सॉफ्ट-कॉर्नर

“और सुनिए, वहीं किचन में मेरी थॉयरायड वाली दवा है, वो भी लेते आइयेगा। आपसे गुल-गपाड़ा बतियाने के चक्कर में सुबह, दवा खाना ही भूल गई…हें-हें-हें।”

        “और, मैं भी तुम्हारे इस ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ के घनचक्कर में आज अपनी बी.पी. की दवा लेना भूल गया…हें-हें-हें।”

“इधर बीच में मेरे कमरे में कोई आया था क्या…?”

“क्यों…?”

“दो दिनों के लिए मैं टूर पर बाहर क्या गया, तुम लोगों ने मेरी आलमारी, उसमें रखी चीजों, किताबों आदि को ही उथल-पुथल कर दिया…? कौन आया था मेरे कमरे में, कोई कुछ बोलता क्यों नहीं…? ऐ घन्नू! इधर आओ, क्या तुम आए थे मेरे कमरे में…?”

“घन्नू को तो जब से आपने पिछले महीने अपना बाथरूम इस्तेमाल करने के लिए डांटा है, तब से वो आपके कमरे से अटैच बाथरूम में पेशाब करने भी नहीं जाता। बेचारा! आपकी अलामत-मलामत के डर से आपके कमरे की तरफ झांकता भी नहीं।”

“अब क्या मेरे पास यही काम रह गया है कि कहीं से आऊं, लिखने-पढ़ने की सोचूं, तो सब से पहले अपना कमरा, अपनी आलमारी, मेज, किताबें वगैरह ठीक करता, सरियाता फिरूं…? तब पढ़ने-लिखने बैठूं…?”

“आप, दिन-भर दफ्तर में काम-काज के बाद, थकते नहीं क्या…जो घर आते ही, लिखने-पढ़ने की सनक सवार हो जाती है…?”

“मेरा ध्यान डॉयवर्ट मत करो, मैं जो पूछ रहा हूं, उसे बताओ, मेरे एबसेन्स में मेरे कमरे में कौन आया था…?”

“आफत का परकाला मत बनिए, और कौन जा सकता है आपके कमरे में…? मैं ही गई थी। कल महरिन के साथ, आपके कमरे की साफ-सफाई करवा रही थी। आपकी किताबों-डायरियों से तो कमरे में चलने की जगह ही नहीं बची है। कोई झाड़ू-पोछा लगाए भी तो कैसे…? पूरी आलमारी, कबाड़ों से भर रखी है आपने…? ये अखबारों की कतरनें, पुरानी मैगजीन्स क्यों रखे हुए हैं, इन्हें किसी कबाड़ी वाले को क्यों नहीं बेच देते…? दसियों साल पुरानी इन मैंगजीन्स को जमा करके क्या करेंगे…? अरे पढ़िये, कोई मनाही नहीं है। लेकिन इनमें से गाहे-बगाहे कुछ छांटते-बेचते भी रहिए। ये क्या कि कमरे की सभी आलमारियों को ऊपर से नीचे तलक, पत्र-पत्रिकाओं से ठसा-ठस भर लिया है…? इनमें से कुछ किताबें, मैगजीन्स को तो आपने हाथ भी नहीं लगाया है। बस्स, पुस्तक मेले से खरीदी, और लाकर सजा दिया, अपनी आलमारियों में…?”

“अरे, तुम्हें क्या पता कि लिखने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है…? लिखना खिलवाड़ है क्या…? अपने लिखे हुए एक-एक पन्ने को दसियों बार पढ़ना, जरूरत होने पर काटते- फाड़ते दुरूस्त करना पड़ता है। पचीसों लेखकों की पचासों किताबें, साथ ही समय-समय पर नियमित पत्र- पत्रिकाएं भी पढ़नी पड़ती हैं। दसियों जगह की सैर करनी पड़ सकती है। रेफरेन्स आदि ढ़ूंढने के लिए कितने ही लोगों से कितनी ही बार मिलना पड़ता है। उनसे बहत्तरों तरह की लन्तरानियां बतियानी पड़ती हैं। हर कविता-कहानी-उपन्यास की अपनी पृष्ठभूमि- कथाभूमि- भावभूमि होती है। पता नहीं कब, कौन सा धड़ाम- धकेल आइडिया, दिमाग में क्लिक कर जाये…? ये कोई दाल-भात का कौर नहीं कि थाली सामने आई और गप्प से लील लिया।”

“दाल-भात बनाना भी कोई खिलवाड़ नहीं है। आप तो ढ़ंग की खिचड़ी भी नहीं बना पाते। सिवाय चाय-कॉफी बनाने के, आपको आता ही क्या है…?”

