कहां खो गए वे पशु-पक्षी?

प्रकृति में हरेक जीव-जंतु का एक चक्र है, जैसे कि जंगल में यदि हिरण जरूरी है तो शेर भी। …हर जानवर, कीट, पक्षी धरती पर इंसान के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। इसे हमारे पुरखे अच्छी तरह जानते थे, लेकिन आधुनिकता के चक्कर में हम इसे भूलते जा रहे हैं। यह खतरे की घंटी है।

पिछले साल जुलाई महीने में ही उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा था कि जानवरों को भी इंसान की ही तरह जीने का हक है। वे भी सुरक्षा, स्वास्थ्य और क्रूरता के विरूद्ध इंसान जैसे ही अधिकार रखते हैं। हालांकि इस आदेश पर चर्चा कम ही हुई और राज्य सरकार ने गाय को राष्ट्रमाता घोषित कर दिया। असल में ऐसे आदेशों से न तो गाय बचती है और न ही अन्य जानवर। जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश नहीं जाता कि प्रकृति ने धरती पर इंसान, वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया है, तब तक उनके संरक्षण को इंसान अपना कर्तव्य नहीं मानेगा। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का ना तो प्रतिरोध कर सकते हैं और ना ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया है। आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने हैं कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी।

भारत में संसार का केवल 2.4 प्रतिशत भू-भाग है जिसके 7 से 8 प्रतिशत भू-भाग पर भिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृधि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। कितना सधा हुआ खेल है प्रकृति का! मानव जीवन के लिए जल जरूरी है तो जल को संरक्षित करने के लिए नदी तालाब। नदी-तालाब में जल को स्वच्छ रखने के लिए मछली, कछुए और मेंढ़क अनिवार्य हैं। मछली उदर पूर्ति के लिए तो मेंढ़क ज्यादा उत्पात न करें इसके लिए सांप अनिवार्य है और सांप जब संकट बने तो उनके लिए मोर या नेवला है। कायनात ने एक शानदार सहअस्तित्व और संतुलन का चक्र बनाया। तभी हमारे पूर्वज यूं ही सांप या बैल या सिंह या मयूर की पूजा नहीं करते थे, जंगल के विकास के लिए छोटे-छोटे कीट भी उतने ही अनिवार्य हैं जितने इंसान। विडम्बना है कि अधिक फसल की लालच में हम केंचुए और कई अन्य मित्र कीट को मार रहे हैं।

अब गिद्ध को ही लें, भले ही इसकी शक्ल सूरत अच्छी ना हो, लेकिन हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए वह एक अनिवार्य पक्षी है। 90 के दशक की शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे लेकिन अब उनमें से कुछ लाख ही बचे हैं। विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी संख्या हर साल आधी की दर से कम होती जा रही है। इसकी संख्या घटने लगी तो सरकार भी सतर्क हो गई- चंडीगढ़ के पास पिंजौर, बुंदेलखंड में ओरछा सहित देश के दर्जनों स्थानों पर अब गिद्ध संरक्षण की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं। जान लें कि मरे पशु को खा कर अपने परिवेश को स्वच्छ करने के कार्य में गिद्ध का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। हुआ यूं कि इंसान ने अपनी लालच के चलते पालतू मवेशियों को दूध के लिए रासायनिक इंजेक्शन देने शुरू कर दिए। वहीं मवेशी के भोजन में खेती में इस्तेमाल कीटनाशकों व रासायनिक दवाओं का प्रभाव बढ़ गया। अब गिद्ध अपने स्वभाव के अनुसर जब ऐसे मरे हुए जानवरों को खाने आया तो वह खुद ही असामयिक काल के गाल में समा गया।

आधुनिकता ने अकेले गिद्ध को ही नहीं, घर में मिलने वाली गौरेया से लेकर बाज, कठफोड़वा व कई अन्य पंक्षियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। वास्तव में ये पक्षी जमीन पर मिलने वाले ऐसे कीड़ों व कीटों को अपना भोजन बनाते हैं जो खेती के लिए नुकसानदेह होते हैं। कौवा, मोर, टटहिरी, उकाब व बगुला सहित कई पक्षी जहां पर्यावरण को शुद्ध रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, वहीं मानव जीवन के उपयोग में भी इनकी अहम भूमिका है।

जमीन की मिट्टी को उपजाऊ बनाने व सड़े-गले पत्ते खा कर शानदार मिट्टी उगलने वाले केंचुओं की घटती संख्या धरती के अस्तित्व के लिए संकट है। प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के पीछे अधिकतर लोग अंधाधुंध कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग मान रहे हैं। कीड़े-मकौड़े व मक्खियों की बढ़ रही आबादी के चलते इन मांसाहारी पक्षियों की मानव जीवन में बहुत कमी खल रही है। यदि इसी प्रकार पक्षियों की संख्या घटती गई तो आने वाले समय में मनुष्य को भारी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। यह सांप सहित कई जनघातक कीट-पतंगों की संख्या को नियंत्रित करने में प्रकृति का अनिवार्य तत्व है। ये खेतों में बोए गए बीजों को खाते हैं। चूंकि बीजों को रासायनिक दवाओं में भिगोया जा रहा है, सो इनकी मृत्यु हो जाती है। यही नहीं दानेदार फसलों को सूंडी से बचाने के लिए किसान उस पर कीटनाशक छिड़कता है और जैसे ही मोर या अन्य पक्षी ने उसे चुगा, वह मारा जाता है।

