नई संभावनाओं की ओर नई विदेश नीति

मोदी सरकार की व्यापक नीतियों, विश्व का राजनीतिक माहौल, वाशिंगटन की वर्तमान नीतिगत अस्पष्टता और बीजिंग के बढ़ते कद के बीच नई दिल्ली ने अपनी क्षेत्रीय और वैश्विक ताकत को भरपूर धार दी है। समान सोच वाले देशों की सहयोगी भावना भारत को विश्वसनीय क्षेत्रीय मध्यस्थ ताकत के रूप में उभरने में भरपूर मदद करेगी।

एक ऐसे समय में जबकि देश के तथाकथित सेक्युलर और समाजवादी एक राष्ट्रवादी विचारधारा वाले दल के शासक मुखिया को राष्ट्रवाद की परिभाषा, विदेश नीति पढ़ाने की असफल कोशिश कर रहे हैं, अपनी यूरोपनीत विचारधारा के खण्डन पर विलाप कर रहे हैं और इस खंडन को देश के भविष्य और वर्तमान दोनों के लिए आत्मघाती बता रहे हैं; ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, क्या वास्तव में भारतीय राष्ट्रवाद से ओतप्रोत विचारधारा देश के लिए खतरनाक है? इससे हमारी वैश्विक स्थिति खराब हो रही है? उत्तर है – बिलकुल नहीं, बल्कि यह केंचुल उतार फेंकते ही (केंचुल इसलिए क्योंकि आम भारतीय जनमानस के अंतःस्तल में भारत धरा के गौरव का भान सर्वदा से ही रहा है पर नेहरूवादियों की वामपंथी नीतियों ने हमें हमेशा ही बरगलाए रखा कि प्रगति के लिए विकास और गौरव का यूरोपीय मॉडल ही सार्थक है।) वैश्विक स्तर पर देश का कूटनीतिक प्रभाव आश्चर्यजनक रूप से बहुगुणित हुआ है। इसका सबसे सशक्त उदाहरण है, संयुक्त राष्ट्रसंघ में २१ जून को योग दिवस मनाए जाने का बिल रिकार्ड नौ दिनों में पारित करवा लिया जाना।

बड़े राष्ट्रों का हर संभव लक्ष्य अपनी राजनीतिक शक्तियों का विस्तार करना होता है ताकि वे दूसरे राष्ट्रों के फैसलों और नीतियों को प्रभावित कर अपने प्रभुत्व को व्यापक स्वरूप दे सकें। देश की वर्तमान सरकार के मुखिया के क्रिया-कलापों को देखकर सहज ही आभास हो जाता है कि वे बहुत ही सकारात्मक ढंग से नई संभावनाओं के संचालन पर जोर देते हुए इसी रणनीति के तहत कार्य कर रहे हैं। अपने तीन वर्षों के लघु कार्यकाल में ही मोदी ने देश की विदेश नीतियों में स्पष्ट बदलाव करते हुए उन तमाम देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने की दिशा में पहल की है जो कि भारत की आर्थिक, राजनीतिक और कूटनीतिक सफलता में सहायक सिद्ध होंगे और सच्चे अर्थों में देश विश्वगुरु बन सकता है। पिछले दो दशकों की वैश्विक राजनीति पर नजर डालें तो पता चलता है कि सरकारों की विदेश नीति के नजरिए व्यापक रूप से बदले हैं। अब विश्व की बड़ी हस्तियों के बीच समझौता और सहयोग का मुख्यतम आधार आर्थिक या ज्यादा स्पष्ट रूप से कहें तो भू-आर्थिक हो गया है। विचारधारा की समानता और पुराने सहयोगी जैसी अवधारणाएं गौण हो चुकी हैं। पर भारत अब भी ‘पंचशील’ की लाश ढोने को बाध्य था क्योंकि देश के कर्ता-धर्ताओं के पारस्परिक हित और उनकी तुष्टीकरण (खासकर मुस्लिम तुष्टीकरण) की नीतियां सबसे बड़ी रोड़ा साबित हो रही थीं। पर वर्तमान सरकार के क्रियान्वयन से साफ जाहिर है कि विदेश नीति पर आमूलचूल बदलाव हुआ है। देश की सत्तर साल की परंपरा के बिलकुल उलट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित कर यह स्पष्ट कर दिया कि नई सरकार अपनी विदेश नीति को लेकर बहुत ही सकारात्मक और व्यावहारिक रहने वाली है। इतना ही नहीं वे अपने पड़ोसी राष्ट्रों के साथ संबंध में नई ऊर्जा से भरपूर सकारात्मक बदलाव और गर्मजोशी से नई संभावनाओं को साकार रूप देने के लिए प्रयासरत हैं। ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के लिए भारत, ईरान और अफगानिस्तान के मध्य हुआ त्रिपक्षीय समझौता सामरिक और आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। भारत सरकार अब एशियाई देशों के साथ ही साथ दक्षिण एशिया उप क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग कार्यक्रम को भी बहुत महत्व दे रही है। भारत द्वारा अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने हेतु संयुक्त अरब अमीरात के साथ किया गया करार भी देश की आंतरिक राष्ट्रीय और आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से काफी अहम महत्व रखता है। इसके अलावा भारत ब्रिक्स और बिम्सटेक देशों के साथ सामरिक, सामाजिक, आर्थिक और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में व्यापार तथा निवेश की नई संभावनाओं और अवसर के प्रति गंभीर है ताकि इन संगठनों के साथ विकास का साझा लक्ष्य प्राप्त किया जा सके। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यहां की अर्थव्यवस्था में पिछले दो सालों में अभूतपूर्व तीव्रता रही है जो कि आने वाले वर्षों में भारत को आर्थिक रूप से सुदृढ़ राष्ट्र के रूप में उभरने में सहायक सिद्ध होगी।