“अच्छा, अब ज्यादा लेक्चर मत झाड़ो। ये बताओ कि तुम्हें मेरी आलमारी को उथल-पुथल करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी…?”

“महीनों से आपकी किताबें, जमीन पर ही पड़ी थीं। टेबल पर कुछ पत्र-पत्रिकाएं भी अस्त-व्यस्त सी बिखरी पड़ी थीं। तीन दिन बाद महरिन आई थी, तो सोचा आपके कमरे में भी साफ- सफाई करवा दूंं, सो झाड़ू-पोछा करवाने चली गई। फर्श और टेबल पर अस्त-व्यस्त, बिखरी आपकी किताबों, पत्रिकाओं को आलमारी में लगाने वास्ते जब आलमारी खोली, तो क्या देखती हूं कि उसमें तो तिल रखने की भी जगह नहीं है। किताबें, डायरियां, पत्र- पत्रिकाओं- अखबारों की कतरनें आदि बेतरह-बेतरतीबी से आलमारी में ठूंसी पड़ी थीं। मैंने उन्हें बाहर निकाला, एक-एक को करीने से लगा दिया। आलमारी में जगह-ही-जगह बन गई।”

“और मेरी जो किताबें नीचे फर्श पर पड़ी थीं, उनका क्या किया…?”

“काऽहे एतनाऽ अलफ हो रहे हैं…? उन्हें भी आलमारी के निचले खाने में लगा दिया है, जाकर देख लीजिए।”

“कितनी बार कहा है कि मेरी चीजें मत छुआ करो। इधर-उधर हो जाने से मुझे असुविधा होती है। चीजों को ढूंढ़ने-खोजने में समय की बरबादी अलग से होती है। मुझे पता रहता है कि मेरी चीजें, किताबें, कापियां कहां रखी हैं, ऐसे में नाहक खोजबीन में मेरा बहुमूल्य समय बर्बाद होता है। प्लीज मेरे सामान वगैरह जहां हैं, वहीं रहने दिया करो।”

“तो क्या घर में झाड़ू-पोछा भी न करवाऊं…? आपसे कितनी बार कहा कि अपनी इन पुरानी किताबों-मैगजीन्स आदि को ठिकाने लगा दीजिए, लेकिन आपके कानों पर जूं रेंगती ही नहीं। इन्हें कबाड़ी के हाथों बेचने के नाम पर अगिया-बैताल हो, अलबी-तलबी छांटने लगते हैं। ”

“मेरे कमरे को छोड़ कर भी तो ये काम हो सकता है…?”

“अरे वाह! महरिन से हफ्ते में दो दिन, सभी कमरों में झाड़ू-पोछा लगवाने की बात तय हुई है। फिर, झाडू-पोछा करवाऊं या नहीं, पैसे तो वो पूरे ही लेगी न…?”

“ठीक है। मुझे तुम्हारे झाड़ू-पोछे से एतराज नहीं है। बस्स, जब मैं घर में रहा करूं, तभी मेरे कमरे में साफ-सफाई करवाया करो। अब ये क्या सुबह-सुबह छुट्टी के दिन झाड़ू लेकर बैठ गई, देखो तो कितना धूल उड़ रही है…? दो घड़ी चैन से बैठना चाहूं, तो वो भी संभव नहीं।”

“कल रात, तेज अंधड़ में आपके कमरे की खिड़की खुली रह गई थी। दो दिन की सारी साफ-सफाई बेकार हो गई। आप जरा ये अखबार लेकर बाहर धूप में बैठिये, तब-तक मैं इस कमरे में झाड़ू लगा देती हूं।”

“अररे ये देखो, अखबार में क्या छपा है…? ‘ज्यादा साफ-सफाई से मनुष्य, एलर्जी के प्रति संवेदनशील हो जाता है, जो कहीं-न-कहीं उसके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।’ और जो तुम मुझे ज्यादा चाय पीने के लिए रोकती-टोकती हो न! देखो क्या छपा है…? ‘चाय पीने से तन-मन में नई ऊर्जा और ताजगी का संचार होता है।’

“ठीक है तब आप अपने आप ही साफ-सफाई कर लीजिए, मैं भी बाहर धूप में बैठने जा रही हूं। तीन दिन बाद सुनहली धूप खिली है। धूप सेंकने का मन करे तो कुर्सी लेकर आप भी बाहर आ जाइये। और हां, फ्रिज में एक कटोरे में धुल कर अंगूर रखा है, वो भी लेते आइएगा। बड़े आए पढ़वइय्या- लिखवइय्या की दुम, कहीं के…?”

