धर्म और राष्ट्र चेतना की ललकार आर्य समाज

सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का यदि गहराई से अध्ययन करें तो यह ऐतिहासिक बात स्पष्ट होती है कि, यह राष्ट्रव्यापी सशस्त्र संघर्ष़़, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक राष्ट्र के रूप में संगठित रूप से हुई भारत की हुंकार थी। अंग्रेजों ने अपनी कुटिल राजनीति से इस संघर्ष को दबा दिया था। राजनीतिक तथा सैनिक के रूप में भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भले ही पराजित हो गए थे; परंतु यह प्रयास स्वतंत्रता आंदोलन में एक सामाजिक-राजनीतिक विस्फोट के साथ आगे 1947 तक निरंतर धधकता रहा।

ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ भारत में धर्म परिवर्तन की अंधड़ से भारतीय जीवन मूल्य समाप्त होने का संकट निर्माण हुआ था। 1857 के  स्वतंत्रता संग्राम के बाद अनेक सामाजिक नेताओं एवं संतों ने राष्ट्र एवं समाज जागरण की चेतना पूरे देश में फिर से जगाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रिटिश साम्राज्य और ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव को रोकने के साथ-साथ हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए एक शक्तिशाली संगठन तैयार करना यह भी इसके पीछे एक मुख्य उद्देश्य था। इसी उद्देश्य से देश-धर्म-संस्कृति बचाओ आंदोलन देशव्यापी बनाने का प्रयत्न भी प्रारंभ हो गया। इस संघर्ष में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ ने इस राष्ट्रधर्म जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आर्य समाज के धार्मिक, सामाजिक आंदोलनों ने उत्तर और मध्य भारत में ब्रिटिश सरकार के हिंदू विरोधी एजेंड़े को चौपट कर दिया। इस ऐतिहासिक तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि 1857 के बाद अंग्रेजों के विरुद्ध चले सशस्त्र एवं अहिंसक दोनों तरह के स्वतत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद सरस्वती का अभूतपूर्व योगदान था। भारतीय समाज में कुरीतियों के माहौल में परिवर्तन लाकर वे सामाजिक सुधारों के प्रेरणा स्थान बने। उन्होने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुटनीतियों को हिंदू समाज से दूर करने और विधवा विवाह एवं महिला शिक्षा के प्रसार में कार्य किया। स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार देश, राष्ट्र एवं समाज की उन्नति देश के आध्यात्मिक और सामाजिक उत्थान में ही है। 1857 के बाद का इतिहास साक्षी है कि आर्य समाज द्वारा आरंभ किए गए विभिन्न सामाजिक सुधारों, शुद्धि आंदोलनों, साम्राज्यवाद के विरोध में गतिविधियों से अनेक स्वतंत्रता सेनानी और सेनानायक उत्पन्न हुए, जिन्होंने ब्रिटिश शासन को भारत से उखाड़ फेंकने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, शहीद सरदार भगत सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे कई राष्ट्र नेता आर्य समाज से जुड़े थे। व्यक्ति के सामने तीन परिस्थितियां होती हैं- समाज, राज्य और धर्म। हिंदुस्तान शतकों सेे पराधीन था। इस पराधीनता के कारण सामाजिक और राष्ट्रीय परिवर्तन ने गति नहीं ली थी। परदेसी सत्ता जब आती है, तो वह केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का ही हरण नहीं करती; आपके विश्वासों को भी तोड़ना चाहती है। इस्लामी और ब्रिटिश शासकों ने भारतीय मानस को भी इसी प्रकार से शासित करने का प्रयत्न किया। सबल मनुष्य से निर्बल मनुष्य की उपेक्षा हो रही थी। भारतीय परंपरा से जुड़े कर्मकांड और सद्गुणों का आकर्षण जैसे मिटता जा रहा था। ईसाइयत का सेवा भाव भारतीय जनता को धर्मांतरण के लिए प्रवृत्त कर रहा था। धर्म का स्वरूप विकृत हो रहा था। समाज की चेतना कुंद हो रही थी। धर्म पर विकृति आने लगी थी। इस स्थिति में आर्य समाज ने समाज और राष्ट्र के हित में अपना कार्य प्रारंभ किया। धर्म आराधना समाज के लिए बाधक ना बने इसलिए धर्म और सामाजिकता की मर्यादाओं के बीच रेखा खींचनी अत्यंत आवश्यक बात थी। आर्य समाज के कार्य के कारण हिंदू धर्म की मौलिकता विकृत होने से बच गई और सामाजिक चेतना पर कोई  गलत आवरण नहीं चढ़ सका।

प्रस्तुत ‘आर्य समाज विचार दर्शन’ विशेषांक आर्य समाज के माध्यम से देश में हुए राष्ट्र, समाज, शिक्षा, महिला विकास के कार्यों का आईना है। आर्य समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य की संक्षिप्त और स्पष्ट झलक प्रस्तुत करने का प्रयास हमने किया है। विशेषांक के द्वारा आर्य समाज के निर्माण की तत्कालीन आवश्यकता, सामाजिक राष्ट्रीय कार्य का दर्शन, आर्य समाज की  रीति- नीतियों, सिद्धांतों और विचारों का परिचय आदि के साथ आर्य समाज का राजनीति, शिक्षा, सामाजिक, कला, साहित्य आदि क्षेत्रों में जो महत्वपूर्ण योगदान अब तक रहा है इत्यादि की जानकारी इस विशेषांक के माध्यम से हम पाठकों को दे रहे हैं। यह पठनीय, प्रेरक  सामग्री आर्य समाज के कार्य संदर्भ में उचित जानकारी देने वाली सिद्ध होगी। परंतु आर्य समाज का भूतकाल का वैभव, आज ऐतिहासिक संदर्भ बन गया है। वर्तमान समाज में भी चिंता के अनेक विषय हैं। ऐसे समय में आर्य समाज को वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों में परिवर्तन लाने के लिए पुनः जागृत होना अत्यंत आवश्यक है। आर्य समाज को देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं में परिवर्तन लाकर फिर से अपनी वैभवशाली परंपरा को कायम करना होगा, जो देश के हित में उपयोगी सिद्ध होगा। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ ‘हिंदी विवेक’ मासिक पत्रिका यह ‘आर्य समाज विचार दर्शन विशेषांक’ हमारे देश भर के पाठकों के हाथों में सौंप रही है।

 

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