राख से उभरा इजराइल

सारे उदाहरणों, कहानियों और कथाओं के साथ ही साथ एक किंवदंती भी चलायमान रही कि पिछले दो हजार सालों तक धराविहीन रही एक कौम अभी तक जिंदा है। जिंदा ही नहीं है बल्कि दुनिया की बौद्धिक क्षमता के पांचवें भाग की मालिक है। उस कौम की आधुनिक उपलब्धियां भी किंवदंती बन जाती हैं। … उस कौम का नाम है, यहूदी और मातृभूमि है इजरायल। यहूदियत की कथा आप कहीं से भी शुरू कीजिए, आपकी कलम उनके शोणित की स्याही से बच नहीं सकती।

तारीख गवाह है कि यह धरती हमेशा से ही मानसिक ताकतवर की ओर झुकती रही है। बचपन में सुना था कि इस धरती पर डायनासोर प्रजाति के सैकड़ों टन भारी जानवर रहते थे। पर आज उनके जीवाश्म मात्र बचे हैं। इसी तरह जीवों की लाखों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं।

अब बात करते हैं सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य की। पिछले ढाई हजार सालों में कई सम्प्रदाय, मत, प्रजातियां इत्यादि समाप्त हो चुके हैं। अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियंस अपने ही देश में अति अल्पसंख्यक और उपेक्षित हैं। रोमन साम्राज्य का कोई नामलेवा नहीं बचा है। मिश्र और यूनान की प्राचीन संस्कृति किताब के अध्याय तक सिमट चुकी है। प्रशा, ऑटोमन, मेसोपोटामिया इतिहास के अध्याय की चौखट में सिमट कर रह गए हैं। अफ्रीकी देशों की ज्यादातर मान्यताएं समाप्त हो चुकी हैं। नई पीढ़ी को तो पता भी नहीं होगा कि रस्सियों की बुनाई के अक्षरों वाली किताबें पश्चिमी आक्रांताओं द्वारा ‘बकवास और जंगलीपन’ की निशानी कह कर जला दी गईं। इन सारे उदाहरणों, कहानियों और कथाओं के साथ ही साथ एक किंवदंती भी चलायमान रही कि पिछले दो हजार सालों तक धराविहीन रही एक कौम अभी तक जिंदा है। जिंदा ही नहीं है बल्कि दुनिया की बौद्धिक क्षमता के पांचवें भाग की मालिक है। उस कौम की आधुनिक उपलब्धियां भी किंवदंती बन जाती हैं। अमेरिका, यूरोप और अरब समेत दुनिया के ज्यादातर लोगों की नजर में घृणा, उपहास और ईर्ष्या का पात्र रहने के बावजूद वट वृक्ष की तरह दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है। उस कौम का नाम है, यहूदी।

यहूदियत की कथा आप कहीं से भी शुरू कीजिए, आपकी कलम उनके शोणित की स्याही से बच नहीं सकती। अबराहम की अपने लोगों को लेकर जूडिया (आज के इजराइल) में दर-दर भटकने की कथा हो या ७०० सालों की गुलामी के पश्चात् अपने स्वर्ग में लौटने तथा बसने की कथा, यूनानियों के खिलाफ जूडस मकाबियस और उसके चार भाइयों के नेतृत्व में पहाड़ों और दलदलों में छिप कर ३० सालों तक निरंतर किए गए महायुद्ध के वीरोचित प्रसंग हों या १३५ ईसवीं में रोमन सम्राट हाद्रियन द्वारा जेरूसलम के सारे यहूदियों को काट कर उनके घरों को समतल कर पूरे शहर में हल चलवा देने का खूनी प्रसंग, अगले दो हजार वर्षों तक बंजारों की तरह यूरोप भर में (बहुत भारी संख्या में अपने यहां भी आ गए थे) वहां के निवासियों के बीच अपमानित, लांछित और पददलित किए जाते रहने की कथा हो या जर्मन होलोकॉस्ट के चैंबर्स की दुर्गंध; यूरोप की समूची फिज़ा यहूदियों की चर्बी से दुर्गंधित होती रही है। पर कीमत चुकानी पड़ी अरबों को, जो कि सैकड़ों सालों से मुट्ठी भर यहूदियों के साथ अमन-चैन से रहते आ रहे थे।