“चलो, आज मैं भी तुम्हारे साथ थोड़ी देर धूप सेंक लेता हूं।”

“फिर, बाहर आ जाइये। मैं कुर्सी लेकर चल रही हूं।”

“वैसे आज, धूप तो बहुत अच्छी निकली है।”

“कल-परसों जब आप टूर पर गए थे, तब धूप नहीं निकली। आज आप घर पर हैं, तो धूप भी बहुत अच्छी खिली है। वैसे भी, जाड़ों में धूप में बैठना, सेहत के लिए बहुत अच्छा होता है।”

“इससे दिल और दिमाग, दोनों दुरूस्त रहते हैं।”

“तब तो आपके लिए ये धूप ज्यादा उपयोगी है…हें-हें-हें।”

“हें-हें-हें…अंगूर तो बहुत मीठे हैं, कहां से खरीदा है…?”

“पता नहीं, आप कहां से अंगूर खरीदते हैं, मीठे निकलते ही नहीं। आपको मीठे अंगूरों की एकदम पहचान नहीं है। आज सुबह ही ठेले पर एक आदमी अंगूर बेचते हुए इधर से निकला था, उसी से पाव-भर खरीदा है।”

“वाकई भई! तुम्हारी पसंद तो लाजवाब है। काफी मीठे अंगूर हैं। मजा आ गया। आधा किलो खरीदना चाहिए था।”

“कल कबाड़ी वाले को कुछ रद्दी पेपर्स आदि बेचा था, उन्हीं पैसों से खरीदा है।”

“अरे! मेरे किसी कागज-पत्तर को रद्दी समझ कर बेच तो नहीं दिया न…?”

“किसकी शामत आई है…?”

“समय मिलता नहीं, काम बहुत ज्यादा है। मैं तो खुद चाहता हूं कि किसी दिन अपनी पुरानी किताबें, मैगजीन्स, डायरियों को छांट कर अलग कर दूं, लेकिन मौका ही नहीं मिल रहा। बड़ी दिक्कत है।”

“ए जी, एक बात कहूं…?”

“हां, कहो।”

“कल दोपहर में मैं आपकी एक पुरानी डायरी पढ़ रही थी। उसमें आपने अपने स्कूली दिनों की किसी लड़़की का जिक्र करते, बल्कि उसी को लक्ष्य करते, दो-तीन कहानियां लिखने की बात कही है। हालांकि एक कहानी में आपने ये बात स्वीकारी भी है कि वो आपकी एक-तरफा मुहब्बत थी। लेकिन जो भी हो, डायरी पढ़ने से ऐसा लगा कि आप उसको चाहते बहुत थे। क्या अभी भी उसके लिए आपके मन में जगह है…?”

“अररे भई! तुम भी कहां की, कब की, किसकी बातें लेकर बैठ गई। वो तो तीसेक साल पुरानी बातें हैं। अब तो वो दो-चार बच्चों की अम्मा भी हो गई होगी। हां…चाहता तो था, पर वो कॉलेज के दिनों की बातें हैं। फिर ऐसा दौर तो लगभग हर व्यक्ति के जीवन में आता होगा। मेरी समझ से ऐसा लगाव शायद…उम्र के तकाजेवश होता हो…? फिर आदमी कब घर-परिवार, दाल-रोटी, जीवन की आपाधापी के चक्कर में पड़ जाता है…? इश्क-विश्क का भूत कब उतर जाता है…? पता ही नहीं चलता।”

“फिर भी, ऐसी पुरसुकून बातें, पुराने दिनों की यादें ताजा हो जाना, अच्छा तो लगता ही है। देखिये न! जिक्र छिड़ते ही, आपका चेहरा भी खिल उठा। चेहरे की रंगत ही बदल गई। मधुरे-मधुरे मुस्किराने लगे। चेहरे पर एकदम से हरियाली छा गई।”

“बेशक, स्कूल-कॉलेज के दोस्त, उन संग बिताए खट्टे-मीठे पल, अलल-बछेड़ों से दिन भी भला कभी भूलते हैं…? अतीत की वो यादें तो गूंंगे के गुड़ के मानिन्द अवर्णनीय हैं। ऐसी बातें किसे अच्छी नहीं लगेंगी…? पर अब तो ये सब बीते दिनों की बातें हैं।”

“आज भी वो लड़की अगर, राह चलते आपको कहीं अचानक बाजार, दफ्तर, ट्रेन या बस में दिख जाए, तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी…?”

