राजनीति में ‘विपक्ष’

‘विपक्ष’ ने व्यक्ति विरोध से लेकर राष्ट्र विरोध तक का लंबा सफर तय कर लिया है। विरोध शब्द छोडकर शायद अब उनके शब्दकोश में कुछ भी बाकी नहीं रहा। ‘पक्ष’ चाहे जो भी करे, ‘विपक्ष’ को उसका विरोध ही करना है।

राजनीति एक शतरंज के समान है जिसमें अपनी जीत के लिए हर कोई एक प्यादा ढूंढता रहता है। यहां सत्ताधारी ‘पक्ष’ है और जो सत्ता में नहीं हैं वे ‘विपक्ष’ हैं। ‘पक्ष और विपक्ष’ का सम्बंध केवल राजनैतिक पार्टियों तक सीमित नहीं है। इसमें उन पर्टियों से सम्बंधित वैचारिक संस्थाएं, लोगों का समूह और अब तो मीडिया भी शामिल हो चुका है।

आज की परिस्थिति में चूंकि भारतीय राजनीति की बागडोर भाजपा के हाथ में है; अत: भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा उससे जुड़े संगठन, राष्ट्रीय विचारधारा का समर्थन करने वाले समाज के अन्य उच्चस्तरीय लोग सभी ‘पक्ष’ हुए। इसके विपरीत भाजपा तथा उसकी सहयोगी पार्टियों के अलावा अन्य राजनीतिक पार्टियां (यह बात अलग है कि शिवसेना भी कई बार आदतन विपक्ष की भूमिका में आ जाती है।) वामपंथी विचारधारा के लोग तथा वे सभी जिनके ‘पक्ष’ से वैचारिक मतभेद हैं, ‘विपक्ष’ हैं।

वर्तमान में केंद्र में एक ऐसी सरकार है जिसे भारत की जनता ने बहुमत के साथ विजयश्री दिलाई थी। कांग्रेस के भ्रष्टाचार वाले शासनकाल से मुक्ति पाने के लिए भारत की जनता ने भाजपानीत गठबंधन को बहुमत दिया था और विगत तीन वर्षों के कार्यकाल में इस सरकार पर किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा है। सरकार के द्वारा जो योजनाएं शुरू की गई हैं उन पर धीमी गति से ही सही परंतु अमली जामा पहनाया जा रहा है। विदेशों में भी भारत की छवि मजबूत हुई है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसका नेतृत्व जिसके हाथ में है उन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर अभी भी लोग विश्वास करते हैं।

‘विपक्ष’ यह बखूबी जानता है कि फिर से सत्ता हासिल करने के लिए ‘पक्ष’ को जनता की नजरों में गिराना अत्यावश्यक है। अत: आए दिन वह कोई न कोई बखेड़ा खड़ा करते रहते हैं।
वास्तव में ये सारी परिस्थितियां उस हिमनद की तरह हैं जो ऊपर जितना विशाल है अंदर उतना ही गहरा है। यह सभी जानते हैं कि भाजपा की इस विशाल जीत के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बहुत बड़ा योगदान है। खासकर ‘विपक्ष’ इसे बहुत अच्छी तरह से जानता है कि ‘पक्ष’ को अगर कमजोर करना है तो समाज में उसकी छवि को धूमिल करना जरूरी है। और चूंकि सरकार के रूप में उसकी छवि को धूमिल करने के लिए कोई मुद्दे नहीं मिल रहे हैं अत: ऐसे मुद्दों को उछाला जा रहा है जिससे जनता के मन में ‘पक्ष’ के प्रति कडुवाहट पैदा की जा सके।

यह बात जगजाहिर है कि ‘पक्ष’ हिंदुत्ववादी विचारधारा से जन्मा है। परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसमें मुस्लिम द्वेष है क्योंकि हिंदुत्व की विचारधारा में अन्य मत-सम्प्रदायों का आदर करने की ही परम्परा है। हिंदू जीवन पद्धति में समाज का नियोजन करने की दृष्टि से वर्गीकरण वर्ण व्यवस्था के आधार पर किया गया है, परंतु ‘विपक्ष’ अत्यंत सुनियोजित पद्धति से ऐसे मुद्दों को हवा दे रहा है, जिससे समाज में जातियों की दरार और गहरी होती जाएं और ‘पक्ष’ के विरुद्ध वातावरण निर्मित हो सके। जैसा कि लेख में पहले ही कहा गया है कि ‘पक्ष‘ कोई एक पार्टी या संस्था नहीं है अत: विपक्ष की ओर से भी उसके हर अंग पर वार किया जा रहा है। इसके उदाहरण तो कई हैं, परंतु पिछले लगभग एक वर्ष में घटित हुई कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की अगर मीमांसा की जाए तो इस मुद्दे को पुष्ट करने वाले कुछ उदाहरण सामने आएंगे।

