संविधान में ‘समाजवाद’ एवं‘धर्मनिरपेक्षता’

ह मारे देश में यदाकदा महत्वहीन मुद्दों पर भी राष्ट्रीय बहसछिड़ जाती है। हालांकि यह विवाद एक अंतराल के बाद थम भी जाता है। परंतु इस दौरान समाज में वैचारिक प्रदूषण तो फैलता ही है। इसीलिए केंद्र सरकार द्वारा प्रकाशित एक विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना अधूरी छप जाने के कारण इसी प्रकार की एक गरम बहस देश में चल पड़ी। इस विज्ञापन में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य का तो उल्लेख था, परंतु १९७६ में संविधान में जोड़े गए दो शब्द ‘समाजवाद’ एवं ‘धर्मनिरपेक्षता’ का उल्लेख नहीं था। इसी बात पर एक निरर्थक होहल्ला मच गया। उसके बाद केंद्र सरकार ने आवश्यक स्पष्टीकरण भी दिया और अब यह बहस थमती हुई नजर आ रही है।
इस विवाद के मूल में ‘समाजवाद’ एवं ‘धर्मनिरपेक्षता’ वे दो शब्द थे जो भारतीय संविधान में १९७६ में हुए ४२ वें संशोधन के द्वारा जोड़े गए। मूल संविधान में में ये शब्द नहीं थे। १९७६ में समावेशित इन दोनों शब्दों का विज्ञापन में उल्लेख नहीं था। इसे लेकर एक ऐसा वातावरण बनाया गया कि यह एक चूक न होकर मानो इसके पीछे संविधान बदलने की भाजपा की मंशा दिखाई दे रही है। इनमें भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द पर ही बहस अधिक केंद्रित थी। ‘समाजवाद’ यह शब्द बहस के केंद्र में नहीं था। इसी बीच शिवसेना सांसद संजय राऊत का यह बयान भी आया कि ‘समाजवाद’ एवं ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से विलोपित कर दिया जाए। बहस को हवा देने का एक और हथियार मिल गया। केंद्र सरकार पर विरोधियों के हमले अधिक तेज हो गए। अब विवाद के बादल काफी हद तक छट गए हैं तो भी इस शांतिपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ प्रस्तावना पर विचार करना जरूरी है। हिन्दुस्थान की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां सदैव धर्मनिरपेक्षता की पोषक रही हैं। जब स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था तब भी स्वतंत्रता के बाद धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था बनी रहेगी इस बात पर किसी को कोई संदेह नहीं था। जनवरी १९५० को संविधान लागू हुआ तब से ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा स्पष्ट थी। संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों में एक अधिकार अल्पसंख्यकों के विकास के लिए ही है। अल्पसंख्यकों के लिए विशेष धार्मिक एवं भाषाई अधिकार संविधान में निहीत हैं। किसी भी धार्मिक नेता या संगठन को धर्म के नाम पर धन वसूली की मनाही जैसी अनेक बातें संविधान में हैं। इतना ही नहीं तो आज तक किसी भी सरकार द्वारा समय समय पर लिए गए किसी भी निर्णय के द्वारा किसी धर्म विशेष को कोई लाभ नहीं दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय समय पर दिए गए निर्णयों से भी धर्मनिरपेक्षता के भाव को पुष्ट ही किया गया। उसका अर्थ यह है कि जब संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख नहीं था तब भी हमारा संविधान तथा व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष ही थी। यद्यपि धर्मनिरपेक्षता शब्द का उल्लेख पहली बार १९७६ में संविधान में किया गया परंतु उसके पहले भी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था ही थी, न कि धर्म आधारित व्यवस्था लागू थी। भारतीय समाज हजारों वर्षों से धार्मिक सहिष्णुता के लिए दुनिया में प्रसिद्ध है। इस देश में धार्मिक विविधता कोई नई बात नहीं है। हमारे देश की जो सैंकड़ो वर्षों की वास्तविकता है वही १९७६ में संविधान में उल्लेखित हुई।
तत्कालिन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के द्वारा आपातकाल के अवसर का लाभ लेते हुए ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान में जोड़ने का उपक्रम अल्यसंख्यकों को प्रसन्न करने का एक प्रयास था। वैसे देखा जाए तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी; पर राजनीति के खेल ही निराले होते हैं। इंदिरा गांधी को अल्पसंख्यकों के वोट बैंक पर पूरा विश्वास नहीं था। मात्र इस वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए ही धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान में जोड़ा गया ऐसा निहितार्थ निकाला जा सकता है। अब ‘समाजवाद’ की बात करें। इस विषय में यह तथ्य स्पष्ट है कि स्वतंत्रता के पहले से ही देश के कुछ दबंग नेता समाजवाद के मोह में फंस चुके थे। लेनिन के नेतृत्व में १९१७ में रूस में क्रांति का सूत्रपात हुआ। इसके बाद दस वर्षों के अंदर रूस ने शिक्षा के क्षेत्र में तथा