“ऐसा खयाल, पहले कभी जेहन में नहीं आया, फिर, अब इस उम्र में ऐसा सोचना ही बकवास लगता है। लोग क्या कहेंगे, और फायदा भी क्या…? वो जहां रहे खुश रहे, यही दुआ है। मैं तो वैसे भी इस बात का पक्षधर हूं कि इन्सान स्नेह चाहे किसी से करे, अन्ततः…प्यार तो पत्नी से ही करेगा न…?”

“इसमें भला क्या शक है! लेकिन, आप तो एकदम्मैऽ इमोशनल हो रहे हैं…? भई! गजब का त्याग, प्यार और झुकाव है, उसके….  प्रति, होंठों से अभी भी उसकी खुशी के लिए स्नेहासिक्त सी…दुआ ही निकल रही है। वैसे इसमें फायदे-नुकसान या लोगों के परवाह जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज किसके पास टाइम है, फटे में टांग अड़ाने की…? बहरहाल…गौरतलब बात तो ये है कि आपके दिल के किसी कोने में अभी भी उसके लिए ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ मौजूद है…?”

“ठीक से कुछ कह नहीं सकता। पर…तुम्हें आज ये क्या सूझी, जो ऐसी दिलफरेब बातें कर रही हो…? तुम्हारा मगज तो ठीक है न…?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मेरा मगज एकदम दुरूस्त है। लेकिन आपके चेहरे पर बारहा आ रही नीलिमा- लालिमा- हरीतिमा आदि बता रही है कि आपको इन बातों में मजा आ रहा है।”

“विषय ही ऐसा छेड़ दिया तुमने। फिर ऐसी बातों में किसे मजा नहीं आएगा…? खैर, ये सब छोड़ो, मेरी जिन्दगी तो खुली किताब के मानिन्द है। अपने और अपनी बीती जिन्दगी के बारे में ढेरों किस्से-कहानियों के माध्यम से तो मैं कुछ-न-कुछ अपनी डायरी में लिखता- जोड़ता- घटाता-बढ़ाता ही रहता हूं, जिन्हें गाहे-बगाहे तुमने पढ़ा-सुना भी है। पर देखा जाय तो आज तुमने मेरा अच्छा-खासा इण्टरव्यू ले लिया। अब ये बताओ कि स्कूल-कॉलेज के दिनों में तुम्हारा किसी से कोई चक्कर-वक्कर था कि नहीं…? या झुट्ठैं, खाली-मूली मेरा इण्टरव्यू लिए जा रही हो…?”

“अरे भाई, मेरा किसी से कोई चक्कर-वक्कर नहीं था। मैं तो बिलकुल सीधी-सादी लड़की थी। मम्मी की कड़ी नजर, मुझ पर हमेशा ही बनी रहती थी। सुबह बस्स, कॉलेज जाना। कॉलेज छूटते ही सीधे घर आना। बाजार जाना होता तो भी मम्मी साथ जातीं।”

“क्या कोई सहेली-वहेली नहीं थी, उसके घर भी तो कभी-कभार आना-जाना होता होगा…? कभी कुछ खेलने, एक्स्ट्रा-क्लॉस, या नोट्स वगैरह मांगने, सिलाई-कढ़ाई, क्रोशिया आदि सीखने-बुनने, किसी सहेली के घर जाना तो होता ही होगा…?”

“लड़कियों के बारे में, काफी सूक्ष्मतम, गहनतम के साथ अधुनातन जानकारी भी रखते हैं आप…? सहेलियां थीं क्यों नहीं! एक तो बिलकुल पड़ोस में ही रहती थी। उसके यहां जाना क्या होता, वो तो अक्सर ही मेरे घर आ जाती। खाली समय में हम-लोग, लूडो, सांप-सीढ़ी या ओक्का- बोक्का खेलते, या वी.सी.आर. पर कोई पिक्चर देखते। इनके अलावा और कोई खेल जानते ही नहीं थे हम-सब। बाकी समय भाई-बहनों के साथ खेलते-पढ़ते ही बीतता।”

“मेरा आशय नैन-मटक्का वाले खेल से था। खैर…ये बताओ, शादी से पहले तुम्हें कितने लड़कों ने देखा था…? ये तो तुम भी जानती हो कि मैंने सिर्फ तुम्हें ही देखा था, और शादी भी तुम्हीं से हो गई।”

“आपने सिर्फ मुझे ही देखा, या आपको दूसरी लड़की देखने का अवसर ही नहीं मिला…?”