नौसेना के पूर्व अधिकारी कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान की सैन्य अदालत द्वारा बिना किसी सुनवाई के फांसी की सजा सुनाए जाने (फिलहाल इस मामले पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा इस सजा पर रोक लगाई जा चुकी है) की वजह से देश भर में जो आक्रोश की लहर फैली थी, उस कारण बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल की भारत यात्रा पर ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया। वास्तव में ये दोनों दौरे भारत की बढ़ती वैश्विक ताकत की छवि को न केवल नए सिरे से मजबूत करते हैं बल्कि हिंद – प्रशांत क्षेत्र में उसकी बढ़ती भूमिका का संकेत भी देते हैं। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत से एक नई अपेक्षा की जा रही है। दिल्ली की वर्तमान राष्ट्रवादी सरकार इस भूमिका के सफल, सार्थक और प्रभावशाली निर्वहन हेतु तैयार भी है।

शेख हसीना की दिल्ली यात्रा के दौरान दोनों देशों के मध्य सबसे बड़ा आकर्षण रक्षा संबंध ही थे। दिल्ली-ढाका संयुक्त घोषणापत्र में दोनों देशों के बीच अधिक से अधिक सैन्य प्रशिक्षण और आदान-प्रदान पर जोर दिया गया। जिसमें भारत की भूमिका एक मजबूत ‘सुरक्षा प्रदाता’ की रहेगी। इसमें रक्षा ढांचे पर सहमति पत्र (मेमोरेंडम ऑफ अंडेस्टैंडिंग) और बांग्लादेशी सेना की रक्षा खरीद के लिए ५० करोड़ डॉलर की ॠण व्यवस्था भी शामिल है जो कि हमारे देश की सीमा से लगने वाले किसी भी देश के साथ इस मद में अब तक की सबसे बड़ी कर्ज की पेशकश है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि बांग्लादेश अपनी आवश्यक रक्षा के साजोसामान भारतीय कंपंनियों से खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगा। भारत अपनी आर्थिक वृद्धि में भी सहयोगियों को साझेदार बनाने के लिए तैयार है। चटगांव, मोंगला और पीएरा बंदरगाहों के मरम्मत कार्य सहित बुनियादी ढांचे से जुड़ी लगभग १७ परियोजनाओं के विकास के लिए वर्तमान २.८ अरब डॉलर के अलावा अलग से ४.५ अरब डॉलर के कर्ज की व्यवस्था की गई है।

दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी की आवश्यकता के सामाजिक और आर्थिक महत्व को देखते हुए भारत बीबीआइएन यानि बांग्लादेश – भूटान – इंडिया – नेपाल मोटर वाहन समझौते को समय पूर्व लागू करने का इच्छुक है ताकि दक्षिण एशियाई सड़क माध्यम से निर्बाध आवाजाही जल्द से जल्द सुनिश्चित की जा सके। इस योजना को मूर्तरूप देने और परिवहन प्रणाली को अधिक मजबूत करने हेतु इसी कड़ी में कोलकाता और खुलना के बीच ट्रेन सेवा शुरू की गई है। जल्द ही अंतर्देशीय जलमार्ग चैनल को एक बार फिर से बहाल करने की दिशा में भी कार्य किया जा रहा है। भारत और बांग्लादेश अपने द्विपक्षीय संबंधों को नव आकार देने में दिलचस्पी ले रहे हैं जो कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रवादी जननेता के तौर पर नरेंद्र मोदी की दृढ़ इच्छा के कारण भरपूर फलीभूत हो रही है।