आधुनिक इजराइल की कहानी उस प्राचीन यूनानी कहानी की तरह है जिसमें फीनिक्स नामक पक्षी बार-बार जल कर भी राख से उभरता है। यूनानी इस पक्षी को अमर पक्षी कहते हैं। यहूदियों और इजराइल का इतिहास भी उसी फीनिक्स पक्षी की तरह है। वे बार-बार हाशिए पर ढकेले गए, परंतु उनकी जिजीविषा को कोई तोड़ नहीं पाया।

आधुनिक इजराइल की कथा एक संयोग से शुरू होती है। किसी को नहीं पता था कि १८९० का यह संयोग १४ मई १९४८ को इजराइल के राष्ट्र घोषित किए जाने की पृष्ठिभूमि तैयार कर रहा था। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में जबकि पूरा यूरोप नवजागरण और मशीनीकरण की बदौलत आधुनिक होने का दंभ भर रहा था, यहूदियों के खिलाफ ‘एंटी सेमेटिजम’ अपने चरम पर था। अर्थात् जो व्यक्ति सैमाइट जनजाति से ताल्लुक रखता हो तथा अरबी, हिब्रू या एरेमेइक( जो कि तब तक समाप्त हो चुकी थी) बोलता हो, उनकी नजर में ऐसे लोग चालाक होते हैं, वे किसी के भी अपने नहीं होते तथा छोटी-छोटी बातों पर लोगों को धोखा दे सकते हैं। आम जन यहूदियों को अपने में मिलाने को तैयार न थे। यहूदी को अपने कपड़ों पर बायीं तरफ तारा लगाकर रहना पड़ता था ताकि लोग उन्हें दूर से ही पहचान सकें। इसकी तुलना काफी हद तक अपने देश में प्राचीन-मध्य काल के अछूतों की कमर में बंधने वाली झाड़ू से की जा सकती है।
उसी समय १८९० में फ्रांस की सेना रूस के हाथों बहुत बुरी तरह पराजित होती है। राष्ट्रवाद की लहर के बीच हार का ठीकरा फोड़ने के लिए एक ‘बलि के बकरे’ की तलाश शुरू हुई जो अल्फ्रेड ट्रेफस नाम के यहूदी पर जाकर पूरी होती है। आरोप साफ थे। वह एक यहूदी था इसलिए उसने देश को धोखा दिया और महान फ्रांस को जारशाही के सामने घुटने टेकने पड़े। यूरोप खासकर फ्रांस के सभी समाचार पत्रों के लिए यह मामला एक हॉट केक था। लगभग हर बड़े समाचार पत्र के पत्रकार पेरिस में जमा थे। उसी भीड़ के बीच एक यहूदी पत्रकार भी था, जिसका नाम था थियोडोर हर्जल। थियोडोर की जवानी तत्कालीन एस्ट्रो हंगेरियन साम्राज्य के विएना में बीती थी जहां पर वह एक सरकारी कर्मचारी था। पर एंटी समेटिजम से तंग आकर वह फ्रांस चला आया, जहां पर उसने पत्रकारिता को पेशा बना लिया। उसे लगा कि ट्रेफस के मामले में मुख्य कारण आम यूरोपियन के मन में यहूदियत के प्रति छिपी घृणा है। हर्जल ने यहूदी लोगों के राष्ट्रीय आंदोलन को संगठित करना आरंभ कर दिया। इस आंदोलन के कर्ता-धर्ता का मुख्य लक्ष्य था – यहूदियों के लिए एक अलग और स्वतंत्र राज्य, जो यहूदियों के होमलैंड यानी इजराइल की जमीन पर स्थापित हो। इस प्रकार लगभग २ हजार वर्षों के पश्चात् इजराइल की संकल्पना को बल मिला जिसे लोग भूल चुके थे।