“यही समझ लो। तुम्हें देखने के बाद भला, किसी और के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता था…?”

“ऐसी बात तो नहीं है। मुझ में ऐसा क्या है, जो औरों में नहीं था। मैं भी तो बाकियों जैसी ही थी। लेकिन मैंने तो सुना था कि आपको देखने, ज्यादा वरदेखुआ आए ही नहीं तो अम्मा ने ही एक दिन कहा कि…‘बेटा यहीं शादी कर लो, नहीं तो कहीं…वही वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए…‘आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे।”

“तुम्हें, ये सब बातें किसने बताईं…?”

“अम्मा ने, और कौन बतायेगा…?”

“तब तो ठीक ही बताया होगा। टाइम-टाइम की बात है। रूप-लावण्य-माधुर्य में तुम्हारा कोई सानी नहीं था। अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं, बताऊं भी तो क्या…? बस्स ये समझ लो, तुम मेरे लिए बेहद खास रही। हां…मगर तुमने बताया नहीं कि मुझ से पहले तुम्हें और किस-किस ने देखा…? उनसे क्या-क्या बातें हुईं, कुछ बताओ भी…?”

“अब, जब आप इतना जोर दे ही रहे हैं तो बताए देती हूंं। आप से पहले मुझे देखने, तीन लड़के आए थे। एक तो…जब मैं इण्टर में थी, तब देखने आया था। मेरे घर में उस समय कोई शादी-वादी के लिए तैयार नहीं था, लेकिन पापा को जानने वाले एक अंकल जी थे, वे पापा से भी ज्यादा मेरी शादी के लिए परेशान रहते, वही ढूंढ़ कर लाए थे। और दो लड़के तब आए थे, जब मैं ग्रैजुएशन में थी। पर, जब वो मुझे देखने आया तो…उसके साथ क्या-क्या बातें हुईं थीं, अब कुछ ठीक से याद नहीं। काफी पुरानी बातें हैं। मैं भी नादान ही थी, और वो लड़के भी बेवकूफों की तरह ही बतियाते लग रहे थे।”

“उनकी कुछ बातें तो…याद ही होंगी…?”

“पहले ने पूछा था मेरा नाम, किस कक्षा में पढ़ती हैं…? क्या-क्या विषय ले रखा है…? और जिस विद्यालय में पढ़ती थी, उसका नाम भी पूछा था। दूसरा लड़का तो अपने दोस्त के साथ मुझे देखने आया था, और उसका दोस्त बीच-बीच में अपनी जेब से कंघी निकाल कर, पूरे समय अपने बाल ही ठीक करता रहा।”

“दूसरा वाला दिखने में कैसा था…? किसी गाड़ी में आया था, या रिक्शा, टैम्पों में…? उसके साथ और कौन-कौन थे…?”

“बताती हूं। बताती हूं, काहे पोंछियाझार…बगछुट से हो रहे हैं…? वो बांका सजीला नौजवान था। मौके के अनुसार सुरूचिपूर्ण कपड़े भी पहन रखा था। वो लोग एक कार में आए थे। लड़के के साथ उसके मां-बाप, और बुआजी भी थीं। हम भाई-बहनों ने सब से पहले, कार से उतरते उस लड़के को खिड़की से ही देख लिया था।”

“अच्छा! और कुछ बताओ उसके बारे में। कुछ बातें-वातें भी तो की होगी उसने…?”

“बड़ा मजा आ रहा है न…? तो सुनिए। उस लड़के ने चाय पिया, फिर पूछा क्या मैं आपको पसंद हूं…?”

“आप’ लगा कर बात किया था…?”

“अउर नहीं तऽ काऽ…? रेलवे में अच्छी-खासी नौकरी थी उसकी।”

“कद-काठी में कैसा था…?”