सांप को किसान का मित्र कहा जाता है। सांप संकेतक प्रजाति है। इसका मतलब यह है कि आबोहवा बदलने पर सबसे पहले वही प्रभावित होते हैं। इस लिहाज से उनकी मौजूदगी हमारी मौजूदगी को सुनिश्चित करती है। हम सांपों के महत्व को कम महसूस करते हैं और उसे डरावना प्राणी मानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उनके बगैर हम कीटों और चूहों से परेशान हो जाएंगे। यह भी जान लें कि ‘सांप तभी आक्रामक होते हैं, जब उनके साथ छेड़छाड़ किया जाए या हमला किया जाए। वे हमेशा आक्रमण करने के बदले भागने की कोशिश करते हैं।’

मेंढ़कों का इतनी तेजी से सफाया करने के बहुत भयंकर परिणाम सामने आए हैं। इसकी खुराक हैं वे कीड़े-मकौड़े, मच्छर तथा पतंगे, जो हमारी फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। अब हुआ यह कि मेंढ़कों की संख्या बेहद घट जाने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। पहले मेंढ़क बहुत से कीड़ों को खा जाया करते थे, किंतु अब कीट-पतंगों की संख्या बढ़ गई और वे फसलों को भारी नुकसान पहुंचाने लगे हैं।

दूसरी ओर सांपों के लिए भी कठिनाई उत्पन्न हो गई। सांपों का मुख्य भोजन है मेंढ़क और चूहे। मेंढ़क समाप्त होने से सांपों का भोजन कम हो गया तो सांप भी कम हो गए हैं। सांप कम होने का परिणाम यह निकला कि चूहों की संख्या में वृद्धि हो गई है। वे चूहे अनाज की फसलों को चट करने लगे हैं। इस तरह मेंढ़कों को मारने से फसलों को कीड़ों और चूहों से पहुंचने वाली हानि बहुत बढ़ गई है। मेंढक कम होने पर वे मक्खी-मच्छर भी बढ़ गए, जो पानी वाली जगहों में पैदा होते हैं और मनुष्यों को काटते हैं या बीमारियां फैलाते हैं।

कौआ भारतीय लोक परंपरा में यूं ही आदरणीय नहीं बन गया। हमारे पूर्वज जानते थे कि इंसान की बस्ती में कौए का रहना स्वास्थ्य व अन्य कारणों से कितना महत्वपूर्ण है। कौए अगर विलुप्त हो जाते हैं तो इंसान की जिंदगी पर इसका बुरा असर पड़ेगा। क्योंकि कौए इंसान को अनेक बीमारियों एवं प्रदूषण से बचाते हैं। टीबी से ग्रस्त रोगी के खखार में टीबी के जीवाणु होते हैं, जो रोगी द्वारा बाहर फेंकते ही कौए उसे तुरंत खा जाते हैं, और जीवाणु को फैलने से बचाते हैं। ठीक इसी तरह किसी मवेशी के मरने पर उसकी लाश से उत्पन्न कीड़ों-मकौड़ों को सफाचट कर जाता है। आम लोगों द्वारा शौच खुले मैदान में कर दिए जाने पर वह वहां भी पहुंच उसे साफ करते हैं।  शहरी भोजन में रासायनिक तत्वों तथा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण कौए भी समाज से विमुख होते जा रहे हैं। इंसानी जिंदगी में कौओं के महत्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की जिंदगी में तमाम किस्से कौओं से जोड़कर देखे जाते रहे हैं। लेकिन अब इनकी कम होती संख्या चिंता का सबब बन रही है। जानकार कहते हैं कि इसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम खुद ही हैं, जो पर्यावरण को प्रदूषित करके कौओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

प्रकृति में हर एक जीव-जंतु का एक चक्र है। जैसे कि जंगल में यदि हिरण जरूरी है तो शेर भी। यह सच है कि शेर का भोजन हिरण ही है लेकिन प्राकृतिक संतुलन का यही चक्र है। यदि किसी जंगल में हिरण की संख्या बढ़ जाए तो वहां अंधाधुंध चराई से हरियाली को ंसकट खड़ा हो जाएगा, इसी लिए इस संतुलन को बनाए रखने के लिए शेर भी जरूरी है। इसी तरह हर जानवर, कीट, पक्षी धरती पर इंसान के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है

Leave a Reply