यहूदी धर्म के संस्थापक पैगंबर हजरत अबराहम के पोते याकूब का एक नाम ‘इजराइल’ भी था। याकूब अका इजराइल ने १२ जातियों (उनमें से १० लुप्त हो चुकी हैं। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार वे सब कश्मीर आ गए तथा बाद में इस्लाम ग्रहण कर लिया। ) को मिलाकर एक किया। इन जातियों का सम्मिलित राष्ट्र इजराइल कहा जाने लगा। कालांतर में इबरानी भाषा में इसका अर्थ हो गया – एक ऐसा देश जो ईश्वर को प्रिय हो। याकूब के बेटे यहूदा अथवा जूदा के नाम पर ये यहूदी अथवा ज्यूज कहलाए। बाइबिल का पूर्वार्ध, जिसे ‘ओल्ड टेस्टामेंट‘ कहा जाता है, इनका प्रमुख ग्रंथ है। इसके तीन भाग हैं। पहला भाग है ‘तौरित’ अर्थ धर्म धारण करने वाला। दूसरा भाग ‘यहूदी पैगंबरों का जीवन चरित्र’ तथा तीसरा भाग ‘पवित्र लेख’ है। इसका रचना काल ४४४ ईसवी पूर्व से १०० ईसवी पूर्व के बीच माना जाता है।

आगे चलकर यहूदियों को मिश्र का संक्रमण करना पड़ा। जहां बाद में उन्हें फारोहों की गुलामी स्वीकारनी पड़ी। लगभग ७०० वर्षों के पश्चात (इतिहासकार इसे लगभग २५० से ३०० वर्ष मानते हैं) दूसरे पैगंबर मूसा के नेतृत्व में एक बार फिर लौटे तथा अपनी मेहनत और जिजीविषा के दम पर जूडिया की घाटी को हरा-भरा कर दिया। तीसरे पैगंबर दाउद के बेटे सोलोमन के समय इजराइल ने खूब उन्नति की।
७२२ ईसवी पूर्व में असीरिया के राजा शुलमानु अशरिद ने इजराइल की तत्कालीन राजधानी समरिया पर चढ़ाई कर कब्जा कर लिया। तब से लेकर १४२ ईसवी पूर्व तक वे खाल्दियों, ईरानियों एवं यूनानियों के गुलाम रहे। १९८ ईसवी पूर्व में अंतिओकस चतुर्थ के समय यहूदियों ने विद्रोह कर दिया जिससे रुष्ट होकर उसने यहूदी मंदिर को लूट कर शनिवार के दिन हजारों यहूदियों का वध करवा दिया। उसी समय इजराइल के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर जूडस मकाबियस नाम का सितारा चमकता है। जेरूसलम के महत्वपूर्ण लेवी पुजारियों में से एक आदोन बिन मेटाथियास का यह द्वितीय पुत्र अपने चार भाइयों और रबाई रागेश के साथ मिलकर यूनानियों से लड़ता है। पूरी जूडिया के स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध अपने घरों को छोड़कर, शराब के पीपे तोड़ पहाड़ों और दलदलों में जाकर छिप जाते है।