“सो-सो’, बहुत बुरा नहीं था। लम्बाई, कुछ-कुछ आपके जैसे ही थी। मुझे देख कर वापस घर जाने के बाद, उसने एक ठो चिट्ठी भी लिखी थी।”

“कहीं एक मासूम सी नाजुक सी लड़की, बहुत खूबसूरत मगर सांवली सी…’  कुछ इसी टाइप की, फिल्मी अंदाज में चिट्ठी लिखी होगी उसने…?”

“जी नहीं, कोई फिल्मी-विल्मी अंदाज में नहीं लिखा था, लेकिन अभी कुछ भी याद नहीं आ रहा कि उसने चिट्ठी में क्या लिखा था…?”

“कितनी बड़ी चिट्ठी थी…? एक पेज की, दो पेज की, या और बड़ी…?”

“अरे, किसी डायरी-वायरी का पन्ना फाड़ कर लिखा था।”

“चिट्ठी किसके नाम लिखी थी उसने…?”

“जाहिर है, मेरे नाम…?”

“जानेमन…सपनों की रानी…मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता…कब होगा हमारा मिलन…चलो भाग चलें’…कुछ ऐसा ही लिखा था न…?”

“बता रही हूं न! जरा याद करने दीजिए…अब ठीक-ठीक कुछ याद नहीं आ रहा…। हां…लेकिन ऐसी ऊल-जलूल बातें…नहीं लिखी थी।”

“वो चिट्ठी कहां है…?”

“अरे, आप तो उस चिट्ठी को लेकर एकदम्म् से सीरियस हो गए…? कुछ-कुछ नर्भसाऽये से भी दिख रहे हैं। उस चिट्ठी को तो घर में सभी छोटे-बड़ों ने भी पढ़ा था। फिर, उसे तो मैंने उसी दम फाड़-फूड़ भी दिया था। लेकिन, आपने ये ऊल-जलूल की भाषा कहां से सीखी…? इतना सब-कुछ आपको कैसे पता है…?”

“एक्चुवली, हमारे खानदान में सभी छोटे-बड़ों को, बिना मांगे भी परामर्श आदि देने की पुरानी आदत है। जाहिर है, उसी समृद्ध परम्परा का वाहक होने के नाते, कुछ असर मुझ पर भी होना लाजिमी था। यार-दोस्त, जब कभी भी पढ़ाई-लिखाई से दीगर मामलात (?) लेकर हमारे सम्मुख हाजिर होते, तो ऐसे दुर्लभ मौंकों पर, आदतन-फितरतन या समझ लो इरादतन… सम्बन्धित पक्ष को हम कुछ ऐसी ही चिट्ठियां लिखने का सुझाव दे डालते। प्रकारान्तर से शनैः-शनैः…जानकारी में भी इजाफा होता चला गया।”

“जिससे, कालांतर में आप, लिखने-पढ़ने भी लगे…?”

“जाहिर है। खैर…छोड़ो। ये बताओ, वो चिट्ठी लिखने वाला लड़का अगर आज तुम्हें कहीं भूले-भटके मिल जाण्, तो तुम्हारा रेस्पॉन्स क्या होगा…?”

“किसके प्रति…?”

“जाहिर है, उस लड़के के प्रति…?”

“मुझे तो अब ठीक से उसका चेहरा भी याद नहीं। उस लड़के से लगभग पन्द्रह-बीस मिनट की मुलाकात में एक-दो बार ही निगाह मिली होगी। ऐसे में भला कहां उसकी सूरत याद रहेगी…?”

“अगर ईमानदारी से पूछूं तो, जितने भी लड़के शादी से पहले तुम्हें देखने आए थे, उनमें कोई तो ऐसा होगा, जो तुम्हें बेहद पसंद होगा…? क्या उनमें मैं भी कहीं था…?”

“अगर ईमानदारी की बात कहूं, तो उस समय पसंदगी-नापसंदगी जैसी कोई बात, मेरे जेहन में थी ही नहीं।”

“और, मुझ से मुलाकात के बाद…?”

“तब तक तो मैं काफी समझदार हो गई थी। अपना अच्छा-बुरा सोचने-समझने की क्षमता भी मुझमें आ गई थी।”

“ये बातें तुम मुझे खुश्श करने वास्ते कह रही हो न…?”

“जाहिर है, चिढ़ाने के लिए तो नहीं ही कह रही होऊंगी…? सीरियसली कह रही होऊंगी…? फिर मजाक तो आपको वैसे भी नहीं पसंद है…?”

