स्थापना तथा उपलब्धियां

आर्य समाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म की शिक्षाओं का और उसमें निहित धार्मिक शैली का, जिसमें मनुष्यों सहित पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों के लिए स्थान है और पृथ्वी को सुंदर बनाए रखने की प्रेरणा है, संसार व्यापी प्रचार हो, प्रसार हो यही कामना है।

आर्य समाज श्रेष्ठ व्यक्तियों का समाज है। आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ, धर्म परायण, सदाचारी एवं कर्तव्य निष्ठ। “आर्य” शब्द किसी नस्ल या जाति का बोधक नहीं है और ना ही किसी देश विशेष के व्यक्तियों के लिए ही इसका प्रयोग होता है। किसी भी देश में किसी भी वर्ग में स्त्री पुरुष आर्य हो सकते हैं। आर्य समाज का अर्थ है श्रेष्ठ व्यक्तियों का समाज।

स्थापना

वैदिक धर्म के पुनरुद्धार, प्रचार और वैदिक संस्कृति के प्रचार के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने चैत्र सुदी 1 संवत 1931 तदनुसार 7 अप्रैल, 1875 के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। दूसरे शब्दों में एक भव्य प्रकाश स्तंभ स्थापित किया गया था। वैदिक धर्म प्रचारक संगठन की नींव रखी गई थी। सुधार का कल्पतरू आरोपित एवं आर्य जाति में नूतन जीवन जागृति उत्पन्न करने का अमोघ साधन उपस्थित किया गया था। उसी दिन आर्य मान-मर्यादा एवं आर्य गौरव-गरिमा की रक्षार्थ एक सेवक संघ संगठित हुआ। जन-साधारण को सच्चे धर्म का दिग्दर्शन कराने के निमित्त गंगा का स्रोत खुला और दीन-दुखियों की सेवा सहायता के लिए सेवा समिति उपस्थित की गई। महर्षि ने किसी नए मत व सम्प्रदाय की स्थापना नहीं की थी।

आर्य समाज ही नाम क्यो?

आर्य समाज के नाम के विषय में स्पष्टीकरण करते हुए श्री स्वामी दयानंदजी महाराज ने ता. 1 अप्रैल सन् 1878 ई. को दानापुर को एक पत्र लिखा जिसमें श्री महाराज के निम्न लिखित शब्द देखने योग्य हैं:

“आपकी इच्छानुसार कल 31 मार्च 1878 को 2 छपे हुए पत्र (आर्य समाज के 10 मुख्य उद्देश्य) भेज चुके हैं। रसीद शीघ्र भेज दीजिए और इन नियमों को ठीक-ठीक समझ कर वेद की आज्ञानुसार सबके हित में प्रवृत्त होना चाहिए। विशेषकर अपने आर्यावर्त देश को सुधारने में अत्यंत श्रद्धा, प्रेम और भक्ति सबके परस्पर सुख के अर्थ तथा उनके क्लेशों को मिटाने में सत व्यवहार और उत्कठता के साथ अपने शरीर के सुख दु:खों के समान जान कर सर्वदा यत्न और उपाय करने चाहिए। क्योंकि इस देश से विद्या और सुख सारे भूगोल में फैला है। हिन्दू मत सभा के स्थान में आर्य समाज नाम रखना चाहिए। क्योंकि आर्य नाम हमारा और आर्यावर्त नाम हमारे देश का, सनातन वेदोवत है।”

 