नरेंद्र मोदी वैश्विक पटल पर देश की स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए अपनी राजनीतिक पूंजी का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। २०१५ में दशकों पुराना सीमा विवाद खत्म करवाकर भूमि सीमा समझौता संपन्न करवाना तथा तीस्ता नदी के जल बंटवारे से जुड़े विवाद के निपटारे के लिए उनकी कृतसंकल्पना इसके सफल और सार्थक उदाहरण हैं। बांग्लादेश भारतीय अलगाववादी संगठनों जैसे कि उल्फा और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड से निपटने के लिए गंभीर कदम उठा रहा है। साथ ही हरकत उल अंसार और जमात उल मुजाहिदीन बांग्लादेश जैसी कट्टरपंथी ताकतों से पार पाने के लिए इन दिनों भारत और बांग्लादेश में भरपूर तालमेल दिखाई दे रहा है जो कि २०१४ से पहले पूरी तरह नदारद था। यह सारी कवायद बांग्लादेश में विपक्षी दलों द्वारा किए जा रहे भारी विरोध के बीच हो रही है। दोनों देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में २२ समझौतों पर हस्ताक्षर होने के तुरंत बाद वहां की मुख्य विपक्षी नेता खालिदा जिया ने हसीना पर बांग्लादेश को भारत के हाथों बेचने तक का आरोप लगा डाला।

देश की वर्तमान सरकार पूर्ववर्ती सरकारों के यथास्थिति वाले फार्मूले पर चलने की बजाय अपने पड़ोसियों और विश्व के अन्य मजबूत देशों के साथ तारतम्य बिठाते हुए अपनी सामरिक, आर्थिक तथा रक्षात्मक स्थिति को सुदृढ़ और प्रभावशाली बनाने की दिशा में लगातार तत्पर है। देश की सीमाओं के वृहत् आकार और भौगोलिक संरचना के विस्तार को देखते हुए अपने पड़ोसी देशों के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बनाए रखना बहुत आवश्यक है। यदि भारत अपने पड़ोसियों की शिकायतों को परस्पर सूझबूझ से हल करने की कोशिश करता है तो उनके साथ तनाव बढ़ने की संभावना कम (लगभग नगण्य) हो जाती है। जिस तरह मोदी सरकार अपनी कूटनीति को धार देने के लिए वृहत् हिंद – प्रशांत क्षेत्र में भी अपनी प्रतिबद्धताओं को विस्तार दे रही है, वह स्वागत योग्य है। अब भारत अपनी परंपरागत छवि से बाहर निकल रहा है। इस कड़ी में विगत् तीन वर्षों में भारत को जिस प्रकार ऑस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देशों के साथ साझेदारी कायम रखने में सफलता मिली है, वह इस क्षेत्र में भारतवर्ष की बढ़ती भूमिका की द्योतक है। पिछले महीने हुआ आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री का दिल्ली दौरा भी विश्व स्तर पर भारत को मजबूत एवं विश्वसनीय क्षेत्रीय ताकत के तौर पर मान्यता देता है। दोनों देशों ने नौ परिवहन और समुद्र के ऊपर उड़ान भरने की स्वतंत्रता, निर्बाध वैध कारोबार हेतु समुद्री सहयोग को बढ़ावा देने और यूएनसीएलओएस (यूनाइटेड नेशंस कनवेंशन ऑफ द लॉ ऑफ द सी) सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत सभी समुद्री विवादों को शांतिपूर्वक हल करने पर सहमति जताई। ऑस्ट्रेलिया के साथ भी रक्षा सहयोग मुख्य रहा जिसके अंतर्गत इस वर्ष के अंत में संयुक्त अभ्यास और प्रथम द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास सहित २०१८ में बंगाल की खाड़ी में भारत – ऑस्ट्रेलिया नौसेना अभ्यास के नाम से द्बिपक्षीय समुद्री अभ्यास शुरू करने जैसा फैसला भी लिया गया। अपनी बढ़ती सुरक्षा साझेदारी को आर्थिक महत्व देने के लिए जल्द ही व्यापक आर्थिक सहयोग के समझौते भी किए जा सकते हैं।