“तुम्हें पता है! शादी है ही विपरीत धु्रवों का मिलन। ‘एक आदमी, जो खिड़कियां खोल कर सोने का आदी हो, एक औरत, जो खिड़कियां बंद करके सोने की आदी हो, शादी के बाद उन्हें एक ही छत के नीचे सोना पड़ता है।”

“हां, मालूम है। ‘जॉर्ज बर्नाड शॉ’ के विचार हैं ये।”

“जॉर्ज बर्नाड शॉ’ से अच्छा याद आया, अभी हाल ही में पढ़ा है। उन्होंने ‘द मैन एण्ड द सुपरमैन’ में लिखा है…‘नारियां हमें खतरे में देख कर कांपने लग जाती हैं। हमारे मर जाने पर रोती हैं, लेकिन वे आंसू वस्तुतः हमारे लिए नहीं होते। परिवार के मुखिया के रूप में हमारे मर जाने से वे अपने और आश्रितों की रोटी छिन जाने की वजह से रोती हैं।’ इस कथन से तुम कहां तक सहमत हो…?”

“क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि बात की दिशा किसी और तरफ जा रही है…?”

“चलो, खैर…छोड़ो…।”

“नहीं, कुछ और भी जानकारी यदि ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ के बारे में चाहिए, तो लगे हाथ वो भी पूछ लीजिए…?”

“अरे भई, नाराज क्यूं होती हो, मैंने तो बस्स, तुम्हारी बात पर…यूं ही बात छेड़ दी थी।”

“पर इतना तो पक्का है। मेरे अंदर उन लड़कों के प्रति, कोई ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ न तब था, न अब है।”

“बेचारे लड़के! तुम भी न, बड़ी जालिम हो।”

“लेकिन, उनके मन में मेरे लिए ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ होगा या नहीं, कह नहीं सकती…?”

“अब तुम अपने मन में ये जालिमाना खयाल लाकर, मुझ पर जुल्म तो न करो…?”

“उन लड़कों के बारे में जानने की इच्छा तो आपने ही व्यक्त की थी, फिर, अब क्यूं जलन हो रही है…?”

“मुझे क्यूं जलन होने लगी…? फिर, तुम्हें भी तो अब पति-बच्चों-परिवार संग व्यस्तता में कहां फुर्सत होगी, उन लड़कों के बारे में वाहियात बातें सोचने की।”

“पर कुछ भी हो, ऐसी बातें वाहियात तो नहीं ही हैं। पड़ोसियों, रिश्तेदारों संग मीन-मेख, शिकवा- शिकायतें, सास- ननद की लगाई-बुझाई आदि बतियाने के बजाय, ऐसे विषयों पर घंटों चर्चा करना, दिल को सुकून देने वाला तो होता ही है। बशर्ते कि ऐसी खुशनुमा, सुनहली धूप खिली हो, और हम फुर्सत हों, जो कि आज के दौर में बमुश्किलन ही नसीब होता है।”

“देखा जाय तो…लड़कियां, वक्त के साथ खुद को एडजस्ट कर ही लेती हैं।”

“सो तो है ही, पर मैं इन अंतःसलिला बातों को लेकर, न किसी तरह की प्रश्नाकुलता से भरी हूं, न खुद को प्रश्नांकित करती ही चलती हूं। आपको भी देश- काल- स्थिति- परिस्थिति अनुसार ही, समझना- चलना- सोचना चाहिए। किसी तरह के असुरक्षाबोध से बचते, कम-अज-कम अंतःकरण की आवाज, अवश्य सुननी चाहिए।”

“तुम्हें ये कभी-कभी क्या हो जाता है…? बाजदफे, अतिव्यंजनायुक्त, वाग्विदग्धतापूर्ण और शुद्ध साहित्यिक भाषा-शैली में बतियाने लगती हो…? रूपविधान और विषयवस्तु का ऐसा मणिकांचन संयोग विरले लोगों में ही देखने को मिलता है। बाजमौके…तुममें किस कर, यूंं परकाया-प्रवेश हो जाता है…?”