३० सालों तक चलने वाला यह युद्ध विशुद्ध छापामार शैली पर आधारित था। ‘दुश्मन को ललचाकर पहाड़ी दर्रों में फंसाओ, और फिर ज्यादा से ज्यादा को मारकर भाग जाओ। ’ पश्चिम में इसी युद्ध में पहली बार ताड़ की टहनियों से बने पतले बाणों की बारिश कर दुश्मन को भयभीत करने की रणनीति अपनाई गई। यूनानियों द्वारा भारत के आंशिक विजय में मिले हाथियों का प्रयोग भी उस क्षेत्र में पहली बार किया गया। १४२ ईसवी पूर्व में जूडस के छोटे भाई साइमन के नेतृत्व में इजराइल ने स्वतंत्रता की घोषणा की जो ६६ ईसवी पूर्व तक रही जब तक कि रोमन जनरल पांपे के नेतृत्व में जेरूसलम पर अधिकार नहीं कर लिया गया। इतिहासकारों के अनुसार इस युद्ध में भी १२ हजार यहूदी मारे गए। छठी शताब्दी में खलीफा उमर ने रोम को पराजित कर यहां कब्जा किया। फिर लगभग १२ सौ वर्षों तक मुसलमानों व ईसाइयों के बीच धर्म युद्ध होते रहे अौर यहां के मूल दावेदार यहूदी हाशिए पर चले गए।
किसी भी बड़ी घटना श्रृंखला की शुरुआत ज्यादातर किसी संयोग से ही होती है। पर आगे की लड़ाई उस व्यक्ति या समाज के संस्कार और उसके मानस में गहरे पैठ बना चुकी आत्म-स्वाभिमान के दम पर ही लड़ी जा पाती है। २९ अगस्त १८९७ को स्विट्जरलैंड के बेसल शहर में वर्ल्ड जायनिस्ट आर्गेनाइजेशन की मीटिंग हुई। वहीं तय किया गया कि दुनिया भर के यहूदियों को उस जमीन पर बसाने की तैयारी की जाए जो अबराहम को भगवान से वायदे में मिली थी। पर एक समस्या थी। उस जमीन पर अब अरबों का कब्जा था। उनका देश तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य के अधीन जेरूसलम, नाबलुस और एकर नाम के तीन जिलों में तब्दील हो चुका था। १९०१ में जूइश नेशनल फंड बना, जिसके जरिए दुनिया भर के धनी यहूदियों ने वहां जमीन खरीदने के लिए पैसे भेजना शुरू किया तथा बड़ी संख्या में यहूदी अपनी पवित्र भूमि पहुंचने लगे। इसे उन्होंने ‘आलिया’ नाम दिया। हिब्रू में ‘आलिया’ का मतलब ‘लहर’ होता है। १९१४-१७ में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘आलिया’ में काफी तेजी आई।

तुर्की जर्मनी की ओर से लड़ा और बुरी तरह से हार गया। विरोधी सेनाओं ने तुर्की को ६ भागों में बांट दिया- तुर्की लेबनान, सीरिया, इराक, ट्रांसजार्डन और फिलिस्तीन। आधुनिक इतिहास में पहली बार अबराहम को वादे में मिली जमीन को एक नाम मिला। ‘ट्रू मैंडेट सिस्टम’ के अंतर्गत ब्रिटेन को फिलिस्तीन मिला जहां उसे ६ महीने के अंदर लोकल लोगों की सरकार बना कर आजाद कर देना था। बाकी के पांच मैंडेट में तो यह कार्य सफलतापूर्वक संपन्न हो गया पर अंग्रेजों का गला फंस गया था। वहां की जनसंख्या में अरबों की संख्या ज्यादा थी पर जायिस्ट आंदोलन की राजनीतिक पकड़ सारे ताकतवार देशों को यहूदियों की ओर मोड़ रही थी।

अगले तीस वर्षों में समानांतर सरकार ‘यीशुव’ के अंतर्गत यहूदियों ने एक अलग शिक्षा व्यवस्था और फौज बनाई जबकि उनसे संख्याबल में १० गुना ज्यादा अरब वैसा कुछ न कर पाए। हमेशा की ही तरह वे अपने संख्या बल के अभिमान के आश्रित थे। १९४७ में अंग्रेज फिलिस्तीन का मामला लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की शरण में पहुंचे। उस समय दुनिया भर में यहूदियों के कत्लेआम को लेकर सहानुभूति थी। संयुक्त राष्ट्र ने यहूदियों के लिए एक अलग देश का प्लान रखा पर अंग्रेज भारत के मामले में अपना हाथ जला चुके थे इसलिए उन्होंने ऐलान कर दिया कि वे १५ मई १९४८ को फिलिस्तीन छोड़ देंगे। आगे की जिम्मेदारी अरबों, यहूदियों व संयुक्त राष्ट्र की थी।

