों तथा स्वागत द्वारों से यह इतना बड़ा जुलूस इतनी शांति से जा रहा था कि पुलिस भी अचंभित थी। भारतीय संत परंपरा, नगालैंड के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत पारंपारिकता, विभिन्न प्रतियोगताओं का आयोजन तथा ज्येष्ठ समाजवादी नेता तथा स्वतंत्रता सेनानी दत्ताजी ताम्हणे द्वारा ‘मैंने ब्रह्म देख लिया’ यह कहना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने अपने वक्तव्य में यह कहना कि यह स्वागत यात्रा यानी समाज जागृति की प्रक्रिया का आरंभ है, इस यात्रा की सार्थकता को बयां करते हैं। हम यही तो चाहते हैं कि समाज इस तरह से एकत्रित होकर एक नई उर्जा का निर्माण करें जो सकारात्मक होने के साथ साथ समाज उपयोगी हो और एकता और परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़ दें।
इतना भव्य दिव्य आयोजन और उसकी उतनी भव्य दिव्य सार्थकता- कैसा लगता है आपको?
सच कहूं… मैं अभिभूत हूं.. इस आयोजन से, लोगों के सार्थक सहयोग से तथा इस यात्रा की स्वीकार्यता से! इससे यह साबित होता है कि लोग सकारात्मक होते हैं और अच्छी बातों का सहजता से स्वीकार कर उसे अपनाते हैं। इस यात्रा का दूर दूर तक पहुंचना, इस यात्रा का अनेक स्थानों पर आयोजन होना, यही दर्शाता है कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं। समाज और जिंदगी के साथ हमने जिस रवैये को अपनाया है, वह भविष्य में बहुत दूर तक जाएगा, इस बात का विश्वास इस आयोजन ने दिया है। अब तो यह सिलसिला बन गया है। तब से लेकर अब तक हर साल नव वर्ष के पावन पर्व पर यह स्वागत यात्रा निकलती है तथा अपनी परंपराओं के साथ ही आधुनिकता को जोड़ने वाली नई पीढ़ी, ज्येष्ठों के मार्गदर्शन के साथ उसे सफल बनाती है। हर साल इसमें नए-नए आयाम जुड़ जाते हैं। हमारा यह प्रयास और अपेक्षा है कि यह ‘भारतीय नव वर्ष यात्रा’, पूरे भारत वर्ष में, हर शहर, हर गांव में आयोजित की जानी चाहिए। जाति, धर्म, भाषा, भेदभाव से ऊपर उठकर वर्तमान और भविष्य के साथ साथ आधुनिकता से परंपरा और अतीत को जोड़ने वाली यह यात्रा नए भारत का निर्माण करेगी, इसका मुझे विश्वास है। आबासाहेब के उस अनुभवी चेहरे पर यह कहते हुए एक गजब का आत्मविश्वास झलक रहा था। उनकी आंखों में भविष्य के भारत की कल्पना से एक नई चमक तैरने लगी थी। वह चमक और विश्वास, हमें भी इस यात्रा में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहा था।
‘एक पत्थर बडी तबीयत से उछाला गया था- वर्ष १९९८ में ‘भारतीय नव वर्ष यात्रा’ के आयोजन के रूप में और हर वर्ष के साथ उसकी बढ़ती व्यापकता और लोकप्रियता को देखकर पूरा आसमान ही नीचे उतरने लगा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है।

Leave a Reply