आर्य समाज का ध्येय

आर्य समाज का मुख्य ध्येय विश्व भर को आर्य बनाना, सम्पूर्ण मानव जाति का उपकार करना अर्थात लोगों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना है। इस आंदोलन ने, जो विश्व आंदोलन का रूप लिए हुए है, नया प्रकाश दिया और अग्नि शिखा के सद़ृश अविद्या, अंधभक्ति और अंधविश्वासों को दूर एवं भस्मसात किया, जो समाज की जीवन शक्ति को आत्मसात करके उसका घिनौना रूप प्रस्तुत कर रहे थे। इसने नए सिरे से धर्म की ओर ईश्वरीय ज्ञान की बुनियाद डाली। इसने धार्मिक विचारधारा में क्रांति उत्पन्न करके इसे वैदिक स्वरूप प्रदान किया। इसने धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में सुधार की गंगा बहाई और लोग सुधार की भाषा में सोचने और बोलने लगे। इसी ने समाज को मुख्यत: हिन्दू समाज को भले व्यक्तियों के रहने के योग्य बनाया। इसने लोगों की बुद्धि पर शताब्दियों से लगी जंग को और धार्मिक ज्ञान एवं श्रद्धा पर छाये अंधकार को हटाया जिसके कारण लोग पतनकारिणी प्रथाओं और रूढ़ियों के दास बने हुए थे।

आर्य समाज के नियम

महर्षि दयानंद का द़ृष्टिकोण बड़ा विशाल और दूरगामी था। उन्होंने आर्य समाज के जो नियम निर्धारित किए वे पूर्ण एवं सार्वभौम हैं जो आर्य समाज का चार्टर कहे जाते हैं। ये नियम इस प्रकार हैं:-

1) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।

2) ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करना योग्य है।

3) वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

4) सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

5) सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

6) संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

7) सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मांनुसार यथायोग्य बर्ताव करना चाहिए।

8) अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।

9) प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिए किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।

10) सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें।

स्पष्ट है कि इन नियमों की प्रवृत्ति सार्वभौम है और आर्य समाज की आधारशिला वेद है। ये नियम हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू के लिए कल्याणकारक हैं। इनसे यह भी स्पष्ट है कि आर्य समाज धार्मिक और आस्तिक समाज है। इस रूप में नहीं कि यह एकमात्र प्रार्थना, उपासना और सिद्धांतों तक ही सीमित है अपितु यह वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय, लौकिक एवं पारलौकिक उत्थान की योजना से समाविष्ट है। यह अपने कार्यकलाप में उच्च और श्रेष्ठ उद्देश्यों को सामने रखता है। इसमें विश्वव्यापी आंदोलन बनने की अपनी शक्ति और क्षमता है। इन नियमों से इसके सिद्धांत भी स्पष्ट हो जाते हैं।

आर्य समाज के पहले दो नियम इस बात के सूचक हैं कि आर्य समाज धार्मिक, आस्तिक और एकेश्वरवादी समाज है। ईश्वर का अवतार नहीं हो सकता और न उसकी मूर्ति ही बनाई जा सकती है।

ईश्वर, जीव और प्रकृति नित्य सत्ताएं हैं, जो पृथक-पृथक हैं। तीसरे नियम से यह भी स्पष्ट है कि वेद ही उसका सर्वमान्य धर्म ग्रंथ है अर्थात आर्यों के प्राचीन धर्म ग्रंथों के साथ इसका सैद्धांतिक सम्बंध है। पांचवें नियम में न केवल सत्यनिष्ठा पर बल ही दिया गया है अपितु सत्य की खोज आवश्यक ठहराई गई है। सदस्यों को यह आदेश दिया गया है कि वे जीवन पर्यंत सत्य के अन्वेषी बने रहें और जब कभी यह ज्ञात हो कि वे असत्य का अनुसरण करते रहे हैं तो उन्हें उसका परित्याग करने के लिए उद्यत रहना चाहिए। शेष 5 नियमों में मानव के कर्तव्यों का विधान किया गया है जो उसके अन्यों के प्रति होते हैं।