नवम्बर २०१५ में दादरी में घटी घटना के बाद से शांतिप्रिय और सभी को अपने में समाहित करने वाला भारत देश अचानक असहिष्णु बन जाता है। ‘असहिष्णु’ तथा ‘इंटालरेंस’ शब्द भारतीय जनमानस के मन पर इस प्रकार से अंकित करने का प्रयत्न शुरू कर दिया जाता है जैसे इस देश में हिंदुओं के अलावा अन्य सभी सम्प्रदायों के लोगों की जान को खतरा हो। जैसे यहां आए दिन हिंदू लोग अन्य लोगों पर अत्याचार करते रहते हों। इस असहिष्णुता का समर्थन करने वाली अवार्ड वापसी गैंग अचानक ऐसे बाहर आती है जैसे भारी बारिश के कारण चींटियां अपनी बांबी से बाहर आती हों। इस देश को असहिष्णु साबित करने वाली इस गैंग को आतंकवादी की मौत पर ही मानवाधिकार याद आने लगता है; बाकी समय ये लोग मुंह में दही जमाए बैठे रहते हैं।

जनवरी २०१६ में हैदराबाद में रोहित वेमुला नामक एक युवक आत्महत्या कर लेता है। कुछ समय के बाद उसकी आत्महत्या का असली कारण भी सामने आ जाता है; परंतु वह कारण सामने आने के पहले तक ‘विपक्ष’ इस तरह का माहौल बनाने पर आमादा हो जाता है कि केंद्र सरकार दलित विरोधी है। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी से संसद में भी इस तरह सवाल जवाब किए जाते हैं, इस तरह आरोप लगाए जाते हैं, जैसे वे केंद्रीय मंत्री नहीं रोहित वेमुला की कातिल हो।

फरवरी २०१६ में जेएनयू में भारत के खिलाफ नारेबाजी की जाती है, आतंकवादी के समर्थन में नारे लगाए जाते हैं और जब कन्हैया कुमार और उनके साथियों को गिरफ्तार किया जाता है तो अचानक ‘विपक्ष’ को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता याद आने लगती है। देश की राजधानी में घटित इस घटना का पूरे देश में प्रभाव होना स्वाभाविक था।

अप्रैल २०१६ में इशरत जहां केस का निर्णय होने के बाद भी ‘विपक्ष’ ने इसी तरह के घड़ियाली आंसू बहाए थे। वे तो शुरू से ही इस एनकाउंटर को फर्जी और इशरत जहां को मासूम करार दे रहे थे।
सितम्बर २०१६ में हुए उरी हमले में पाकिस्तानी सैनिकों ने हमारे जवानों के सिर काटकर ले जाने का नृशंस कृत्य किया था। घटना के बाद पूरे देश में रोष था और सभी लोग यह चाह रहे थे कि भारतीय सेना की ओर से इस घटना का मुंहतोड़ जवाब दिया जाय। ‘विपक्ष’ तो बस इसी ताक में बैठा कि कोई तो ऐसी घटना हो जिसको लेकर ‘पक्ष’ को घेरा जाए। उनकी ओर से बयानों की श्रृंखला शुरू हो गई जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हर तरह से निशाना साधा गया। और, जब भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की तो सारा देश जश्न मना रहा था, परंतु ‘विपक्ष’ यह सवाल उठा रहा था कि क्या सर्जिकल स्ट्राइक असली है? उसे न तो अपनी सेना पर विश्वास है और न ही केंद्र की सरकार पर। या यों कहें कि वह केवल इसलिए अविश्वास दिखाता है क्योंकि उसे ‘पक्ष’ का विरोध करना है।

नवंबर में नोटबंदी जैसा भारतीय अर्थव्यवस्था को हिला देने वाला निर्णय केंद्र सरकार के द्वारा लिया गया। इसके बाद तो ‘विपक्ष’ में जैसे भूकंप ही आ गया था। कुछ दिनों तक किसी के मुंह से कोई आवाज नहीं निकली क्योंकि सभी दिग्गज अपना-अपना काला धन बचाने में लगे थे। परंतु वे चुप बैठने वालों में से नहीं थे। अचानक उनको एटीएम की लाइन में खड़े लोगों की मौत दिखने लगी, बुजुर्ग व्यक्तियों की परेशानियां दिखने लगीं। भारतीय अर्थव्यवस्था डगमगाने के संकेत दिखने लगे। और तो और इसके वैश्विक परिणाम भी दिखने लगे। न जाने इनकी अर्थव्यवस्था की समझ तब कहां गई थी जब यूपीए के शासन काल में दस सालों में अरबों रुपए के घोटाले हो रहे थे।

२०१६ के अंत तक ‘विपक्ष’ के द्वारा राजनैतिक स्तर पर ‘पक्ष’ को बदनाम करने की पूरी कोशिश की गई परंतु उत्तर प्रदेश तथा अन्य ४ राज्यों के परिणाम जब भाजपा के पक्ष में आ गए तो ‘विपक्ष’ ने अपना रुख मोड़ लिया। अब विपक्ष’ समाज में ऐसे मुद्दे उठा रहा है जिनका प्रभाव राजनीतिक स्तर पर कम अपितु सामाजिक स्तर पर अधिक होगा।