ट्रंप नीति कहीं आत्महंता न साबित हो जाए
डोनाल्ड ट्रंप की अप्रत्याशित जीत की तरह ही उनके फैसले भी अप्रत्याशित रहे हैं। विश्व की राजनीतिक बिरादरी का स्वयंप्रभु अगुआ अमेरिकी बुद्धिजीवी वर्ग भी अचंभे में है। उनका हर क्रियाकलाप-हर फैसला संदिग्धता की सीमा तक अफलातून है। कुछेक महीनों के कार्यकाल में ही ट्रंप की शायद ही कोई बात ऐसी हो जिसने विवाद न पैदा की हो। उन्होंने शपथ लेते ही ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ का ऐलान कर दिया जो कि अमेरिकी सरकारों की अब तक की नीतियों के सर्वथा उलट रहा। ट्रंप इसे अमेरिकी लोगों को रोजगार मुहैया कराने का नाम भले ही दे रहे हों लेकिन यह फैसला वैश्विक स्तर पर उनके खिलाफ गया और इसकी काफी आलोचना भी हुई थी। ट्रंप का सनकीपन कह लीजिए या फिर बेरोजगार अमेरिकियों, अमेरिका की सीमा और सुरक्षा के प्रति उनका संवेदनशील होना; परंतु इन सारी कवायदों का असर भारत पर अवश्य पड़ेगा, इतना तो तय है।

डोनाल्ड ट्रंप सरकार की विदेश नीति का हम पर होने वाला असर समझने से पहले हमें उनकी मानसिकता को समझना होगा। विवादित उद्योगपति से विवादयुक्त राजनेता बने ट्रंप की नीतियां संकुचित राष्ट्रवाद से प्रेरित हैं। ट्रंप ने साफ शब्दों में कहा है कि एच१बी वीजा अमेरिकी नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ अन्याय है।

वैश्वीकरण के इस दौर में यह नीति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और मुक्त व्यापार के बिलकुल विपरीत है।दुनिया को उदारवाद, बाजारवाद और वैश्वीकरण की राह (कुछ अर्थों में दलदल में) पर ले जाने वाले आधुनिक अगुआ की इस विश्वविरोधी नीति का असर भारत जैसे उन विकासशील देशों पर खतरनाक तरीके से पड़ेगा जो कि मुक्त व्यापार के दंश से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। उनके घरेलू व्यापार, परंपरागत कारोबार खत्म हो गए। अमीर-गरीब और शहर-गांव की खाई गहरी हो गई है। बाजारवाद आधारित प्रजातंत्र का अगुआ संरक्षणवाद का पैरोकार बन गया है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति और व्यापार में होने वाली अराजकता की स्थिति भारत के लिए खतरनाक से भी आगे की हो सकती है। ऐसे में एकमात्र संबल साबित हो सकता है, वर्तमान प्रधानमंत्री के महत्वाकाक्षी प्रोजेक्ट ‘मेड इन इंडिया’ को और व्यापक स्तर पर बढ़ावा देने के साथ ही निर्यात के नकारात्मक परिणामों को दूर करने का हर संभव प्रयास करना और बाजार के नए रास्ते खोलना।

ट्रंप की इन सनकी व्यापारिक नीतियों, पश्चिम एशिया के राष्ट्रों खासकर ईरान के प्रति उनके पूर्वग्रह, उत्तर कोरिया और रूस के साथ बढ़ती तल्खी के बीच सरकार को अपनी नीतियों में व्यापक तौर पर बदलाव करने की आवश्यकता पड़ सकती है, जिसमें यह सरकार और इसका मुखिया पूर्ण सक्षम है। दूसरे हाथ ट्रंप की संकुचित राष्ट्रवाद से प्रेरित नीति कहीं आने वाले सालों में खुद अमेरिका के लिए आत्महंता न साबित हो जाए।

वर्तमान सरकार की व्यापक नीतियों, विश्व का राजनीतिक माहौल, वाशिंगटन की वर्तमान नीतिगत अस्पष्टता और बीजिंग के बढ़ते कद के बीच नई दिल्ली ने अपनी क्षेत्रीय और वैश्विक ताकत को भरपूर धार दी है। समान सोच वाले देशों की सहयोगी भावना भारत को विश्वसनीय क्षेत्रीय मध्यस्थ ताकत के रूप में उभरने में भरपूर मदद करेगी। विश्व के हर बड़े राष्ट्र के लिए अब भारत के साथ अपने संबंधों को पुनर्परिभाषित करने और भारत की सामरिक, आर्थिक और राष्ट्रवादी भावना को वैश्विक स्तर पर भरपूर स्थान देना आवश्यक हो गया है क्योंकि उन्हें पता है कि अगले एक दशक तक दिल्ली पर मोदी का भगवा ध्वज लहराता रहेगा जो कि देश के चौमुखी विकास का स्वर्णकाल साबित होगा।

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