आर्य समाज का आस्तिकवाद उस प्रभु के चहुंओर गतिमान रहता है जो चेतन है, ज्ञानमय है, आनंद का भंडार है, निराकार है। दयालुता, न्याय परायणता, सत्य परायणता, सत्यता और परोपकार आदि अलौकिक गुणों से परिपूर्ण है। उसके गुणों को जीवन में धारण करना, व्यवहार में लाना और परहित में निष्काम भाव से नित रहना प्रभु भक्ति कही जाती है। आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य से आशा की जाती है कि वह इन गुणों को चरितार्थ करते हुए अपने आचरण से ईश्वर के अस्तित्व और उसके महत्व को प्रतिपादित करें। आर्य समाज का प्रभु अभाव से सृष्टि की रचना नहीं करता। जो कार्य व व्यवहार प्रभु के नियमों के अनुसार हो, सृष्टि के नियमों के विरुद्ध न हो वह धर्म कहलाता है अर्थात पक्षपात एवं द्वेष रहित सत्य और न्याय का आचरण धर्म माना जाता है। धर्म के ये दश लक्षणों अर्थात द्यृति, क्षमा, दम, अस्तेय, बुद्धि, सत्य, अक्रोध, शुद्धि, इन्द्रियनिग्रह, विद्या को आर्य समाज धर्म की परिभाषा स्वीकार करता है।

मानव अल्पज्ञ है। एक मात्र परमात्मा ही सर्वज्ञ है। मानव को जहां विचार और कर्म की स्वतंत्रता दी गई है, वहां अल्पज्ञता जनित भूलों और निर्णयों के बचाव व परिमार्जन के लिए उसे ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आश्रित रहने का भी परामर्श दिया गया है। इसीलिए सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करके विद्या का प्रकाश अविद्या का नाश करना आवश्यक ठहराया गया है। धर्म के निरूपण की विधि देव, स्मृतियां (वेदानुकूल) के आदेश उपदेश, सत्पुरुषों का आचरण और अपनी पवित्र अंतरात्मा की आवाज निर्धारित की गई है।

आर्य समाज के आवश्यक सिद्धांत

  1. वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। अन्य ग्रंथ वेदानुकूल होने से प्रमाण कोटि में आ सकते हैं। आर्य समाज सायण आदि के वेदभाष्य को मान्यता नहीं देता अपितु महर्षि दयानंदकृत वेदभाष्य को मान्यता देता है।
  2. ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, न्यायकारी, दयालु आदि गुण युक्त तथा प्रत्येक कल्प में वेद द्वारा ज्ञान का प्रसारक एवं मानव मात्र का उपास्य देव है। निराकार पूर्ण ब्रह्म के स्थान में जड़ प्रकृति एवं ज्ञान रहित मूर्तियों की पूजा त्याज्य तथा वेद विरुद्ध है।
  3. जीवित माता-पिता की सेवा में तत्पर रहना धर्म है और मृत पितरों के नाम पर श्राद्ध करना मूर्खता तथा वेद विरुद्ध है।
  4. ईश्वर, जीव, प्रकृति तीनों पृथक-पृथक नित्य पदार्थ हैं। सृष्टि भी प्रवाह से नित्य एवं अनादि है। सृष्टि की उत्पत्ति का ईश्वर निमित्त कारण और जीवात्मा साधारण कारण हैं। अद्वैतवाद का सिद्धांत गलत है।
  5. वर्ण व्यवस्था गुण, कर्म, स्वभाव से यथा शूद्र विद्या पढ़ कर ब्राह्मणोचित गुण कर्म स्वभाव अपना कर ब्राह्मण बन सकता है और विद्याहीन ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जन्म से न कोई ब्राह्मण होता है और न शूद्र। वैयक्तिक विकास के लिए आश्रम व्यवस्था आवश्यक है।
  6. ईश्वर का अवतार नहीं होता।
  7. जलों में तीर्थ मानना धर्म विरुद्ध है। सत्य का आचरण इन्द्रियनिग्रह, परोपकार, दया आदि ही सच्चे तीर्थ हैं।
  8. प्रारब्ध पुरुषार्थ का ही फल है। अत: पुरुषार्थ अत्यंत आवश्यक है।
  9. जीव कर्म करने में स्वतंत्र परन्तु फल भोगने में परतंत्र है। बुरे कर्म का फल कष्ट, अच्छे कर्म का फल सुख होता है।
  10. मुक्ति अपने ही पुरुषार्थ से प्राप्त होती है, बनावटी गुरुओं, स्वामियों तथा बिचौलियों के माध्यम से नहीं।
  11. तमाम प्राणी एक ही प्रभु की संतान हैं। परमात्मा का आदेश है कि एक दूसरे को वैसे ही प्यार करो जैसे गऊ अपने नवजात बछड़े को करती है।
  12. गौवंश की रक्षा तथा वृद्धि एवं भूल से जो भाई विधर्मी बन गए हैं या बनते हैं उनको पुन: शुद्ध करना राष्ट्र तथा जाति की सेवा है।