जनवरी २०१७ में केरल के कन्नूर क्षेत्र में रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक की नृशंस हत्या की गई। ज्ञात हो कि केरल में वामपंथी विचारधारा का प्रभुत्व है। और वे विगत कई वर्षों से संघ स्वयंसेवकों पर लगातार हमले करते रहे हैं। केरल में हुई घटनाओं का किसी भी मुख्यधारा की मीडिया ने कोई कवरेज नहीं दिया, कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं दी; क्योंकि कई मीडिया समूहों की डोर भी वामपंथी हाथों में ही है। संघ जैसी संस्था, जो समाज में एकात्मता और राष्ट्रभाव को संचारित करने का कार्य करती है उसका यदि प्रभाव बढ़ा तो निश्चित रूप से यह वामपंथ को बहुत बड़ा खतरा होगा। इसलिए ‘विपक्ष’ अब संघ पर भी हमले की तैयारी में लगा है।

हिंदुत्ववादी विचारधारा की एक और मानबिंदु हैं, गौ-माता। चूंकि ‘विपक्ष’ में यह विचारधारा ही नहीं है तो उसके लिए गाय और धरती के अन्य सभी जीव एक समान ही होंगे। परंतु चूंकि यह हिंदू समाज की मानबिंदु है और इस पर प्रहार करने से ‘पक्ष’ आहत भी होगा, अत: जानबूझकर गौहत्या, गौमांस भक्षण आदि जैसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं। आहार निश्चित रूप से हर किसी का व्यक्तिगत मामला है परंतु विरोध करने के चक्कर में ‘विपक्ष’ इसका भी बाजारीकरण कर रहा है। सरेआम गाय काटने और गौमांस का भक्षण करने जैसे नृशंस कृत्य करके वे समाज में क्या संदेश देना चाहते हैं?

भारत का अन्नदाता किसान विगत कुछ वर्षों से बुरे आर्थिक हालातों से गुजर रहा है। किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के कारण सभी आहत हैं। भारतीय किसान खेतों में मेहनत मजदूरी करने वाला और शांतिप्रिय है। उसने कभी भी अपनी मांगों के लिए आंदोलन नहीं किए या किए भी तो किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। परंतु हाल में हुए किसान आंदोलनों को देख कर ऐसा विश्वास नहीं होता कि ये वही भारतीय किसान हैं। एक बहुत बड़ा प्रश्न निर्माण होता है कि क्या अन्नदाता किसी को नुकसान पहुंचाने वाले काम कर सकता है? बसें जला सकता है? सरकारी सामानों की तोड़फोड़ कर सकता है? लेख लिखे जाने तक सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो वायरल हो चुके थे जिनसे यह साफ जाहिर हो रहा था कि इस आंदोलन को भड़काने के लिए ‘विपक्ष’ ने आग में घी डालने का कार्य किया है। गौर करनेवाली बात यह है कि केवल भाजपा शासित राज्यों में ही किसानों ने आंदोलन क्यों किया? मंदसौर ही इस आग में क्यों भड़का? वह इसलिए क्योंकि मंदसौर की सीमा मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात से सटी है और इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं।

विधानसभा चुनावों के पहले आंदोलन कराना ‘विपक्ष’ का पुराना पैंतरा रहा है। पटेल आंदोलन, जाट आंदोलन, गुर्जर आंदोलन पाठकों को याद ही होंगे। अब किसान आंदोलन क्यों हुआ या इसे सियासी रंग क्यों रंग दिया गया यह समझना कोई मुश्किल बात नहीं है।

उपरोक्त सभी उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ‘विपक्ष’ हर संभव प्रयास कर रहा है ‘पक्ष’ की छवि धूमिल करने का। कांग्रेस अपने पतन की ओर अग्रसर है। वह और अन्य पार्टियां नहीं चाहती कि केंद्र और राज्यों में भाजपा की सरकार हो। वामपंथ का दुनिया से खात्मा हो चला है। भारत में भी यही हाल है परंतु फिर भी वे नहीं चाहते कि भारत में संघ का प्रसार हो। फिलहाल ‘विपक्ष’ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए प्रयासरत है। निश्चित रूप से डूबने से बचने के लिए वह हर किसी का तिनके के रूप में उपयोग करना चाहेगा। ‘पक्ष’ को इस बात का ध्यान रखना होगा कि भारत की जनता अब जिस विश्वास और अपेक्षा से उसकी ओर देख रही है उसका ध्यान उसी ओर केंद्रित हो। छोटे-छोटे मुद्दों की गंभीरता पहचान कर उनमें अत्यधिक समय बर्बाद न करते हुए अपने मार्ग पर डटे रहना ही ‘पक्ष’ के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी।

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