“आपके ऐसे सवालों में मुझे तो व्यंजना कम, लक्षणा और अभिधा ज्यादा दिख रहे हैं।”

“अरे भई, अब बस्स करो। तुम्हारी ये गुंजलक बातें कभी-कभी मेरी समझ से परे होने लगती हैं। मुझे पता है, ग्रैजुएशन में तुम्हारा भी एक सब्जेक्ट, हिन्दी साहित्य था।”

“आखिर, एक अंखुआते हुए साहित्यकार की बीवी होने के नाते, मुझ पर कुछ तो असर होगा ही।”

“खैर छोड़ो, आज जब घर पर हूं, तो सोचता हूं, कुछ जरूरी काम-काज ही निबटा लूं।”

“आपको तो, हमेशा अपने मतलब का ही काम-काज सूझता है। छुट्टी से याद आया। देखिए, सीढ़ियों पर कितनी धूल जमा है…? रेलिंग्स भी गंदी हो रही हैं। घुटनों में दर्द के कारण, अब मुझे सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत होती है। सीढ़ियों और रेलिंग्स की साफ-सफाई आज आप ही कर दीजिए, मैं पानी और कपड़ा लेकर आती हूं।”

“अरे भई, छुट्टी का मतलब सिर्फ छुट्टी होता है। काम-वाम नहीं।”

“और हम लोगों की भी कोई छुट्टी होती है कि नहीं…?”

“जाहिर है, ये सवाल, सिर्फ सवाल के लिए किया गया सवाल होगा, किसी जवाब के लिए नहीं होगा…?”

“अच्छा! अब अपनी बारी आई, तो कुबोल बतियाते, बहंटियाने लगे। जनाब…मेरा ये सवाल, जवाब की दरकार के लिए ही था। ये रहा बाल्टी में पानी, और पोछे वाला कपड़ा। अब फौरन-से-पेशतर शुरू हो जाइये।”

“कहां से शुरू करूं…?”

“जियादा मत बतियाइये…छत वाली सीढ़ी से शुरू कीजिए, और कहां से…? पता नहीं दफ्तर में क्या काम-काज करते होंगे…? इतनी छोटी सी बात भी नहीं समझ पाते…?”

“वहां, समझाने वाले तुम्हारे जैसे नहीं होते न..?”

“अच्छा, अब ये अखबार मुझे दीजिए, और शुरू हो जाइये। सुबह से ही अखबार में पता नहीं क्या-क्या चाट रहे हैं…? जबकि मैं अभी तक हेडलाइन्स भी नहीं देख पाई हूं।”

“अरे हां! मैं तो बताना ही भूल गया…देखो ये खबर तुम्हारे मतलब की है। ये हेडिंग पढ़ो…‘सम्बंधों में कैसे मधुरता लायें…?”

“लाइये, अखबार इधर दीजिए, मैं खुद पढ़ लूंगी। अब इस उम्र में सम्बंधों में मधुरता लाने की कोशिश में, बिलावजह…कहीं  शुगर-लेबल ही न बढ़ जाए…? आप तो बस्स, ये बाल्टी उठाइये, और काम पर लग जाइये।”

“तुम भी न! किस कदर निर्दयी-कठकरेजी-पथरकरेजी हो, ये कोई मुझ से आकर पूछे…? लेकिन…मुझे तो दो दिन के टूर के बाद थकान सी लग रही है, और नींद भी आ रही है।”

“अरे, आपसे आज जरा घर का काम करने के लिए क्या कह दिया, आप तो ऐसे हिम्मत हार बैठे, जैसे धनुष-यज्ञ में आए राजागण, धनुष न उठा पाने पर, थक-हार कर अपने आसन पर जा बैठे थे। ‘श्रीहत भए हारि हिय राजा। बैठे निजि निज जाइ समाजा।’…अब उधर किचन की तरफ कहां चले…?”

“अरे भई, काम-काज से पहले, तन-मन में फुर्ती जगाने वास्ते, अदरक- कालीमिर्च- इलायची वाली एक ठो कड़क चाऽह तो पीना ही पड़ेगा न…?”

“अच्छा, जब बना ही रहे हैं तो एक कप और बढ़ा लीजिएगा, मेरे लिए भी…।”

“जो हुक्म मेरे आका…!”

“और सुनिए, वहीं किचन में मेरी थॉयरायड वाली दवा है, वो भी लेते आइयेगा। आपसे गुल-गपाड़ा बतियाने के चक्कर में सुबह, दवा खाना ही भूल गई…हें-हें-हें।”

“और, मैं भी तुम्हारे इस ‘सॉफ्ट-कॉर्नर’ के घनचक्कर में आज अपनी बी.पी. की दवा लेना भूल गया…हें-हें-हें।”

 

      -रामनगीना मौर्य

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