आर्य समाज का स्वरूप

आर्य समाज का सब से महत्वपूर्ण एवं सुविख्यात स्वरूप बताना अभीष्ट हो तो कहना होगा कि यह उस धर्म का प्रचार करता है जो यद्यपि भावनाओं और विषय की द़ृष्टि से पुराना है तथापि युग की भावना के अनुरूप है। यह धर्म (वैदिक धर्म) आड़म्बरपूर्ण ईश्वर पूजा का पृष्ठपोषक नहीं है। अन्य विश्वासों से परिपूर्ण पतनकारी विज्ञान विहीन धार्मिक अनुष्ठानों से भी इसका कोई सरोकार नहीं है। यह चमत्कारों और रहस्यवाद में आस्था रखने के सर्वथा विरुद्ध है। वैदिक धर्म जीवन की एकदम उत्कृष्ट प्रणाली है। यह धर्म बुद्धि प्रधान और वर्तमान युग के ईश्वर विरोधी भोगवाद के तर्कों का वेदों की आस्तिक विचारधारा के माध्यम से सफलता पूर्वक सामना करता है। अपने सदस्यों में सदाचार की भावना कूट-कूट कर भरता है और सब से बढ़ कर 19वीं, 20वीं और 21वीं शती के व्यस्त जीवन तथा अति शांत, धार्मिक एवं कर्मकाण्ड़ के जीवन में समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है। आज भारत में और भारत से बाहर भोगवाद और राजनीतिक नास्तिकता का बोलबाला है, जिसके कारण धर्म के प्रति लोगों की अनास्था व्याप्त है। आर्य समाज उस स्थिति को अच्छा नहीं समझता। साथ ही जनसमूह की स्वाभाविक प्रवृत्ति नास्तिकता विरोधी है। आर्य समाज चाहता है कि प्रत्येक कार्य परमात्मा के नियम और उसकी व्यवस्था के अनुकूल हो।

आर्य समाज आध्यात्मिक विशेषताओं, शांतिवाद, शाकाहार और विश्व गवर्नमेंट पर आश्रित समाज व्यवस्था का प्रतिपादन करता है तथा अर्थ और काम के धर्मपूर्वक उपार्जन व संयत उपभोग से मानव बना कर उसे अंतिम ध्येय मोक्ष प्राप्ति में समर्थ बनाता है।

आर्य समाज का संघटन

आर्य समाज पर न गुरू का आधिपत्य है और न तानाशाही का, जिसमें विचार और कर्म की स्वतंत्रता जाती रहती है और व्यक्तित्व का दमन हो जाता है। महर्षि दयानंद ने दूरदर्शिता से काम लेकर आर्य समाज के संगठन को प्रजासत्तात्मक रूप दिया और इसके द्वार प्रत्येक के लिए खुले रख कर आर्य समाज के प्रबंध में ज्ञानवान सदाचारी दुनियादार लोगों का हाथ रखा। आर्य समाज ने ही आधुनिक काल में भारत को सार्वजनिक जीवन प्रदान किया और उसका मापदंड़ नैतिकता निर्दिष्ट किया है। आर्य समाज का संघटन नीचे से ऊपर को जाता है। वही इसकी स्थिति की गारंटी है। इस समय देश-विदेश में 4000 से ऊपर आर्य समाज हैं।

22 प्रांतीय सभाएं और सब से ऊपर सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा है। आर्य समाज का संगठन देश-विदेश के नेताओं और महापुरुषों की प्रशंसा का एवं स्पर्धा का विषय रहा है।

 

This Post Has One Comment

  1. VINOD DHANJI VELANI

    बहोत बड़ा उमदा कार्य कर रहे हो ।

Leave a Reply