पर अंग्रेजों के फिलिस्तीन छोड़ने के एक दिन पहले ही डेविड बेन गुरियन ने स्वतंत्रता का ऐलान कर मुल्क को वही दो हजार साल पुराना नाम दिया, इजराइल। आगे की कहानी समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, फेसबुक और व्हाट्सएप के माध्यम से इतनी बार कही जा चुकी है कि उस पर ज्यादा कुछ कहने की बजाय हम अरब-इजराइल युद्ध के मर्म पर ध्यान दें तो एक बात साफ पता चलती है कि हर कदम पर यहूदी अरबवासियों से दशकों आगे थे। गुरियन को पता था कि अंग्रेजों के हटते ही अरब की संयुक्त सेनाएं हमला बोल देंगी इसलिए द्वितीय विश्वयुद्ध की आड़ में अपना हथियारों का जखीरा जमा कर लिया। १९४७ में २१ प्रतिशत मांगने वाले इजराइल का ७८ प्रतिशत पर कब्जा है। अरब गाजा और वेस्ट बैंक में धकेल दिए गए हैं।
इन सबके पीछे कार्य किया यहूदियों की एकता, जिजीविषा, और बलिदान की भावना ने। वरना दो हजार सालों से मृतप्राय ‘हिब्रू’ पांच वर्षों के भीतर जन-जन की भाषा बन पाती? ‘सिक्स डे वार’ हो या ‘यौम किप्पुर वार’, हर बार इजराइल की ताकत बढ़ती ही गई है। १९३७ से ४४ के बीच अपनी आबादी का तीन चौथाई भाग गैस चेंबरों में खो चुका समुदाय, आज मात्र ८५ लाख की आबादी वाला देश पूरे अरब और एशियाई मुस्लिम देशों की आंख में शूल सा चुभता है पर वे उनकी एकता और आगे बढ़ कर प्रतिशोध लेने की क्षमता के आगे पंगु हैं। लगभग ७० ईसवी पूर्व में समाप्त हुई स्वतंत्रता भले १९४८ में जाकर बहाल हुई पर उसकी ललक उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। सालाना पासोवर भोज के बाद दुनिया भर के यहूदी एक शपथ दोहराते थे और आज भी दोहराते रहते हैं – अगले साल जेरूसलम में। शादी में दूल्हा संकल्प लेता है कि, ‘जेरूसलम, अगर मैं तुझे भूल जाऊं, मेरा दाहिना हाथ नाकाम हो जाए। ’

इजराइल मानवीय स्वतंत्रता का प्रतीक है। तमाम अफवाहों, विडंबनाओं और किंवदंतियों के बीच यहूदियों ने हर उस मानवीय समूह को सहायता दी है जो परपीड़ित है। यदि भारत के संबंध में ही बात करें तो १९६२ के युद्ध में सहायता की पेशकश हो या १९९९ के कारगिल युद्ध में तकनीकी सहयोग, वे हमेशा तत्पर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि भारत भी हजारों वर्षों के पददलन के बावजूद परंपरा, संस्कार और जिजीविषा को बनाए रखने में सफल रहा है। आज भी वे उन तीन हजार सालों के इतिहास को भूलना नहीं चाहते बल्कि अपने अंतःस्थल के किसी पवित्र कोने में महफूज रखते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी को सनद रहे। इसीलिए हर यहूदी किसी भी लम्बी बात-चीत के अंत में अवश्य कहता है कि –
‘‘…… क्योंकि कभी हम मिश्र के गुलाम थे। ’’

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