आर्थिक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की। रूसीक्रांति के १०वें जन्म दिवस पर आयोजित भव्य समारोह में उपस्थित रहने के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी आमंत्रण मिला था। पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस समय रूस द्वारा दस वर्षों में की गई प्रगति को देखकर घोषणा की कि हम भी समाजवादी मार्ग से भारत को प्रगति के रास्ते पर लेकर जाएंगे। आगे चलकर १९३४ में कांग्रेस के अंदर ही कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई जिसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया, मीनू मसानी तथा नरेंद्र देव जैसे विचारक थे। कांग्रेस में एक ओर युवा समाजवादी खेमा था तो दूसरी ओर सरदार पटेल व सी. राजगोपालचारी जैसे दक्षिणपंथी भी थे। जिनके बीच पार्टी में बहस चलती रहती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद १९५५ में तामिलनाडु में संपन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में पारित प्रस्ताव का आशय भी देश में समाजवादी रचना का ही था। परिणामस्वरूप देश में प्रारंभ हुई दूसरी पंचवर्षीय योजना मेंे सार्वजनिक क्षेत्रों को अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदारी देने का निश्चय हुआ। यह बात तब की है जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधान मंत्री थे। बाद में सत्ता का सूत्र श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों में आया। जुलाई १९६९ में चौदह निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। इसी समय राजाओं के प्रिवी पर्स बंद कर दिए गए। ये सभी निर्णय देश को समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने वाले थे, इसमें कोई शंका नहीं है। इसका अर्थ यह है कि १९७६ में संविधान में समाजवाद शब्द के उल्लेखित होने के पहले भी देश में समाजवादी व्यवस्था थी। केवल श्रीमती इंदिरा गांधी ने १९७६ में इसे अधिकृत स्वरूप प्रदान किया।
जिस कांग्रेस पार्टी ने ‘समाजवाद’ शब्द को १९७६ में संविधान में स्थान दिलाया उसी कांग्रेस पार्टी ने १९९१ में समाजवाद को बलाए ताक में रखकर नई आर्थिक नीति को स्वीकार किया। इस नई आर्थिक नीति के कारण देश में वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की शुरुआत हुई। उसके बाद १९८८ में भाजपा गठबंधन सरकार ने भी आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण की शुरुआत की। इसी आर्थिक कार्यक्रम को डॉ. मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार ने २००४ से २०१४ तक आगे बढ़ाया। मोदी सरकार भी वहीं कर रही है। इस नए आर्थिक परिवेश में संविधान में ‘समाजवाद’ शब्द का रहना या न रहना बेमानी है। इस सारे विवेचन का उद्देश्य कांग्रेस या भाजपा को दोष देना नहीं है। इन पार्टियों ने अपने स्तर पर देश के सामने उपस्थित प्रश्नों का हल करने का प्रयास किया व कर रही हैं। ध्यान देने की बात है कि बदलती परिस्थितियों के अनुसार देश को तथा व्यक्ति को भी बदलना पड़ता है। इन बदलावों के लिए जिस प्रकार देश की आंतरिक परिस्थितियां जिम्मेदार होती हैं, उसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी जिम्मेदार होती हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से तो १९९१ तक अर्थात सोवियत यूनियन के विघटन तक समाजवाद का बोलबाला था। इधर चीन की डेग सरकार ने तो सोवियत रूस के विघटन के पूर्व ही नई आर्थिक नीति के तहत काम करना प्रारंभ कर दिया था।
इस नई आर्थिक नीति में होने वाली लाभ-हानि की बात तो दुनिया के सामने आ रही है। भारत ने भी इस आर्थिक नीति को स्वीकार कर दुनिया के साथ चलने का फैसला कर लिया है। आज यूरोप, अमेरिका, एशिया या अफ्रीका में समाजवादियों की सत्ता आने का कोई लक्षण नहीं है। केवल लैटिन अमेरिका में समाजवादी पार्टी सत्ता में दिखाई देती है। किसी भी राजनीतिक विचार का पूरी तरह सफल या असफल होना संभव नहीं है। जहां जैसी परिस्थितियां हैं वहां उस समाज का मतदाता उस प्रकार की पार्टी को सत्ता सौंपता है। अपने देश में १९९८ में व १९९९ में संपन्न लोकसभा चुनावों में भाजपा के १८२ सांसद चुनकर आए थे। इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं, फिर भी भारतीय मतदाता की बदली हुई मानसिकता यह महत्वपूर्ण कारक था, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस विवेचना से यह स्पष्ट हो रहा है कि संविधान प्रस्ताव में उल्लेखित ‘समाजवाद’ व ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का आज की परिस्थितियों में कितना महत्व है, साथ ही इन मुद्दों को लेकर निरर्थक बहस करना समय का दुरूपयोग ही है।
मो.: ९८९२१०३८८०

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